सोमवार, 29 दिसंबर 2008

युद्धोन्माद के बीच .........

पिछले कई दिनों से टेलीविजन चैनल्स में दहाड़ते , गरजते , नये नकोर लड़के लड़कियों के वश में होता तो अब तक भारत पाक युद्ध का लाइव टेलीकास्ट शुरू हो चुका होता और लहूलुहान जिस्मों के बीचोबीच खड़े होकर ये सभी अतीत में हो चुके युद्धों और भविष्य में होने वाले युद्धों की तुलनात्मक आकंडेबाज़ी कर रहे होते ! और ये दावा भी कि इतनी लाशों के ढेर पर सबसे पहले पहुँचने वाला चैनल इनका है ! समझ में नहीं आता कि विदेश नीति जैसे संवेदनशील मुद्दे पर , आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा के मुद्दे पर , जिम्मेदार मंत्रियों और अधिकारियों के नपे तुले और संतुलित बयानों की अतिशयोक्ति पूर्ण व्याख्या का अधिकार इन्हे किसने दिया है और ऐसा करके ये देश का भला किस प्रकार कर रहे हैं ?
अपने आप अदालत बन जाना /अपने आप जाँच एजेंसी बन जाना / अपने आप निर्णय सुनाने लग जाना ? आखिर इनका कोई माई बाप है भी कि नहीं जो इनकी जिम्मेदारियां तय कर सके ? ये लोग आखिर किसके प्रति जबाबदेह हैं ? इन्हे देश के संवेदनशील मामलों में अनावश्यक बयान बाजी करने की छूट किसने दी है ? कई बार तो ये लोग प्रधान मंत्री / रक्षा मंत्री /विदेश मंत्री के मुंह में अपने शब्द ठूंसने का प्रयास करते दिखाई दे जाते हैं !
कई बार तो ऐसा भी लगता है कि ये लोग बहस बहस में गोलियाँ/ गोलों की बौछार न कर बैठें और ये भी कि सबसे पहला चैनल / सबसे पहला संवाददाता होने के चक्कर में कुछ गड़बड़ ना कर बैठें !
अगर आप गौर से देखें तो विवादास्पद नेताओं /मुद्दों /और अतिवादियों को ग्लेमराइज्ड तथा चमकदार तरीके से प्रस्तुत करने में इन रणबांकुरों को सबसे आगे पायेंगे ! घटिया से घटिया ,विवादास्पद से विवादास्पद मुद्दों पर चौबीस घंटे की जुगाली और चिल्लाते हुए इनके गले खुश्क नहीं होते ! हमारे लोकतंत्र के इन गैरजिम्मेदार युवाओं को अनुशासित कौन करेगा ?
किंतु एक प्रश्न और है ?
कहीं चैनल्स की व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा हमारे युवाओं के मनोमस्तिष्क पर अवांछित कब्जा करके उनकी मौलिक प्रतिभा को लील तो नहीं रही है ?
फिलहाल इन युवाओं के लिये , मशहूर शायर / दार्शनिक , मिर्जा ग़ालिब की चंद पंक्तियाँ नज़्र कर रहे हैं !
'ना था कुछ तो खुदा था , ना कुछ होता तो खुदा होता '
' डुबोया मुझको होने ने , ना होता मैं तो क्या होता '
' हुआ जब ग़म से यूं बेहिस ,तो ग़म क्या सर के कटने का '
' ना होता ग़र जुदा तन से , तो जानों पर धरा होता ''
'हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया ,पर याद आता है '
'वो हर इक बात पे कहना ,के यूं होता तो क्या होता '
"आओ आत्मालोचन करें"