बुधवार, 13 जून 2012

दुआओं का अपनी असर ढूंढते हैं...!

स्टडी रूम जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ते हुए कुछ ऐसा लगा कि सांसे तेज हो रही है ! उधर घर के बाहर वाले प्लाट पे उभर आये नये मकान की छत की ढ़लाई शिद्दत से ज़ारी है जोकि देर रात तक मुकम्मल भी हो जायेगी ! सुबह से 60-70 आदिवासी लडकियां और कुछ नौजवान रेत, सीमेंट और गिट्टियों के मिश्रण को घर की शक्ल में तब्दील कर रहे हैं!अनथक, लगातार, ऐन वैसे ही जैसे कि सालों पहले से करते आये हैं ! बदरंग खस्ताहाल कपड़े, दुबली पतली काया और हाड़ तोड़ मेहनत ! जल जंगल और जमीन के असली वारिस आज देर से घर, लौटेंगे सौ / पचास के नोटों की चिल्लर लेकर, अपनी नींद भरी आंखों और दिल में अगली सुबह फिर से खटने के लिए वापस लौटने की जिजीविषा लिए हुए ! इधर अपनी सांसे फूल रही हैं  सीढ़ियां  चढ़ते हुए !

तब शायद 1984 के साल की सर्दियों के आख़िरी दिन रहे होंगे, पड़ोसी मित्र आदिवासी कल्याण विभाग में सहायक नियोजन अधिकारी थे ! उन्होंने कहा अगर एक दिन का समय निकाल सकें तो मेरे साथ चलें ! हम इन्द्रावती नदी घाटी का सर्वे करेंगे जहां बांध बनने से गांव / देव स्थान और बेशकीमती जंगल डूबने की संभावना है ! हमने कहा ठीक है, कब चलना है ? उन्होंने कहा कल शाम को, रात वहीं गुजारेंगे परसों दिन भर पैदल मार्च और शाम तक घर वापसी हो जायेगी ! हमने कहा, हम परसों की छुट्टी ले लेंगे, लेकिन कल शाम आकाशवाणी में चिंतन रिकार्ड करने के बाद ही चल सकेंगे आपके साथ ! उन्होंने कहा, हम आपको वहीं से साथ ले लेंगे ! तयशुदा प्रोग्राम के मुताबिक हमने शाम की रिकार्डिंग से पहले कैनवास शूज पहने और लूज कपड़े धारण किये, ताकि पैदल मार्च में तकलीफ ना हो ! ठीक 3.30 पर मित्र की गाड़ी आकाशवाणी के गेट पर थी और हम लोग गंतव्य की ओर प्रस्थान कर चुके थे ! ड्राइवर के अलावा, गाड़ी में एक फोटोग्राफर, हम और हमारे मित्र ! हमने पूछा, तैयारी पूरी है ? उन्होंने कहा हां ! 

जगदलपुर से बारसुर तक पहुंचने में शाम गहरा गई थी, गाड़ी का ड्राइवर हमें नदी के किनारे एक गांव* के पास छोड़ कर वापस हो लिया ! चार लकड़ियों के सहारे खड़ी पैरे की छत वाली एक झोपड़ी ! जिसमें कोई दीवाल नहीं थी ! लगभग 50-60 फीट की दूरी पर बहती हुई नदी और उसपर सर्दियों का आख़िरी महीना ! दोस्त से पूछा कम्बल / चादर वगैरह लाये हैं ? उसने कहा नहीं ! गाड़ी वापस जा चुकी थी और पलटकर भागने की कोई गुंजायश भी शेष नहीं रह गई थी ! अठपहरिया** आते आते काफी देर हो गई, उसने तीन खाटों और उनके बीच एक अलाव की व्यवस्था कर दी थी जिसके सहारे सर्द रात काटनी थी ! ओढ़ने बिछाने का कोई सामान हमारे अधिकारी मित्र लेकर नहीं आये थे, इसलिए खाटों पर भी पैरा डलवा लिया गया ! रात चांदनी थी इसलिए मित्र से ये पूछने की हिमाकत नहीं की, कि टार्च लाये हो कि नहीं ? अठपहरिया ने रात के भोजन की व्यवस्था कर दी थी, पत्तों की प्लेट और पत्तों की कटोरियां, उबला हुआ मोटा चावल और उबली हुई साबुत मूंग के साथ हरी मिर्च और थोड़ा सा नमक ! पीने के लिए नदी का पानी था ही ! 

पैरे में दुबके हुए जैसे तैसे रात गुज़ारने के बाद सुबह 5 बजे नदी के ठंडे पानी के साथ निवृत्ति ने होश फाख्ता कर दिये, हिम्मत करके फ्रेश हुए...बहरहाल नींद हवा हो गई ! सुबह 5.30 के आसपास हम लोग पैदल मार्च के लिए तैयार थे, अगले गांव तक का रास्ता अठपहरिया को दिखाना था ! पता चला कि उसके बाद हर गांव से एक आदमी हमें अगले गांव तक खो करने के लिए तैयार किया गया था ! सूरज निकलते निकलते हमें पता चल चुका था कि हमारा मित्र और फोटोग्राफर बंधु ऊंची एड़ी के जूते पहने हुए थे और उन्हें पगडंडियों में चलने में भारी दिक्कत होने वाली थी !...खैर मित्र ने सरकारी निर्देशों के अनुसार सारी लोकेशंस के फोटोग्राफ्स लेते चलने की बात की, तो हम और भी ज्यादा सतर्क हो गये ! सुबह के 9 बजते बजते हमें यह जानकारी भी हो गई कि हमारे अधिकारी मित्र का थैला बिल्कुल खाली है ! कोई फल / सूखे नाश्ते की व्यवस्था करके यात्रा पर चलने की उन्हें सूझी ही ना थी ! उन्होंने हमें आकाशवाणी से उठाया था, हमने पूछा भी था कि तैयारी है ? जिस पर उन्होंने कहा था, कि हां ! अब ईश्वर जाने कौन सी तैयारी की थी उन्होंने !

फोटोग्राफर बंधु और अधिकारी मित्र जल्दी ही समझ गये के उनके जूते उनकी इज्जत उतार लेंगे ! यात्रा के बीच में किसी गांव में रुकने की कोई गुंजायश ना थी क्योंकि हमें तकरीबन 30 किलोमीटर दूर तक नदी के किनारे चलते रहने के बाद घाटी से ऊपर जंगल के बाहर पहुंचना था ! यात्रा के आख़िरी 5 किलोमीटर में हमारे पास कोई गाइड / ग्रामीण नहीं रहने वाला था इसलिए शाम ढ़लने से पहले 30 किलोमीटर पैदल चल चुकना अंतिम और एकमात्र विकल्प था ! दोपहर होते होते भूख और प्यास से बुरा हाल था ! खाने को कुछ था नहीं पर पीने के लिए नदी में पानी ही पानी, जितना चाहो पियो ! पगडंडियों पर अपने दुखते पैरों और तकलीफ देते हुए जूतों के बावजूद फोटोग्राफर बंधु अपने काम में कोताही नहीं कर रहे थे ! बांध बनने से डूब में आने वाले गांव, देव स्थान, सागौन के बेशकीमती जंगल, कैमरे में रिकार्डिंग, बराबर चालू थी पर हमारे खुद के चलने की गति, घोषित लक्ष्य से बहुत कम थी !

हमारा ख्याल था कि हमें कुल दूरी तय करने में 6 घंटे लगना चाहिये थे और फोटोग्राफी वगैरह में अगर 5 घंटे और भी लग जाते, तो भी हम 4.30 बजे शाम तक गंतव्य तक पहुंच जाते ! इस हिसाब से दिन डूबने तक हमारे पास कम से कम 1.30 घंटे का मर्जिन बचता ही था ! दिन तमाम भूख से बिलबिलाते हुए शाम तकरीबन 5 बजे हम बिन्ता गांव*** पहुंचे ! यहीं से हमें घाट के ऊपर चढ़ना था ! बिन्ता में अपने छात्रों को देखकर हम हैरान थे ! वे हमें रोकना चाहते थे ! हमने कहा फिर कभी, अभी घाटी के ऊपर ड्राइवर चिंता कर रहा होगा ! बच्चों के घर में 15-20 मिनट में पोहे और पानी का तात्कालिक घरेलू सत्कार स्वीकार कर हम घाट चढ़ने के लिए उतावले हो चुके थे ! घाट की खड़ी चढ़ाई मित्र और फोटोग्राफर बंधु पर इतनी भारी पड़ी कि वे ऊपर जाकर जमीन पर गिर पड़े और कहने लगे बस, अब यहां से आगे नहीं जा सकते ! गाड़ी की लोकेशन लगभग एक किलोमीटर दूर की थी, हौसला बढ़ाने पर वे गिरते पड़ते आगे बढ़े ! हम अपने तीस किलोमीटर का कोटा पूरा कर चुके थे पर गाड़ी का दूर दूर तक नामोनिशान नहीं था, तसल्ली ये कि जंगल का टुकड़ा पीछे छूट गया था ! अगले 5 किलोमीटर मुश्किल से गुज़रे ! तभी गाड़ी आते दिखाई दी ! देखते ही देखते वे दोनों गाड़ी में पसर चुके थे और हम वापस जगदलपुर की ओर...रात 8 बजे गर्म पानी से नहा चुकने के बाद बाकी के दोस्तों के सामने अधिकारी मित्र की तारीफ़ के पुल बांधते हुए हमने घोषित कर दिया था कि अब किसी भी अधिकारी के साथ फील्ड वर्क ? कभी नहीं ? 

रश्मि जी की फोन काल, हमें  अतीत से वापस वर्तमान में ले आई है ! सामने वाले घर की छत की ढ़लाई अभी भी पूरी नहीं हुई है, जल,जमीन, जंगल के असली वारिस, जो अब मजदूर हैं, ग्यारह बजे से पहले घर वापस नहीं लौट पायेंगे ! वे सन 1984 में भी मजदूर थे, उससे पहले भी और आज भी हैं, उनकी विरासत पे फैसले लेने का हक़, पहले दिल्ली फिर भोपाल को था और अब रायपुर के पास है... हम जहां रहते हैं, वो धरती रत्नगर्भा है पर उसी धरती की इंसानी बसाहटें निराश्रित...निर्धन, बेसहारा जैसी ! बेहतर मुस्तकबिल और सच्चे मेहरबानों की उम्मीद में...पीढ़ी दर पीढ़ी, देह दर देह खटती हुई...एक मुकम्मिल आबादी के लिए ...दो बोल सूझते हैं ...

किसी मेहरबां की नज़र ढूंढते हैं !
दुआओं का अपनी असर ढूंढते हैं !!

*नक़्शे में 2 नम्बर स्थान देखें !
**अठपहरिया गांव के महमानों की आठों प्रहर सेवा करने वाला व्यक्ति है ,उसके जीवन यापन की व्यवस्था गांव के लोग मिलकर करते हैं ! 
***नक़्शे में 3 नम्बर स्थान देखें यहां से घाटी चढ़कर पैदल चले और फिर 4 नम्बर स्थान से गाड़ी लेकर 1 नम्बर चित्रकूट होते हुए हम जगदलपुर वापस लौटे !
नक़्शे को तैयार करने के लिए छत्तीसगढ़ के नामचीन ब्लागर संजीव तिवारी जी का हार्दिक धन्यवाद !
गीत की धुन जेहन में थी पर उसे बोल दिये रश्मि रविजा साहिबा और जी.जी.शेख साहब ने , उन दोनों के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं  !
तीरों से सहेजा गया हिस्सा पैदल मार्च का है , जबकि शेष यात्रा गाड़ी से की गई !

32 टिप्‍पणियां:

  1. (आपके मि‍त्र ठहने सो माफ़ी पहले ही मांग लेता हूँ)पर एक बात तय है कि‍ ऐसा बौड़म अफ़सर हमने नहीं देखा ...

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    1. काहे की माफी काजल भाई हमने खुद उन्हें रास्ते भर दुआयें दीं थीं और घर पर लौट कर कुछ ज्यादा ही :)

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  2. अली सा , आपके अधिकारी मित्र का प्रबंधन बड़ा ख़राब रहा . उन्हें तो पता होना चाहिए था , क्या सामान ज़रूरी होता है .
    लेकिन एक दिन में ३० किलोमीटर कुछ ज्यादा ही लगा . भाई ट्रेकिंग तो हमने भी की थी लेकिन एक दिन में १६ किलोमीटर्स से ज्यादा नहीं . इसके लिए तो असली ट्रेकर होना ज़रूरी है .
    बहरहाल संस्मरण अच्छा लगा .

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    1. प्रबंधन सच में बहुत खराब था / बकवास था / वाहियात था बल्कि प्रबंधन था ही नहीं :)

      30 नहीं डाक्टर साहब कुल 35 किलोमीटर चल दिये हम लोग ! घाटी चढ़ने के बाद भी पांच किलोमीटर चलना पड़ा :)

      रास्ते में रुकने की कोई गुंजायश नहीं थी इसलिए चलना ही पड़ा :)

      हमें पांच से छै किलोमीटर प्रति घंटा चलने की आदत थी ! वहां पगडंडियों की वज़ह से देर हुई !

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    2. वैसे हम पहाड़ी मार्ग की बात कर र हे थे . प्लेन्स में चला जा सकता है.

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  3. ...मुझे लगता है कि आपने जिस बात को कहने के लिए यह संस्मरण बताया है उसकी वज़ह पहले पैरे में ही दे दी है !

    ...आप और आपके मित्र अधिकारी तो जैसे-तैसे अपने खोल में या मूल-स्थान,मूल-स्थिति में वापिस आ गए पर आपके पड़ोस में लगे मजूर आदिकाल से हाड़-तोड़ मेहनत करते आ रहे हैं पर उसमें कोई तबदीली नहीं,यह उनकी नियति बन गई है !

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    1. संतोष जी ,
      मुझे बेहद खुशी है कि आपने मेरी मंशा को समझा ! आप पहले टिप्पणीकार हैं जिन्होंने प्रविष्टि के आदि और अंत में निहित आशय पर ध्यान दिया है ! आपका हार्दिक आभार !

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  4. संस्मरण तो बड़ा रोमांचक था..पर जल ,जमीन, जंगल के असली वारिसों के हाल ने मन दुखी कर दिया...
    उनके हालात कब बदलेंगे?...और सत्ताईस सालों तक नहीं बदले तो आगे क्या बदलेंगे?
    'अठपहरिया ' के विषय में पहली बार जाना...ये भी जानकर अच्छा लगा...गाँव वाले..मेहमानों के देखभाल के विषय में इतना सोचते थे (पर 'अठपहरिया ' का परिचय बहुत ही महीन अक्षरों में दिया गया है....थोड़ी मुश्किल होती है पढ़ने में.)

    और शुक्रिया के हकदार हम नहीं 'जी.जी.शेख ' हैं...हमने बस आपका मेल उन्हें फॉरवर्ड कर दिया...और उनका जबाब आप तक पहुंचा दिया. बस ये संतोष हुआ कि जो धुन आपके जेहन में गूंज रही थी...उसका अता-पता..'जी जी शेख' साहब ढूंढ लाए. उन्हें संगीत की अच्छी जानकारी है. मुहमद रफ़ी का गाया बेहतरीन गीत है,ये.

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    1. रश्मि जी ,
      कोई बात मन में हो पर याद नहीं आये तो कितनी छटपटाहट / कितनी बेचैनी होती है ? मैं परेशान था !

      मैं जानता था कि इसका तोड़ आपके ही पास होगा ! बोल कहीं से भी जुगाड़े गये पर माध्यम तो आप ही हुईं :) अस्तु आप दोनों का धन्यवाद !

      अठपहरिया पर बहुत दिनों से एक पोस्ट लिखने का ख्याल कौंधता रहा है बस इसी लिए संक्षिप्त परिचय दिया , फॉण्ट छोटे होने की शिकायत जायज़ है !

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    2. वैसे जब आपने ये कहा कि गाँव वाले एक अठपहरिया नियुक्त करते हैं ,तो मेरे दिमाग ने अगले पल ही सोच लिया कि कोई ऐसा व्यक्ति जो आठो पहर के बदलने के समय कोई घटा बजाता होगा..:):)
      (दरअसल एक उपन्यास पढ़ रही हूँ. Meluha उसमे जिक्र है कि जैसे ही पहर बदलता है..एक घंटा बजता है..और लोग कुछ श्लोक पढ़ते हैं. ..ऐसा ही कुछ मुझे 'अठपहरिया'. के लिए भी लगा..)

      विस्तार से लिखिए..अठपहरिया....उनकी नियुक्ति..कार्य-कलाप के विषय में..इंतज़ार रहेगा.

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    3. आप भी क्या क्या सोच डालती हैं :) उसके बारे में जल्दी ही लिखूंगा !

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  5. अच्छा संयोग राह काल ऐसे वक्त ही आयी जब मंजिल मिल गयी ही ..
    अच्छा हुआ अली साहब स्मृति की गली से निकल लिए .....
    साथी तो सचमुच बौड़म था ...मुह्जे अपनी झांसी इंटीरियर की बेतवा नदी के गाँव
    की याद हो आयी ..मगर वहां तो खातिरदारी का पूरा इंतजाम था ..पुआ था पुआल था
    और था बहुत कुछ :)

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    1. अरविन्द जी ,
      अच्छा हुआ जो हमारे साथी को आपने भी निपटा दिया , उसकी तैयारियां , और क्या क्या कहूं :)
      हमारे बहाने आपको जो भी याद आया है उसे नेट पर डाल दीजिए ! अपनी यात्रा की व्यवस्था से हम तो दुखी थे ही / अब भी हैं , कम से कम आपके संस्मरण से सुखी हो लें :)

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  6. व्यवस्था के गोल चक्र में फंसे ये लोंग जहाँ के तहां फंसे हुए हैं , चाहे इंच भर हैसियत ना बदली , मगर हाड़तोड़ मेहनत के बाद सुकून भरी नींद और भरपूर सांस तो है !

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    1. उनके हिस्से / उनके विरसे के सुख , बाहर के लोग किस तरह से लूट खसोट रहे हैं और वे ? बस जस के तस !

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  7. पूरी कहानी पढ़ी, अब समझ नहीं आ रहा कि आपको क्या कहें ...

    गए काहे थे ??

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    1. सतीश भाई ,
      आपने ध्यान नहीं दिया :)

      @ पोस्ट का दूसरा पैरा ...
      हम इन्द्रावती नदी घाटी का सर्वे करेंगे जहां बांध बनने से गांव / देव स्थान और बेशकीमती जंगल डूबने की संभावना है !

      @ पोस्ट का पांचवां पैरा ...
      बांध बनने से डूब में आने वाले गांव , देव स्थान , सागौन के बेशकीमती जंगल , कैमरे में रिकार्डिंग , बराबर चालू थी !

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    2. खैर ..
      अब आप इसे भूलेंगे कभी नहीं...

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    3. सतीश भाई ,
      1984 से अब तक नहीं भूल पाया तो अब क्या भूलूँगा :)

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  8. आप अपने दोस्त को दिल्ली आने का निमंत्रण मेरी तरफ से दे दें ...

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  9. हम अपने अधिकतर सर्वे-साथियों सहित, ''सुबह जो खा-पी लिया, उसी का भरोसा'', आदत वाले रहे हैं, समय बीत जाने के बाद भी अब तक आदत खास बदली नहीं और इसमें असुविधा नहीं होती.

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  10. किसी मेहरबां की नज़र ढूंढते हैं
    दुआओं का अपनी असर ढूंढते हैं
    हम जिंदगी के इस संस्मरण में
    बीता हुआ हर कहर ढूँढते हैं।

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  11. सुन्दर यात्रा वृतांत! प्रथम पैरा में मजदूरों का विवरण,
    उनकी हालत और हालात का आज तक भी न बदलना!
    मन के अन्दर तक घाव कर गया!

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