सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

प्रेम में बने रहने के लिये...!

उत्तर उन दिनों यात्रा पर निकला था, लगातार घूमते फिरते और बहुतेरे कबीलों से होकर गुज़रते हुए वो एक दिन दक्षिण जा पहुंचा, वहां दक्षिण की खूबसूरत पुत्री को देख, अपना दिल हार बैठा , फिर उसने दक्षिण से निवेदन किया कि वो उसकी पुत्री से विवाह करना चाहता है, संयोगवश दक्षिण की पुत्री भी उत्तर को पसंद करने लगी थी, सो उन दोनों के दरम्यान एकतरफा चाहत जैसी कोई समस्या भी नहीं थी, लेकिन सुकन्या के माता पिता ने इस प्रस्ताव को सिरे से ही ठुकरा दिया, क्योंकि उनका मानना था कि जब से उत्तर, उनके इलाके में आया है, मौसम बदल सा गया है, ठण्ड बेहद बढ़ गई है और दक्षिण का अपेक्षाकृत गर्म इलाका ठिठुरने लगा है ! उन्होंने उत्तर से कहा कि, अगर तुम कुछ और दिन यहां ठहरे तो हम सब हिमीकृत होकर मर जायेंगे !

उत्तर ने अपनी शादी के वास्ते अनगिनत तर्क किये, बमुश्किल दक्षिण ने कहा कि हम अपनी पुत्री को तुमसे शादी करने देंगे, क्योंकि वह भी तुमसे प्रेम करती है...पर तुम्हें उसके साथ हमारा इलाका छोड़ना होगा , तुम उसे अपने देश ले जाओ ! यहां का मौसम वैसा ही रहना चाहिए जैसा कि तुम्हारे आने से पहले हुआ करता था ! दक्षिण के लोगों को सर्द मौसम की आदत नहीं है ! अंतत: तयशुदा कार्य योजना के अनुसार दक्षिण की पुत्री के साथ उत्तर का विवाह संपन्न हुआ और फिर वर तथा वधु, उत्तर के देश की ओर चले गये !  उत्तर पहुँचने पर वधु ने पहली बार जाना कि उत्तर के लोग बर्फ के घरों में रहते हैं !  अगली सुबह जब सूर्य उदित हुआ तो उसके ताप से उत्तर के घरों की बर्फ निर्मित छतें और दीवारें पिघलने लगीं !

जैसे जैसे सूरज ऊपर आसमान पर चढ़ता गया, बर्फ के घर पानी के ताल में बदलने लगे ! अपने घरों की दुर्दशा पर घबराये हुए लोगों ने उत्तर से कहा कि दक्षिण की लड़की के उत्तर आते ही तापमान बढ़ने लगा है !  अगर इसे फ़ौरन यहां से हटाया नहीं गया तो पूरी की पूरी बस्तियां तबाह हो जायेंगी !  उत्तर अपनी प्रियतमा, अपनी पत्नी को जितनी भी देर रोक सकता था, उसने भरसक यत्न किया, किन्तु सूरज के बढ़ते ताप के साथ वहां के लोगों की बेचैनियां भी बढ़ने लगीं थीं !  आख़िरकार उत्तर ने अपनी पत्नी को वापस उसके देश, दक्षिण भेजने का फैसला कर लिया !  उत्तर के लोगों का ख्याल था कि दक्षिण की लड़की का खान पान और परवरिश गर्म मौसम वाले इलाके में हुई है , इसलिए उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व और स्वभाव उत्तर के अनुकूल नहीं है !

उत्तर अमेरिकन इन्डियन्स की ये लोक गाथा मौलिक रूप से किसी बाह्य समूह के चारित्रिक और स्वभावगत अतिरेक का आकलन स्वयं के समूह की तुलना में करते हुए , बहिरागत का निषेध करती है !  ये कथा यायावर युवक और स्थानीय युवती के सहज प्रेम के विरुद्ध खड़ी सामाजिकताओं को भिन्न परिवेश और भिन्न पालन पोषण दशाओं की प्रतिकूलता के समर्थन से न्यायोचित ठहराने का यत्न करती है ! अगर गौर से देखा जाये तो स्त्री पुरुष के प्रेम की स्वीकार्यता के लिये,उनकी समूहगत सजातीयता और स्थानीय सामाजिक परिवेशगत अनुकूलता को उत्तर और दक्षिण की अति-शीत और अति-ताप की सांकेतिकता के ज़रिये व्याख्यायित किया गया है , यानि कि भावी जामाता की स्वीकार्यता की कसौटी, उसके पारिस्थितिकीतंत्र से जोड़ कर निर्धारित की  गई है !

आख्यान में युवती का पिता, युवक के व्यक्तित्व को उसके जन्मस्थान विशेष की प्राकृतिक दशाओं के माध्यम से आंकता है, तो बिना शक यह स्वीकार किया जाना चाहिये कि प्रतीकात्मक रूप से चरम प्राकृतिक दशायें, सामाजिक पालतूकरण की चरम परिस्थितियों के समानार्थी आशय में कही गई हैं, ऋतुओं का अतिरेक, सामाजिक परिदृश्य/ पालतूकरण की परिस्थितियों के अतिरेक से साम्य रखता है ! उत्तर की अति-शीत और दक्षिण के अति-ताप को भावी जोड़े के व्यक्तित्व से जोड़ते ही उभयपक्ष में सामंजस्य की संभावनायें अनिवार्य रूप से क्षीण होना मान ली गई हैं, जैसा कि इस कथा में युवती का पिता, विवाह की सहमति प्रदान करते समय युवती के प्रेम के प्रति जो भी उदारता दिखाता है, वो उसके सामाजिक उत्तरदायित्वों के आड़े नहीं आती !

वह किंचित ना नुकुर के बाद, बहिरागत युवक के प्रति अपनी पुत्री का प्रेम स्वीकार करने के बावजूद, अपने सामाजिक ताने बाने के संरक्षण को अपनी पुत्री की तुलना में वरीयता देता है ! उसके अभिमत में पालन पोषण जनित, व्यक्तित्व के गुणधर्म अतिरेक और वैषम्य पर आधारित यह जोड़ी उसके अपने समाज के अनुकूल नहीं है ! अतः उसे पुत्री का प्रेम तो स्वीकार्य है पर अपनी सामाजिकता की कीमत पर कदापि नहीं ! इस कथा का दूसरा हिस्सा, उत्तर के लोगों की लगभग ऐसी ही प्रतिक्रिया को आधार बना कर गढ़ा गया है, उत्तर के लोग भी भिन्न परिवेश की युवती को अपने सामाजिक विन्यास के लिये आसन्न संकट के जैसा मानते हैं ! कुल मिलाकर इस कथा में व्यक्तित्व और स्वभाव की अतिरेक भिन्नता को समाज विशेष के अनुकूल नहीं माना गया है !

यानि कि पारस्परिक सामजंस्य और जोड़े बनाने की संभावनायें, व्यक्तित्व और स्वभाव की पूर्ण रूपेण अनुकूलता पर आधारित होना चाहिये, के सन्देश के साथ, यह कथा समाप्त होती है , चूंकि इस कथा में केवल अतिरेक / चरम भिन्नता की स्थिति में संबंधों के निषेध का कथन किया गया है , अतः हम कदाचित मध्यम स्तरीय भिन्नताओं को निषेध की श्रेणी में नहीं गिन सकते, बल्कि उन्हें पूर्ण रूपेण अनुकूलता वाली कसौटी के साथ सम्मिलित करने और नवजीवन प्रारम्भ करने की एक नई चुनौती के रूप में स्वीकार कर सकते हैं ! अंततः प्रेम में बने रहने के लिये सामाजिक अपरिहार्यताओं / अनुशंसाओं की अनदेखी किस सीमा तक संभव है और कितने लोग कर पाते होंगे भला ?  

20 टिप्‍पणियां:

  1. दो बार पढ़ा !
    आपके द्वारा इन दुरूह लोक आख्यायनों का विश्लेषण पढना सुखद है , अन्यथा सुदूर क्षेत्रों की प्रष्टभूमि को समझ पाना , रुचिकर होने के बावजूद आसान नहीं !
    आभार भाई जी !

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    1. सतीश भाई ,
      ब्लॉग काफी दिनों से सुसुप्तावस्था में था तो सोचा उसे नींद से जगा दूं ! आपका ह्रदय से आभार कि आप ने उसके जागते ही उसे स्नेह / दुलार दिया !

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  2. प्रेम आजसे शुरू हुए प्रणयोत्सव का अंतस्थ भाव है -सामयिक श्रृंखला पोस्ट!

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    1. अरविन्द जी ,
      पिछले दिनों ब्लॉगजगत में मंदी का दौर सा गुज़रा...बहरहाल मेरी इस प्रविष्टि को आपकी ब्लागीय सक्रियता से प्रेरित मानियेगा !

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  3. अच्छा हुआ आपने ब्लॉग के मन्दी के दौर को समाप्त करने में अपना योगदान दिया है. मैं तो महीने भर से फेसबुक छोड़कर अब लगातार लिख रहा हूँ ब्लॉग पर. शांति मिलती है!!
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    इस आख्यान ने प्रेम को दो एक्स्ट्रीम्स की कसौटी पर कसने की ओर इशारा किया है. शायद विश्व की प्रचलित प्रेम कथाओं से अलग ये आख्यान समाज/परिवार के विरोध के स्थान पर मौसम के विरोध का उदाहरण है, जो अद्वितिय है. प्रेम के उपरांत विवाह का परिणति के बाद परित्याग सम्जह नहीं आया. दोनों मौसमों के मध्य कोई स्थान तो होगा, जहाम ये दोनों मौसम मिलते होंगे?
    आपके आख्यानों की एक विशेषता यह होती है कि आपके विश्लेषण के पश्चात पाठकों के लिए बहुत कम स्थान बचता है. :)
    सक्रियता बनाए रखें, ताकि हमें भी अच्छा पढने को मिलता रहे!!

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    1. सलिल भाई ,
      आखिरी पैरे में मैंने 'मध्यम स्थान' की गुंजायश देखी है भले ही कथा में इसका ज़िक्र नहीं है ! इस कथा का पूरा फोकस केवल 'चरम' पर है तभी तो लड़की के पिता के स्टेंड (संस्थिति) की पुष्टि उनके काउंटर पार्ट उत्तर वालों से भी करवा ली गई है :)

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  4. एक बात कहना रह गई...
    "आख्यान में युवती का पिता, युवक के व्यक्तित्व को उसके जन्मस्थान विशेष की प्राकृतिक दशाओं के माध्यम से आंकता है"
    /
    आज भी समाज में यही परिपाटी चली आ रही है. इस आख्यान में प्रेम से किसी को परहेज न था, बस व्यक्ति के जन्मस्थान और उसकी प्राकृतिक दशाएँ उन्हें असह्य थीं! दिल्ली में हुई उत्तर-पूर्व के एक छात्र की हत्या, अफ्रीकी मूल के रह रहे लोगों से घृणा और बिहारी शब्द को गाली की तरह प्रयोग करना, क्या मात्र जन्मस्थान के कारण उत्पन्न बहिरागत के प्रति आक्रोश नहीं?

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    1. असल में जन्म स्थान विशेष और प्राकृतिक दशाओं का असर हम इंसानों की जीवन शैली / रहन सहन / व्यक्तित्व ( मनःजगत सह शारीरिकता सह आचार वगैरह वगैरह ) पर भी पड़ता है ! आम तौर पर हम अपने से 'भिन्न' को अपने से कमतर मानने के विचार के साथ सामाजिक तौर पर प्रशिक्षित किये जाते हैं ! बेहतरी और कमतरी ( प्रेम और घृणा ) की ये धारणा एकतरफा नहीं हुआ करती ! इसे आप प्रत्येक जन समूह के प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की "त्रुटि / दोष" मान सकते हैं ! वे अपने सदस्यों को पूरी दुनिया के इंसानों की तर्ज़ पर प्रशिक्षित नहीं करते बल्कि खुद को आदर्श (स्वयंभू जन समूह ) मानने की इंसानियत विरोधी / निरर्थक कवायद में लगे रहते हैं !
      आपकी भावनाओं से सहमत हूं !

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  5. यह कथा तो भारतीय ही लग रही है , वैसे प्रेम और नफरत की सामानांतर भावनाएं हर युग और हर स्थान की एक सी ही होंगी।

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  6. हमारे हिसाब से अगर शादी कर ही ली तो फिर ठंड क्या और गर्मी क्या , दोनों को मध्य प्रदेश में कहीं बस जाना चाहिए था, सच्चा प्रेम है तो दोनों थोडा थोडा तापमान एडजस्ट कर लेते :)

    लिखते रहिये !

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    1. मजाल साहब ,
      खापों का ख्याल जेहन में बना रहे जो ससुर को शौहर और शौहर बीबी को भाई बहन भी घोषित कर सकते हैं :)

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  7. .
    .
    .
    मेरी समझ में प्रेम और शादी तो महज बहाने हैं... यह कथा समाज के उन लोगों को समझाने के लिए गढ़ी गई है, जिन्हें दूर देस के ढोल ही सुहावने लगते हैं ।


    ...

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    1. संभवतः , आगत जीवन की सुरक्षा / सुख की गारंटी अपने ही समाज में निहित है वाला भाव ! दूर के ढोल सुहावने वाला मुहावरा निहित वैषम्य तथा अपरिचय के जोखिम का संकेत करता है सो इस कथा में भी फिट माना जा सकता है !

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  8. १- पिता को समझाया जा रहा है बेटी का विवाह करने से पहले न केवल लडके को देखो बल्कि उसका रहन सहन देश और उसके लोगो के बारे में भी जानो कि क्या वो बेटी को स्वीकार करेंगे क्या बेटी वहा खुश रहेगी ।
    २- आप इसे जाति , धर्म संस्कृति आदि आदि से बाहर विवाह न करने की सलाह भी मान सकते है ।
    ३- केवल प्रेम में विवाह करने के दुष्परिणाम देखिये , प्रेम करना आसान है निभाना मुश्किल वाला जुमला ।
    ४- पता नहीं ये कहानी भारत में फिट बैठती है कि नहीं जहा पञ्च कोस पर ही बोली भाषा आदि आदि बदल जाती है , जहा स्त्री को पति के घर की संस्कृति अपनानी होती है , वो ससुराल में अपनी संस्कृति रहन सहन बोली भाषा नहीं लाती है ।
    ५ - आधुनिक समाज की ये बात मुझे जंचती है जहा जोड़े एक दूसरे के यहाँ जान के बजाये एक नया घर- संसार बसाते है , मध्य प्रदेश जहा दोनों के ही संस्कृति , भाषा रहन सहन का थोडा थोडा ले कर एक नहीं संस्कृति कि रचना की जाती है जहा दोनों कुछ छोड़ते है और कुछ पाते है :)

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    1. आपके कथन बिंदु 1 और 2 से पूर्ण सहमति !
      बिंदु क्रमांक 3 में अगर 'केवल' शब्द की शर्त ना हो तो इस पर भी पूरी सहमति !
      बिंदु क्रमांक 4 के विषय में इतना ही कहूँगा कि ये कथा हमारे देश के लिये भी है,किन्तु यहाँ पर युवतियों का पालन पोषण (जान बूझकर) इस तर्ज़ पर किया जाता है कि वे अपरिचित संस्कृति / ससुराल में दोयम दर्जा पाकर भी सहनशील बनी रहें , इसे आप एक पक्षीय निबाह (निर्वाह ) वाला प्रशिक्षण भी कह सकती हैं !
      बिंदु क्रमांक 5 के मुद्दे से सहमत हूं ! कथा के आखिरी पैरे में मध्यम स्तरीय भिन्नताओं में अनुकूलता और नवजीवन की बात करते वक़्त मेरे जेहन में यही बात थी , जैसा कि आपने कहा , पारस्परिक लेन देन से नव संस्कृति का जन्म !

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    2. "केवल" का अर्थ था कि बाकि पहलुओ जैसे आर्थिक , शारीरिक , सामाजिक , चरित्र , और जिम्मेदारी निभाने की भावना को देखे बिना "केवल प्रेम" किया और विवाह के लिए जरुरी चीजो को अनदेखा कर विवाह कर लिया । प्रेम अंधा होता है किन्तु विवाह नहीं :)

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  9. अतिरेक के विरोध का साहस अभी भी नहीं हुआ है लेकिन धीरे-धीरे हम मध्यमार्गी हो रहे हैं।

    आपकी व्याख्या हमेशा की तरह उत्कृष्ट लगी।

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