मुंबई में आतंकवादी हमले से कुछ अरसा पहले से मीडिया /राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के बड़े तबके द्वारा आतंकवाद के विरुद्ध कड़े कानून बनाए जाने की मांग पुरज़ोर तरीके से की जाती रही है ! शायद 'पोटा' का विकल्प या उससे भी कड़ा !
लोकसभा के चुनाव निकट हैं इसलिए कांग्रेस के सामने इस मांग को मानने के अलावा कोई विकल्प भी शेष नहीं है ! भला एक नपुंसक और कमजोर दल की भांति जनता के सामने वोट मांगने जाने का रिस्क कांग्रेस को लेना ही क्यों था ! इसीलिए कुछ हाँ और कुछ ना की तर्ज पर "नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी" का मसौदा लोकसभा में पेश कर दिया गया है अब चूँकि हमें इस ' कड़े ' मसौदे की विस्तृत जानकारी नहीं है इसलिए इस पर फिलहाल कोई बहस नहीं कोई तर्क वितर्क नहीं !
लेकिन हमारे प्यारे प्यारे देश वासियों के नागरिकता बोध और क़ानून के सम्मान के प्रति उनके नज़रिए के सम्बन्ध में कुछ बातें हमारे मन में है जिसे चर्चा में सम्मिलित करना जरुरी लगता है !
आप सभी सहमत होंगे कि कड़े और नर्म क़ानून का अन्तर " न्यायालयीन विचारण " की "त्वरा" और सज़ा की "शिद्दत" मात्र का है लेकिन दोनों ही दशाओं में क़ानून के मकसद में कोई अन्तर नहीं है ! इसलिए हमें क़ानून के कड़े होने और नर्म होने पर कोई बहस नहीं करना है ! बल्कि क़ानून की हैसियत / उसके वक़ार (सम्मान ) पर कुछ कहना जरुरी लगता है !
आप सभी जानते हैं कि बाल विवाह /सार्वजानिक स्थलों पर धूम्र पान / सती प्रथा /दहेज़ / यौन उत्पीडन /बाल उत्पीडन /हिंसा /घरेलू हिंसा /चोरी /मिलावट /घूसखोरी आदि आदि अनन्त विषयों पर अनन्त थोड़े कड़े और थोड़े नर्म क़ानून मौजूद हैं ! पर हम सभी अपने दिल पर हाथ रख कर कहें कि हममे से कितने लोग इन कानूनों का सम्मान /परिपालन करते है ! कहने का आशय यह है कि क्या हमारे देश वासियों और जनमानस में किसी भी क़ानून का कोई भय /सम्मान करने का नागरिकता बोध है ? अब हर तरफ निगाहें दौडाए क्या नेता ,क्या अधिकारी ,क्या वकील, क्या डाक्टर इंजीनियर ,क्या उद्योगपति ,क्या मजदूर ,क्या बेरोजगार ,क्या जनसामान्य ,भला कौन है जो क़ानून की परवाह ( जिम्मेदार नागरिक की तरह ) करता है !
यानि कि क़ानून होने से क्या फर्क पड़ता है अगरचे हममे नागरिक बोध याकि राष्ट्रीयता की भावना ही नहीं है ! हमारे कहने का आशय यह है कि क़ानून के प्रति हममे से ज्यादातर का नज़रिया अशिष्टता भरा और गैरजिम्मेदाराना हुआ करता है इसमे कोई शक नहीं है ! आप जीवन के हर छोटे बड़े पहलू ( राशन से लेकर नौकरी पाने तक ) को देखें तो पाएंगे कि हममे से ज्यादातर लोग "क़ानून क्या कर लेगा ' की तर्ज़ पर जीवन यापन किया करते हैं !
एक और मुद्दा है जिस पर चिंतन किया जाना जरुरी है कि क्या सिर्फ़ क़ानून बन जाने से समस्याएं हल हो जाती हैं ? शायद नहीं ! वरना क़ानून भी है और चोरी /डकैती / बलात्कार /दहेज़ हत्याएं /वगैरह वगैरह भी अपने शबाब पर हैं ! क़ानून होने के बावज़ूद अपराधों /अपराधियों की फसल दिन दूनी रात चौगुनी लहलहाती दिखाई देती है ! हम कानूनों के सहारे ? डकैतों का इन्काउन्टर करते हैं, उन्हें सजा भी दिलाते है! मगर डकैत रक्तबीज हैं ? (यानि क़ानून और डकैत ,दोनों का इकबाल बुलंद रहे)
आखिर हम कब तक शुतुरमुर्ग की तरह सोंचते रहेंगे ! समस्याएं क्या सिर्फ़ क़ानून से सुलझेंगी याकि हमें उनकी जड़ तक जाना होगा !
हमारा ख्याल है कि नागरिकता बोध और राष्ट्र प्रेम की भावना के साथ क़ानून के राज की स्थापना जितनी जरूरी है उतना ही जरूरी है समस्या को सही सन्दर्भों में देखने , रूट कॉज तक जाने और आमूलचूल निदान करने के यत्न की !
अन्यथा क़ानून कड़ा हो कि नर्म ,छोटा हो कि बड़ा क्या फर्क पड़ता है !
अली जी,बिल्कुल सही लिखा आपने। कड़े कानून से ज्यादा राष्ट्र प्रेम की भावना का होना जरूरी है।इस के साथ ही सबसे पहले सरकारी तंत्र को खुद को सुधारना होगा। वर्ना भ्रष्ट लोगों के रहते लोग न्याय से वंचित रहेगें। ऐसे में उन में राष्ट्र प्रेम की भावना का जज्बा कैसे पैदा होगा।
जवाब देंहटाएंपर्दाफाश कर दिया. हम सभी को अपने-अपने गिरेबानों में झाँकने की जरूरत है.
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