मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

मेरी जां ......

आज सुबह सुबह अचानक जेहन में स्वर्गीय आर.डी. बर्मन साहब की आवाज गूँज गई ! वो संगीतकार बहुत कमाल के थे मगर शायद उन्हें गाना गाने से परहेज़ करना चाहिए था क्योंकि उनकी आवाज गायकी के लिए सहज आवाज नहीं थी ! वैसे हमारा मकसद ( स्वर्गीय बर्मन के बहाने से ) सुर और ताल पर कोई लेख लिखना तो कतई भी नहीं है क्योंकि हम इस क्षेत्र के अनपढ़ /अकुशल श्रोता मात्र हैं और यह शोभा नहीं देता कि हम अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करें !
इसीलिए विषयांतर से पहले हम मूल मुद्दे पर वापस आते हैं ! ....हम कह रहे थे कि हमें एक गाना अचानक याद आया ! गाने के बोल कुछ यूँ थे कि ...... "मेरी जां मैंने कहा .....मेरी जां तूने सुना" .....! ये गाना हमें हूबहू वैसा ही याद आया जैसा कि गीतकार ने लिखा था ! जैसा कि संगीतकार ने कम्पोज़ किया था ! और जैसा कि गायक ने गाया था ! कोई भ्रम नहीं कोई अन्यान्य अर्थ नहीं ! शब्दशः यथावत !
इस मामले में अगर कोई मित्र इसे ग़लत गाये / ग़लत सुने ! तो तय ये होता है कि गीतकार का 'लिखा' अन्तिम ! गायक का 'गाया' अन्तिम ! संगीतकार का 'संगीत' अन्तिम ! और कोई बहस शेष नहीं !
लेकिन ...क्या निजी और सार्वजानिक जीवन में भी हम इतनी सहजता से काम लेते हैं कि 'कहने' वाले का कहा अन्तिम ! 'लिखने' वाले का लिखा अन्तिम ! हमारा आशय यह है कि अगर प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कुछ 'कहा' तो उसे 'विरूपित' करने और 'अन्यान्य' तरीके से प्रस्तुत करने का अधिकार किसी दूसरे व्यक्ति को है ही नहीं ! श्री मनमोहन सिंह के 'कहे' का अन्तिम 'अर्थ ' आखिरकार श्री मनमोहन सिंह का ही विशेषाधिकार है !
परन्तु वास्तविक जीवन में ऐसा होता कहाँ है ! आप मीडिया को ही लें , मीडिया मनमोहन सिंह , प्रणव मुखर्जी , अटल बिहारी बाजपेयी ,शाहरुख़ खान ,आमिर खान वगैरह वगैरह के 'स्टेटमेन्टस' में जिस तरह के 'अन्यान्य अर्थ/ विश्लेषण /सनसनी 'जोड़ता है ! क्या उसे उचित कहा जा सकता है !
हमारे कहने का उद्देश्य ये है कि अगर हमने अपने या कि किसी अन्य के सन्दर्भ में कोई ' स्टेटमेन्ट ' दिया है , तो उस 'स्टेटमेन्ट' के अन्यान्य अर्थ निकालने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं है ! हमारे कथन का अन्तिम अर्थ हमारा ही होना चाहिए !