रविवार, 3 जून 2012

महाबाढ़ : जल जीवन के पाषाणीकृत अभिलेखागार !

आदिमयुगीन जीवन पर, ज्यादातर स्थानीयता के प्रभावों, कदाचित अतिशयोक्तिपूर्ण संकेतों, से लैस गाथाओं को टुकड़ा टुकड़ा बांचते हुए, यह स्मरण रखना होता है कि अर्वाचीन संसार के विश्लेषण में प्रयुक्त हो रहे इन आख्यानों को ऐतिहासिक प्रामाणिक दस्तावेजों के बतौर स्वीकारने के बजाये, उस काल का अपुष्ट और अपेक्षाकृत काल्पनिक, किन्तु उपलब्ध एकमात्र सूचना स्रोत माना जाना चाहिये ! ‘कहन’ में अन्तर्निहित तथ्यों को हम अपनी समझ / अपने बोध से किस सीमा तक औचित्यपूर्ण ठहरा सकते हैं ? इसका कोई निर्धारित पैमाना नहीं है ! अतः कथा में सांकेतिक रूप से मौजूद भिन्न तत्वों के विश्लेषण में भिन्न दृष्टिकोणों और वैविध्यपूर्ण निष्पत्तियों को तब तक व्यक्तिगत निष्पत्तियां ही माना जाना चाहिये जब तक कि व्यापक अकादमिक संसार इनमें से किसी एक के पक्ष में अपना अभिमत दर्ज ना करा दे ! इसीलिये लोक आख्यानों के विश्लेषण में अपने निज दृष्टिकोण और अपनी निष्पत्तियों को लेकर, इस आलेख का लेखक किसी मुगालते में नहीं है !

सृष्टि के पुनर्सृजन के लिए बाढ़ की संकल्पना(ओं) की विश्वव्यापी उपस्थिति, आदिम बसाहटों पर जलातिरेक की भविष्यवाणियों / पूर्वाभासों से लेकर आगामी संकट से निपटने की मानवीय तैयारियों तथा दैवीय संकेतों के प्रति अविश्वासियों के मटियामेट हो जाने के बयानों और घटनोत्तर पुनर्जीवन के कथनों से, भरी पड़ीं है ! जहां आधुनिक विज्ञान यह स्वीकार करता है कि भूमि का जीवन, सामुद्रिक गतिविधियों और धरती की प्लेटों की निज हलचलों से प्रभावित होता रहता है ! ऐसे में भूखंडों / समुद्रों का विलोपन / कायांतरण, नवपर्वतों का निर्माण तथा जलीय जीवन के फासिल्स / जीवाश्मों की, भूमि अथवा पर्वतों पर मौजूदगी, को देखकर हैरान होने का कोई कारण भी नहीं बनता ! मिसाल के तौर पर, तकरीबन पांच करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में रहा ‘टेथिस सागर’ नवनिर्मित हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं की ऊंचाइयों में दम तोड़ चुका है ! फिलहाल उत्तराखंड के चमौली जिले / जनपद का लफथल पर्वतीय क्षेत्र, तत्कालीन टेथिस सागर के जलजीवन का पाषाणीकृत अभिलेखागार बन चुका है ! यहां मौजूद घोंघे / सीप / मछलियों जैसे अनेकों समुद्री जीव जंतुओं के फासिल्स, भूविज्ञानियों / जन्तुविज्ञानियों / सुधिजनों के लिए प्रकृति प्रदत्त, पुस्तकालय/ अभिलेखागार / प्रयोगशाला है  !

पर्वतीय उच्चता पर जल जंतुओं के जीवाश्म / फासिल्स की मौजूदगी का यह उदाहरण कहता है कि धरती की दो प्लेट्स के पारस्परिक टकराव के कारण हिमालय पर्वत श्रृंखला का जन्म हुआ और टेथिस सागर, हिमालय की ऊंचाइयों की आगोश में अंतिम नींद सो गया , सो उसके पाल्य जीव जंतु भी ! मोटे तौर पर टेथिस सागर की मृत्यु का विचार जलप्रलय की मनु और श्रद्धा वाली धारणा से भिन्न माना जायेगा जिसमें अगाध बारिश और बढ़ते जल स्तर के कारण जीव जंतुओं का विनाश होना था तथा जल जंतुओं को बाढ़ के समय पर्वत की ऊंचाई पर जा पहुंचना और फिर उसमें से अनेकों का वहीं अटक / फंस जाना संभावित था ! मूल अमेरिकी आदिवासियों का जल प्रलय आख्यान हमारे मनु श्रद्धा वाले जल आख्यान से ज़रा सा भिन्न है ! हमारे आख्यान में, ईश्वर के प्रिय, केवल दो ही मनुष्य, मनु और श्रद्धा, जलप्रलय के बाद जीवित बचते हैं, जबकि वहां पर जलप्रलय से बचने वाले दैवीय स्वप्न के विश्वासी मनुष्यों की संख्या कहीं अधिक है !

मूल अमेरिकी आदिवासियों का आख्यान कहता है कि उन दिनों धरती पर जनसंख्या बहुत बढ़ गई थी जिसके कारण, जनसंख्या के अनुपात में खाद्य सामग्री कम पड़ने लगी थी तथा जनसमूहों और आखेटकों के बीच शिकारगाहों के आधिपत्य को लेकर होने वाले खूनी संघर्ष आम हो गये थे ! वे लोग शिकार निपुण होने के साथ साथ देवदार की लकड़ियों से नाव और डोंगियां बनने में भी सिद्धहस्त थे ! छाल से टोकरियां और रेशों से कपड़े बनाने का हुनर भी उन लोगों के पास था, लेकिन जनाधिक्य उनकी सबसे बड़ी समस्या थी, जोकि उनकी उदर पूर्ति और उनके अस्तित्व के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रहा थी ! उनके समुदाय के एक बुद्धिमान वृद्ध को, एक ही स्वप्न बार बार आने के कारण, उसने समाज परिषद की बैठक बुलाकर सभी को बताया कि या तो भयंकर वर्षा होने के संकेत हैं अथवा नदी में जल स्तर बढ़ने के कारण महाबाढ़ के संकेत हैं !

वृद्ध के स्वप्न पर अविश्वास करने वाले लोगों ने उसका मजाक उड़ाया और अपनी दिनचर्या में लग गये जबकि विश्वासी लोगों ने बचाव के लिए एक बड़ा जहाजी बेड़ा बनने का निर्णय लिया ! उन्होंने देवदार की लकड़ी से कई छोटी छोटी डोंगिया और एक बड़ा जहाजी बेड़ा तैयार किया, देवदार की छाल से रस्सियां बनाकर डोंगियों को बेड़े से जोड़ा गया तथा एक बड़ी रस्सी के एक छोर से बेड़े को ‘कोविचान पर्वत’ पर मजबूती से बांध दिया गया ! साथ ही एक बड़े पत्थर को लंगर बनाकर जहाजी बेड़े में अलग रस्सी से जोड़ा गया ! ऐसा करने में इन मेहनती लोगों को कई चन्द्र मास लगे ! कुछ ही समय में भयानक वर्षा होने लगी और नदियों का जल स्तर ऊपर बढ़ने लगा ! विश्वासी लोग अपने परिजनों और पर्याप्त भोजन / रसद के साथ इस बेड़े पर चढ़ गये ! महाबाढ़ से कोविचान पर्वत की चोटी भी पानी में डूब गई पर रस्सी से बंधा जहाजी बेड़ा ऊपर तैरता रहा, बाढ़ इतनी भयानक थी कि डोंगियां भी बेड़े से छूटकर इधर उधर बहने लगी किन्तु लंगर के कारण बेड़ा स्थिर बना रहा !

कई दिनों बाद जब वर्षा थमी और बाढ़ का पानी नीचे उतरने लगा तो बेड़े में बचे हुए लोग भी अपने अपने घरों को फिर से बनाने में जुट गये ! कालांतर में उनकी जनसंख्या फिर से बढ़ने लगी पर...झगड़े से बचने के लिए इस बार, वे अलग अलग कबीलों और जनजातियों की शक्ल में दूर देश / भूक्षेत्रों में जाकर बसने लगे ! यह कथा अनेकों परिवार के बच जाने का कथन करती है और यह भी कि ये सब विश्वासी लोग थे जिन्होंने दैवीय स्वप्न पर विश्वास किया और संकट से बचने के उपाय स्वरूप नाव बनने वाली अपनी दक्षता का उपयोग किया तथा कड़ी मेहनत की, वे बुद्धिमान थे इसलिए उन्होंने जहाजी बेड़े को पहाड़ की चोटी से बांधा, एक पाषाणीय लंगर की व्यवस्था की, पर्याप्त रसद रखी और वैकल्पिक डोंगियां भी तैयार कीं, यद्यपि बाढ़ के समय डोंगियों वाला विकल्प असफल रहा फिर भी यह, विश्वासी मनुष्यों की दूरदर्शिता का प्रमाण तो है ही ! उन्होंने संकट से बचने के लिए सामूहिक श्रमदान और स्थानीय संसाधनों के उपयोग की नायब मिसाल पेश की  !

मूल अमेरिकन आदिवासियों की तरह से ‘एस्किमो’ की जलप्रलय गाथा भी लगभग यही घटना विवरण दर्ज कराती है, हालांकि उनकी गाथा इस अतिरिक्त विवरण के लिए विशिष्ट मानी जायेगी कि महाबाढ़ के बाद धीरे धीरे जलस्तर गिरता रहा परन्तु अनेकों जल जंतु पर्वत की ऊंचाइयों में अटक / फंस कर रह गये ! उनका आख्यान कहता है कि यही कारण है कि सील,घोंघे, सीप, मछलियों, स्टार फिश, जैसे अनेकों समुद्री जीव जंतुओं के अवशेष / हड्डियां (फासिल्स ) आज भी पर्वत में मौजूद हैं ! क्या यह चिंतन का मुद्दा / विचारणीय बिंदु, नहीं है कि पर्वतीय ऊंचाइयों पर मौजूद समुद्री जीवों के फासिल्स के लिए ‘एस्किमो’ का यह कथन, आज के भूवैज्ञानिकों / जंतुविज्ञानियों के कथन से सैकड़ों / हजार साल पहले किया गया था !


23 टिप्‍पणियां:

  1. आज का आलेख पिछली आख्यान-मालाओं का समेकित विश्लेषण प्रस्तुत करता है और अग्नि की जलन से मुक्त कर शीतलता प्रदान करता है...
    जनसंख्या और भोजन की कमी, माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत की ही बात करता है.. वृद्ध व्यक्ति का स्वप्न हम आज भी जागी आँखों से देखते रहते हैं.. जब हम कहते हैं कि कलियुग आ गया है और इससे मुक्ति का एकमात्र उपाय न तो व्यवस्था परिवर्तन है और न ही नेतृत्व परिवर्तन, केवल जलप्रलय ही है. हम भी जब कभी, न बदलने वाली बुराई और कुव्यवस्था से उबरने का उपाय ढूंढते हैं तो कहते हैं कि जलप्रलय ही हो जाए ताकि नए जीवन की सर्जना हो.
    /
    बहुत ही अच्छी लग रही है यह श्रृंखला, बहुत कुछ सीखने को मिला है/मिल रहा है.

    जवाब देंहटाएं
  2. वृद्ध की कहानी से ऐसा लगता है जैसे यह किसी एक गाँव की कहानी हो . पृथ्वी बहुत बड़ी है . इसलिए एक वृद्ध का कथन मात्र तर्क संगत नहीं लगता . हालाँकि महाप्रलय या जलप्रलय के संकेत जैसा आपने कहा पर्वतों में मिलने वाले फौसिल्स से मिलते हैं .
    मनु और इला की कथा और भी अविश्वसनीय लगती है .
    इस विषय में इंग्लिश फिल्म २०१२ एक ज्यादा संभावित सच्चाई प्रतीत होती है .
    पृथ्वी पर जीवन एक बहुत बड़ा प्राकृतिक रहस्य है . जब तक यह रहस्य बना रहेगा , जीवन चलता रहेगा . जिस दिन मनुष्य ने इसे जान लिया ,शायद उस दिन --उस दिन महाप्रलय आ जाएगी . लेकिन वह दिन अभी दूर है . इसलिए ज्यादा चिंता नहीं . फिर भी , पर्यावरण को सुरक्षित रखकर हम प्रकृति की सहायता कर मनुष्य जीवन को बचाए रख सकते हैं .

    जवाब देंहटाएं
  3. डाक्टर साहब ,
    आप इसे एक गांव /एक समुदाय की ही कहानी मानिये ! आलेख के पहले पैरे में मैंने लोककथा की जो मजबूरियां गिनाईं हैं , कृपया उन्हें 'तर्क' के परिप्रेक्ष्य में देखने का कष्ट करें :)

    अभी हो क्या रहा है कि , मैं एक गाड़ी बमुश्किल नैरोगेज में चलाने की कोशिश कर रहा हूं , पर आप उसे ब्राडगेज में चलते हुए देखना चाहते हैं :)

    जवाब देंहटाएं
  4. पर्वतीय ऊंचाइयों पर मौजूद समुद्री जीवों के फासिल्स के लिए ‘एस्किमो’ का यह कथन , आज के भूवैज्ञानिकों / जंतुविज्ञानियों के कथन से सैकड़ों / हजार साल पहले किया गया था !

    .....यह अचभिंत/चिंतित करने वाली बात है। 2012 वाली अंग्रेजी फिल्म भी इसी वजह से विश्वसनीय/भयावह लगती है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. "पर्वतीय उच्चता पर जल जंतुओं के जीवाश्म / फासिल्स की मौजूदगी" --> यह कथन केवल एण्डीज/हिमालय जैसे मोड़दार पर्वतो के लिये सत्य है जोकि धरती की परतों के टकराने से बने पर्वत है। यहां पर धरती उपर उठती गयी है, जीवाश्म मिलना स्वभाविक है।

      लेकिन २०१२ एक बकवास कहानी, बकवास तथ्यो पर आधारित फिल्म है और इससे कोई साम्य नही है।

      क्षमा कीजीये "2012 और प्रलय" के उल्लेख से मै थोड़ा भड़क जाता हूं!

      हटाएं
    2. संयोगवश उद्धृत लोककथायें इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं की बसाहटों से आई हैं ! फर्क सिर्फ ये है कि जहां विज्ञान धरती के ऊपर उठने के कारण फासिल्स के पर्वतों की चोटियों पे मौजूद होने की बात करता है , वहीं लोक कथायें जलस्तर के बढ़ने के कारण ऐसा होने की बात करती हैं !

      तब लोक मानस की अपनी काल्पनिक 'समझ' थी और अब विज्ञान के अपने व्यावहारिक 'निष्कर्ष' !

      फिल्म 2012 मैंने देखी ही नहीं है इसलिए उसपे कमेन्ट नहीं कर रहा हूं !

      हटाएं
  5. ''इन आख्यानों'' पर संदर्भ और विश्‍लेषण क्षमता हावी होती है, और अपने पसंद के निष्‍कर्ष भी आकृष्‍ट करते हैं.

    जवाब देंहटाएं
  6. बड़ी तीव्रता से निपटा रहे हैं यह श्रृंखला -कहीं महाबाढ़/जलप्लावन की आशंका तो नहीं ?
    धरती के भयंकर भौगोलिक परिवर्तनों के चलते कहीं के समुद्र को पहाड़ और कहीं के पहाड़ पर आज समुद्र का कब्ज़ा है !
    इन लोक कथाओं में इन घटनाओं के स्मृति अवशेष छुपे हैं !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अरविन्द जी ,
      महाबाढ़ आने की आशंका तो नहीं पर छुट्टियां ज़रूर खत्म होने वाली हैं :)
      सोचा मौके का फायदा उठा लूं :)
      काम के दिनों में मेरी परफार्मेंस तो आप देख ही चुके हैं :)

      शेष टिप्पणी से सहमत !

      हटाएं
  7. लिखित रूप में अपने ज्ञान को संगृहीत नहीं कर पाने की विवशता ने पुरातन काल में प्राप्त अनुभवों और निष्कर्षों को लोक आख्यानों के द्वारा आगे बढ़ाने की व्यवस्था दी . प्रश्न भी है और जिज्ञासा भी कि क्या वर्तमान समय के इतिहासकारों , पुरातत्ववेत्ताओं अथवा भूवैज्ञानिकों के लिए ये एक निर्देशिका का काम कर सकते हैं यथा " मौजूद समुद्री जीवों के फासिल्स के लिए ‘एस्किमो’ का यह कथन , आज के भूवैज्ञानिकों / जंतुविज्ञानियों के कथन से सैकड़ों / हजार साल पहले किया गया था !"

    जवाब देंहटाएं
  8. ये सही है कि समाज वैज्ञानिक इन आख्यानों से तत्कालीन समाज व्यवस्था को समझने का यत्न करते हैं हालांकि कथाओं में समाविष्ट काल्पनिकता और सांकेतिकता , इन्हें ठोस सूचना स्रोत बनने नहीं देती !

    परिकल्पनायें / प्राक्कल्पनायें , प्राकृतिक विज्ञान / समाज विज्ञानों के अध्ययनों का मूलाधार / मददगार हुआ करती हैं किन्तु कह नहीं सकते कि वे लोक आख्यानों से किस सीमा तक अपनी विषयगत परिकल्पनायें चुनते होंगे / चुन सकते हैं / या चुनना चाहिये !

    मुझे लगता है कि प्राकृतिक विज्ञानों की तुलना में समाज वैज्ञानिकों को ऐसा कर पाने में ज्यादा सहूलियत होती होगी , क्योंकि ये आख्यान काफी हद तक उनके सब्जेक्ट कंटेंट से मिलते जुलते हैं !

    आपके सवाल के जबाब में सिर्फ इतना ही कहूंगा कि इसकी "संभावना तो है ही"

    जवाब देंहटाएं
  9. ...यह लोक-आख्यान वास्तविकता के कहीं ज़्यादा नजदीक बैठता है.जनाधिक्य के कारण तत्कालीन समाज की परेशानियां और बुज़ुर्ग की दूरंदेशी बताती है कि कुछ बातें तब से लेकर अब तक नहीं बदलीं.खासकर हमारे अनुभवी लोगों को अभी भी किसी अनिष्ट होने का पूर्वाभास हो जाता है.

    ...तब बहुत सारी चीज़ें संचित ज्ञान से ही चलती थीं और उनके लिए यही विज्ञान था |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हर समाज अपने संचित ज्ञान को समय के साथ अपडेट करता चलता है !
      'पूर्वाभास' ना भी हो तो अनुभवजन्य निर्णय 'दूरंदेशी' कहे जा सकते हैं ! आपका कथन उचित है !

      हटाएं
  10. अन्य कथाओं की अपेक्षा इस कथा में कल्पना से अधिक यथार्थ का पुट है...
    लोक आख्यानों के सन्दर्भ में काफी ज्ञानवर्द्धन हो रहा है..

    जवाब देंहटाएं
  11. उत्तर
    1. आपके ब्लाग में गये थे , उसे देखा , आप अच्छा लिख रहे हैं !

      हटाएं
  12. नाभिकीय बम से बचने के लिए कौन सी नाव बनाई जाए भाई जी .....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. उसके लिए नाव काहे ? तगड़ा बंकर बनाने की सोचिये :)

      या फिर बसने के लिए दूसरा ग्रह ढूंढा जाये :)

      हटाएं
  13. समुद्री जीवों के फासिल्स आदि अवशेषों को उँचे पर्वतों की चोटियों पर देखकर ही यह अनुमान लगाया गया होगा कि कभी पृथ्वी पूरी तरह जलमग्न हुई होगी।
    मूल अमेरिकन आदिवासियों की कथा में एक पर्वत विशेष ‘कोविचान पर्वत’ का नाम होने से प्रतीत होता है यह क्षेत्र विषेष में प्रकट बाढ़ ्का निर्देश है, पूरी पृथ्वी के जलप्रलय का नहीं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय सुज्ञ जी ,
      मैंने अरविन्द जी की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया स्वरूप अपना अभिमत देते हुए यही कहा है कि , इन आख्यानों से सम्पूर्ण पृथ्वी के जल प्रलय के बजाये स्थानीय बाढ़ों की प्रतीति कहीं अधिक होती है !

      http://ummaten.blogspot.in/2012/05/blog-post_24.html

      हटाएं
  14. जी ज़रूर ! आपको फालो कर ले रहे हैं , ताकि आपकी प्रविष्टियां समय पर दिखाई देती रहें !

    जवाब देंहटाएं