मंगलवार, 20 अगस्त 2013

सुफैद गुलाब...!

तब वे पूरब में रहते थे , जबकि गोरों ने उन्हें बलपूर्वक पश्चिम की ओर खदेड़ दिया था ! वे अपने घर छोड़ना नहीं चाहते थे पर मजबूर थे , गोरों ने सोने की लालच में उनकी मातृभूमि पर कब्ज़ा कर लिया था और वे विस्थापित कर दिये गये ! पश्चिम की राह लंबी और अविश्वसनीय थी , सो उनमें से अनेकों मर खप गये ! उनके हृदय शोक से भारी थे और आंसू , राह की धूल में मिलते जा रहे थे ! कबीले के वृद्धजन जानते थे कि उनके बच्चों का अस्तित्व और भविष्य , स्त्रियों की शक्ति पर निर्भर है अतः एक संध्या , पड़ाव पर जलते अलाव के चहुँदिश बैठकर उन्होंने स्वर्ग की देवी ‘गा ल्व ला डी ए ही’ का आह्वान किया , उन्होंने देवी को लोगों के आंसुओं और कष्टों के बारे में बताया ! उन्हें भय था कि उनके बच्चे चेरोकी राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए जीवित नहीं रह पायेंगे !

देवी ‘गा ल्व ला डी ए ही’ ने उनसे कहा, मैं तुम्हारी कितनी फ़िक्र करती हूं , कल सुबह , तुम सबको इसका संकेत मिल जायेगा ! अपने कबीले की स्त्रियों से कहो कि वे सब कल सुबह उस राह की ओर पलटकर , उस जगह को देखें , जहां उनके आंसू गिरे थे ! मेरे कारण से कल उस जगह में एक पौधा उगेगा , जिसकी सात पत्तियां तुम्हारे कबीले के सात गोत्रों / कुलों का प्रतीक होंगी ! उस पौधे में पांच पंखुड़ियों वाला सफेद रंग का एक नाज़ुक सा गुलाब खिलेगा , जिसके बीच-ओ-बीच सुनहले रंग का एक गुच्छ होगा जो तुम्हें , सदैव तुम्हारी मातृभूमि में मौजूद सोने की लालसा रखने वाले गोरों की याद दिलाता रहेगा !  इस पौधे की सभी शाखाओं में मजबूत कांटे होंगे जोकि इसे नुकसान पहुँचाने वालों से इसकी रक्षा करेंगे !

अगली सुबह वृद्धजनों ने कबीले की स्त्रियों से कहा कि वे राह की ओर पलट कर देखें ! स्त्रियों ने पाया कि राह में जहाँ , उनके आंसू गिरे थे , वहां एक पौधा तेजी से पनप रहा है , उस पौधे ने खुद का विस्तार उस पूरी की पूरी राह में कर लिया है , जहां से वे दुखी होकर गुज़री थीं !  स्त्रियों ने कली को आहिस्ता बनते और खिलते देखा सो वे अपना दुःख भूल गईं ! उन्होंने स्वयं को उस फूल की तरह खूबसूरत और उस पौधे की तरह से मजबूत , महसूस किया ! उन्होंने जाना कि जैसे सुफैद गुलाब का पौधा अपनी कलियों और उनकी मुस्कान की रक्षा करता है , ठीक उसी तरह के साहस और दृढ निश्चय के साथ , उन्हें भी , अपने बच्चों को संरक्षित करना है ! उनके बच्चे , जो पश्चिम में , नये चेरोकी राष्ट्र का निर्माण करने वाले हैं !

केलिफोर्निया के चेरोकी आदिवासियों का यह आख्यान बमुश्किल दो से तीन शताब्दी पुराना है , तब उन्हें गौरवर्णी स्वर्ण पिपासुओं ने उनकी अपनी मातृभूमि से बलपूर्वक बेदखल कर दिया था ! स्वर्ण गर्भा धरती के इस टुकड़े पर कब्जे की इस घटना को सारी दुनिया के आदिम क्षेत्रों के नैसर्गिक संसाधनों पर कब्जेदारी के सैन्य अभियानों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है ! उस काल खंड में यूरोपीय मूल के लोग जहां भी गये , उन्होंने अपनी पहुंच की धरती को कमोबेश रौंद ही डाला था , स्थानीय संसाधनों पर बलात कब्ज़ेदारियों  और लूट खसोट के उस दौर में सामूहिक आप्रवास के लिए विवश कर दी गई स्थानीय आबादियों को नितांत अप्राकृतिक / मानव लोलुपता जन्य कारणों से अपनी जड़ों से उखड़ना पड़ा था !

इस कथा की पृष्ठभूमि में चेरोकी जन समुदाय की बेदखली के दुःख / अवसाद सम्मिलित हैं , वे जानवरों की तरह से हंकाल दिए गये थे , उनके सामने अनिश्चित भविष्य तथा आगत की धरती में बसने लायक सुविधाओं और उस धरती तक सुरक्षित पहुंच पाने के संसाधनों का नितांत अभाव था ! जीवन के लिए सर्वथा प्रतिकूल परिस्थितियों में चेरोकी बूढ़े / अनुभवी लोग , भावी पीढ़ी और अपने समाज की अस्मिता के लिए नि:संदेह चिंतित रहे होंगे ! इस आख्यान से स्पष्ट संकेत मिलता है कि दूभर समय में स्त्रियों की योग्यता और सामर्थ्य पर फिर से विश्वास प्रकट किया गया था ! स्त्रियों पर विश्वास के इस पुनर्प्रकटीकरण पर कोई संदेह नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि पितृसत्तात्मक आदिम कबीलों में भी स्त्रियां हेय दृष्टि से नहीं देखी जाती थीं  !

इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि आज भी आदिवासियों के मध्य स्त्रियों का स्थान , गैर आदिवासी समाजों की तुलना में कहीं अधिक सम्मानजनक है ! इस आख्यान में दैवीयता का तत्व समाहित कर भावी समाज के उन्नयन हेतु स्त्रियों की महती भूमिका का निर्धारण किया गया है !  यह बांचना अत्यंत रोचक है कि सुफैद गुलाब के पौधे को प्रतीकात्मक रूप से स्त्रियों से जोड़ा गया है , वे फूल सी खूबसूरत हैं / कलियों की जननी हैं / उनसे फूल खिलते हैं और वे स्वयं सुपुष्ट तनों में निहित काँटों के जैसी प्रतिरोधक क्षमता के साथ , उन मुस्कानों की रक्षा भी करती हैं , जोकि भविष्य में चेरोकी राष्ट्र का निर्माण करने वाली हैं ! सुफैद गुलाब की पंखुड़ियों से गोरों और मध्यभाग के सुनहले हिस्से से गोरों की स्वर्ण लालसा को सदैव याद रखने का कथन बेहद महत्वपूर्ण है !

गौर तलब है कि जो फूल चेरोकी राष्ट्र का निर्माण करने वाले बच्चों का प्रतीक हैं , उसी फूल के दो रंग भविष्य में सचेत बने रहने और अतीत के त्रासद अनुभव को सदैव स्मरण रखने का आशय भी देते हैं ! प्रतीकात्मक रूप से चेरोकी कबीले के सात कुलों को एक ही पौधे की सात पत्तियों के रूप बतलाया जाना , उनकी पारस्परिक एकता और जन्म के समय में एक ही मूल स्थान के वंशज होने के अर्थ को अभिव्यक्त करता है !  यह कथा संकट के समय में स्त्रियों की महत्ता और समाज के भावी निर्मायकों को सहेजने में उनके सामर्थ्य का बखान करती है तथा मनुष्यों और मनुष्यों के दरम्यान प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ेदारियों की लालसाओं के चलते , उत्पन्न होने वाली अप्राकृतिक विभीषिकाओं , उनके दुखदाई परिणामों और...फिर मनुष्य के हौसलों का साक्ष्य देती है !

17 टिप्‍पणियां:

  1. Abhi aadha padha...baith nahi pati...baad me poora padhungi...aapka lekhan kabhi miss karna nahi chahti...

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    1. जी ,सबसे पहले सेहत ! अपनी सहूलियत से देखिएगा ! शुक्रिया !

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  2. इस सुंदर कथा की सुंदर आख्या का एक रोचक पहलू यही भी है कि इसे रक्षा बंधन के समय पोस्ट किया गया है।

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    1. हां , कल इसे पोस्ट करते वक़्त रक्षा बंधन का ख्याल तो था ही ! आभार !

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  3. आज के उन्नत समाज को देखकर यह प्रश्न भी उठता है कि आज की शिक्षित और आत्मनिर्भर संभ्यता में स्त्रियों का सम्मान सुरक्षित है या आदिवासियों के आदम समाज में रहा!!

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    1. निश्चित रूप से आज भी आदिवासी समाजों में पितृसत्तात्मकता के बावजूद पुरुषों की तुलना में स्त्रियों का महत्व / सम्मान कहीं ज्यादा है...फिर मातृसत्तात्मक आदिवासी समाजों के कहने ही क्या हैं !

      बाकी इस मामले में हमारे आधुनिक / उन्नत समाज का इतिहास और वर्तमान तो आपको स्वयं ही पता है !

      आज आदिवासी समाजों में हमारे 'पैटर्न की आधुनिक शिक्षा और तकनीकी शिक्षा' का हाल चाहे जो भी हो पर वे आदिम समय से ही आत्म निर्भर समाज और संस्कृति रहे हैं !

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  4. सुन्दर कथा! निष्कर्ष च!

    वे फूल सी खूबसूरत हैं / कलियों की जननी हैं / उनसे फूल खिलते हैं और वे स्वयं सुपुष्ट तनों में निहित काँटों के जैसी प्रतिरोधक क्षमता के साथ , उन मुस्कानों की रक्षा भी करती हैं , जोकि भविष्य में चेरोकी राष्ट्र का निर्माण करने वाली हैं !


    ये अच्छा है। सही भी लगता है।

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    1. मुझमें हमेशा से एक अहसास जीवित रहा है कि अगर वे ना होतीं तो ?

      कथा आपको पसंद आई तो मौखिक परम्पराओं के ध्वज वाहकों / लोक साहित्य के सृजनकर्ताओं और हमारे (कमोबेश)अनक्षर पूर्वजों का मान बढ़ा !

      आभार !

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  5. कष्टदायक आख्यान है , कोई भी अपनी जगह से विस्थापित नहीं होना चाहता , यह दुर्दशा हमारे देश ने भी कम नहीं झेली है ! आज भी परिवारों में इसके दंश महसूस किये जा सकते हैं ! आभार आपका !

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  6. १- मै ईश्वर में विश्वास तो नहीं करती किन्तु उसके होने के भ्रम की समर्थक हूँ , कई बार जब सब कुछ आप के हाथ से चला जाता है बर्बादी की मंजर के बिच ईश्वर के होने का भ्रम ही मनुष्य में लड़ने जीने और फिर से खड़े होने की ताकत भरता है , कि कोई है जो हमारी मदद करेगा हमें बस हौसला बनाये रखना है बस आगे कदम बढाना है , यहाँ भी ईश्वर को ही फिर से प्रेरणा का माध्यम बनाया गया है ।
    २- स्त्री का परिवार में हमेसा से योगदान बराबर का रहा है , आदिवासी इलाको में जहा गृहस्थी संभालना भी कठिन है और किसान मजदुर और गरीब तबके में तो आर्थिक रूप से भी उनकी बराबरी की भागेदारी होती है , किन्तु सम्मान कभी नहीं मिला , उसके बावजूद विपरीत परस्थितियो में वही पुनर्निर्माण का काम शुरू करती है , क्योकि वो अपने लिए तो बहुत जल्दी निराश हो जाती है किन्तु जब बात उसके बच्चो और परिवार की हो तो उसमे गजब का उत्साह संघर्ष करने की क्षमता और जीने की ललक आ जाती है , जो उसे फिर से सब बसाने के लिए प्रेरित करता है , जबकि कई बार पुरुष को निराशा के गर्त से बाहर निकालना असम्भव हो जाता है, यही कारण है की इस कहानी में फिर से सृजन का काम स्त्री के सुपुर्द किया गया है । ३- एक स्त्री जहा अपनो के हजार गलतियों को भूल जाती है , वहा दूसरो की गलतियों को न भुलने की उसे आदत होती है , शयद बच्चो के प्रति सचेत होने या उन्हें नुकशान न हो इस कारण ऐसा होता है , इसलिए वो ज्यादा सावधान हो जाती है , बदले की भावना भी जाग जाती है , इसलिए इस कहानी में गोरो को याद रखने की भी बात कही गई है , वैसे लगता है की इसी कारन घायल शेरनी या नागिन ज्यादा खतरनाक होती है जैसी बात की जाती है ।
    ४- स्थानीय लोग हमेसा प्रकृति से अपनी नजदीकियों और लगावो के कारण उसे निर्ममता से दोहन नहीं करते है बस अपनी आवश्यकता के हिसाब से ही उसे लेते है जबकि बाहरी लोगो में ये लगाव नहीं होता है , निजी लाभ ही उनका एक मात्र लक्ष्य होता है ,इसलिए लिए दुनिया में हर कोने में प्राकृतिक संशाधनो और खनिजो से भरपूर जगहों से वहा के स्थानीय लोगो को निकाल दिया जाता है , अपने देश में भी ये लड़ाई चल रही है ।

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  7. (1)
    ईश्वर को लेकर स्वयं मुझे भी भ्रम है ! कई बार उसके विरुद्ध लिखते लिखते रह गया , सोचा पहले स्वयं सुनिश्चित कर लूं तो कहूँ ! हां प्रेरणा वाला मसला ठीक है ! ...पर दंगोत्सुकता से भय लगता है , जोकि उसके अपने सिर माथे का कलंक माना जाना चाहिए और जो अक्सर प्रेरणा पर भारी पड़ता है !

    (२)
    सहमति ! मेरी अपनी जानकारी के मुताबिक आदिवासी इलाकों में स्त्री शक्ति पुरुषों पर भारी है !

    (३)
    ठीक बात ! वे नई नस्ल की असली रक्षक हैं , इस मसले में उनकी तुलना में पुरुष कमतर ही बैठेगा !

    (४)
    सत्य वचन !

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  8. निजी स्वार्थ दुनिया की अच्छी से अच्छी चीज को भी बुरा बना देता है, फिर ईश्वर के नाम पर तो कुछ भी कहा और करवाया जा सकता है , कुछ प्रेरणा ले कर उठ खड़े होते है कुछ "उसकी यही इच्छा है" मान उसी स्थिति में पड़े रहते है , साफ है काम ईश्वर नहीं खुद की इच्छाशक्ति ही काम करती है , और यही पर दो ईश्वर में विश्वास करेने वालो की स्थितियों में फर्क आ जाता है ।

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    1. ईश्वर के नाम की सकारात्मक गतिविधियों पर अपनी कोई आपत्ति नहीं पर यहाँ कुछ लोग ईश्वर के स्वयम्भू रखवाले बन बैठते हैं और उत्पात मचाते हैं , तब बेचारे ईश्वर(?)पर दया भी आती है और उसके स्वयंभू रक्षकों पर अतिशय क्रोध भी !

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    2. ओह ! मुझे लगा की ईश्वर से सहानभूति केवल मै ही रखती हूँ :)
      कुछ कण कण में बसने वाले राम को कुछ एकड़ में ही समेटने में तुले है , और कुछ तो उसके नाम पर अपने पुरे समुदाय के लिए ही दुनिया की नजर में शक पैदा कर दिया है , ईश्वर सबका भला करेगा का दावा करने वाले ईश्वर का भला करने निकल पड़े है ।

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    3. भक्तों के सामने ईश्वर की निरीहता के मामले में,मैं करुणा से ओत प्रोत हो जाया करता हूं :)

      कोई आश्चर्य नहीं कि वे, उसे कण कण में मौजूद कहते भी हैं और सब जीव जगत में व्यापित पाकर भी उसका ही वध करने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते ! दरअसल वे अपना ही भला करने में लगे रहते हैं ,कोई ईश्वरीय आंदोलनों में तल्लीन भक्तों की पहले और बाद की संपत्तियों की तुलना करे तो सही :) जैसा कि आपने अपनी दूसरी टिप्पणी में कहा , निजी स्वार्थ की दुनिया में ...

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