लोक आख्यानों को पढ़ते हुए अक्सर ऐसा लगता है कि उनमें से ज्यादातर स्त्री विरोधी संदेशों से भरे पड़े हैं ! संसार में पुरुषों के वर्चस्व , उनकी प्रभुता को स्थापित करते हुए / करने का यत्न करते हुए ! इसमें कोई शक नहीं कि सामाजिक ताने बाने की यथास्थिति , पुरुषों के हित में है ! शताब्दियों पुराने आख्यान और उनसे मिलने वाले सामाजिक विवरण इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि पुरुष वर्ग बहुत लंबे समय से अपने हित साधन में सफल बना रहा है ! उसने स्त्रियों की तुलना में स्वयं के श्रेष्ठतम होने के दावे की बुनियाद कब रखी थी ? कह नहीं सकते ? ...पर यह निश्चित है कि ये अवधि दस / बीस / पचास सालों के बजाये हजारों वर्षों की मापनी में ही देखी जायेगी ! स्त्रियों को संपत्ति बतौर देखे जाने / उन्हें भोग की वस्तु समझे जाने का , चलन नया नहीं है !
उनके दासत्व की धारणा को उनके ही अंतर्मन में प्रत्यारोपित करने में वह कैसे सफल हुआ ? क्यों सफल हुआ ? चिंतन का विषय तो खैर है ही ! हम सभी जानते हैं कि लोक आख्यान , वाचिक परम्पराओं के अंग होने की स्थिति में पीढ़ी दर पीढ़ी संशोधित होकर कहे जाने की संभावनाओं से मुक्त नहीं हैं और पुरुष वर्ग समाज में अपने आधिपत्य और यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिए इस अवसर का लाभ हमेशा से उठाता आया है ! कहने का आशय यह है कि मूलतः कहे गये लोक आख्यान , तो , उसके पक्ष में थे ही पर वह बाद में भी उन्हें अपने पक्ष में बनाये रखने की कवायद के तहत , आख्यानों में अपनी मनमर्जी के संशोधनों को जोड़ने से कभी नहीं चूका , अन्यथा कोई कारण नहीं था कि शताब्दियों तक जीवित रहे , आख्यान केवल उसके ही पक्ष में बने रहे ?
सामान्यतः पुरुष आरोपित दासता के विरुद्ध एक बड़ी जनसंख्या का प्रतिरोध / चिंतन , आधुनिकता की देन माना जाता है , इसलिये मुझे बेहद हैरानी हुई , जब कि मैं इस कथा को बांच रहा था ! कही गई कथा के पुराने संस्करण भले ही पुरुषों के पक्ष में रहे होंगे पर नया संस्करण स्त्रियों के प्रतिरोध और उनके जाग उठने के संकेत देता है ! यह स्पष्ट नहीं है कि http://www.corsinet.com/braincandy ने इस आख्यान का संशोधित और अद्यतन संस्करण कहां से संकलित किया है किन्तु कहन से ऐसा लगता है कि इसका स्रोत पूर्वी एशिया का ही कोई स्थान हो सकता है ? हालांकि संकलक ने इस कथा को हास्य की श्रेणी में माना है , किन्तु कथा का अंत , कथा के ‘अंदरूनी मंतव्य’ को , प्रतीकात्मक रूप से , जिस अंदाज़ में ख़ारिज करता है , उससे स्त्रियों में नवचिंतन के प्रखर संकेत मिलते हैं !
आख्यान कहता है कि बहुत समय पहले की बात है , जब किसी दूर देश में एक सुन्दर राजकुमारी रहती थी ! पूर्णतः आत्म निर्भर , आत्म विश्वास से युक्त वो युवती अपने महल के आस पास के हरियाले मैदान के निकट , एक अप्रदूषित स्वच्छ जलाशय के किनारे बैठ कर पारिस्थितिकी चिंतन कर रही थी ! तभी एक मेढ़क कहीं से कूद कर , उसकी गोद में आ बैठा और कहने लगा ...ओ रमणी , पहले कभी मैं भी एक सुन्दर राजकुमार था किन्तु एक दुष्ट जादूगरनी / चुड़ैल ने मुझे जादू से मेढ़क बना दिया है , यदि तुम मुझे एक चुम्बन दे दोगी तो मैं फिर से राजकुमार बन जाऊंगा ! मेरी प्रिय ... उसके बाद हम दोनों विवाह कर सकते हैं !
विवाह के बाद हम दोनों अपने शानदार महल में रहेंगे ! जहां तुम व्यवस्थित होकर मेरी मां की सेवा करना ! अपने घर के सारे कामकाज तुम खुद संभालना , सारा इंतजाम देखना ! मेरे लिए खाना बनाया करना ! मेरे कपड़े धोना ! मेरे बच्चों को पैदा करना , उनका पालन पोषण करना और इस तरह से हम दोनों हमेशा हमेशा , खुशी खुशी आगे का जीवन गुजारेंगे ! ...और फिर उस रात , उस सुन्दर राजकुमारी के महल में रात्रि कालीन दावत के समय , परोसी गई सफ़ेद शराब की चुस्कियां लेते हुए और प्याज क्रीम सॉस में डुबा कर मेढ़क की हल्की भुनी हुई टांगों को चबाते हुए राजकुमारी बुदबुदाई ... किन्तु मैं ऐसा नहीं सोचती !
[ मित्रो यह बहुश्रुत आख्यान का भावानुवाद है इसकी अंतिम ढ़ाई पंक्तियां संशोधन प्रतीत होती हैं ,गौर तलब है कि इन पंक्तियों ने पूरी कथा का अर्थ / मंतव्य ही बदल डाला है ]
[ मित्रो यह बहुश्रुत आख्यान का भावानुवाद है इसकी अंतिम ढ़ाई पंक्तियां संशोधन प्रतीत होती हैं ,गौर तलब है कि इन पंक्तियों ने पूरी कथा का अर्थ / मंतव्य ही बदल डाला है ]
इस राजकुमारी की शिकायत मनेका गांधी से करनी पड़ेगी!
जवाब देंहटाएंसही है कि हमारे यहाँ पारंपरिक रूप से समाज में पुरुषों का वर्चस्व आदिकाल से रहा है,पर कभी इसी देश में गार्गी,अपाला जैसी स्त्रियों का बोलबाला भी रहा है.
जवाब देंहटाएं...यह आख्यान समाज और स्त्रियों के बदलते हुए दृष्टिकोण को बताता है और यह भी कि पुरुष-प्रवृत्ति अपने कर्मों के फल भोगकर भी उससे सीख लेने को तैयार नहीं है.
स्त्रियों के चमकते सितारे और बिन भेदभाव समस्त स्त्रियों का वजूद , इन दोनों बिंदुओं पे बढ़िया विमर्श किया जा सकता है ! अच्छी टिप्पणी के लिए धन्यवाद संतोष जी !
हटाएंइस बार तो देवी मीमांसा ऊपर ही चढ़ बैंठी लेखक के ....
जवाब देंहटाएंकहानी का अंत निश्चय ही अत्याधुनिक है -और हास्य मूलक बन पड़ा है जैसा आपने भी इंगित किया !
आज का दिन उनके लिए :)
हटाएंमगर मैं एक अत्याधुनिक /ब्लॉग -कथा जानता हूँ जिसमें प्रतिशोध देवि के शयन कक्ष में ही एक कब्र बन गयी थी उन हतभाग्य लुहेडों की जिन्होंने भूल से भी कोई इशारा कर दिया था उस शफ्फाक सौन्दर्य पर ...
जवाब देंहटाएंये प्रतिशोध की देवियों का जीन हमेशा रहा है सूरतें बदल गयी हैं !
:)
हटाएंप्रेम की शुरुआत इतनी शर्तों से ....अरेंज मैरिज में ऐसे शर्तें हो तो समझ आता है :)
जवाब देंहटाएंआत्मनिर्भर आत्मविश्वासी स्त्री इन शर्तों पर प्रेम नहीं करेगी ...मगर जिससे प्रेम हो जाएगा क्या उसके लिए भी नहीं !
यह हास्य कहाँ है , आधुनिक सन्दर्भ , अत्याधुनिक चिंतन !
शुक्रिया !
हटाएंपुरुष मानसिकता पर बहुत करारा कटाक्ष है यह.
जवाब देंहटाएंअपना भोजन बनाने का और कपड़े धोने का अधिकार दे जैसे उन्होंने मनों अहसान तले दबा दिया हो.
ब्रायन कैंडी साधुवाद के पात्र हैं...अब यह दृष्टांत पहले से ही किसी आख्यान में शामिल था...या उन्होंने अपनी मर्जी से कहानी में डाला....या फिर किसी आत्मनिर्भर युवती को देख यह ख्याल आया हो उनके मन में...कि वह सामाजिक विचारधारा के विरुद्ध भी सोच सकती है. यानि कि उसके पास भी एक दिमाग है..सोचने की शक्ति है...यह स्वीकार करना ही अपने आप में एक बड़ी बात है.
यह कथा...सामाजिक बदलाव का संकेत देती है.
अच्छी प्रतिक्रिया ! मन:स्थितियों में बदलाव सारे बदलावों का आद्य बिंदु है ! ब्रायन कैंडी तो धन्यवाद के पात्र हैं ही क्योंकि उन्होंने यह कथा संकलित की है , किन्तु उनके अलावा वे लोग , जिन्होंने ये कथा कही है और भी बड़े धन्यवाद के हक़दार हैं !
हटाएंहमें तो अंतिम ढाई पंक्तियाँ ही आनन्द दायक लगीं...
जवाब देंहटाएंराजकुमारी समझ दार थी !
आभार ! आप जानते हैं ना , कि यह कथा क्यों कही गई :)
हटाएंप्यार पर दया होनी भी नहीं चाहिए ... :)
हटाएंक्रूरता शक्ति की एक पहचान है !
प्रेम एकतरफा हो तो सख्ती से पेश आना तो बनता ही है :)
हटाएंयह राजकुमारी उस जादूगरनी से ढाई कदम आगे निकली. मेढक बनाना प्रतीक है मूर्खता का और एक बार धोखा खाकर भी पुनः आसक्त होना प्रतीक है महामूर्खता का. परिणाम तो यही आना था. ः)
जवाब देंहटाएंसहमति और शुक्रिया :)
हटाएं:):):)
हटाएंpranam.
धन्यवाद सञ्जय जी !
हटाएंसुज्ञ जी
हटाएंमेरी समझ से मेढक मुर्खता का प्रतिक नहीं है यदि उसे मुर्ख बनाना होता तो गधा बनाती , असल में जादूगरनी ने उसे वही बनाया जो वो था एक ही बात हजारो सालो से दोहराने वाला एक ही टर्र टर्र करने वाला मेढक , जो इसके आलावा कुछ जानता ही नहीं, गधा भी अपना शुर बदलता है समय के अनुसार पर मेढक जब भी बोलता है तो बस टर्र ही बोलता है यानी हर महिला के पास जा कर उससे एक ही उम्मीद करना एक ही बात कहना |
@ एक बार धोखा खाकर भी
अब इसे धोखा मत कहिये इसे कहते है एक ही गलती को बार बार दोहराना, स्त्री को समझना नहीं सभी के सामने एक ही रट लगाये रखना समय के साथ बदलना नहीं, पर हर स्त्री की प्रतिक्रिया अलग हो सकती है एक बार में संभल जाये नहीं तो शायद दूसरा मौका ना मिले |
अंशुमाला जी,
हटाएंआपने सही फरमाया, "उसे वही बनाया जो वो था एक ही बात हजारो सालो से दोहराने वाला एक ही टर्र टर्र करने वाला मेढक" अक्ल ही नहीं कि सुर बदलना होता है,नासमझ है रट लगाए रहता है समय के साथ बदलना होता है।
@अब इसे धोखा मत कहिये…
हाँ यह भी सही है धोखा नहीं, गलती दोहराना ही होगा। और यह भी कि "हर स्त्री की प्रतिक्रिया अलग हो सकती है एक बार में संभल जाये नहीं तो शायद दूसरा मौका ना मिले|" और दूसरा मौका मिला भी नहीं न पहला न अन्तिम!! यही हश्र होता है, टर्र टर्र की रट का। :)
यह कथा लोक आख्यान की श्रृंखला में पाठकों के लिए 'बूस्ट' बनकर आई है। :)
जवाब देंहटाएंपाठकों को हार्दिक धन्यवाद जो मामला 'बूस्ट' के आने तक संभाले रखा :)
हटाएंकाश, जादूगरनी ने बकरा नहीं तो मुर्गा तो बना ही दिया होता। राजकुमारी के साथ साथ उसकी सहेलियाँ भी इस पूर्व राजकुमार की दावत खा पातीं।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
अगर मेजबान का दिल बड़ा हो तो, बांट कर तो मेंढक भी खाया जा सकता है, सवाल क्वांटिटी का नहीं नियत का बनता है!
हटाएं.
हटाएं.
.
भले ही बहुत थोड़ा सा ही सही, पर अली सैयद साहब, घुघूती बासूती जी के साथ यह दावत खाने आपको और मुझे भी जाना चाहिये... :)
...
इन राजकुमारियों की तक़दीर में राजकुमार ही लिखे होते हैं। जो युद्ध में मारे जाते हैं या जीते रहते हैं तो भी उन्हें यौवन से मतलब होता है। जिसका भी मिले और जैसे भी मिले। जब उनका अंतः पुर रानियों से भर जाता है तब राजकुमारियों को मेंढक बहुत याद आता है।
जवाब देंहटाएंबाप का विरसा तगड़ा हो तो हर शौक सूझता है !
हटाएंगूगल के प्रदान किये गये सभी " मुस्कराहटो " के चिन्हों को ध्यान से देखा पर उसमे से एक भी ऐसा नहीं था जो इस समय ब्रायन कैंडी की किस्से को पढ़ कर आई चेहरे के मुस्कान और मन के भावों को सही तरीके से प्रदर्शित कर सके | मेरी कहानी में राजकुमारी मेढक की टांगो को चबाते हुए बुदबुदाती है कि " आखिर ये मेढक मेरा पास आ कर टर्रा क्या रहा था मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आया " :) इस मुस्कराहट में थोड़ी कुटिलता भी मिला लीजिये | मतलब ये निकलेगा कि अब नारी उन पुरातन सोच को सुनने के लिए भी तैयार नहीं है, पर इन "मेढ़को" को बताये कैसे इन्हें तो हजारो सालो से टर्राने के सीवा कुछ समझ ही नहीं आता है | कहानी में हास्य है पर वो हास्यप्रद नहीं है हंसी का पात्र मेढक है राजकुमारी नहीं, उसने तो सही प्रतिक्रिया दी है पर उसे समझने के लिए वो बचा ही नहीं, जो बचे है वो ठीक से समझ जाये यही उम्मीद है | |
जवाब देंहटाएं@इन "मेढ़को" को बताये कैसे………
हटाएंइसीलिए तो राजकुमारी कर गुजरती पहले है और सोचती बादमें है (……चबाते हुए राजकुमारी बुदबुदाई ... किन्तु मैं ऐसा नहीं सोचती !):)
निश्चित ही हंसी का पात्र मेढक है राजकुमारी नहीं
और आपकी यह बात बहुत ही प्रखर, सटीक और गहन है……"उसने तो सही प्रतिक्रिया दी है पर उसे समझने के लिए वो बचा ही नहीं, जो बचे है वो ठीक से समझ जाये यही उम्मीद है"
[ मित्रो कल तबियत नासाज थी, नेट पर आमद ना के बराबर रही आज देखा तो कमेन्ट काफी आ चुके हैं ]
हटाएंप्रिय सुज्ञ जी,
आपके कमेन्ट में संशोधन चाहूंगा, राजकुमारी ने 'बुदबुदाकर कहा कि मैं ऐसा नहीं सोचती' तो यह जबाब हुआ, लेकिन इसका मतलब यह कैसे निकला जाये कि उसने पहले किया और बाद सोचा ?
उसने डिनर की तैयारी बिना सोचे तो नहीं की होगी ?
चूंकि पात्र मर चुका है तो यह जबाब सारे पुरुष वर्ग को संबोधित माना जाये, वैसे पात्र को जबाब तो मारे जाते समय ही मिल चुका होगा :)
अंशुमाला जी ,
हटाएंमेढ़क को एक प्रवृत्ति मान लीजिए,जो घटनाक्रम,अपने ही पक्ष में घटित होने की पुनरावृत्ति चाहती है! राजकुमारी इस प्रवृत्ति का खंडन करती है, मेढक को खाया जाना, प्रतीकात्मक रूप से इस प्रवृत्ति का सशक्त प्रतिरोध माना जाये!
अली सा,
हटाएंसंशोधन स्वीकार्य!! ऐसे भी कहा जा सकता है कि सोचकर प्रतिक्रिया पहले की और सोच का प्रकटीकरण बाद में :)
@ पात्र को जबाब तो मारे जाते समय ही मिल चुका होगा :)
दुखद यह है कि सबक पाए तब तक प्राण-हरण हो चुका था। बदकिस्मत को सुधार-सम्वर्धन-समालोचन का अवसर भी नहीं मिला :)
मेरी नजर में कथा-सार यही है कि अत्यधिक तृष्णाओं,मोहांध अपेक्षाओं का अंत बहुत बुरा होता है, प्रतिरोधी अगर हिंसक मिल जाय, अथवा हिंसक दावती मिल जाय तो मौत निश्चित। (इस मेंढ़क को पुनः राजकुमार बनने का अवसर भी न मिला)
अंशुमाला जी, से पूर्णतः सहमत, "जो बचे है वो ठीक से समझ जाये यही उम्मीद है" कथा से उचित बोध ग्रहण किया जाना चाहिए।
धन्यवाद !
हटाएंसुज्ञ जी
हटाएं@ दुखद यह है कि सबक पाए तब तक प्राण-हरण हो चुका था। बदकिस्मत को सुधार-सम्वर्धन-समालोचन का अवसर भी नहीं मिला :)
एक जादूगरनी ने उसे मात्र मेढक बनाया उसके प्राण नहीं लिए अब इससे ज्यादा सबक ले लेने के लिए क्या बचता है अब इतने के बाद भी यदि कोई सुधार-सम्वर्धन-समालोचन नहीं करता है तो फिर वो तो वास्तव में उसी के लायक है जो रचना जी ने कहा " भुने जाने लायक "
जी, अंशुमाला जी,
हटाएंआपके और रचना जी के निष्ठुर दंड विधान हो सकते है लेकिन मेरी सहानुभूति अभी भी उस अक्ल के मारे प्रणय रट्टु मेंढक के प्रति है अपेक्षाओं का गुनाह इतना भी भयंकर नहीं कि सजाए मौत हो, हत्या ही उपाय हो अथवा " भुने जाने लायक " हो। :(
"क्या सुज्ञ जी के तरकश में तर्क के तीर ख़त्म हो गये है " मै ऐसा मान नहीं सकती पर मज़बूरी में लिख रही हूं क्योकि सुज्ञ जी अच्छे से जानते है की मै शाकाहारी हूँ और जीव हत्या के खिलाफ फिर भी वो मेरी कही बातो का शाब्दिक अर्थ पकड़ रहे है , जबकि कहानी और उस पर दी टिप्पणिया सभी संकेतिक है उनका अर्थ कुछ और है और ये भी मानने की बात नहीं लगती है की आप उन्हें समझ नहीं रहे है | यदि ऐसा ही है तो फिर साफ कहती हूं की इस प्रणय निवेदन में आप को प्रणय जैसा कुछ कहा दिख रहा है मुझे तो नहीं दिख रहा है ये भी देखना चाहिए कि स्त्री से इतनी ना ख़त्म होने वाली एक तरफ़ा अपेक्षाए भी ना रखी जाये की उसे पुरा करते करते उसकी ही (उसके अस्तित्व ) मौत की ही मौत हो जाये वो यदि पुरुष ने अपनी ना ख़त्म होने वाली एक तरफ़ा इच्छाओ को पुरा करने की उम्मीद नारी से करना बंद नहीं किया तो एक दिन हर नारी उसके अस्तित्व को उसके होने को नकार देगी उसकी परवाह करना बंद कर , उसके अपेक्षाओ से तंग आ कर उसकी उपेक्षा करने लगेगी और उसके अहम को इसी तरह भुन कर खा जाएगी | अभी भी नारी बहुत शौम्य शांत और अहिंसक है उसे अपने ही जैसे क्रूर बनने के लिए पुरुष मजबूर ना करे वरना वो दिन भी आ जायेगा |
हटाएं* भूल सुधार मौत की मौत नहीं अस्तित्व की मौत ना हो जाये |
हटाएंअली जी ये माडरेशन क्यों लगा दिया है , हम सब शाकाहारी है फिर किस बात का डर :)
अंशुमाला जी ,
हटाएंदो दिन पुरानी पोस्ट पर माडरेशन का विकल्प पहले से था ! होता ये था कि मित्रगण किसी पुरानी पोस्ट पर टिप्पणी करते थे तो पता भी नहीं चलता था और फिर उन्हें जबाब नहीं देना अशिष्टता माना जा सकता था बस इसीलिए ये व्यवस्था की थी ! पुरानी पोस्ट पे माडरेशन का ख्याल बस अपनी जानकारी के लिहाज़ से है वर्ना टिप्पणियां तो सभी पब्लिश कर ही रहा हूं ! कृपया ज़रा सा कष्ट सह लीजिएगा :)
अरे, अंशुमाला जी, कहाँ के तुणीर कहाँ के तीर, और तर्क तो अपरिणिति या सहमति पर समाप्त होने ही चाहिए। जानता हूँ आप शाकाहारी है, मैने विरोध का कोई आरोप नहीं लगाया :) मैने केवल निष्ठुर निर्णय की तरफ संकेत भर किया है। मैं समझता रहा कि जोडा बनाने (या विवाह) के प्रस्ताव को प्रणय निवेदन कहते है। न होगा तो न होगा। मै प्रस्तावक के एक तरफा अपेक्षाओं का संरक्षण नहीं करता, न उसको प्रस्ताव के दूसरे मौके के पक्ष में हूँ। मैने तो उसे मूर्ख ही माना है और उस पर आपके आरोपों से सहमत रहा हूँ। सहानुभूति मात्र उसकी जान के प्रति जतायी थी। मैं मानता हूँ अनपेक्षित अपेक्षा प्रस्तावों को ठुकरा कर उसे तुच्छ दयनीय जीवन के अभिशप्त छोड भी दिया जाता कि जा मेंढक ही रह। तब भी उसके लिए दो सजाएं हो जाती। तुच्छकार भरी अवेल्हना और तुच्छ दयनीय जीवन। जीवन रहता तो शायद सुधार के लिए अवसर भी रहता।
हटाएंकिसी के अहंकार को मिटाने के लिए अहम् भुन कर खा जाने से समाप्त नहीं होता, अहंकार का इलाज अहंकारी में विनय, विवेक और क्षमाशीलता के आरोपण से हो पाता है। नारी ही क्यों मनुष्य मात्र को शौम्य शांत और अहिंसक होना चाहिए, और मनुष्य को कैसी भी मजबूरी हो सद्गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए। क्योंकि कईं चीजें जाती है तो पुनः लौट कर नहीं आती।
किसी के अहंकार को मिटाने के लिए अहम् भुन कर खा जाने से समाप्त नहीं होता, अहंकार का इलाज अहंकारी में विनय, विवेक और क्षमाशीलता के आरोपण से हो पाता है।
हटाएंसदियों से महिला वही कर रही हैं
पर रेप , यौन शोषण , और वाहियात मजाक ख़तम नहीं हुए हैं समझाना होतो मंडूक को समझाए , राजकुमारी को समझाने का वक्त अब ख़तम हो चला हैं , शिक्षा का ही असर हैं की यहाँ हर नारी सक्षम तरीके से जवाब दे रही हैं
यहाँ किसी को भी नहीं समझाया जा रहा है
हटाएंसुज्ञ जी
हटाएंमेरी कोई बात बुरी लगी हो तो क्षमा कीजियेगा , पर ये कहने का कारण आप की ये बात थी |
@ अपेक्षाओं का गुनाह इतना भी भयंकर नहीं कि सजाए मौत हो, हत्या ही उपाय हो अथवा " भुने जाने लायक " हो। :(
यहाँ पर कोई भी हत्या , या मौत दिये जाने का समर्थन नहीं कर रहा है कहानी में संकेत में बात की गई है और सभी कहानी के शब्दों को उसकी स्थिति को ही लेकर सांकेतिक बाते कर रहे है ऐसे में आप मौत या हत्या की बात बीच में लाते है तो अजीब लगता है की ये मुद्दा तो कही से बनता ही नहीं है |
क्या किसी प्रणय निवेदन में कोई पुरुष किसी स्त्री से इतनी अपेक्षाओ का जिक्र करता है नहीं किसी भी प्रणय निवेदन में बस प्रेम की जीवन संगनी बानाने की इच्छा व्यक्त की जाती है, यहाँ तो रानी की जगह रानी साथ में नौकरानी ( अदा जी के शब्द उधार लिए है ) की खोज की जा रही है |
@ अनपेक्षित अपेक्षा प्रस्तावों को ठुकरा कर उसे तुच्छ दयनीय जीवन के अभिशप्त छोड भी दिया जाता कि जा मेंढक ही रह।
उसे भुने जाने या पुरुष के अहम को भुने जाने , उसे नकार देने का अर्थ हम लोगों का यही है, हम किसी पुरुष को मार देने की बात या हिंसा की बात नहीं कर रहे है हम भी वही कहा रहे है जो आप ने अब कही है |
@ अहंकार का इलाज अहंकारी में विनय, विवेक और क्षमाशीलता के आरोपण से हो पाता है।
इसलिए तो मैंने कहा की अभी तक स्त्री इन्ही सब का प्रयोग कर रही है किन्तु फायदा होता नहीं दिख रहा है जब बात साम , दाम , भेद से काम ना बने तो अंत में दंड की बारी आती है और पुरुष उसके लिए स्त्री को "मजबूर" ना करे यहाँ "मजबूर" का अर्थ है की स्वयं स्त्री भी ऐसा करना नहीं चाहती है |
@ मै प्रस्तावक के एक तरफा अपेक्षाओं का संरक्षण नहीं करता |
धन्यवाद सुज्ञ जी मै बस यही सुनना चाहती थी क्योकि इस तरह की अपेक्षाओ का संरक्षण करना उसे और बढ़ावा देगा |
अंशुमाला जी,
हटाएं@यहाँ पर कोई भी हत्या , या मौत दिये जाने का समर्थन नहीं कर रहा है
मैं भी यही सुनना चाह रहा था क्योंकि संकेतों संकेतों में कहीं हिंसा आक्रोश और वर्ग वैमनश्य का समर्थन न हो जाय।
@ धन्यवाद सुज्ञ जी मै बस यही सुनना चाहती थी क्योकि इस तरह की अपेक्षाओ का संरक्षण करना उसे और बढ़ावा देगा |
आभार आपका कि बात आप तक सौहार्द और सहजता से पहुँच पाई!!
ब्रायन कैंडी
जवाब देंहटाएंको ओरिजिनल पढना हो इंग्लिश में किस लिंक पर सामग्री मिल सकती हैं अगर आप उपलब्ध करा दे तो आभार होगा .
http://www.corsinet.com/braincandy/hgender5.html
हटाएंब्रायन कैंडी is brain candy
हटाएंand its Brain Candy is: insults, riddles, jokes, humor, wordplay, and mind games
ब्रेन कैंडी और ब्रायन कैंडी दोनों बहुत ही अलग बाते हैं
ब्रायन कैंडी पढ़ के लगा शायद क़ोई लेखक/ विदूषक हैं जबकि ये तो एक प्रकार का चुटकुलों का संकलन हैं जो अपमानित करने के लिये कहा गया हैं
आप का दिया लिंक भी यू आर अल में ही कह देता हैं की ये जेंडर पर हास्य हैं . इस पर लंबा आलेख और उस पर टिप्पणी . ऐसे ना जाने कितने बेहुदे जोक्स जगह जहग पडे हैं और ईमेल में एक दूसरे से फॉरवर्ड भी होते हैं .
ना तो ये क़ोई कथा हैं और ना इसका क़ोई भी सन्दर्भ कहीं भी हैं
आशा हैं ब्रेन कैंडी सही कर लेगे
कैंडी फ्लौस को बुढिया का काता कहते हैं भारत में .
पर ब्रेन कैंडी ब्रायन कैंडी कैसे बन गया अचंभित हूँ
वो भी आप के ब्लॉग पर
रचना जी ,
जवाब देंहटाएंमैंने लिखा है कि "हालांकि ब्रायन कैंडी ने इस कथा को हास्य की श्रेणी में माना है" (तीसरा पैरा, चौथी लाइन)
इसे जोक के तौर पर संकलित करना कैंडी की अपनी समस्या है, उसके दिये लेबल से क्या फर्क पड़ता है जबकि, यह कथा हममें से अनेकों ने बचपन में पढ़ी हुई है अतः इसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता! इसमें अंतिम ढाई पंक्तियां किसने जोड़ी? पता नहीं? कैंडी एक संकलनकर्ता है इस आख्यान के लेखक नहीं! उन्होंने संशोधित कथा का मूल स्रोत लिखा भी नहीं है, किन्तु, मैंने इसे महज़ जोक नहीं माना है क्योंकि इससे एक प्रवृत्ति का खंडन होता है!
आप यह मान कर क्यों चल रही हैं कि लोक आख्यानों में हास्य बोध नहीं होता , याकि उस जमाने के लोग (स्त्री पुरुष) अपने आख्यानों में हास्य को सम्मिलित नहीं करते थे!
नाम की टायपिंग / उच्चारण आपको जमा नहीं तो उसे हटाया भी जा सकता है बशर्ते यह पक्का हो जाये कि नाम का उच्चारण ब्रेन ही होना चाहिये ! एक उदाहरण नीचे चिपका रहा हूं ! नाम को लेकर मेरे मन में कोई जड़ता नहीं है इसे सुधारा जा सकता है !
Brian O'Neill = ब्रायन ओ 'नील
[उच्चारण पक्का होने तक कैंडी से ही काम चलाया जाएगा]
हटाएंBrian O'Neill = ब्रायन ओ 'नील correct
जवाब देंहटाएंब्रायन कैंडी is brain candy
Brain and Brian are very different in spelling and pronunciation
rest of your comment we can discuss latter
स्पेलिंग में ज़रा सा उलटफेर है फिर भी उच्चारण ब्रायन है इसलिये कहा कि आप पक्का कीजिये तो सुधार दिया जायेगा !
हटाएंbrain and brian are entirely 2 different things
हटाएंब्रेन यानि मस्तिष्क
हटाएंब्रायन यानी नाम
brain candy is website where jokes are collected
जवाब देंहटाएंcandy in general is http://en.wikipedia.org/wiki/Candy
in larger context its http://en.wikipedia.org/wiki/Candy_%28disambiguation%29
brain is http://en.wikipedia.org/wiki/Brain
even the link you gave me says "humor collection about about women & men, gender differences"
Brain Candy "Funny Pieces" is a quickly growing collection of bits and pieces of humor. These might be jokes, stories, or bits of whimsy the Brain Candy collector feels are worthy of being shared with others. New pieces will be added occasionally.
Where as your post gives an illusion that ब्रायन कैंडी is an author of some sort
even rashmi has said ब्रायन कैंडी साधुवाद के पात्र हैं अब यह दृष्टांत पहले से ही किसी आख्यान में शामिल था...या उन्होंने अपनी मर्जी से कहानी में डाला....या फिर किसी आत्मनिर्भर युवती को देख यह ख्याल आया हो उनके मन में.
रचना जी ,
जवाब देंहटाएंमैंने लिखा "यह स्पष्ट नहीं है कि कैंडी ने इस आख्यान का संशोधित और अद्यतन संस्करण कहां से संकलित किया है" ( पैरा तीन ,लाइन तीन और चार )
और आप कह रही हैं ...Where as your post gives an illusion that ब्रायन कैंडी is an author of some sort
रचना जी ,
जवाब देंहटाएंमैंने लिखा है कि "हालांकि ब्रायन कैंडी ने इस कथा को हास्य की श्रेणी में माना है" (तीसरा पैरा, चौथी लाइन)
रचना जी ,
मैंने लिखा "यह स्पष्ट नहीं है कि कैंडी ने इस आख्यान का संशोधित और अद्यतन संस्करण कहां से संकलित किया है" ( पैरा तीन ,लाइन तीन और चार )
ब्रायन शब्द को हटाने के लिये धन्यवाद
ब्रेन यानि मस्तिष्क
ब्रायन यानी नाम
और अब पोस्ट पर कमेन्ट
जवाब देंहटाएंकूप मंडूक भूने ही जाते हैं
रचना जी ,
हटाएंपोस्ट पर कमेन्ट के लिए धन्यवाद!
कुछ बात आपसे कहने की इच्छा हो आई है सो कहता चलूं! कैंडी ने इस कथा को जोक्स बतौर क्यों सम्मिलित किया ये तो वो ही जाने पर मैंने यह कथा बचपन में अपनी बुआ के स्कूल की लाइब्रेरी में पढ़ी थी! कैंडी विदूषक है या कि जोकर, मुझे उससे कोई लेना देना नहीं, लेकिन उसके कलेक्शन में अपनी पुरानी पढ़ी हुई कथा को देखकर मुझे हैरानी हुई, खासकर तब, जबकि मैंने उसकी आख़री ढाई लाइन बदली हुई देखीं! कथा का मंतव्य मुझे अच्छा लगा सो मैंने उसे अपने आलेख में सम्मिलित किया! चूंकि संशोधित कथा कैंडी के कलेक्शन में है इसलिये उसका उल्लेख / उसका सन्दर्भ ज़रुरी था वर्ना कोई व्यक्ति कह सकता था कि कथा को अली ने संशोधित कर दिया!
जैसा कि मैंने कैंडी के बारे में लिखा कि उसने कथा को हास्य माना यह उसकी समस्या है, कोई दूसरा व्यक्ति कुछ और मान सकता है, पर मुझे यह कथा एकतरफ़ा तौर पर हास्य नहीं लगी बल्कि सन्देशपरक लगी तो मैंने उसे अपने लेख में शामिल किया!
अली जी
जवाब देंहटाएंआप पोस्ट पर कुछ भी लिख सकते हैं
मैने किसी बात पर कुछ नहीं कहा हैं
मैने ब्रायन पढ़ कर उसका पता नेट पर आप से पूछा और उसके बाद आप को बताया की वो ब्रेन हैं ब्रायन नहीं
इसके बाद वो शब्द आप ने हटा भी दिया
मैने धन्यवाद भी दे दिया
मेरा काम इतना ही था भ्रम ना रहे की ब्रायन क़ोई व्यक्ति हैं
आप को पढने वाले बहुत हैं और वो कमेन्ट दे ही रहे हैं
अब आप सब कमेन्ट मिटा भी सकते हैं
सादर
रचना
कमेन्ट ठीक हैं बने रहने दीजिए!
हटाएंअली साहब,
जवाब देंहटाएंयह braincandy ही है..अर्थात दिमाग के लिए मिठाई...चुटकुलों के लिए प्रयुक्त शब्द..
यह कथा सिर्फ़ इतना जताता है कि, रस्सी जल गई मगर ऐंठन नहीं गई...
बताइये मेंढकों को भी ज़ुकाम हो जाता है...
वह मेंढक, 'पुरुष' पहले था, मेंढक बाद में..
वैसे कहते हैं मेंढक की टाँग का स्वाद मुर्गे की टाँग की तरह होता है...राजकुमारी को स्वाद तो आया ही होगा, खाने में..:) खा वो मेंढक रही थी और सोच रही होगी अच्छा मुर्गा बनाया, इस गधे को..उल्लू कहीं का :)
अदा जी ,
हटाएंकथा और उसकी व्याख्या को छोड़कर उसकी साईट और स्रोत पर खासी चर्चा हो गई, वाक्य वैसे तो ठीक ही लग रहा है फिर भी देखता हूं कि इसे और कैसे सुधारूं कि कन्फ्यूजन ना हो ! आपका आभार !
अदा जी
हटाएं:))
.
जवाब देंहटाएं.
.
मुझे लगता है कि साइट का नाम ब्रेन कैन्डी है... नीचे दिये लिंक में दिये अर्थों के संदर्भ में...
http://www.urbandictionary.com/define.php?term=brain%20candy
निश्चित ही यह कोई ब्रेन कैन्डी, ब्रायन कैन्डी या मात्र कैन्डी नाम का आदमी नहीं है...
...
धन्यवाद प्रवीण शाह जी ,जो अदा जी से कहा वही आपके लिए भी दोहराया हुआ मानियेगा !
हटाएंअली साब,चलिए आपकी रचना अब सार्थक हो गई.काफ़ी विमर्श हो लिया !
जवाब देंहटाएंचलिये अली जी
जवाब देंहटाएंआप की शिकायत दूर करती हूँ और कथा पर ही बात करती हूँ
सुयज्ञ जी कहते हैं इतना भारी दंड की कूप मंडूक की भून दो , बहुत ना इंसाफी हैं :)
एक बात पूछनी थी , किसी की गोदी में उछल कर बैठने से पहले पूछना तो बनता हैं ना .
किसी की खाली गोदी देखी और घुस लिये कहां का इन्साफ हैं ,
राजकुमारी पहचान गयी थी देश की राजनीति में , समाज के नियम में उसको न्याय नहीं मिलना हैं सो अपनी अस्मिता की लड़ाई उसको खुद लड़नी हैं और दंड देने का अधिकार भी उसका ही हैं वर्ना क्या पता देश की राष्ट्रपति किये कराये पर पानी फेर दे { अंशुमाला का नया आलेख हैं सन्दर्भ } और मंडूक फिर गोदी एक नयी खोजे .
और रहगयी बात समाज की वो तो मंडूक के साथ ही होगा क्युकी मामला हमेशा पूरक का होता हैं , सहन शीलता का होता हैं .
फिर राज कुमारी ये भी जान ही गयी थी मंडूक क़ोई शाप से नहीं बनता अब आज कल राज कुमारियाँ पढ़ लिख जो रही हैं अंध विश्वास से ऊपर उठ रही हैं सो जानती थी अगर ब्याह कर भी लिया तो रहेगा तो मंडूक का मंडूक ही , राजकुमार होता तो गोदी में कूद कर बैठने जैसी ओछी हरकत तो शायद ही करता और
वैसे भी २०११ आते आते तक राज कुमारियों ने "नीली आँखों वाले प्रिंस चार्मिंग " का इंतज़ार बंद कर दिया हैं .
वैसे सुयज्ञ जी निरामिष के प्रवक्ता हैं और मै भी काश राज कुमारी के हाथ में इतनी ताकत होती की वो मंडूक को पहले "वेजिटेबल स्टेट " में लाती और फिर सब्जी बना कर खाती . "वेजिटेबल स्टेट " में आज भी एक राज कुमारी पड़ी हैं अरुणा शान बाग़ नाम हैं और वो कूप मंडूक जो उसकी गोदी में कूदा था आज कहीं राजकुमार बना घूम रहा हैं
काश इस राज कुमारी ने उसको तभी भुन दिया होता
अली जी व्याख्या पसंद आयी क्या ??
"वेजिटेबल स्टेट " ko "वेजिटेटिव स्टेट " padhaa jaaye
हटाएंरचना जी ,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया :)
रचना जी वे सुयज्ञ नहीं सुज्ञ जी हैं ! मैं तो आहार के मसले में ज्यादा परहेज़गार नहीं हूं इसलिये व्याख्या मुझे अच्छी लगी पर सुज्ञ जी निरामिष / अहिंसा के उद्देश्य के लिए समर्पित हैं , तो लगता यही है कि व्याख्या उन्हें पसंद नहीं आना चाहिये !
हटाएं@सुज्ञ जी निरामिष / अहिंसा के उद्देश्य के लिए समर्पित हैं , तो लगता यही है कि व्याख्या उन्हें पसंद नहीं आना चाहिये !
हटाएंअली सा,
सही कहा पसंद तो नहीं आई, न केवल निरामिष, अहिंसा के उद्देश्य से बल्कि कानून, संविधान, व्यवस्था, मानवीयता, न्यायसंगत आदि सभी कारको से। पर क्या करें, इस संसार में सभी तत्वों-स्वभावों का अस्तित्व है और रहना है। व्यक्तिगत उपाय एक ही है जो श्रेयस्कर है उसे स्वीकार करना है।
कानून, संविधान, व्यवस्था, मानवीयता, न्यायसंगत
हटाएंसब फेल ?? क्यूँ
क्युकी रचना ने कहा .
एक सभ्य समाज की स्थापना , एक डिसिप्लिन से होती हैं और डिसिप्लिन इन्ही कारको से बराबरी से आयेगा और जब बराबरी हो जाएगी भेद भाव खुद बा खुद मिटेगा तब तक दुनिया बहुत बड़ी हैं बदलाव की बयार को वहाँ तक ले जाने के लिये नारी कटिबद्ध हैं
कानून, संविधान, व्यवस्था, मानवीयता, न्यायसंगत
हटाएंसब फेल
एक सभ्य समाज की स्थापना , एक डिसिप्लिन से होती हैं
ओह!! तो इस डिसिप्लिन में कानून-संविधान, न्यायव्यवस्था,मानवीयता से इतर क्या है?
मानवीयता
हटाएंaruna shaun baug kae case mae kehaan gayii
मित्रो, इस श्रृंखला में लिखते हुए यह पहली कथा है , जिसके प्रतीकों / संकेतों पर मैंने अपनी तरफ से कोई व्याख्या नहीं दी थी ! कथा के पूर्व केवल अपना नज़रिया सामने रखा ! मेरी इच्छा थी कि मित्रगण , कथा के प्रतीकों को नये अर्थ दें ! कुछ मित्रों ने ऐसा किया भी है , लेकिन ज्यादातर बात शाकाहार और मांसाहार के शाब्दिक अर्थ पर खत्म हो रही है ! आग्रह ये है कि सामान्यतः लोक आख्यान सपाट बयानी नहीं करते हैं अतः उनके निहितार्थों / मंतव्यों को खोजने / उजागर करने की कोशिश की जानी चाहिये ! आपकी पूर्वानुमति लेकर आपकी ऐसी व्याख्याओं को मैं अपनी आलेख में जोड़ना चाहूंगा ! सहयोग की अपेक्षा और शुभकामनाओं सहित !
जवाब देंहटाएंअली सा,
हटाएंमैने एक भी टिप्पणी में शाकाहार और मांसाहार के उल्लेख का प्रयास नहीं किया, न है। लेकिन मेरे साथ छाप ही ऐसी है कि मुझे देखते ही लोग इस पर चर्चा को उद्धत होते है। तथापि मैं शाकाहार और मांसाहार के उल्लेख से भरपूर बचा हूँ। प्रतीको की सच्चाई और उनके परिवेश से अनभिज्ञ नहीं। कथा के परिहासपूर्ण कथन की सच्चाई भी जानता हूँ। फिर भी आपकी पोस्ट के विषय से विषयान्तर का कारण तो बना ही, आप निसंकोच मेरी सारी ही टिप्पणीयाँ हटा सकते है।
प्रिय सुज्ञ जी ,
हटाएंआपकी सारी प्रतिक्रियायें आपने मुझे सौंप दीं हैं ! मुझे बुरा लगेगा यदि आप इन्हें हटाने की बात करेंगे !
मेंढक के रूप में भी पुरुष होने का दम्भ नहीं गया उसका. आखिर है तो कूप मंडूक ही, और कह ही क्या सकता था? लेकिन जिसने भी इस लोककथा में संशोधन किया, बहुत सार्थक और संदेशपरक संशोधन किया है. लोककथाएं हमेशा राजकुमार को राजकुमारी द्वारा या राजकुमारी को राजकुमार द्वारा मुक्त कराये जाने की परम्परा का निर्वाह करतीं हैं. इस कथा का अन्त समूची पुरुष जाति को संकेत है, बदलाव का.
जवाब देंहटाएं:) धन्यवाद वंदना जी !
हटाएंराजकुमारी ने मेढक नहीं, मेढक बने राजकुमार को खा लिया। मतलब उसने एक पुरूष के मूर्खतापूर्ण अहंकार का समूल नष्ट किया। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी स्टाइल में। इस कथा को पढ़कर नारी भी खुश, पुरूष भी खुश। नारी को लगेगा कि बहुत बढ़िया किया राजकुमारी ने। पुरूषों की मानसिकता ऐसे ही सुधरेगी। पुरूषों को भी क्रोध नहीं आयेगा। सोचेंगे, राजकुमार मूर्ख था। हम होते तो इतनी मूर्खता नहीं करते। दूसरा कोई बढ़िया उपाय करते। राजकुमारी की हर हाल में जीवन भर सेवा करने का संकल्प लेते और राजकुमारी एक चुंबन दे ही देती। एक बार राजकुमार बन तो जाने दो, फिर बतातें है इसे।:) जिन्हें इस कथा से कुछ सुधार की उम्मीद दिखती हो उनके लिए अफसोस यह कि इस कथा से कोई मानसिकता नहीं बदलेगी। जहाँ थी वैसी ही बनी रहेगी। पुरूष और सतर्क हो जायेंगे।
जवाब देंहटाएंमैने अपने पहले कमेंट में कितना सही लिखा था... यह कथा 'बूस्ट' बनकर आई है!:)
सर्वाधिक स्पष्ट प्रतिक्रिया!! मैं भी यही कहना चाहता था,पर वाचा ही नहीं फूटी! :)
हटाएंदेवेन्द्र जी
हटाएंधन्यवाद ! हम भी कब से सुज्ञ जी को यही समझा रहे थे की पुरुषो को मौका देने से कोई फायदा नहीं है वो गलतियों से सबक ले कर सुधरते नहीं है वो गलतियों से सतर्क हो दूसरी तिकड़मे लगाते है इसलिए उनके प्रति मानवीयता वाली कोई बात लागु नहीं किया जाना चाहिए कम से कम दूसरी बार तो बिल्कुल ही नहीं, किन्तु अभी तक जो सुज्ञ जी हिंसा आदि बेमुद्दे की बात कर हम स्त्रियों की बात नहीं मान सारे थे वही बात एक पुरुष के चंद शब्दों में कहते ही मान गये | जो सुज्ञ जी अभी तक पुरुष को और मौके देने सुधारने के लिए समय देने की बात कहा रहे थे वही अब आप के पुरुष के तिकड़मी और सतर्क होने वाली बात का समर्थन कर रहे है | इसे क्या कहे सुज्ञ जी के शब्दों में "वर्ग वैमनश्य " स्त्री के प्रति उसके कहे को हर हाल में नकारना और अपने वर्ग की कही हर बात का झट समर्थन कर देना |
सुज्ञ जी
आप को इस बात का सीधे समर्थन कर हंसी और दुख दोनों ही आ रहा है हंसी इस बात पर की हम पुरुषो के लिए जो मान रहे है वो बिल्कुल सही है कि स्त्री के प्रति सोचे में पुरुष पुरुष होता है आम या विद्वान में कोई भेद नहीं है और गुस्सा इस बात पर की स्त्री के क्रूर होने और पुरुषो को दंड देने का समय हमारी सोच से पहले ही आ जाने वाला है :( " मैंने भी ऐसा नहीं सोचा था "
अंशुमाली जी,
हटाएंविद्वान होने से पुरूष की नारी के प्रति या नारी की पुरूष के प्रति सोच नहीं बदलती। सोच बदलने के लिए दूसरे के दर्द को समझने की शक्ति/गहरी संवेदना होनी चाहिए। संवेदना कम पढ़े लिखे लोगों में अधिक भी हो सकती है। बावजूद इस सत्य के यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि स्त्री के प्रति सोच में विद्वान(पुरूष)संवेदनशील हो ही नहीं सकता, सिर्फ पुरूष ही होता है। नारी के प्रति अच्छी सोच रख ही नहीं सकता। विद्वानो को कम से कम पूर्वाग्रही नहीं होना चाहिए। शंका और विश्वास को विद्वता की कसौटी पर कसना/परखना चाहिए।
यह द्वेष भी न जाने कहां ले जाएगा?
हटाएंअंशुमाला जी,
सहज शैली में व्यक्त हुए देवेन्द्र जी के विचार तिकड़म नहीं, मैं उस व्यवहारिक बोध का कायल हुआ जिसमें अपेक्षाएं कहकर अनुबंधित नहीं की जाती, कालक्रम में सहयोग भाव से स्वतः पूर्ण हो जाती है।
अंशुमाला जी,
हटाएंबताईए भला पुरूष क्यों न हो सतर्क? आखिर सतर्क रहने में बुराई क्या है? सतर्कता तो अच्छा लक्षण है। वह भी अपनी गलतियों के प्रति सतर्क रहना तो विवेक है। यदि पुरूष भांप ले कि अपेक्षाओं की पूर्व घोषणा मात्र पर नारी हिंसक प्रतिशोध ले सकती है तो क्यों न हो इस गलती पर सतर्क? और ऐसे विवेक का क्यों न करूं मैं झट से समर्थन!!
@ और गुस्सा इस बात पर की स्त्री के क्रूर होने और पुरुषो को दंड देने का समय हमारी सोच से पहले ही आ जाने वाला है
यह अंदेशा तो हमें भी है, क्रोध क्रूरता द्वेष नें आसन जमा रखा है, व्यवस्था का विनाश निकट ही है। परिणाम स्वरूप दंड का भागी भी निश्चित पुरुष बनेगा, पुरूषोचित सद्भावों से अभिशप्त जो है।
@ सुज्ञ जी हिंसा आदि बेमुद्दे की बात कर हम स्त्रियों की बात नहीं मान सारे थे......
हटाएंअंशुमाला जी,
सभी कमेंट उठाकर देख लीजिए, मैं स्त्रियों की बात मानता रहा……… मैने कहा यह उतावला अपेक्षावान मूर्ख है आपने कहा यह रटु है हमने मान लिया। मैने कहा पुनः आस्क्ति में पडना महामूर्खता है, आपने कहा वह हजारों साल से ऐसा ही था हमने आपकी बात को मान लिया। हमने कहा 'धोखा खाना', आपने कहा 'गलती दोहराना है हमने मान लिया। आपने कहा "जो बचे है वो ठीक से समझ जाये यही उम्मीद है" हमने भी सहमति मिलाई। इसी कथन से पुरूष सतर्क रहे तो आपको क्या आपत्ति है? सभी बातें तो मानी ही है।
किन्तु हिंसा एक मानसिकता ही होती है, काल्पनिक विचारों और प्रतीकात्मक सोच से भी हिंसक भाव सामान्य होकर दृढ मनोवृति बनते है बार बार परिहास में भी हिंसा का चिंतन अन्ततः हिंसा को प्रेरित कर देता है इसीलिए मनसा वाचा कर्मणा तीनों तरह से हिंसकता से बचा जाना चाहिए। मन में भी यदि हिंसा के प्रति सामान्यभाव रहे तो द्वेष व गुस्से की अवस्था में हिंसक आचरण सहज में ही हो जाता है बातों हिंसा की अविरत आवृति वाचा हिंसा से कर्मणा हिंसा की तरफ बढ़ती है।
रचना जी नें मेंढक की सहज कूद को अनावश्यक ही एक दुखद किस्से से जोड दिया, यदि मार भुन कर खाना मात्र प्रतीकात्मक है तो मेंढक की कूद में तो ऐसा कोई प्रतीक तक नहीं, चर्चा को इमोशनल चुपी देने के उद्देश्य से नाहक और असंगत अरूणा शानबाग का उल्लेख किया गया।
ब्रायन कैंडी और ब्रेन कैंडी शब्दों का विस्तृत विवेचन करने वाली रचना जी नें अरूणा शानबाग के लिए "वेजिटेबल स्टेट" शब्द का प्रयोग कर उस पीडित को वेजिटेबल कैंडी ही दर्शाने का प्रयास किया। यह तो नारी ब्लॉग पर कमेंट और बहस करके बताना पडा कि "वेजिटेबल स्टेट" कहना गलत है दुखद है। तब जाकर "वेजिटेबल स्टेट" को "वेजिटेटिव स्टेट" से बदलवा पाया। जो रचना जी की उपरोक्त टिप्प्णी पर सुधार के रूप में प्रकाशमान है।
वस्तुतः "वेजिटेटिव स्टेट" कोई 'शाकसब्जी की स्थिति' नहीं है, यह एक भयंकर मस्तिष्कीय व्याधि है, पौधों के गतिहीन होने के गुण के कारण उन्हें स्थावर भी कहा जाता है, वेजिटेटिव स्टेट अर्थात् 'स्थावर अवस्था' इस व्याधि में मस्तिष्क के निश्चेष्ट होने के कारण स्थावर अवस्था (वेजिटेटिव स्टेट) नामकरण किया गया है। इसका शाक सब्जी से कोई सम्बंध नहीं, मेंढ़क को भूनने के प्रलोभन में वेजिटेबल स्टेट शब्द प्रयोग से अनर्थ का सृजन हुआ है।
इस बात का मैं जिक्र भी न करता अगर सुधार के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गई होती।
अब बताईए भला क्या स्त्रियों की सभी बातें आंख बंद कर अविवेकता से मान लेनी चाहिए? मात्र इसलिए कि वे नारी है और अन्यथा भेद-भाव का आरोप लगेगा?
कृपया अंशुमाली जी को अंशुमाला जी पढ़ें। टंकण त्रुटि के लिए खेद है।
हटाएंरचना जी नें मेंढक की सहज कूद को अनावश्यक ही एक दुखद किस्से से जोड दिया
हटाएंकिसको क्या दिखा आवश्यक या अनावश्यक इसका फैसला आप नहीं ले सकते
नारी पर जोक कर लेना कितना आसन हैं लेकिन अगर उसी जोक को पलट कर पुरुष पर कर दिया जाए तो नारीवादी धारा और पूर्वाग्रह का नाम दिया जाता हैं
"वेजिटेबल स्टेट" एक आम भाषा में कहा जाता हैं "वेजिटेटिव स्टेट"को और ये अस्पताल तक में कम्पौन्दर और नर्स भी कहते हैं
मैने यही सोच कर इसका प्रयोग किया
आप ने नारी ब्लॉग पर जब निरामिष को लेकर अदा के साथ बहस की तो मुझे लगा इस को "वेजिटेटिव स्टेट" करना बेहतर होगा
फिर आप ने खुद कहा की इंग्लिश की वजह से आप को ये समस्या हुई और आप जानते ही नहीं हैं "वेजिटेटिव स्टेट" क्या होता हैं
फिर शिल्पा का कमेन्ट आया और मुझे लगा मैने प्रयोग बिलकुल सही किया था और मैने अपने कमेन्ट में दोनों शब्द दे दिये
आप का ये कहना की अरूणा शानबाग के लिए "वेजिटेबल स्टेट" शब्द का प्रयोग कर उस पीडित को वेजिटेबल कैंडी ही दर्शाने का प्रयास किया।आप की इस केस में और इन विषयों पर कम जानकारी हैं ही दर्शाता हैं . ऐसे मरीजो को आम भाषा में यही कहा जाता हैं सब्जी की तरह , एक लौंदा और भी ना जाने क्या क्या . आप के लिये वो महज एक दुखद प्रकरण था और मेरे लिये वो एक जीती जागती महिला को सब्जी की तरह , लौदे की तरह बना दिया जाना था
क्या आप को जानकारी हैं की इस पर एक लम्बा क़ानूनी मुकदमा चलाया गया हैं
कैंडी , ब्रायन कैंडी , ब्रेन कैंडी सब इंग्लिश भाषा के शब्द हैं और अगर इस पोस्ट में लिंक लगा होता शुरू से तो सबको पता होता
पोस्ट पढ़ कर मुझे भ्रम हुआ की ब्रायन कैंडी एक व्यक्ति हैं . विदूषक हैं , रश्मि के कथन से भी वही लगा
मैने अंशुमाला और घुघूती जी से पूछा इन पर और क़ोई जानकारी हैं , उन्होने कहा नहीं हैं , मैने अली जी से फिर डाइरेक्ट पूछा क्युकी बिना पूछे मै अपना ज्ञान नहीं बढ़ा सकती थी और जो मुझ नहीं समझ आया उसको किसी से भी पूछने में मेरा क़ोई अहम नहीं घटता हैं . मैने पोस्ट आने के बाद ब्रायन कैंडी को खोजने में नेट पर पूरा ४ घंटे लगाये और तब भी जब जानकारी नहीं मिली तो पूछ कर पहले उसको समझा और फिर लगा की अली जी को भी इसको इन्फोर्म कर दूँ , आप कहेगे मेल पर कर देती मै कहूँ गी क्यूँ , मेरा सही जानकारी उपलब्ध करना क्या गलत हैं ?? और मैने उसके बाद कमेन्ट हटाने के लिये भी कह दिया और फिर ही अपना कमेन्ट दिया
आप को अगर क़ोई शब्द नहीं आया या आप को गलत लगा तो उस पर जानकारी किसी से भी ले सकते हैं और बाँट सकते हैं
अब बताईए भला क्या स्त्रियों की सभी बातें आंख बंद कर अविवेकता से मान लेनी चाहिए? मात्र इसलिए कि वे नारी है और अन्यथा भेद-भाव का आरोप लगेगा?
आप को कुछ नहीं पता था ये बात आप ने खुद कमेन्ट में कहीं नारी ब्लॉग पर , मेरे कमेन्ट के बाद आप ने उसको पढ़ा फिर अपनी बात रखी और कहा की मै चाहू तो आप का कमेन्ट हटा सकती हूँ , मैने हटा दिया क्युकी मेरे ब्लॉग पर में हटा सकती थी
आप के कमेन्ट ये हैं सुज्ञ has left a new comment on your post "मंडूक क़ोई शाप से नहीं बनता":
अपने को अंग्रेजी जरा कम ही समझ आती है, सारा बखेडा मेरा नाम, निरामिष और इस वाक्य "काश राज कुमारी के हाथ में इतनी ताकत होती की वो मंडूक को पहले "वेजिटेबल स्टेट " में लाती और फिर सब्जी बना कर खाती ." से हुआ।
"वेजिटेबल स्टेट " या "vegetative state" हमको नहीं मालूम!!
इसलिए आदर सहित क्षमायाचना कर लेते है। क्षमा करें और बेहिचक आप मेरे सभी कमेंट हटा दें। जिससे आपकी पोस्ट विषयान्तर से अप्रभावित रहे!!
Posted by सुज्ञ to नारी , NAARI at July 6, 2012 11:48 PM
जो अब मेरे ब्लॉग पर नहीं दिख रहा
कुछ कमेन्ट आप ने खुद भी हटा दिये हैं
आप का और अंशुमाला का टिपण्णी आदान प्रदान नारी आधारित विषयों पर पुराना हैं और बहुत ब्लॉग पर चलता रहा हैं
पर उसमे मेरे कमेन्ट का रेफरेंस गलत तरह से देना सही नहीं हैं
मेरे कमेन्ट मै तीखा सच हैं जो पुरानी लोक कथा को नया सन्दर्भ दे रहा हैं .
मेढक का उछल कर गोदी में आना ही गलत हैं हिंसा हैं राजकुमारी
वो क़ोई सहज कूद नहीं हैं वो अपमान हैं अस्मिता अगर आप को वो मेढक शापित राजकुमार लगा हैं तो
@ सुज्ञ जी व्यवस्था का विनाश निकट ही है।
हटाएंकौन सी व्यवस्था ??? वो सामाजिक व्यवस्था जहां विद्वान पुरुष हैं पैर की जुत्ती स्त्री जो देवी कहीं जाती हैं पर मनुष्य नहीं समझी जाति हैं
@देवेन्द्र जी
विद्वानो को कम से कम पूर्वाग्रही नहीं होना चाहिए। शंका और विश्वास को विद्वता की कसौटी पर कसना/परखना चाहिए।
विद्वानो कौन हैं इसके लिये ही शास्त्रार्थ होते रहे हैं आज भी हो रहे
तर्क को तर्क से जोड़े और कांटे
उसमे पूर्वाग्रह जैसे शब्दों को जोड़ना गलत हैं
पूर्वाग्रह अगर एक में हैं तो दूसरे मे भी हैं
एक लगता हैं व्यवस्था से चिपके रहो क्युकी बदलाव परेशानी ला सकता हैं यानी बदलाव से एक डर
दुसरा इस बदलाव को लाना चाहता हैं क्युकी उसको लगता हैं बदलाव से उसकी अपनी दशा सुधरेगी
रचना जी,
हटाएं॰@पर उसमे मेरे कमेन्ट का रेफरेंस गलत तरह से देना सही नहीं हैं
इसलिए की आपकी यह टिप्पणी मुझे कोट करते हुए कही गई है।
अशुमाला जी से मेरा विमर्श एक आध चर्चा से अधिक नहीं है।
इस कथा की घटना और अरूणा की घटना में कोई सामन्जस्य नहीं है।
ऐसे मरीजों को असम्वेदनशीलता लौंदा कहा जाना तो शायद सुना गया होगा, किन्तु सब्जी कहा जाना कभी नहीं सुना।
…अंग्रेजी जरा कम… और… "वेजिटेबल स्टेट " या "vegetative state" हमको नहीं मालूम!! से मेरा आशय यही था कि आप स्वयं आगे आकर इसके विशिष्ठ अर्थ प्रस्तुत कर दें और 'वेजिटेबल स्टेट' शब्द को अजानते या जान समझ कर प्रयोग किया है, स्पष्ट कर दें।
यह शब्द देखकर ही हमने आपको सभी कमेंट मिटाने का निवेदन किया था लेकिन आपने प्रतिकूल तो मिटा दिए और अनुकूल रहने दिए जो विचित्र भ्रम पैदा कर रहे थे, शिल्पा जी की टिप्पणी से यह स्पष्ट अनुभूत हो भी गया, अतः बाकी कमेंट मुझे ही हटाने पडे।
॰@कौन सी व्यवस्था ???
रचना जी, सभी कुछ भेद-भाव वाली व्यवस्था नहीं है, यदि यही सच होता तो दुनिया का अस्तित्व कभी का मिट चुका होता। आज भी सम्मानयुक्त और जिम्मेदार जीवन सहयोग की कमी नहीं है, दुनिया उनके बूते ही विकास साध रही है।
द्वेष के भयंकर परिणामों पर दृष्टि करवाना मेरा फर्ज था सो किया।
देवेन्द्र जी
हटाएं@ विद्वानो को कम से कम पूर्वाग्रही नहीं होना चाहिए।
बस इसी कारण मैंने आम इन्सान और विद्वान होने की बात कही थी | बाकि आप की बात सही है की संवेदनशीलता तो किसी में भी हो सकती है |
कुछ कम पल्ले पड़ा... वैसे सुनी हुई कथा लगी...
जवाब देंहटाएंहां ये बहुश्रुत आख्यान है !
जवाब देंहटाएं(१)
जवाब देंहटाएंदरअसल कुछ बातें पहले ही स्पष्ट कर दी जानी चाहिये, अव्वल तो ये कि यह आख्यान बहुश्रुत आख्यान है, इसे एक वेबसाईट ने अपने जोक्स के संकलन में सम्मिलित किया है तो संभवतः इसका कारण कथा की, अंतिम ढाई पंक्तियां रही होंगी, जो कालांतर में जोड़ी गई प्रतीत होती हैं ! मुद्दा यह है कि क्या किसी वेबसाईट द्वारा किसी बहुश्रुत आख्यान को जोक्स के संकलन में शामिल कर लेने मात्र से ही उसे जोक मान लिया जाये ? इसका उत्तर , निश्चित रूप से ना ही होगा ! हमें स्वीकार करना होगा कि प्रचलित कथाओं अथवा कथनों को अपने अपने नज़रिये से देखने का हक़ सबको है अतः इस वेबसाईट ने आख्यान को हास्य बोध की श्रेणी में गिना तो यह उसका अपना नज़रिया है जो भले ही हमारे इस अनुभव के विरूद्ध है कि हमने इसे पहले भी आख्यान बतौर सुन / पढ़ रखा है ! इस मुद्दे पर वंदना अवस्थी दुबे जी का नज़रिया, बेहतर जान पड़ता है , जब वे कहती हैं कि ‘जिसने भी इस लोक कथा में संशोधन किया, बहुत सार्थक और सन्देशपरक संशोधन किया’ ज़ाहिर बात ये कि वे इस पचड़े में नहीं पड़ती कि साईट ने इसे जोक मान लिया, तो ये बात पत्थर की लकीर हुई ,वे सीधा सीधा कथा की सार्थकता और सन्देश परकता के महत्वपूर्ण बिंदु पर फोकस करती हैं , जैसा कि कथा पर आलेख लिखते हुये, कथा का चयन करते वक़्त मुझे स्वयं अपेक्षित था ! अब प्रश्न ये है कि अगर इस आख्यान पर हास्य बोध का वह लेबल चस्पा होना यदि मान भी लिया जाये , जोकि उक्त वेबसाईट ने तय पाया है तो क्या इससे इस कथा का महत्त्व घट जाएगा ? क्या हास्य बोध हमारे जीवन का हेय अंश है ? इस सवाल का जबाब हम सभी जानते हैं ! हास्य को सुनकर / पढ़कर, उसकी श्रेणी तय किया जाना ही श्रेयस्कर है ! यदि संभव हुआ तो आगे चलकर पूर्वजों द्वारा कहे गये , वो लोक आख्यान भी उद्धृत किये जायेंगे जो पूर्वजों के हास्य बोध को उजागर करते हो !
(२)
हटाएंआलेख का उद्देश्य आख्यान के प्रतीकात्मक निहितार्थों को उजागर करने के लिए ,पाठक मित्रों को प्रेरित करना था, ये हुआ भी, रचना जी कहती हैं कि ‘एक सभ्य समाज की स्थापना, एक अनुशासन से होती है और अनुशासन इन्हीं कारकों (समाज के भिन्न आयामों की ओर संकेत ) से बराबरी में आएगा और जब बराबरी हो जायेगी भेदभाव खुद बखुद मिटेगा तबतक दुनिया बहुत बड़ी है बदलाव की बयार को वहां तक ले जाने के लिए नारी कटिबद्ध है’ उन्हें यह बात भी नहीं विस्मृत नहीं होती कि अरुणा शान बाग के प्रकरण में राष्ट्रपति की भूमिका कितनी असहज है , वे राजनीति और समाज में महिलाओं के प्रति हो रहे / हो चुके अन्याय की पृष्ठभूमि में आख्यान की राजकुमारी के सजग सचेत व्यवहार का समर्थन करते हुए कहती हैं कि नारी अब जान गई है कि अपनी अस्मिता की लड़ाई उसे स्वयं लड़नी है ! वे राजकुमारी के क्षेत्राधिकार (उन्होंने गोदी कहा ) में कथित पूर्व राजकुमार द्वारा , बिना पूर्वानुमति / अनधिकृत प्रवेश पर भी अपनी आपत्ति दर्ज कराती हैं ! आख्यान पर प्रतिक्रिया देते हुए सुज्ञ जी ने मेढक को मूर्खता का प्रतीक माना और उसके व्यवहार की पुनरावृत्ति पर आये परिणाम को अपेक्षित कहा जबकि अंशुमाला जी उनके इस कथन से सहमत नहीं हुईं कि मेढक को मूर्खता का प्रतीक माना जाये, नि:संदेह उनके तईं एक ही व्यवहार की पुनरावृत्ति, हजारों साल पुराने ढर्रे / यथास्थितिवाद को बनाये रखने की, उम्मीद / अपेक्षा के फलीभूत होने का समय बीत गया ! सुज्ञ जी और अंशुमाला जी ने बहस को आगे बढ़ाया जिसे शब्दशः टिप्पणियों में देखा जा सकता है पर यहां संक्षिप्त केवल इतना कि सुज्ञ जी पुरुषों से संभल जाने की अपेक्षा और उसे न्याय का अवसर नहीं मिल पाने के मुद्दे को सामने रखकर न्याय और करुणा के लिए किंचित स्पेस चाहते थे पर अंशुमाला जी के हिसाब से सब्र का पैमाना लबरेज हुआ ,जो जैसा करेगा वैसा भरेगा ,सदियों पुराना ढर्रा बर्दाश्त करने का कोई औचित्य नहीं वाले तर्क पर अडिग रहीं !
(३)
हटाएंआख्यान पर बहस आगे चलकर आहार की प्रवृत्तियों पे केंद्रित हो चली थी यानि कि मुद्दा पटरी से उतर चुका था ! रश्मि जी और वाणी जी ने संक्षिप्त किन्तु कथा में निहित मूल सन्देश के समर्थन में अपनी , प्रतिक्रिया दर्ज़ कराई और वे दोनों शाकाहार और मांसाहार के विषयेतर चिंतन में नहीं पड़ीं ! घुघूती बासूती मेढक बतौर दी गई सजा को कम मान कर चल रही थीं सो उन्होंने अपेक्षाकृत कठोर प्रतिक्रिया दर्ज कराई ! जहां आशीष जी ने कथा के पर्यावरणीय चिंतन / जीव रक्षा पर चुटकी ली वहीं देवेन्द्र जी प्रतिक्रिया स्वरुप ऐसा कूटनीतिक कथन कह गये जो सुज्ञ जी और अंशुमाला जी को समान रूप से स्वीकार्य हुआ ! अरविन्द जी ने सीधे सीधे आलेख लेखक मित्र पर हमला किया , गोया आख्यान का हवाला देकर उनके परम मित्र ने स्त्रियों को मर्दों की छातियों पर मूंग दलने का अनुचित कर्म कर दिया हो वैसे उनकी प्रतिक्रिया का उत्तरार्ध सुखद प्रतीत हुआ ! संतोष जी कर्मफल भोग और स्त्रियों के बदलते नज़रिये की बात सहजता से कह गये ! सतीश जी को प्रेम पर दया की उम्मीद तो थी पर वे क्रूरता को शक्ति की सहचरी मान कर बात खत्म कर देते हैं ! डाक्टर जमाल तकदीर ,मौकापरस्ती , अन्तःपुर के हवाले से अपनी बात कहते दिखाई दिये ! अदा जी की प्रतिक्रिया आख्यान के शब्दार्थ पर आधारित थी इसलिये वह आहारोंमुखी दिखाई दी हालांकि उनका मंतव्य भी कथा के मूल सन्देश के पक्ष में ही बना रहा ! प्रवीण शाह जी ने घुघूती बासूती के मंतव्य पर खास ध्यान दिया और चन्दन कुमार जी की प्रतिक्रियायें कमोबेश ऐसी ही होती हैं ! लिखना यह है कि आलेख को इन सभी गुणी जनों ने अपने अपने तईं समृद्ध किया ! शायद ब्लागिंग का फायदा भी यही है कि मित्र घनघोर अंधेरे में अपनी अंगुलिओं का सहारा देते है , त्रुटियां सुधारते है ! अस्तु, अपना आशावाद , जिन्दाबाद ! ब्लागिंग ने अब तक अपना आपा नहीं खोया है ! आप सबका हृदय से आभार ! कृतज्ञता ज्ञापन में अगर किसी मित्र का नाम छूट गया हो तो उसके लिए अग्रिम खेद !
अली सा,
हटाएंअपनी आराधना साधना के लिए आपने जो अपना आराधना सभा भवन (उम्मतें) उपलब्ध करवाया इसके लिए आपका भी बहुत बहुत आभार!! सदभाव में बात पूरी करने का अवसर मिला, हम भी कृतज्ञ है।
जोक
हटाएंतब तक जोक होता हैं जब तक जिस पर वो किया गया हैं वो उसको जोक समझे
नारी / पत्नी दोनों पर जोक करना हास्य भी हो सकता हैं
विद्रूप हास्य भी
तंज भी
कथा को अगर मूल रूप में दिया होता तो वो महज एक कथा होती और उसपर लोक कथा , उसका उदेश्य , उसकी विवेचना , उसके लिखने का काल / समय / देश आदि पर बात होती
कथा का स्त्रोत ना देना पोस्ट को कई बार अपनी दिशा से दूसरी दिशा में ले जाता हैं
रचना जी ,
हटाएंमैंने कहा कि 'प्रचलित कथाओं अथवा कथनों को अपने अपने नज़रिये से देखने का हक़ सबको है' वेबसाईट इसे जोक की श्रेणी में मानती है, कुछ और लोग भी ऐसा ही मानते होंगे, ये उन सबका अधिकार है, उनका अपना नज़रिया है! इसी तर्ज़ पर मैं भी अपना नज़रिया कह सकता था सो कहा! व्यक्तिगत रूप से मुझे यह कथा एक महत्वपूर्ण सन्देश देने वाली कथा ही लगती है! बेशक इसका आधार है,मेरे बचपन की आधी अधूरी स्मृति!
सामान्यतः लोक कथाओं के लिपिबद्ध किये जाने का समय, उनकी कहन की शुरुवात के बहुत बाद का होता है, इसलिये मूल स्रोत और समय की पहचान कठिन ही है! मोटे तौर पर हम इन कथाओं को संकलित करने और लिपिबद्ध करें वाले एकाधिक लोगों को ही संदर्भ मान लेते हैं जब कि यह उचित नहीं है! इन कथाओं को कहने का श्रेय मूलतः उस समुदाय /समाज के लोगों को दिया जाना चाहिये जिन्होंने इस कथा को पहले पहल कहा होगा और जिनकी वज़ह से यह कथा अलिखित रूप में शताब्दियों (?) तक जीवित रही!
मिसाल के तौर पर मैंने अनुमान लगाया था कि कथा की कहन से प्रतीत होता है कि इसका स्रोत पूर्वी एशिया का कोई स्थान हो सकता है! लेकिन अनुमान तो अनुमान ही होता है, मैं गलत भी हो सकता हूं और यह सब इसलिये कि संकलनकर्ता वेबसाईट ने जानबूझकर मूल स्रोत/स्थान का उल्लेख ही नहीं किया है! दिक्कत ये है कि मुझे खुद भी स्मरण नहीं कि बचपन में मैंने इसे किस किताब (जिसे पहला संकलक माना जायेगा) में पढ़ा था! अगर मुझे यह सब पक्का याद रह जाता तो जोक वाली साईट का झंझट ही खत्म था फिलहाल उसे आप उसे मेरी स्मृतिजन्य मजबूरी मान सकती हैं!
आभार सहित!
प्रिय सुज्ञ जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया !
हटाएंअली जी
हटाएंसतक लगने की बधाई :) और इस बात की माफ़ी की मेरी बहसबाजी के कारण संभव है की आप के कुछ पाठक इस बहस ( वो भी बेमतलब की मैंने के बार अपने पोस्ट में कहा था की बहस करने से हम कभी भी सामने वाले के विचारो से सहमत नहीं होते है उलटे अपनी बात साबित करने के लिए ज्यादा तर्क रख कर उसे अपने लिए और मजबूत कर लेते है ) को देख, बिना अपनीबात रखे चले गये हो | मै एक दो मौको को छोड़ कर कभी बहस नहीं करती हूं किन्तु इस बार आप ने लगभग उसी विषय पर लिखा था जिसपे मै पोस्ट लिखने जा रही थी इसलिए कहने के लिए मेरे पास काफी कुछ था | रही बात मेरी सोच की तो मेरी पिछली दो पोस्टे देखीये जिसमे मै सभी को यही कहा रही हूं की माफ़ी कभी भी सुधरने का कारण नहीं होता है माफ़ी इन्सान ( मै स्त्री को भी इन्सान ही मानती हूं ) को दूसरी गलती करने का बढ़ावा देता है इसलिए कोई ना कोई संकेतिक सजा अवश्य दे ताकि इन्सान सुधर सके और ये जान सके की उसे अब गलती नहीं करनी है |
सुज्ञ जी
अली जी की टिप्पणी से ही आप समझ सकते है की अब इस चर्चा को और आगे ले जाने का कोई मतलब नहीं है |
अंशुमाला जी,
हटाएंशुक्रिया ! संवाद सदैव श्रेयस्कर है !