गुरुवार, 6 मार्च 2014

पहले पहल...!

एक समय धरती पर मनुष्य और पशु पक्षी सब मिलजुल कर रहते थे ! वे परस्पर बातचीत करते, मित्रवत साथ रहते किन्तु आगे चलकर मनुष्यों की जनसँख्या तेजी से बढ़ने लगी, सो पशु पक्षियों को अपनी बसाहट के लिये जंगलों और रेगिस्तानों की ओर जाना पड़ा ! इधर मनुष्य, ना केवल खाने के लिये, बल्कि फर और चमड़े के लिये भी जीव जंतुओं का अधाधुंध शिकार करने लग गये ! अपने कुछ समय पूर्व के मित्रों तथा पड़ोसी मनुष्यों के इस व्यवहार से सभी जीव जंतु अत्यधिक व्यथित / आक्रोशित थे और उन्हें इस मामले का कोई त्वरित समाधान खोजना आवश्यक लग रहा था ! सबसे पहले भालुओं की परिषद में इस मामले पर विचार किया गया, जिसमें कई वक्ताओं ने मनुष्यों के खूनी स्वभाव और तौर तरीकों की जम कर निंदा की !

इस विचार परिषद की अध्यक्षता श्वेत भालुओं के मुखिया द्वारा की गई थी, जिसमें सभी भालुओं ने सर्व सम्मति से मनुष्यों के विरुद्ध खुलकर युद्ध छेड़ना तय किया !  इसके आगे चर्चा का विषय यह था कि शिकारी मनुष्यों के विरुद्ध किस तरह के हथियारों का प्रयोग किया जाये, चर्चा के दौरान श्वेत भालुओं के मुखिया ने सुझाव दिया कि मनुष्य का मुकाबला उसके ही हथियार धनुष बाण से किया जाना उचित होगा ! अध्यक्ष के इस सुझाव को सभी भालुओं का एक मतेन समर्थन प्राप्त हो गया, किन्तु समस्या यह थी...कि प्रत्यंचा का जुगाड़ कैसे किया जाये ? इस बीच कुछ भालुओं ने बाणों के लिये अच्छी लकड़ी ढूंढ ली थी ! बहरहाल प्रत्यंचा के लिये एक भालू ने अपने जीवन का बलिदान कर दिया और फिर उसकी खाल से प्रत्यंचा बना ली गई !  

धनुष का परीक्षण करते समय देखा गया कि भालुओं के पंजे मनुष्यों की तरह से शर-संधान नहीं कर सकते, उन्हें और अधिक लचीला होना चाहिये था ! एक भालू ने प्रस्ताव दिया कि उसका पंजा काट कर उसे संधान के अनुकूल बना लिया जाये लेकिन  इस प्रस्ताव को श्वेत भालुओं के मुखिया ने सिरे से ही ख़ारिज कर दिया, क्योंकि वह जानता था कि पंजे के बिना भालू ना तो पेड़ पर चढ़ कर अपनी जान बचा सकता है और ना ही अपने लिये खाद्य पदार्थ की व्यवस्था कर सकता है, बल्कि उसके भूखा मरने की संभावनायें प्रबल हो जायेंगी ! भालुओं की विचार परिषद भले ही अनिर्णीत समाप्त हुई...हालाँकि हिरणों ने इस समस्या पर विचारण के लिये पृथक से बैठक आयोजित की, जिसकी अध्यक्षता छोटे हिरण द्वारा की गई !

हिरणों की आम सभा में यह निर्णय लिया गया कि शिकारी मनुष्यों को सन्देश दिया जाये कि वे अपने भोजन मात्र के लिये शिकार करने से पहले, शिकार होने वाले हिरण से क्षमा प्रार्थना किया करें कि, हम मनुष्य, आपको अपनी क्षुधा पूर्ति के लिये मजबूरी में ही मार रहे हैं, यदि शिकारी मनुष्य सीमित शिकार की इस शर्त को नहीं मानें तो उन पर गठिया की भयावह बीमारी आरोपित कर दी जाये ताकि वे असहाय होकर, घिसट घिसट कर शिकार करने में नाकाम हो जायें, सभा के अध्यक्ष छोटे हिरण को यह जिम्मेदारी दे दी गई कि वो शिकार हुए हिरण की आत्मा से फ़ौरन पूछ ले कि शिकार से पूर्व उससे क्षमा माँगी गई थी अथवा नहीं...और निर्णय ये भी कि, ना की स्थिति में शिकारी मनुष्य पर तत्काल गठिया व्याधि से हमला कर दिया जाये !

बहरहाल शिकारी मनुष्यों से पीड़ित मछलियों और अन्य सरीसृप वर्गीय जीव जंतुओं ने भी अपनी अपनी जातीय परिषदों में यह निर्णय लिया कि चेरोकी कबीले के लोगों को प्रत्येक रात्रि को स्वप्न में ये चेतावनी दी जाये कि अगर वे अधाधुंध शिकार करना बंद नहीं करेंगे तो इस जातीय वर्ग के महाकाय सांप और भीमकाय मछलियाँ उन शिकारियों पर हमला कर देंगे और उन्हें जीवित निगल लेंगे और जल्द ही इस निर्णय पर अमल भी शुरू हो गया, निरंतर आने वाले दु:स्वप्नों से चेरोकी कबीले के शिकारी मनुष्य बेहद डरे हुए थे ! उन्हें भयावह परिणामों की आशंकाये घेर रही थीं, घबरा कर उन्होंने अपने जादूगर / शमन से मछलियों और साँपों वाले इन डरावने सपनों से मुक्ति दिलवाने की प्रार्थना की ! 

इधर मनुष्य हितैषी घास / पौधों / वृक्षों को जीव जंतुओं की परिषदों द्वारा मनुष्यों के विरुद्ध लिये गये निर्णयों की जानकारी हो गई थी अतः प्रत्येक पौधे / घास / कंद मूल / फूल / जड़ और वृक्षों ने अपने मित्र मनुष्यों की सहायता का निश्चय किया ! उन्होंने जीव जंतुओं द्वारा फैलाई जाने वाली तमाम व्याधियों के प्रतिरोध स्वरुप स्वयं को प्रस्तुत किया ! चेरोकी कबीले के जादूगर / शमन को जिन जिन व्याधियों की चिंता थी, वनस्पतियों की आत्माओं ने उन सब का उचित समाधान प्रस्तुत किया ! बस इसी समय से धरती पर पहली बार व्याधियों के उपचार के लिये दवाओं की उत्पत्ति हुई, हर्बल औषधियां तथा अन्य जादुई उपाय जो कि संकट के समय, चेरोकी राष्ट्र / सम्पूर्ण मानवता की रक्षा के लिये, मनुष्य हितैषी वनस्पति मित्र आत्माओं की अनुपम भेंट थी !
 
प्रतीत होता है कि इस आख्यान के समय के कबीलाई मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिये वनस्पतियों की तुलना में जीव जंतुओं को अधिक नुकसान पहुंचाया था, या फिर वनस्पतियां, उसकी आक्रामक नीतियों का प्रतिकार, अन्य जीव जंतुओं की तरह से नहीं कर सकती थीं यानि कि जीव जंतुओं की तुलना में वनस्पतियों द्वारा मनुष्य को नुकसान पहुंचाये जाने की सम्भावना न्यूनतम मानी गई हो ! संभव है कि औषध गुणों के हिसाब से तत्कालीन मनुष्य, वनस्पतियों को पशुओं से अधिक उपयोगी मानता रहा हो ! बहरहाल इस कथा में मनुष्य और पशुओं तथा वनस्पतियों के त्रिकोणीय पारस्परिक रहवास, उपयोगिता, मित्रता, द्वेष भाव, संकट के समय के स्व-जातीय विमर्श तथा मित्र चयन की प्राथमिकताओं और व्याधियों की उत्पत्ति के कारणों सहित औषधियों के विकास के लिये मनुष्यों और उसके नैसर्गिक पड़ोसियों के पारस्परिक संबंधों / अ-संबंधों का विशेष कथन किया गया है !

आदिम युगीन मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा स्वयं के जीवन मरण के प्रश्न के समुचित प्रत्युत्तर के लिये अपने नैसर्गिक पड़ोसियों यानि कि पशुओं और वनस्पतियों पर ही निर्भर था, हालाँकि, कालांतर में आदिम अर्थव्यवस्था के मौलिक असंचयी गुण धर्म के संचयी प्रवृत्ति में बदलते जाने को लेकर, पारस्परिक झगड़े और द्वेष भाव की उत्पत्ति का उल्लेख, इस कथा में प्रमुखता से मिलता है ! विशेषकर हिरणों की आम सभा के हवाले से देखें तो उन्हें, मनुष्य की भोजन प्रणाली का हिस्सा बने रहने में कोई आपत्ति नहीं थी ! वे मनुष्य के भोजन की अनिवार्यता के लिये समुचित और पर्याप्त आखेट तथा क्षमापूर्ण / विनम्र आखेट के लिये अपनी सहमति जतलाते हैं, स्पष्ट है कि वे सभी अपने पूर्व पड़ोसी मनुष्य की अति संचय प्रवृत्ति, लोलुपता और क्रूरता का निषेध करना चाहते हैं, जैसा कि इस आख्यान में साफ तौर पर मनुष्यों को भोजन से इतर फर और चमड़े का संग्राहक कहा गया है !

पशु पक्षी, मनुष्यों की बढ़ती आबादी के कारण अपने मूल रहवास से विस्थापित हुए, किन्तु वे अपने विस्थापन को लेकर अधिक व्यथित नहीं हैं बल्कि उन्हें अपने पूर्व मित्र के बदलते हुए स्वभाव से कष्ट हो रहा है ! आख्यान में स्वप्न से भय का उल्लेख प्रतीकात्मक रूप से मनुष्यों के अपने, स्वयं के अपराध बोध की स्वीकृति है, जोकि वे अपने प्राकृतिक जागतिक पड़ोसियों और पूर्व मित्रों के विरुद्ध करने लगे हैं, इस भय की अभिव्यक्ति के लिये विशालकाय साँपों और मछलियों का उल्लेख रुचिकर है, अगर गौर से देखा जाये तो वे अपनी दैहिक दक्षता / विकसित आखेटीय कुशलता / तकनीकी निपुणता के बावजूद इन महाकाय जीवों से पिछड़ जाने और तुलनात्मक क्षति का भय, अपने मन से निकाल नहीं सके हैं ! उनका अचेतन मन उनकी पराजय और संभावित किन्तु अपूरणीय क्षति के भय से व्याकुल है, अस्तु समस्या के निदानार्थ वे, अपने अनुभवी / ज्ञान श्रेष्ठ / अगुवा शमन से मिलते हैं !

शमन एक औषध ज्ञानी होने के साथ ही साथ अचेतन / अ-जागतिक समस्याओं का विशेषज्ञ भी है ! इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कथा में मनुष्यों की मानसिक समस्या / अपराध बोध के निदान के लिये पशुओं की तुलना में वनस्पतियों को गहन मित्र की तरह से प्रस्तुत किया गया है ! नि:संदेह पूर्व मित्रों में से, वनस्पतियों का मित्रवत चयन और पशुओं का परित्याग, मनुष्यों को संभावित क्षति पहुंचा सकने की पशुओं की क्षमता के कारण से किया गया है, यहां यह उल्लेख समीचीन होगा कि शर-संधान में भालुओं के पंजों की प्रतीकात्मक असफलता का कथन, मनुष्यों की देहयष्टि के अनुसन्धान के अनुकूल होने तथा पशुओं पर उनकी बढ़त के, कारणों का संकेत करता है ! वे अपनी देहयष्टि (मस्तिष्क सहित) का इस्तेमाल अपने आयुधों, उपकरणों के निर्माण और...अंततः औषधियों के विकास के लिये कर पाये, अन्यों के तुलना में प्रकृति से मिले अवसरों का लाभ उन्होंने उठाया, हमेशा पहले पहल...!