रविवार, 16 दिसंबर 2012

साधक...!

छत्तीसगढ़ राज्य विधान सभा का शीतकालीन सत्र तकरीबन एक हफ्ते और चलने वाला है ! नये चुनाव से ऐन पहले वाला साल शुरू हुआ सो मंझोली तनख्वाहों वाले लिपिक वर्गीय कर्मचारी हड़ताल पर...इधर सरकारी स्कूल कमोबेश बंद जैसे, इसलिए नई पीढ़ी के बच्चे अपने अपने घरों में, जबकि पुरानी पीढ़ी वाले कई, राजसत्ता के शिखर पर, उनके गुरु जी सड़क पर उतर आये हैं ! अब देखना ये है कि, किसे क्या मिलता है ? हड़ताली शिक्षकों को प्रशासन निलंबन के नोटिस थमा रहा है और पुलिस खोज खोज कर राजधानी पहुँचने से रोक रही है, कई जगह उनके तम्बू ज़ब्त ... क्योंकि शासन सख्त !  फिलहाल बातचीत...जारी है !

उधर अमेरिका के एक स्कूल में गोली बारी हुई सो कई निर्दोष जानें अकारथ हुईं ! उनके अपने देश में हिंसा की यह कोई पहली घटना नहीं है...और शायद आख़िरी भी नहीं होगी ! वियतनाम की नन्हीं सी, बदहवास, अपनी जान बचाने की जुगत में भागती हुई बच्ची का अक्स उभरता है, फिर मध्यपूर्व एशिया के वे देश जो कभी इस समाज के प्रिय पात्र रहे...पर प्रिय होने की पात्रता बदलते ही लहुलुहान हुए ! दुनिया का कोई, ऐसा कोना जो उन्होंने रिक्त छोड़ा हो, अपनी सहूलियत के लोकतंत्र, अपने मुनासिब राजतंत्र / सैन्य शासन और खुद के मुफीद धार्मिक पुनुरुत्थानवादी समाजों को बढ़ावा देने या सिरे से ही किसी देश को नेस्तनाबूद कर देने की अपनी कवायद से !

अक्सर सोचता हूं, लोकतंत्र के अलम्बरदार समाज में इतनी हिंसा, इतनी क्रूरता, आखिर आती कहाँ से है ? क्या है, उनकी इस बेचैनी का राज ?  वे हथियारों की सौदागिरी के वास्ते जो जीते जागते विज्ञापन देते हैं, बच्चे / बूढ़े / जवान, देश के देश तबाह-ओ-बर्बाद हो जायें, उनके चेहरों पर शिकन तक नहीं आती ! ओसामा उनकी कोख में परवान पाता है और फिर उनके कहर से मौत ! उनके जनगण, सिखों और अरेबिक मुसलमानों को एक ही समझते हैं, सो उनकी समझ की बलिहारी ! क्या उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता खुले बाज़ार में आलू प्याज की तर्ज़ पर हथियार खरीद पाने की स्वतंत्रता है ?  खैर, उनके अपने देश के भीतर, बाहर की बेचैनी पर चर्चा फिर कभी !

फिलहाल ज़ेहन में एक लोक आख्यान कौंध रहा है, जो शायद समाजों और पीढ़ियों के बनने बिगड़ने के लिए ज़िम्मेदार सामाजिक स्तृतों की ओर संकेत करता है ! किसी स्कूल में एक शिक्षक महोदय, जिन्हें भिक्षु अथवा योगी कहा जाए तो ज्यादा बेहतर होगा, कक्षा शुरू होते ही कुछ खाते रहने और तदुपरांत झपकियाँ लेने में अक्सर मशगूल रहा करते ! उन्हें इस बात की फ़िक्र भी नहीं हुआ करती थी कि उनके सो जाने पर विद्यार्थी क्या करते होंगे, उनकी नींद घंटी बजने पर ही खुलती ! दूर के किसी गांव से मीलों पैदल चलकर स्कूल आने वाले एक निर्धन विद्यार्थी ने उनसे पूछा कि वे अध्यापन के समय सोते क्यों हैं ?

शिक्षक को विद्यार्थी के प्रश्न से असहजता तो हुई पर उसने बात को सँभालते हुए कहा कि, इस समय मैं भगवान बुद्ध से मिलता हूं और उनके अधिकाधिक संसर्ग में बने रहने, फिर अमृत वचन सुनने के लिए ही ज्यादा समय तक सोने की कोशिश करता हूं ! एक दिन अपने बीमार पिता की देखभाल करते हुए वो विद्यार्थी रात भर सो नहीं सका सो स्कूल में कक्षा में ही उसकी आँख लग गई, वो बेहद थका हुआ था ! यहां तक कि, वो अपने शिक्षक की तरह से घंटी की आवाज़ सुनकर जाग भी नहीं सका ! शिक्षक ने जागते ही देखा कि उसका विद्यार्थी सो रहा है तो वो चिल्लाया, अरे दुष्ट, तुम्हारी इतनी हिम्मत, जो मेरी कक्षा में सो रहे हो ?

विद्यार्थी ने कहा, आदरणीय, दरअसल सोते समय, मैं, भगवान बुद्ध के पास था और उनके अमृत वचन सुन रहा था ! इस पर क्रोधित शिक्षक ने विद्यार्थी से पूछा, तो क्या कहा,  भगवान बुद्ध ने तुमसे ? महोदय, सर्वशक्तिमान बुद्ध ने मुझसे कहा कि, मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में, तुम्हारे शिक्षक को कभी नहीं देखा !  एशियाई महाद्वीप की ये लोक कथा यूं तो शिक्षकों और विद्यार्थियों के पारस्परिक संबंधों और दैनिन्दिक जीवनचर्या में परस्पर प्रभाविता पर ना केवल गहरा आक्षेप करती है, वरन समाजीकरण की प्रक्रिया / व्यवस्था के उनींदेपन जनित परिणामों के संकेत भी करती है ! 

गुरु के गुड़ बने रहने और चेले के चीनी हो जाने के बाद, अपनी मांगे मनवाने के लिए छत्तीसगढ़ के शिक्षकों के पास हड़ताल पर चले जाने / सड़क पर उतर आने का विकल्प भले ही मौजूद हो पर उनके भाग्य तय करने का अधिकार फिलहाल उनके अपने द्वारा गढ़े गये साधकों / चेलों के पास सुरक्षित है ! इससे इतर अमेरिकी समाज के मूलतः हिंसक होने ना होने पर चर्चा फिर कभी ...

21 टिप्‍पणियां:

  1. अभी तो लोककथा के शहद में छत्तीसगढ़ के गुरूजनो की पीड़ा, शिष्यों द्वारा पीड़ा को मक्खियों की भुनभुनाहट समझने का दुस्साहस! के साथ-साथ, डंक मारने वाले अमरीकी लोकतंत्र के बर्रे वाली इस पोस्ट की बुनावट ही देख रहा हूँ।

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    1. वे हर साल इसी तर्ज़ पर हड़ताल करते हैं पर हासिल शून्य ही रहता है ! अमेरिकी स्कूलों और छात्रों के दरम्यान कुछ सच निरंतर उबलते / खदबदाते रहते हैं ! दोनों घटनायें एक ही समय में घटित हुईं शायद इसी वज़ह से साथ साथ कह गया !

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  2. ....वर्तमान समाज,जिसका फैलाव छत्तीसगढ़ जैसे रिमोट क्षेत्र से लेकर दुनिया के सबसे विकसित माने जाने वाले देश तक है,की चिन्ताएँ कहीं न कहीं आपस में मिलती हुई हैं ।
    .
    .अमेरिकी समाज का दु: ख इन घटनाओं से कहीं ज़्यादा है पर इसे अहसास करना फिलहाल उनके वश में नहीं है :-(

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    1. हां, कहते वक़्त ज़ेहन में 'शिक्षा व्यवस्था' पर फोकस था, शेष सब बातें उसकी सह-उत्पाद मानी जायें!

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  3. o kahte hain na samajhdar ke liye ishara kafi.......baten, sari baad ke liye chorte hue kah kar bhi aapne bahut kuch kah diya......


    pranam.

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  4. छत्तीसगध को ज़हन में रखते हुए......

    "घर से है बहुत दूर चलो यूँ करले
    किसी जागे हुए शिक्षक को सुलाया ! जाये !!"

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    1. जी, आपकी टिप्पणी का संशोधित वर्शन पढ़ता हूं !

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  5. यूँ पढ़ा जाये....

    "घर से स्कुल है बहुत दूर चलो यूँ करले

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    1. घर से स्कूल है बहुत दूर चलो यूँ करलें
      किसी जागे हुए शिक्षक को सुलाया जाये।
      ..वाह!

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    2. शे'र के वज्न को बरकरार रखने के लिए यूं कहना मुनासिब होगा:
      घर से मकतब है बहुत दूर चलो यूं कर लें,
      किसी जागे हुए टीचर को सुलाया जाए!

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    3. मंसूर अली साहब,
      आपने जो किस्सा छेड़ा उसे भाई देवेन्द्र पाण्डेय और सलिल जी तरीके से ले उड़े! मुझे निजी तौर पर सलिल जी का शेर ज्यादा बेहतर लगा !

      बाकी पाण्डेय जी ने भी आपके संदेशे में अपनी विभागीय खुन्नस मौक़ा देखा जड़ डाली जैसा लगा :)

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  6. अमेरिका के बेहिस हालत और हिन्दुस्तानी उस्ताद के आख्यान तक सारी दास्तान एक कॉमन धागे से बुनी हुई लग रही है.. बहुत कुछ तो नहीं है कहने को.. हाँ उस्तादों की बात निकली है तो मुझे "राग दरबारी" के मास्टर साहब याद आ गए!!
    अली सा., आपकी इतनी लंबी नींद...!!

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    1. सलिल जी ,
      ज़िन्दगी में रोजी रोटी नाम का एक फ्रंट और भी है,जहां मुतवातिर जागते रहने के सबब,ब्लागिंग का फ्रंट 'मरघट' साबित हुआ :)

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  7. .
    .
    .
    अली सा., आपकी इतनी लंबी नींद...!!

    शिक्षक सोते ही रह गये पर वह विद्मार्थी अवश्य बुद्ध बन गया...

    अमेरिका का हाल का यह बच्चों का कत्लेआम और उसे करने वाला वह सरफिरा... यह उस समाज की एक त्रासदी है कि कैसे कोई अपने व दूसरों के जीवन को इतना मूल्यहीन मान लेता है, पर मुझे यहाँ भी कुछ उसी ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं बच्चे... कामना करता हूँ कि मैं गलत होऊँ...


    ...

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    1. वहां ये सब एक संयोग मात्र नहीं है,हो रही घटनायें किसी गहरी सामजिक त्रुटि का संकेत तो करती ही हैं! बेशक मानव जीवन अनमोल है सो आपकी कामना के साथ मुझे भी शामिल मानियेगा!

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  8. इतने बड़े देश में कुछेक मानसिक रोगियों का होना उतना बड़ा आश्चर्य नहीं है जितना कि छोटे-छोटे देशों मे हिंसक मनोरोगियों की भरमार होना। मासूम बच्चों को श्रद्धांजलि और उनके परिजनों के लिए इस असीमित दुख को सह सकने की शक्ति सामर्थी की कामना है!

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    1. जो देश हिंसक मनोरोगियों से भरे हुए हैं वे तो पहले से ही 'घोषित बीमार' हैं सो उन पर अतिरिक्त टीप की आवश्यकता नहीं बनती ! किसी बड़े देश और सभ्य माने जाने वाले समाज में कुछेक मनोरोगी महज संयोग होते तो बात कुछ और होती ! उनके अपने अंदर कभी चर्च , कभी गुरुद्वारा और ज्यादातर स्कूलों में ये सिलसिले थमते नहीं दिखते ! धार्मिक संस्थानों को छोड़ भी दिया जाए तो स्कूलों के मामले इग्नोर करने लायक नहीं हैं ! मेरे लिए यह गंभीर सामाजिक त्रुटि / व्याधि के लक्षण हैं !

      इस आलेख का मकसद बच्चों की दु:खद मृत्यु के दुःख भार का विस्तार सारे संसार में एक समान तरीके से महसूस करने की कामना के साथ हिंसक वृत्ति के उस पक्ष की ओर संकेत करना भी है जो सारे संसार की अशांति और अपने अंतर की अशांति को अलग अलग करके देखने से सम्बंधित है ! ताकतवर देश के ताकतवर राष्ट्रपति के आंसू सारी दुनिया के अकाल काल कवलित बच्चों का अधिकार हैं !

      अंततः कहना केवल इतना है कि ईश्वर उन सब बच्चों के परिजनों को अयाचित दु:ख भार सहने का हौसला दे! हमारे अपने आंसू और हार्दिक संवेदनायें उनसे असंपृक्त नहीं हैं !

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  9. दुर्भाग्य से आज हालत ये है कि बच्चे के रोने चिल्लाने से पहले मां को दूघ की सुध भी तो नहीं होती, गुरूजी भी क्या करें, समाज की चिंताएं अपनी जगह हैं तो परिवार की अपनी जगह

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