रविवार, 17 अगस्त 2008

मंडवा

कुछ पहले ही लिखा 'झोपड़े के हुमायूँ ' इसलिए अपने बचपन की कुछ घटनाओं का उल्लेख करना जरुरी लगा !
हमारा गांव मुस्लिम बहुल गांव जरुर था लेकिन हमारे वालिद (पिता) ने हमें पढने के लिए उस स्कूल भेजा जहाँ हिंदू विद्यार्थियों की संख्या अधिक थी और सच कहें तो उस वक़्त हमें यह भेद ( हिंदू मुस्लिम )महसूस ही नहीं हुआ !
हमारे खेत और खलिहान और खेल के मैदानों से धर्म कर्म की 'बू ' तो आती ही नहीं थी ! हमारी ईद और हमारी राखी में कोई भेदभाव नहीं हुआ करता था ! माली/ काछी /नाई और गांव के तमाम लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ बुजुर्ग हुआ करते थे मजाल है कि हमने उन्हें अपना दादा /चाचा ना माना हो ! हम सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि हम अलग अलग धर्मों से हैं !
कृष्ण जन्म अष्ट्मी और नवरात्रि की ' झांकी ' हमारी रचना धर्मिता का प्रतीक थी यही रचना धर्मिता ताजिये दारी में भी झलकती थी !
उन दिनों ज्यादातर शादियाँ ,फसल कटने के बाद (चैत के बाद) हुआ करती थीं ! तो यह कैसे कहें कि हिंदू और मुस्लिम शादियों के मुहूर्त अलग अलग थे !

मुझे आज भी याद है कि सप्तपदी के लिए मंडवा ( मंडप ) बनाने के लिए हल की लकड़ी हमारे घर से उठाई जाती थी तब कोई नहीं महसूस करता था कि यह मुसलमान किसानों के खेतों में चलने वाला हल है ! और भइया के सेहरे के लिए माली दादा के फूलों से हिंदू गंध भी तो नहीं आया करती थी !
तब 'टोपी कट' के लिए मशहूर नाई चाचा का उस्तरा भी किसी मजहब का सिम्बल नही हुआ करता था उनसे सारे के सारे बच्चे थर थर कांपते थे कि अब फंसे और हेयर स्टायल 'टोपी कट' बना !
उन दिनों हमारी गायें ,गांव की सबसे तंदरुस्त और खूबसूरत शै हुआ करती थीं और गली कूंचों में उन्हें रोटियों और चारे की जो भी भेंट मिलती वो बेचारियाँ उसमे हिंदू मुस्लिम का भेद भाव कर ही नहीं पातीं थीं !


फिजां में जहर कैसे घुला किसने घोला इस पर लिखो /सोचो और बहस करते रहो पर एक बात कान खोल कर सुन लो मुझे अपने अतीत पर गर्व है !