गुरुवार, 28 जून 2012

चन्द्र वदनि...!

तालाकोआ के चार पुत्रियां थीं जिनके सौंदर्य की ख्याति पूरे ब्रह्माण्ड में फ़ैली हुई थी , सबसे बड़ी पुत्री का नाम कौलुआलुआ था ! एक दिन वह नदी के किनारे अपने बालों में कंघी कर रही थी , तो उसने एक अजनबी श्वेतवर्ण सुन्दर युवा को नदी में मछलियां पकड़ते हुए देखा ! उसने पूरी दुनिया में राजाओं और मुखियाओं के पुत्र देखे थे किन्तु उनमें से कोई भी इतना सुन्दर नहीं था ! उसने अपनी तीनो बहनों को बुलाकर पूछा कि यह युवा किस देश का हो सकता है पर वे सब भी उसे नहीं जानती थीं ! उसके कपडे अजीब थे और वह दूसरे पुरुषों की तुलना में स्वस्थ और सुडौल था ! अगले दिन उन्होंने पुनः उस युवक को देखा जो मछलियों के शिकार के बजाये खरगोश का शिकार कर रहा था ,वे सभी उसके शिकार कौशल और उसके तीरों के निशाने की प्रशंसक हो गईं ! रात में उन्होंने उस युवक के बारे में अपने पिता को बताया ! कौलुआलुआ ने रात को अपनी खिड़की से बाहर आकाश पर तेज चमकते तारे देखे और वह युवा भी , जिसकी आंखों में कौलुआलुआ के लिए प्रेम था ! अगली सुबह वह युवा एक मछली और एक खरगोश लेकर उनके घर आया और उसने उन्हें चूल्हे के पास रखकर तालाकोआ से कहा कि मैं आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हूं !

तालाकोआ ने कहा ओ...भद्र युवा मैंने तुम्हें इससे पहले कभी नहीं देखा है , कहो , कहां से आये हो ?  तुम्हारे अधिकार क्षेत्र में कितने खजूर / ताड़ के वृक्ष है और कितनी नदियां बहती हैं ? उस युवा ने कहा , आप एक चतुर व्यक्ति हैं और मैं आपकी पुत्री से विवाह करना कहता हूं , इसलिये आपसे सब , सच कहूंगा , मेरा नाम मारामा है और मैं चंद्रमा का रहने वाला हूं ! यह सुनकर तालाकोआ और उसकी पुत्रियों ने एक दूसरे का मुंह देखा , वे ऐसे किसी भी स्थान के बारे में नहीं जानते थे , किन्तु वे युवक को पागल समझकर उपहास भी नहीं करना चाहते थे , क्योंकि वह उपहार स्वरुप मछली और खरगोश लाया था ! तालाकोआ ने उससे कहा ,मैं आपको झूठा नहीं कहूंगा लेकिन मैं ऐसे किसी स्थान के बारे में नहीं जानता हूं इसलिये कृपया बताओ कि यह स्थान कहां है ? कितनी दूर है ? मारामा ने कहा ओ...चतुर व्यक्ति मैं समझता हूं कि आपको अपनी पुत्रियों की चिंता है ,चंद्रमा , जिस स्थान से मैं यहां आया हूं , वो रात्रि के अंधियारे महासमुद्र में सुदूर ब्रह्माण्ड में स्थित है , इसकी दूरी मीलों में नापना कठिन है !

मैं महान अतुआ का पुत्र हूं , जिसने मुझे यह द्वीप बनाकर दिया है , इसमें पर्वत , झरने , नदियां , घाटियां , झीलें हैं और मैं यहां का मुखिया हूं ! मैं यहां हमेशा हमेशा राज करूंगा ! वे सब , यह सुनकर आश्चर्य चकित थे कि मारामा , महान अतुवा का पुत्र है , जिसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बनाया और सारे देवता भी ! मारामा ने कहा महान अतुवा ने मुझे वधु की खोज का दायित्व सौंपा है और मैं पिछले 200 सालों से अनेकों तारों में भटकता रहा पर मुझे कोई भी लड़की इस योग्य नहीं मिली ! अब मैं पृथ्वी पर आया हूं तो देखा कि आपकी पुत्री मोतियों जैसी सुन्दर है और इसकी सांसों में दालचीनी की सुगन्ध है ! यह मेरी पत्नी बनने और मेरे साथ चंद्रमा पर राज करने के लिए सर्वथा सुयोग्य है ! तालाकोआ जैसे साधारण मनुष्य के लिए मारामा के प्रस्ताव से इंकार करना कठिन था , इधर कौलुआलुआ के ह्रदय में , महान अतुवा के पुत्र मारामा के प्रति प्रेम की लौ , सांसों में शहद की सुगंध और आंखों में प्रेम उमड़ रहा था ! तालाकोआ ने उससे कहा पुत्री मछली और खरगोश उठाओ और इसे भून कर , हम सबको बांटो यह हमारा वचन है ! कौलुआलुआ ने पितृ आज्ञा का पालन किया और इस तरह से उसका विवाह मारामा से हो गया !

एक दिन मारामा अपनी पत्नी को लेकर चला गया ! जैसा कि कौलुआलुआ ने कहा था , उसकी तीनों बहनों ने उस द्वीप पर रौशनी के संकेत देखे ! यहां तक कि उन सबके बाल सफ़ेद हो गये , उनके चेहरे और अंगुलियों पर समय के निशान दिखने लगे , वे बूढ़ी हो गईं थीं , खजूर / ताड़ के वृक्षों में काई जम गई थी , पिता तालाकोआ की मृत्यु हो गई  ! वे पिछले दो सौ वर्षों से जी रही हैं , उन्होंने देखा है कि सुदूर द्वीप की रौशनी धीरे धीरे तेज होती जा रही है ! महान अतुवा ने कौलुआलुआ को अक्षत यवन दिया है , समृद्धि दी है , सुखमय पारिवारिक जीवन दिया है ! चांद अब पूरा चमकीला हो चुका है !  महान अतुवा की यह कृपा उन सब पत्नियों के लिए है , जो अपने पतियों की सेवा करती हैं , जब वे शिकार से लौटते हैं !  उनके लिए भोजन की व्यवस्था करती हैं !  ये हम हैं जो अपने मारामा की पहचान कर सकें !  समुद्र की रेत का गायन , ताड़ पात्रों की फुसफुसाहट और तारों की ओर गन्नों की नुकीली पत्तियों के इशारे , कहते हैं कि कौलुआलुआ के मायके में सब जानते हैं , कि वह खुश है , उसका ह्रदय प्रेम के आलोक से परिपूर्ण है  ! 

प्रशांत महासागर की गोद में प्रकटित हुए हवाई द्वीपों की यह कथा , आदिम शिकारी समुदाय की कथा है , जो वन्य जीवों और मछलियों के शिकार पर निर्भर हैं  ! उनके जीवन में ताड़ और खजूर के वृक्षों का महत्त्व , उनके फलों , उनके रस तथा पत्तियों के बहुउपयोगी होने के कारण से है ! खजूर के फल ,उनकी पौष्टिकता ,उनकी पत्तियों की झाड़ुयें ,चटाइयां , झोपड़ियों पर ताड़ पत्रों की छतें और अंतत: मादकता जन्य अन्य उपयोग ! लड़की का पिता , अपने होने वाले दामाद के पास इनके स्वामित्व की कामना करता है  !  वह चाहता है कि ताड़ और खजूरों के आधिपत्य के अलावा , भावी दामाद के भू स्वामित्व क्षेत्र में , जलनद भी हों यानि कि मछलियों की सहज सुलभता ! उसे दामाद की सामाजिक हैसियत भी एक मुखिया जैसी चाहिये ! वह एक अच्छा पिता है जो अपनी पुत्रियों के लिए आर्थिक दृष्टि से संपन्न वर चाहता है ! हालांकि उसे , उसकी आखेटकीय निपुणता का संज्ञान पहले से ही है , फिर भी वह आवश्यक पूछताछ कर संतुष्ट हो लेना चाहता है ! कथा से यह भी स्पष्ट होता है कि कोई वर , वधु की मांग तभी कर सकता है जबकि वह भावी ससुराल में कोई उपहार लेकर उपस्थित हो !

ऐसा लगता है कि महासागरीय द्वीपों के निवासी होने के नाते वे दुनिया के सभी स्थानों को द्वीप की ही शक्ल में देखते होंगे , तभी वे सुदूर अंतरिक्ष के चंद्रमा को भी आलोकित द्वीप ही कहते हैं ! इस आख्यान में उपहार स्वरुप प्राप्त मछली और खरगोश के भूने जाने और सामूहिक तौर पर भोज कर लेने को विवाह का वचन दे दिये जाने का प्रतीक मान लिया गया है ! खाद्य सामग्री को भून कर खाये जाने से संकेत यह भी मिलता है कि तब तेल और मसालों के उपयोग से मांसाहारी व्यंजन बनाये जाने का चलन नहीं रहा होगा ! कथा के विवरण से यह तो ज्ञात नहीं होता कि वे धान की खेती करते थे अथवा नहीं पर कथांत में गन्नों का उल्लेख ,यह बतलाता है कि कृषि उपज के रूप में गन्ने उनकी उपलब्धि हैं ! घरों में खिड़की से आकाश को देख पाने की कहन बहुत महत्वपूर्ण है , नायिका ने , नायक जितना सुन्दर और स्वस्थ पुरुष पहले कभी नहीं देखा है , हालांकि वह पूरी धरती घूम चुकी है , और भांति भांति के पुरुषों से परिचित भी है ! 

यदि पूरी धरती को आस पास के गांव मान लिया जाये और उनके मुखिया के पुत्रों को भांति भांति के पुरुष , तो भी नायिका के लिए नायक असाधारण है ! अस्तु वह अपने शयन कक्ष की खिड़की से रौशन सितारों के साथ अपने नायक की उपस्थिति का आभास करने के साथ ही उसकी आंखों में स्वयं के प्रति अनुराग भी देख पाती है ! कथा का नायक उस ईश्वर का पुत्र होने का दावा करता है जोकि सम्पूर्ण ब्रह्मांड का रचयिता और देवताओं को पैदा करने वाला है ! नायक एक रौशन सितारे चन्द्रमा के सारे संसाधनों का स्वामी है , उसे यह ग्रह / द्वीप , महान ईश्वर ने निर्मित करके दिया है , जिसमें उसे अनंत काल तक राज करना है , इसलिये सहगामिनी की खोज में वह सारे ग्रहों / द्वीपों में भटकते हुए अंतत: पृथ्वी / नायिका के गांव , तक जा पहुंचता है !  इस आख्यान में यह प्रसंग अदभुत है , जहां भावी ससुर के प्रश्न पर नायक अपना परिचय ईश पुत्र के रूप में देने के बाद कहता है कि , उसका चंद्रमा / ग्रह / द्वीप , सुदूर ब्रह्माण्ड में रात्रि के अंधियारे महासमुद्र में अवस्थित है  और दूरी को मीलों में समझा पाना उसके लिए कठिन है !

अगर कथा , सच में ब्रह्माण्ड का उल्लेख कर रही हो तो असीम विस्तारित काले अंतरिक्ष को रात के अंधियारे महासमुद्र कहना और उसमें एक रौशन द्वीप के रूप में चंद्रमा का उल्लेख करना आश्चर्य चकित करता है !   संभव है कि ,  कथा अंतरिक्ष से आये किसी दैवीय नायक और उसके चंद्रमा का उल्लेख ना भी कर रही हो तो , उस समय में धरती मानवीय पहुंच के हिसाब से सचमुच विराट और विशाल थी , जहां किसी महासमुद्र में किसी सुदूर आलोकित द्वीप के अस्तित्व को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है , यह माना जा सकता है कि नायिका के गांव से दूर महासागरीय टापू पर रौशनी की व्यवस्था नायिका के गांव से बेहतर हो सकती है ! नायक पिछले 200 वर्षों से पत्नी की तलाश में भटकते हुए नायिका के गांव आया है ! नायिका की बहने 200 वर्षों तक अपने जीजा के ग्रह / द्वीप में तेजतर होती रौशनी देखती रहीं ! ताड़ और खजूर के वृक्षों में काई जमने का कथन समय को विस्तारित तथा आयु को सुदीर्घ करने / कहने का आशय रखता है ! आख्यान कहता है कि नायिका की बहनों के चेहरे और हाथों की अंगुलियों पर समय के संकेत दिखाई देने लगे थे ! 

बेशक नायक , नायिका के सौंदर्य पर मुग्ध है पर उसे नायिका की सांसों से दालचीनी की खुश्बू की अनुभूति बेहद रोचक संकेत देती है ! स्मरण रहे कि एक समय के समाज में दालचीनी एक व्यापारिक फसल और गरम मसाले से अधिक एक करेंसी की भी हैसियत रखती आई है ! इसी तरह से नायिका का मोतियों जैसा सौंदर्य...आप मोतियों को भी करेंसी मान लें ! नायक से अलग हटकर कथा को कहने वाला व्यक्ति नायिका की सांसों में शहद की सुगंध का उल्लेख करता है ! कथा अपने रोमांटिक फ्लेवर में नायिका के ह्रदय में प्रेम की लौ, देखती है !  रौशन सितारे में कन्या का सुखद भविष्य देखने वाले , मायके के आशावादी लोग , गन्ने के पत्ते की नोकों से , ताड़ के पत्तों की फुसफुसाहट से , रेत के खिसकने की गुनगुनाहट से , पारिवारिक जीवन की समृद्धि / आंनद देखते हैं ! यह सब बांचते हुए लगता है कि जैसे कोई लयबद्ध कविता बांच रहे हों किन्तु ...धार्मिकता के सहारे से यह कविता अचानक ही खुरदुरे गद्य / जमीनी यथार्थ में तब्दील होकर कहती है !  ईश्वर उन सब पत्नियों पर कृपा करता है , जो अपने पतियों की सेवा करती हैं , शिकार से लौटने पर उनके लिए भोजन तैयार करती हैं ! यानि कि चन्द्र वदनि मृग लोचनी नायिका पहले अपने नायक मारामा को पहचान ले और अंततः उसकी सेविका बन जाये ...

18 टिप्‍पणियां:

  1. यह प्रेमकथा से ज़्यादा एक सामाजिक कथा लगती है जिसमें एक पिता अपनी बेटी के भविष्य के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहता है.तब के समाज में भी व्यक्तियों के संस्कार से कहीं अधिक कुल और समृद्धि को तरजीह दी जाती थी.मारामा के अच्छेपन के बावजूद बेटी का पिता उसके परिवार के प्रति कहीं अधिक चिंतित होता है.

    ...ईश्वर पतियों की सेवा करने वाली पत्नियों को कहीं अधिक 'फेवर' देता है,इस बहाने कहीं न कहीं पुरुष आधिपत्य को बरक़रार रखने की कोशिश की गई है.

    ...सांसों की गंध दालचीनी-सी है,तभी बिना पास आए,दूर से ही दोनों गमक गये हैं !

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    1. संतोष जी ,
      आप इसे प्रेम सह व्यवस्थित विवाह भी कह सकते हैं :) पिता अपनी बेटियों के भविष्य में चिंता नहीं करेगा तो कौन करेगा ! पुरुष प्रभुत्व की बात सही है ! उस ज़माने में दालचीनी एक समृद्धि की प्रतीक थी !

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  2. दालचीनी की सुगंध :-)
    मसाले के व्यापार भी इन्ही समुद्री मार्गों से होते थे ..
    इस कहानी का लैंडस्केप मिथकीय विराटता लिए है -रोचक!

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  3. कथा में प्रेम और रोमांस तो भरपूर है . उस समय की स्थिति को भी सही बयाँ करता है .
    लेकिन आधुनिक नारियों को आपत्ति हो सकती है .

    हालाँकि -- ईश्वर उन सब पत्नियों पर कृपा करता है , जो अपने पतियों की सेवा करती हैं -- यह वाक्य सामाजिक रूप से त्रुटिपूर्ण लगता है . :)

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  4. ईश्वर कृपा करे या ना करे किन्तु वाक्य...
    "उस समय की स्थिति का सही बयान करता है" :)


    डाक्टर साहब ईश्वर सम्मोहन की गोली है जिसका इस्तेमाल सामाजिक स्थितियों में हेरफेर के लिए अक्सर किया जाता है :) भले ही पत्नियों से सेवा कार्य लेने का मामला भी क्यों ना हो :)

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    1. असहमति का तो सवाल ही नहीं . लेकिन पकड़ नहीं पाए मियां ! :)
      उस समय की स्थिति -- उस समय की नारी के कितने पति होते थे ? :)

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    2. डाक्टर साहब ,
      उस समुदाय में उस समय एक नारी के अनेक पति नहीं होते थे मगर एक पति की कई पत्नियां हो सकतीं थीं :)

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    3. वैसे डाक्टर साहब 'पत्नियों' के साथ 'पतियों' ही कहा जाता है :)

      पत्नि के साथ पति कह लीजिए ! याफिर पति के साथ पत्नियों भी :)

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    4. भ्रामक तो है ही .
      यह तो वही हो गया -- ऐब का बहुवचन एब्स ! :)

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  5. दालचीनी सी खुशबू..और मोतियों जैसा सौन्दर्य.कहना ...बहुत सहज स्वाभाविक है..
    हमारे यहाँ भी तो चमेली...जूही...मोगरा सी खुशबू की बात कही जाती है..

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    1. रश्मि जी ,
      शहद सी खुश्बू का ज़िक्र भी है :)

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  6. शायद बस्तर की लोक कथाओं में भी ऐसा कुछ मिल जाए. दालचीनी की खुशबू तो समझ में आई परन्तु शहद की खुशबू! हमें तो नहीं पता. कभी मिली नहीं.
    चेन्नई से...

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    1. आदरणीय सुब्रमनियन जी ,

      आप बस्तर में रहे हैं तो आपको दोनों खुश्बुयें मिलना चाहिये थीं :)


      आप भोपाल वापस आये थे फिर चेन्नई कैसे पहुंच गये ?

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  7. इन दंतकथाओं के जरिये आपने विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं एवं मानव विकास का परिचय करवाने में बड़ी मदद की है ! मुझे नहीं लगता कि कभी भी ऐसी श्रंखला एक जगह लिखी गयी हो ! क्यों ना आप इस पर पुस्तक लिखें ...
    शायद शोधार्थियों के काम की सिद्ध हो ...
    आभार भाई जी !

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    1. सतीश भाई ,
      आपकी प्रतिक्रिया हौसला बढ़ाती है ! सुख देती है !

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  8. मेरा कमेन्ट गायब कर दिया आपने ...

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    1. आजकल गूगल ब्लागरों में गलतफहमियां फैलाने पे तुला हुआ है :)

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