आपने 'उम्मतें' में लोकतंत्र के लिए शीर्षक से कुछ विचार पढ़े ! मेरा ख्याल है कि ये विचार , देश के लिए सकारात्मक सोच के प्रतिनिधि हैं ! इस आलेख में राजनैतिक दलों और चुनाव सुधार की चर्चा की गई है किंतु मेरा ख्याल है कि देश को कुछ और सुधार भी करना चाहिए और वो भी विशेष कर स्वायत्तता के क्षेत्र में !
आपने देखा कि स्वतंत्रता के पश्चात भाषाई आधार पर राज्यों का गठन किया गया परन्तु इसके बाद भी अनेकों क्षेत्रों में नए राज्यों के गठन की मांग निरंतर उठती रही और वह अभी भी जारी है हालाँकि छत्तीसगढ़ ,उत्तरांचल ,झारखण्ड जैसे राज्य गठित किए गए मगर जन आकांक्षाए शांत नहीं हुई ! यह तो निश्चित है कि वंचित किए जाने की धारणा ही इस तरह की मांगों का मूल भूत आधार हुआ करती है ! इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है कि देश की स्वतंत्रता के पांच दशक बाद भी विकास असंतुलित और विशिष्ट क्षेत्रों में केंद्रित रहा है ! उदाहरण के लिए ,रेल सेवाओ में...बिहार और बंगाल जितने संपन्न हैं उतना सौभाग्य दूसरे राज्यों को मिला ही नहीं ! इसी तरह खनिज सम्पदाए मध्यप्रदेश, बिहार और झारखण्ड या छत्तीसगढ़ की पर मुख्यालय हैदराबाद ? ऐसे ही वाइस वरसा , हजारों उदाहरण मिलेंगे ! यानि सामर्थ्यवान मंत्री ,समृद्ध राज्य ? दूसरे राज्यों की ऐसी की तैसी ! कभी विपक्ष शासित राज्य होने का थप्पड़ कभी ,लचर और भ्रष्ट जनप्रतिनिधि होने का दुःख ! याकि विश्वास मतों के जीतने की लाचारियाँ भी इसका कारण हो सकती हैं ! कुल मिलाकर मेरे कहने का आशय यह है कि देश में जनसाधारण को असंतुलित विकास और अपेक्षाओं के अपूर्ण रह जाने का रोष है ! हम चुप रहेगे ,ऐसे ही सरकारें बनती बिगड़ती रहेंगी और हजारों साल तक विकास का सपना सपना ही बना रहेगा !
'उम्मतें' ने चुनाव सुधार की बात की ,ठीक है पर मेरा विचार है कि राज्यों का पुनर्गठन एक बार फ़िर से किया जाना उचित होगा यही नहीं राज्यों को कश्मीर जैसी नहीं तो कम से कम अमेरिकन तर्ज की स्वायत्तता तो मिलनी ही चाहिए वरना असंतुलित विकास हमें धोबी का...बना डालेगा !