गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

नन्हे बिस्तर की नींद ...!

उस मां का सात वर्षीय पुत्र , नन्हा , आकर्षक और इतने भले स्वभाव का , कि जो भी उसे देखे सो पसंद ही करे ! अपनी मां के लिये वो दुनिया में सबसे प्रिय , बेहद अनमोल शय ! एक दिन अचानक उसकी मृत्यु हो गई ...अब उसकी मां के पास सांत्वना की कोई राह नहीं थी...दिन रात आंसुओं में डूबी रहती , बहरहाल मृतक शिशु के अंतिम संस्कार के बाद , हर रात , वो उन स्थानों पर बैठते और खेलते हुए दिखाई देता , जो उसे जीवित रहते हुए प्रिय थे ! मां उसे देखती...आर्तनाद करती तो मां की तरह शिशु भी ! लेकिन सुबह होते होते वह अदृश्य हो जाता ! इससे आगे कहना ये कि मां का क्रंदन थमने का नाम ही नहीं ले रहा था...और एक रात वो अपनी उस सफ़ेद कमीज़ को पहने हुए प्रकट हुआ , जिसे पहने हुए उसे , उसके ताबूत में अंतिम विदाई दी गई थी !

अपने सिर पर पुष्पचक्र धारण किये हुए वो , अपनी मां के बिस्तर पर , उसके क़दमों के पास जा बैठा और उसने कहा , ओ मां , कृपया , अब रोना बंद कर दे वर्ना अपने ताबूत में , मैं चैन से सो नहीं सकूंगा , क्योंकि तेरे आंसू लगातार बहते हुए , मेरी कमीज़ को भिगोते रहेंगे और मैं इसके सूखे बिना , सो नहीं पाऊंगा ! उसकी इस बात ने मां को चौंका दिया और फिर उसने रोना बंद कर दिया ! अगली रात , मां के पास वो फिर आया , उसके हाथों में नन्ही रौशनी थी , उसने कहा , मां देखो , मेरी कमीज़ लगभग सूख गई है ! अब मैं अपनी समाधि में चैन से सो सकूंगा ! तब उसकी मां ने अपना सारा दुःख , धैर्य और शांति के साथ ईश्वर को समर्पित कर दिया तथा शिशु की मृत्यु को स्वीकार किया ! इसके बाद वो शिशु कभी वापस नहीं लौटा , धरती के आगोश में अपने नन्हे बिस्तर की नींद से... 

जर्मनी के इस आख्यान को हर्फ़ दर हर्फ़ बांचते हुए , हलक खुश्क हो जाता है , अंदर गहन अवसाद पैठ जाता है ! असीम दुःख गोया पूरे अस्तित्व में पसर गया हो , एक अज़ाब सा...उस मां का दुःख जैसे कथा के पाठक के दुःख से अभिन्न हो ! एक हंसमुख शिशु की मृत्यु के कथन को सहजता से स्वीकार करना कठिन होता है ! उम्र के मानदंड पर इसे मृत्यु की सामान्य स्थिति नहीं माना जा सकता ! कथा से गुज़रते हुए शोक की अनुभूति , कथा के विवेचन में विषयान्तर को विवश करती है , संभवतः ऐसा ही मेरे साथ भी घटित हुआ जो मैं सीधे सीधे कथा के मंतव्य पर चर्चा प्रारंभ नहीं कर सका ! इस आख्यान में स्वजनता के शीर्ष / चरम उद्धरण , मां और उसकी नन्ही संतति को आधार बना कर , मृत्यु की आकस्मिकता / अपरिहार्यता और आयु पर उसकी अ-निर्भरता का संकेत किया गया है ! 

अपने जीवन काल के प्रिय स्थानों से शिशु का मोह मृत्यु के उपरान्त भी बना हुआ है , सो इसे आत्मा की अतृप्ति और भटकाव का कथन माना जाए ! कब्र की शैया पर शिशु की गहन / चिर निद्रा को चैन की नींद सोना कहते हुए यह कथा आत्मा की मुक्ति की ओर इशारा करती है , जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि मां और पुत्र के परम आत्मीय संबंधों के संवेदनात्मक धरातल पर कही गई इस कथा में आंसुओं और आर्तनाद की निरंतरता , पुत्र की आत्मा को बार बार अपनी मां के पास लौटने पर विवश करती है ! उसकी आत्मा मुक्ति चाहती है पर मां का प्रेम उसे मुक्त नहीं होने देता ! वह अपनी मां के दुःख से दुखी होकर उसके आस पास भटकता रहता है ! संभव है कि मृत शिशु को दफनाते वक़्त जो कमीज़ पहनाई गई थी वो उसे और उसकी मां को प्रिय रही हो ?

गौर वर्ण जर्मन शिशु पर शुभ्र धवल वस्त्र का सौंदर्य शिशु के जीवन काल से लेकर उसकी मृत्यु के बाद तक उसके साथ बना रहे जैसा आशय ! मां के अंतहीन दुःख को ईश्वर को समर्पित कर , अघट के प्रति धैर्य / शांति बनाये रखने का सन्देश कमीज़...आंसुओं और नींद की प्रतीकात्मकता में अदभुत तरीके से मुखरित होता है ! उस कमीज़ में शिशु मां को अतिप्रिय रहा होगा या फिर कमीज़ शिशु को और कमीज़ में शिशु मां को ! मृत आत्मा की मुक्ति को चैन की नींद कह कर , ताबूत / समाधि को धरती के आगोश में नन्हा बिस्तर कहना जैसे कि मिट्टी ( देह ) का मिट्टी में मिल जाना ! मां अपने दुःख का परित्याग करे तभी शिशु की आत्मा उसके आंसुओं के सैलाब से निपट पायेगी और प्रस्थित हो सकेगी , शांत अंतिम निद्रा में लीन उस संसार की ओर जो ईश्वर रचित अंतिम सत्य हो सकता है ?

26 टिप्‍पणियां:

  1. ...हकीकत कई बार इतनी तल्ख होती है कि उसे संभालने के लिए ख्वाब का सहारा लेना पड़ता है ।
    ...ऐसे दर्द न देखे जाते हैं और न सुने ।

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  2. स्वीकार करने में ही मुक्ति है , जाने वाले की भी और पीछे रहने वालों की भी .

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    १- इंसान हमेशा, हर हाल में जिंदगी का वरण करना चाहता है, इसके लिये जरूरी है कि मौत को भूल/भुला दिया जाये।
    २- इस काम में इंसान का सबसे बड़ा हथियार है उसका दिमाग।
    ३- यह दिमाग की विजयगाथा है... यहाँ माँ का न थमने वाला क्रंदन हकीकत था... पर यह सब चलता ही रहता तो जिंदगी रूक जाती... फिर दिमाग खेल में उतरा... अब माँ को मृत शिशु भी दिखना शुरू हो गया... वह भी रोता... फिर एक बार उसने माँ को अपनी नींद का वास्ता दे चुप रहने को कह ही दिया... माँ चुप तो हो गयी पर फिर भी उसे याद करती रही... वह फिर आया सूखी सफेद कमीज पहने... अब माँ ने अपने लाडले की मौत को स्वीकार कर लिया, भूल गयी उसे... और जिंदगी ने फिर से रफ्तार पकड़ ली...
    ४- जिंदगी को बचाने के लिये दिमाग इस तरह के खेल सबके साथ करता है...
    ५- दिमाग की यादों को भुला पाने की यह क्षमता कुदरत की सबसे बड़ी नियामत है इंसान को... अगर हम सब कुछ हमेशा याद रखें, कभी भूल न पायें, तो हमेशा या तो रोते ही रहेंगे, खोये प्रियजनों के लिये, या लज्जित-अपमानित व बदले की आग में जलते रहेंगे, दुश्मनों को याद रखते हुऐ ।...



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    1. सुन्दर ! शानदार प्रतिक्रिया ! कथा का इससे बेहतर स्पष्टीकरण शायद हो भी नहीं सकता था !

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  4. शायद मुझे इस लेख की बहुत आवश्यकता थी प्रोफ़ेसर...
    प्यारों का विछोह, दारुण दुख देता है मगर भूलना होगा उन्हें !
    आभार भाई जी !

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  5. शोक की घडी में यह कहकर चुप करवाया जाता रहा है कि जितने तुम्हारे आंसू निकलेंगे , उनके लिए खून की धार होगी. उलझन होती है इस विषय पर क्या कहा जाए ...
    जिसका दर्द ,वही समझता है !!

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  6. दुख तो ह्रदय से कभी जाता नहीं...पर उसे भुलाकर या कहें अन्तःस्थल में छुपा कर जीना ही पड़ता है. इसीलिए मन की शान्ति के लिए ,ये सारे तर्क गढ़े जाते हैं कि मृतक की आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी...उसे मुक्ति नहीं मिलेगी.
    कहानी की माँ ने पहले भी यह सब सुन रखा होगा...इसीलिए उसके मस्तिष्क ने उसे इस रूप में सब समझाया.

    अत्यंत मार्मिक कहानी .

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  7. आपने मौत से सम्बंधित जितने भी किस्से सुनाये, उनमें यह किस्सा सबसे हौलनाक है.. मौत की अवश्यम्भाविता के बावजूद भी हम मौत को हमेशा अस्वीकार करते आये हैं और उसकी वास्तविकता से मुख मोड़ते आये हैं. किसी की मौत पर लोग कहते हैं ना कि यकीन नहीं होता, अच्छे भले थे, अभी उम्र ही क्या थी आदि.
    फिर भी यह किस्सा एक मासूम की मौत और उसके अपनी माँ के साथ ममता के रिश्ते को इतने मार्मिक रूप से दर्शाता है बस आँखें नम हो जाती हैं. कथा के विश्लेषण की ओर न भी जाएँ, तब भी ऐसी घटनाएँ पढकर जी कचोटने लगता है. और यही कचोट इस कथा के दोनों पात्रों के अंदर भी है.
    अपनी ओर से कुछ बातें कहना चाहूँगा:
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    १. भले ही यह केमिस्ट्री का सिद्धांत हो, लेकिन इंसानों पर भी लागू होता है कि कोई भी शख्स 'एक्साइटेड स्टेट' में ज़्यादा देर नहीं रह सकता, उसे 'ग्राउंड स्टेट' में आना ही होता है. अब ये खुशी के हालात भी हो सकते हैं और गहरे दुःख या सदमे के भी. देखा भी है हमने कि गहरे सदमे से जब इंसान बिलकुल चुप हो जाता है तो उसे रुलाने का जतन किया जाता है, ताकि वो मामूल पे वापस हो सके.
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    २. आर्थर जानोव की पुस्तक Primal Scream कमोबेश ऐसी ही बातें करती है, जहाँ एक चीख कई दवाओं के बराबर काम करती है. जितना गहरा दुःख, उतनी ही गहरी चीख.
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    ३. यहाँ उस औरत के न थमने वाले आंसू यानि दर्द उसे उस बच्चे से जोड़ रहे थे और माँ की सिसकियाँ उस बच्चे को अपनी कब्र में सोने नहीं दे रहे थे. कहते हैं कि मौत का मतलब सारे बंधन से आज़ाद होना होता है, लेकिन यहाँ यह बंधन एक जहाँ से दूसरे जहाँ तक कायम था. संसार के कायदे के उलट. नतीजा दोनों के लिए उस बंधन का टूटना ज़रूरी था.
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    ४. अब उस बंधन को तोडने का काम कौन कर सकता था. शायद उस बच्चे के अलावा कोई नहीं. हम खुद अपने को वहाँ रखकर सोचें तो यह कह सकते हैं कि ऐसे प्यारे बच्चे की मौत पर उसकी माँ को दिलासा देना कितना मुश्किल काम होता होगा. लिहाजा उस बच्चे को ही कब्र से उठकर आना पड़ा ताकि वो अपनी माँ को इस गहरे सदमे से निजात दिला सके. उसके अलावा किसी और की बात तो उसकी माँ मान भी नहीं सकती थी.
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    ५. आखिर में, आज भी हम मानते हैं कि जिस शख्स का दिल या दिमाग इस दुनिया में लगा रहता है, वो सद्गति को प्राप्त नहीं होता.
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    यह कहानी एक बड़ी प्रैक्टिकल सीख भी देती है कि दुनिया में किसी का काम, किसी के बगैर नहीं रुकता और यह सचाई हम जितनी जल्दी रियलाइज कर लें, उतना हमारे हक में बेहतर है और उसके भी, जो चला गया.
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    इस पोस्ट से हटकर गुलज़ार साहब की एक नज़्म याद आ रही है जिसमें माँ और बच्चे की जगह आपके इस किस्से के हिसाब से तब्दील हो गयी है. मगर असर वही है. फिर कभी! मगर अभी तो दिल में एक अजीब खालीपन का एहसास है!!

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    1. आज कई दिनों बाद वापस आया तो धन्यवाद ज्ञापित करने का सिलसिला शुरू किया,सच ये कि आपकी टिप्पणी नि:संदेह धन्यवाद से कहीं ज्यादा की हक़दार है ! स्मरण रहे कि मैंने पहले भी कहा है आप कथा(आभूषण)में मनके(रत्न)जड़ते हैं !

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  8. इसीलिए जब कोई मरता है तो कहते हैं, "मत रो! मरने वाले की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।"

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  9. मौत से ज़ियादा पाक़ीज़ा सच इस दुनिया में यक़ीनन कोई और नहीं....पर सच है की किसी अपने की आँखों से अनवरत बहने वाले आंसू किसी को भी चैन और सूकून से रहने नहीं देते हैं फिर चाहे आसमानी दुनिया हो या ज़मीनी । मन का मर्म बख़ूबी उकेरा आपने अली साहब...लाजवाब...अल्लाह आपक़ी क़लम का जादू यूं ही बरक़रार रखे............॥

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  10. कुछ इसी प्रकार का प्रकरण हमारे यहां भी प्रचलि‍त है कि‍ आंसू की एक बूंद, जाने वाले के रास्‍ते में एक नदी बन कर उसका रास्‍ता रोकती है. संभवत:, यह बात भी मृत्‍यु को सहजरूप से स्‍वीकार करने को प्रेरि‍त करती है.

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  11. shradheya ali sa.....


    bahut din bhaye......balak ghum-gham ke laut jata hai........

    kuch thanda-garam parosa jai.....


    pranam.

    p.s ... tippani padh delete kar dijiyega

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