आदिम पुरखे कहते हैं कि पहले पहल धरती तो थी
पर सूरज नहीं था, उधर ऊंचे आसमान में बादलों का देवता, नगौडेनाउट
रहता था, जिसने बादलों के इर्द गिर्द लकड़ी के टुकड़ों का
विशाल ढेर इकट्ठा किया हुआ था । किसी एक लम्हे, धरती से एमू
के अंडे को आसमान की ओर फेंका गया, जोकि लकड़ी के टुकड़ों से
इतनी ज़ोर से टकराया कि वहां अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई, जो उस
वक्त हल्की ऊष्म और मृदु थी, फिर वो ऐन सुबह की धूप जैसी
धरती पर पसर गई । धरती के फूल आश्चर्य से भर गये। उन्होने अपना उनींदा चेहरा,
आसमान की ओर उठा लिया, उनकी पंखुड़ियां अपनी
पूरी लंबाई में खुल गईं। अंधियारे की ओस, धरती पर गिरी और खो
गई ।
नन्हें परिंदे, जोश में दरख्तों पर फुदकने और चहचहाने लगे और परियां, जिन्होने पहाड़ों की चोटियों पर बर्फ जमा की थी, अपना काम भूल गई, वो उत्तेजित और हैरान थीं । सो पहाड़ों से पिघलती बर्फ, पानी की नदियों, झरनों की शक्ल में निचले मैदानों की ओर बह चलीं । दूर पहाड़ों के पूर्वी ढलानों से रात की स्याही, सूरज के पुरनूर उजाले में अपनी रंगत खो रही थीं । ऊपर आसमान में कुछेक गुलाबी रंगत बादल, यूं उड़ रहे थे जैसे कि सुर्ख छातियों वाले परिंदे अपने डैने फैला कर धरती पर उतरने की कोशिश कर रहे हों । सूरज की सुनहली किरणों ने पहाड़ों से घाटियों तक चमकीले रहगुज़र से बना डाले थे ।
किसी हल्के गुनगुन नाजुक चुंबन सी तपिश से जिंदगियां, वनस्पतियां खिलखिला उठी थीं।आहिस्ता आहिस्ता सूरज नीले आसमान में धरती के सिर पर चढ़ने लगा था और गर्मी बढ़ने लगी थी। वहां सारी लकड़ियां शिद्दत से जल रही थीं और उन्हें जल्द ही जलकर, राख़ होकर, शाम और रात में तब्दील होते जाना था । नगौडेनाउट समझ गया था कि सूरज को हर रोज जलना होगा । तब से वो अकेले ही आसमान के जंगल से लकड़ियां चुनता है ताकि अगले दिन भी सूरज जलकर,धरती को जीवन दे । यूं सूरज हर रोज पहले मद्धम, फिर तेज और फिर बुझने की शक्ल में जलता रहता है । देवता नगौडेनाउट को पता है कि सूरज की सांसे उसकी मेहनत पर मुनहसिर हैं और धरती में जीवन की बागडोर सूरज ने थाम रखी है...
नि:संदेह इस कथा पर, कथाकालीन पर्यवेक्षणों की छाप गहरी है । भले ही ये पर्यवेक्षण, प्रकृति और ब्रह्मांड की हमारी वर्तमान समझ में हास्यास्पद लगते हैं, किन्तु हमें यह तो स्वीकार करना ही होगा कि तब धरती और ब्रह्मांडीय, ज्ञान प्राप्ति के उपस्कर आज की तुलना में विकसित कहां थे ? बहरहाल तत्कालिन मानवीय समझ और ज्ञान के स्तर की तुलना वर्तमान से करना औचित्यपूर्ण भी नहीं है ! अगर हम ध्यान दें तो हमें यह आख्यान बेहद दिलचस्प और प्रतीकात्मकता से भरा हुआ दिखाई देगा ! सूरज के जन्म से पहले धरती की मौजूदगी जैसी धारणा का खंडन करते हुए कितने ही विद्वतजनों ने अपने जीवन को संकट में डाला है, ये तथ्य हमें विस्मृत नहीं होना चाहिये । वे कहते हैं कि बादल थे, बादलों का देवता था, धरती थी पर सूरज नहीं था ।
धरती पर इन्सान थे, परिंदे थे, अंधियारा था, ओस थी, दरख़्त
थे, पहाड़ थे, जमी हुई नदियां थीं, परियां थी, फूल भी थे । ये आख्यान, सूरज के जन्म
के लिए बादलों के देवता, बादलों में लकड़ियों की उपस्थिति, धरती पर एमू के गोल अंडे,
और इंसानों के संयुक्त उद्यम को उत्तरदाई मानता है तथा घर्षण से अग्नि प्रज्ज्वलन का
कथन करता है । धरती से ऊपर की ओर फेंके गए अंडे और ऊपर देवता के आश्रय स्थल पर
मौजूद लकड़ियों के घर्षण से उत्पन्न अग्नि के आरंभिक क्षणों में ऊष्मा के मृदु / सुबह
की धूप जैसा होने का कथन मजेदार है । ऊष्मा का धरती पर पसर जाना, ओस का विलोपित होना
तथा फूलों का आश्चर्य चकित हो जाना, उनींदापन त्याग देना, खिल खिल जाना, बेहद
शानदार कथन हैं ।
नन्हें परिंदों की दरख्तों पर, उछलकूद / फुदकन / चहचहाहट,
फिर पहाड़ों पर जमी बर्फ की निगेहबान परियों का अचरज में पड़ जाना । ऊष्मा से पिघलती
बर्फ का पहाड़ी चोटियों से निचले मैदानों की ओर बह निकलना । धूप से चमकते बर्फीले
गलियारों / रात की स्याही / अंधियारे का पुरनूर उजाले में अपनी रंगत खोते जाना । आसमान
में बादलों की पंख पसारे परिंदों जैसी उड़ान, प्राकृतिक पर्यवेक्षण के अद्भुत विवरण
हैं, गोया कोई रोमांटिक व्यक्ति / साहित्यकार / चितेरा अपनी कलम / ब्रश से
सौन्दर्य बिखेर रहा हो । नीले आसमान में सूरज का गतिमान होना, दोपहर की धूप से
बढ़ते हुए ताप और लकड़ियों के राख हो जाने से आगत शाम और रात की परिकल्पना असाधारण
है ।
बादलों का देवता, घटती, बढती और घटती ऊष्मा के कारण को जान लेता
है और यह भी कि उसे सूरज के जीवन को बनाए रखने के लिए मेहनत करना है । क्योंकि धरती
का वास्तविक / अनमोल जीवन सूरज पर निर्भर है...