शनिवार, 28 अप्रैल 2012

स्त्री देह से भयभीत सुधिजन !

यूं तो स्त्री देह से भयभीत होने का कोई कारण नहीं बनता पर सुधिजनों का क्या ? समाज की चिंता में दुबले होने का कोई अवसर नहीं छोड़ते ! असल में चिन्तित बने रहना उनकी नियति है या फिर चिंतायें उनके साथ के लिए अभिशापित हैं ! अक्सर ये ख्याल आता है इंसान ने धरती में पैदा होने से पहले खुद के लिए कपड़े ईजाद किये और उसके बाद मय कपड़ा संसार सागर में अवतरित हो गया ! आदिम सभ्यताओं में भी नैतिकता की ऐसी जोर जबरदस्ती कहीं देखी ना सुनी ! अगर इंसान इस तरह पैदा ना होता तो दुनिया तहस नहस हो गई होती , वेश्यालयों और देहाधारित जीविकोपार्जन के अवसरों की बाढ़ आ गई होती ! सतत सुचिंतित सुधिजनों ने भूलोक के कल्याणार्थ नैतिकता और कपड़ों के जो कड़े प्रावधान किये थे उससे धरती का कल्याण हुआ हो कि नहीं उनकी खुद की नींदे हराम ज़रूर हो गईं ! कारण ये कि अपने ही कड़े प्रावधानों के अभ्यस्त वे कपड़ों के फटने / छोटे होते जाने और नैतिकता के टूटने की आशंका में अपना आत्म विश्वास खो बैठे ! प्रावधान उन्होंने इतने कड़े किये / करते गये कि उनके अपने आत्म संयम का माद्दा बेहद कमज़ोर हो गया उसकी मजबूती पर ध्यान ही नहीं दे सके ! ध्यान तो ध्यान है वो नैतिकता और कपड़ों पर ऐसा टिका कि आत्मसंयम सामर्थ्य रसातल को जा पहुंचा ! 

यहां आदिवासी क्षेत्रों में और उस संसार में जहां निर्धन बसते हैं सुधिजनों की चिंता खासकर बढ़ा दी है खाने को रोटी हो ना हो कपड़े और नैतिकता का साथ कभी ना छूटे दिन दहाड़े तो कभी भी नहीं ...हां रात की गहन कालिमा कपड़ों का विकल्प हो सकती है और नैतिकता का बदल भी ! यानि इन इलाकों के लोगों को दिन वाले कपड़े या रात वाले अन्धियाले कपड़ों के अलावा तीसरा कोई विकल्प नहीं है ! मेरे ख्याल से सुधिजन उस पालतू घोड़े की तरह से हैं जिनकी आँखों पे चढी पट्टी / खब्त उन्हें आजू बाजू देखने नहीं देती ! उनके लिए ग़ुरबत और रोजगार के सन्दर्भ मायने नहीं रखते मायने रखते हैं तो सिर्फ कपड़े  !  कपड़े पहनों कपड़े नहाओं कपड़े निचोड़ों  !  सोना गाछी सलामत रहे  ! कपड़े सलामत रहे  !  नैतिकता सोना गाछी में रोजगार देती है ! रात के रोजगार सलामत ,नैतिकता सलामत ! हर शहर , एक सड़क , एक मोहल्ला रात वाली रोजी रोटी वाला ! मय कपड़ा मय नैतिकता ! अन्धेले कपड़ों वाली नैतिकता ! आसन्न संकट  !  सुधिजनों की चिंताओं का स्रोत स्त्री देह  !  उनके भय का कारण स्त्री देह  !  देह के रास्ते , देह का शहर ,देह का देश ,भूखे मर जाओ पर वस्त्र ना छूटें ! एक दिन एक शाम एक रोटी ना बांट सकने वाले सुधिजन किस मुंह से दिशा निर्देश जारी करते हैं ! स्त्री के पिता से अपने पुत्र का मोल वसूलने वाले सुधिजन स्त्रियों को उपदेश देते अच्छे तो नहीं लगते पर उनके भयग्रस्त चेहरे उनके अपौरुष की यकीन दिहानी ज़रूर कराते हैं ! उन्हें स्त्री देह आतंकित करती है ! जिस देह से उपजे वही देह उनकी चिंता का सबब ,खुद पे काबू नहीं ,देह के लिए आवरण चाहिये ! मनः दुर्बल सुधिजन ! कामुक साइट्स पे अंगुलियां चटकाने और हिट्स बढ़ाने वाले पाखंडी सुधिजन  ! रात्रि के अखंड यात्री , उजालों से डरे हुए हैं ! उन्हें स्त्री देह भयभीत करती है !

नौटंकियां होती हैं  , वेश्यालय चलते हैं  , कोठे भी सुधिजनों की कृपा से आबाद हैं  , सब चलें  , चला करें पर कपड़े पहन के ! सुधिजनों की नैतिकता रात्रि कालीन अंधियाले कपड़ों वाली ! वे समाज को अपनी जागीर समझते हैं  ! इंसान गोया उनके इशारों पे नाचने वाली कठपुतलियां हों ! असहमतियां उन्हें बर्दाश्त नहीं ! कपड़े की सामर्थ्य पर इतना भरोसा कि अपनी खुद की सामर्थ्य से भरोसा उठ गया ! उन्हें परवाह नहीं कि दुनिया में जीवित रहने के अवसरों में भारी असंतुलन है ! अपने जीवन के हर मौके का फायदा उठाने की कोशिश करने वाले गरीब गुरबा बिना रेफरेंस / अकारण उनके निशाने पर हैं ! वे नहीं चाहते कि कोई बालिग / परिपक्व बंदा अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से गुज़ार सके ! अपनी सोच की तानाशाही उन्हें समाज की बहबूदी का रास्ता नज़र आती है ! रेत के ढ़ेर में सिर घुसाए हुए शुतुरमुर्ग जैसे सुधिजन ! बदलाव को तुम रोक नहीं सकते ,कोई भी नहीं रोक सकता ,मैं भी नहीं ! धार के साथ बहो वर्ना तालाब के ठहरे पानी की तरह सडांध मारते हुए खुद भी दुखी होओगे और दूसरों का जीवन तो पहले ही दूभर किये हुए हो ! नैसर्गिकता बदलाव में है ! सहजता बदलाव में है ! स्त्रियों को तुम्हारी मुट्ठी में बाँधने की कोशिश मत करो ! वो जो चाहती हैं वह उनका हक़ है ! अपनी निर्बलता का इलाज़ करो ,आत्मसंयम की साधना करो ! तुम्हारे रोकने से हवाएं रुकने वाली नहीं ! ख़ारिज कर दिए जाने से पहले सुधर जाओ ! ओ कायर स्त्री देह से भयभीत होकर तुम अनजाने में ही कुदरत से भी द्रोह कर रहे हो !





ये दोनों चित्र संजीव तिवारी जी के सौजन्य से प्रकाशित और ग़ुरबत की पृष्ठभूमि में अश्लीलता अथवा यथार्थ उदभूत श्लीलता के निर्णय के लिए पारखी मित्रों के समक्ष प्रस्तुत  !









128 टिप्‍पणियां:

  1. आज गुस्सा आ ही गया आखिर, या यूँ कहें कि फूट पड़ा :)
    ये सुधिजन भी न बस समझते नहीं हैं, सुधिजन हैं शायद इसलिए| हम कोशिश कर रहे हैं जी समझने की, सुधरने की| न करेंगे तो अपौरुष पर मोहर जो लग जायेगी| बदलाव की नैसर्गिकता और सहजता को स्वीकार करने की भी कोशिश शुरू कर रहे हैं जी और गरीब-गुरबों, परिपक्व बन्दों-बंदियों के हक़ पर उनका हक़ भी स्वीकार करने लगे हैं नहीं तो खारिज जो कर दिए जायेंगे| उम्मीद है कि धीरे धीरे सत्ता, समाज ऐसे ही क़ानून, मान्यताएं बना देगा और अगर पहले से ही क़ानून हैं तो उनका इम्प्लेमेंटेशन और सख्ती से करेगा और धीरे धीरे सब सही हो जाएगा||
    वैसे, आप श्योर हैं न इस बात से कि बचकानी बातें करने वाले लोग ही हैं जो पोर्न साईट्स देखते हैं और बदलाव की बयार और संतुलित दृष्टि वाले लोगों का पोर्न साईट्स, पोर्न लिटरेचर से कोइ लेना देना नहीं है?

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    1. संजय जी ,
      पोर्न साईट देखे बिना तो हिट पड़ती नहीं हैं , फिर देखे गये को अस्वीकार क्यों करना :)
      बात बचकानेपन की नहीं है द्वैध की है ! समाज कोई कांच का खिलौना है जो इस तरह की फोटोज से चूर चूर हो जाने वाला है !

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    2. @मो सम भाई, सब देखते हैं -यहाँ पूरा समत्व है!मगर एक देखता है तो सहजता से स्वीकार कर लेता है दूसरा आँखे चुराता है !

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    3. मिश्र जी,
      आप या अली साहब मानें या न मानें, मैं अपनी बात कहता हूँ कि मैं ऐसी साईट्स नहीं देखता| आँख चुराने वाली बात कम से कम यहाँ मेरे ऊपर लागू नहीं है| और मैं नहीं देखता तो ये भी मानता हूँ कि और भी बहुत से होंगे जो नहीं देखते होंगे|

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    4. आप कह रहे हैं कि नहीं देखा तो क्यों नहीं मानूंगा ! मुझे आपकी बात पे भरोसा है !

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    5. संबल मिला कि भरोसा चुका नहीं है और भरोसा करना भी चाहिए| अगर मैं देखता होता तो मानने में कोई उज्र करता भी नहीं| वो तो जी शकल ही ऐसी है हमारी कि लोग पता नहीं क्या क्या समझ लेते हैं वरना एकदम शरीफ वाले बन्दे हैं जिन्हें आजकल बुद्धू माना जाता है:)

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  2. अली साहब,आपके निष्कर्षों से घोर विरोध और आपत्ति है.आपने मुद्दे को बिलकुल दूसरा रुख देने की कोशिश की है.
    हमारी आपत्ति केवल स्त्री-देह को बाज़ार में उतारकर बेचने की थी,क्या अब यह भी कहने का नैतिक अधिकार समाज को नहीं है,केवल इसलिए कि स्त्री की उसकी अपनी देह है.
    पुरुष कोठे में जाते हैं,मुजरे और नौटंकियां देखते हैं सो क्या इससे ये चीज़ें सार्वजानिक रूप से सह्य हो जाएँगी.पति-पत्नी वैवाहिक-संबंधों के चलते रतिक्रिया करते हैं,यह सब जानते हैं तो क्या उसे सार्वजानिक कर दिया जाए,जबकि यह वैधानिक और प्राकृतिक भी है.

    क्या आप चाहते हैं कि आज का समाज उसी आदिम युग की ओर लौट जाए जब जंगलों में स्त्री-पुरुष यूँ ही विचरा करते थे.

    यहाँ बात इतनी सी थी कि नैतिक मूल्यों को हम बचा तो पा ही नहीं रहे हैं,उन्हें कह भी न सकें तो फिर ऐसे अश्लील चित्रों को हम ड्राइंग रूम में मढ़वा कर टांग क्यों न लें ?

    हम देख रहे हैं कि टीवी में इससे भी अश्लील चित्र चलते हैं तो क्या वे वैध हो गए? हाँ,कुछ देर में वह ओझल हो जाते हैं,पर उनकी भी तरफदारी नहीं की जा सकती.

    बात जहाँ तक समाज को,स्त्री को निर्देशित करने की है तो इसमें आपत्ति क्या है? अगर हम अपने बच्चों को सही-गलत की सलाह दे सकते हैं तो भटके हुए लोगों को क्यों नहीं ? इस लिहाज़ से तो नैतिक पुस्तकों का लिखा भी सब गलत है.

    सबकी अपनी आज़ादी है पर वहीँ तक जहाँ तक किसी और की निजता का उल्लंघन न हो.यह तालिबानी या शिव सैनिकी मानसिकता नहीं है.हर बात की अपनी सीमा होती है और जब कोई उसे लांघे तो हम खबरदार तो कर ही सकते हैं.

    कुदरत ने तो हमें ऐसे ही भेजा है,संस्कार तो यहीं सीखने हैं,इसलिए उससे द्रोह हम नहीं कर रहे हैं !

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    1. प्रिय संतोष जी ,
      आपको ज़रूर अधिकार है अपनी बात को कहने का आपत्ति करने का ,मगर उन्हें भी अधिकार है अपनी रोजी रोटी जुगाड़ने का ! पुरुष क्या केवल अपनी पत्नी से ही रतिक्रिया करते हैं जो आप उन्हें दूध का धुला कहे जा रहे हैं !

      जिस चित्र में आपको अश्लीलता नज़र आई वह रतिक्रिया का चित्र नहीं है !

      मैं तो नहीं चाहता कि आदमी आदिम युग में लौट जाये पर आप ज़रूर चाहते हैं कि घड़ी की सुइयां अटक जायें :) आज समाज आदिम युग जैसा नहीं है तो आने वाले कल में आज जैसा भी नहीं रहेगा ! मैं बस यही बात कहने की कोशिश कर रहा हूं !

      आपको जो चित्र अश्लील लगा उसे मत लगाइए अपने ड्राइंग रूम में पर जिसे वह श्लील लगेगा वह उसे ड्राइंगरूम ही क्यों लाकेट में भी लगवा लेगा :)

      बुरा मत मानियेगा आपने संस्कार की बात की तो कृपा करके बिना किताब देखे केवल १६ संस्कार के नाम ही लिख दीजिए हम मान जायेंगे कि आप संस्कार द्रोही नहीं हैं :)

      आप दूसरों को अपना नज़रिया बता सकते हैं और दूसरे आपको अपना इसमें कोई बुराई नहीं ! फिर इसमें सही गलत और धिक्कार घुसाइयेगा तो आप भी धिक्कार ही पाइएगा ना :)

      नैतिकतायें बदलती रहती हैं ठीक वैसे जैसे समाज बदलता रहता है ! बदलाव को कोई रोक नहीं सकता ! इसलिए संवाद कीजिये ! खबरदार कीजिये ! मगर धिक्कार करियेगा तो उसे भी ऐसा करने का अधिकार होगा !

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    2. मैं फिर से इस बात को दृढ़ता से कह रहा हूँ यौन शिक्षा की जरुरत यहाँ प्रौढ़ों को अधिक है!
      दरअसल हम दोहरे मानदंड प्रदर्शन में माहिर है,प्रश्नगत चित्र में तो कहीं कोई अश्लीलता नहीं दिखी मुझे..
      श्लील अश्लील नैतिकता सब सापेक्ष अवधारणायें हैं ...पत्रिकाएं क्या चैरिटी लिए हैं ?

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    3. मैंने महज़ नैतिकता का सवाल उठाया था और आप उस खुले समाज की वकालत करने पर आमादा हैं जहाँ प्लेबॉय जैसी पत्रिकाएं और आम पत्रिकाओं में कोई भेद न रहे.

      नैतिक-वर्जना कोई तालिबानी संस्कार नहीं है और भले ही हमें सारे संस्कार रटे न हों पर इतना तो मूल्य सीखे ही हैं कि परिवार और बाज़ार में फर्क कर सकें !

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    4. जब आपको अपने समाज के संस्कार ही पूर्णतः ज्ञात नहीं तो आपको कथित रूप से नैतिकता नैतिकता खेलने की क्या आवश्कता है :)

      आपकी नैतिकता संस्कारों के समर्थन के अभाव में उचित कैसे मान ली जाये :)

      अब एक नई बात कह बैठे आप...मूल्य ?

      जिस देश में दहेज बतौर दूल्हे बिकते हों उसमें परिवार और बाज़ार में अंतर कैसे कर लेते हैं आप :)

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    5. @आपकी नैतिकता संस्कारों के समर्थन के अभाव में उचित कैसे मान ली जाये :)

      अब अगली बार कोई टीपने आये तो उससे पढ़ाई का प्रमाणपत्र न मांग लीजियेगा !!

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    6. नैतिकता की दुहाई आप दे रहे हैं तो उसके बारे में आपको पता भी तो होना चाहिये कि आप किस के बारे में बात कर रहे हैं :)

      हर बात पढ़ाई के सर्टिफिकेट देख कर थोड़े ही जानी जाती है आखिर को संवाद किस चिड़िया का नाम है :)

      हमने तो आपसे बस , वही जानना चाहा जैसा समझ कर देखकर आपको फील हो रहा था :)

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    7. क्या संतोष जी को शास्त्रीय सोलह संस्कार कंठस्थ होते तो नैतिकता के संतोष जी प्रस्तावित मानदंड स्वीकार कर लिए जाते?
      शास्त्रीय सोलह संस्कार से ही नैतिक जीवन-मूल्यों प्रमाणीत किए जाएंगे? इन सोलह संस्कार ही संस्कृति नहीं है। वे सभी संस्कार कहलाते है जो विकृतियों का प्रसंस्करण कर संस्कारित किए जाते है। मानव के संस्कारित सभ्य या सज्जन रहने के लिए जरूरी नहीं है ग्रंथिय आधार ही लिया जाय। जैसे वह भाषा अपने आप संस्कारित कहलाएगी जो सुनने वाले को सभ्य प्रतीत हो।

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    8. सुज्ञ जी ,

      नहीं बिल्कुल भी नहीं :) होना तो शताधिक चाहिये मैंने केवल सोलह का लक्ष्य दिया उन्हें :)

      वे संस्कार और नैतिकता की बात कर रहे थे और मैंने उनसे यही कहा कि जो बातें मालूम ना हों उनका हवाला क्यों दिया जाना चाहिये :)

      मैं उनसे भारतीयता के ज्ञान की परीक्षा नहीं ले रहा था सिर्फ संकेत कर रहा था कि मित्र यदि कोई तथ्य पता नहीं तो अपने तर्क में उसका उल्लेख क्यों ? इस मुद्दे में मेरी उनसे व्यक्तिगत चर्चा हुई थी मैं नहीं समझता कि इसे लेकर वे मुझसे नाराज होंगे !

      भारतीयता के आँगन में जब भी संस्कारों का पल्लवन हुआ होगा तब उनके कोई ग्रंथीय आधार नहीं थे ! वे केवल मौखिक परम्पराओं का हिस्सा थे ! अतः मैं संतोष जी से ग्रंथीय प्रमाण नहीं मांग रहा था ! मैं उनके ही द्वारा उद्धृत परम्परा का उनसे ही हवाला चाहता था !

      नि:संदेह संस्कार ही संस्कृति नहीं हैं ! संस्कृति एक व्यापक धारणा है ! किन्तु संस्कृति भी प्रत्येक समाज और समूह की अपनी अपनी होती है !

      दुनिया में ऐसी कोई भी भाषा नहीं होती जो उसके ही उपयोगकर्ताओं को असभ्य प्रतीत होती हो ! भाषाओँ में असभ्यता और ग्रेडेशन की कल्पना , पारस्परिक भाषाई वैमनष्य / ईर्ष्या और द्वेष पर आधारित भ्रांत धारणा है ! इस सम्बंध में मुझे खुशी होगी अगर आप भाषा और भाषावाद लेबल वाले मेरे आलेख पढ़ने की कृपा करेंगे ! भाषा के विषय में मैंने अपने छुट पुट विचार वहीं डाले हैं !

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  3. ' तुम्हारे रोकने से हवाएं रुकने वाली नहीं '

    बस यह एक लाइन ही सब कहे दे रही है...

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    1. काजल भाई ,
      इन्हें रह रह कर स्त्रियों की चिंता हो जाया करती है ! स्त्रियों को खुद की चिंता कर क्यों नहीं लेने देते :)

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  4. अली जी और संतोष जी ने बात के दोनों सिरों को दिखा दिया है, इसके बीच कहीं खड़े होने की आसान सी जगह मिल सकती है.

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  5. पहली बार किसी पोस्ट में आपके आक्रोश भरे स्वर दिखे.....बढ़िया है.

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    1. नीति वचन बर्दाश्त करने की कोई हद भी है कि नहीं ? स्त्रियों की सुमति बहाली शुभाकांक्षी स्यापे अझेलनीय हो गये थे :)

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    2. स्त्रियों की सुमति बहाली शुभाकांक्षी स्यापे अझेलनीय हो गये थे
      तालियाँ.

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    3. जी.बी.
      बहुत दिनों के बाद ! आशा करता हूं स्वस्थ होंगी ! तालियों सहित आपका स्वागत है :)

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  6. आपने जो दूसरा लिंक दिया है वहाँ मैने यह कमेंट कीया है....

    एक आम भारतीय जीवन भर कई तरह के परस्पर विरोधी विचारों, आईडीओलोजी ,वर्जनाओं के द्वंद्व में जीवन काट देता है ...जितना एक आम भारतीय गलत- सही के भंवर में डूबता उतराता रहता है उतना शायद ही कोई अन्य देशवासी .उसे माडर्न बनने दिखने की ललक भी होती है तो वह अपने कितने अप्रासंगिक हो रहे रीति रिवाजों में भी आसक्ति बनाए चलता है . लिहाजा उसका सारा जीवन ही एक तरह की उहा पोह और किंकर्तव्यविमूढ़ता में बीत जाता है।

    ...एकदम सही है। लेकिन पहचानिये। उसकी मजबूरी को समझने का प्रयास कीजए। यह आम भारतीय वह मध्यम वर्गीय है जो अपने आर्थिक, सामाजिक विवशताओं के कारणों से इससे ऊपर नहीं उठ पाता। वह जीवन भर दंश सहता रहता है। उसकी गरीबी और इस किंकर्तव्यविमूढ़ता के दंश का ऐसे ही उपहास उड़ाया जाता है। वह आगे बढ़े तो सबसे पहले उसके परिवार वाले ही उसका पैर पकड़कर खींचने लगते हैं। वर्जनाएं त्यागे तो थप्पड़, वर्जनाओं में रहे तो रूढ़िवादी होने का आरोप! समाज के जितने भी धार्मिक कायदे हैं, सबको मानने के लिए अभिशप्त!

    सब कानून गरीबन बदे हौ। धनिक जौन करें बौद्धिकता, गरीब आह भरे तौ बेवकूफी।

    गरीब कहे ई अश्लील हौ.. ई त हमरे घरे न चली त होई गये बंटाधार। ऐसन ऐसन तरक की बिचारा मारे शरम के भुइंया लोटे लागे। अब ऊ जाये त कहां जाये? अरे हमहूँ त देखे रहे पोरन वाला भीडियो! हमहूँ त हई अपराधी! अब ऊ कैसे कहे कि हम त देखे रहे लेकिन लइकन के न दिखाब। जब लइका बड़ा होइयें त मन करे देखियें, मन नाही करी ना देखियें..अबहिन त न दिखाब। जे दिखाय रहा है ऊ गलत है।

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    1. देवेन्द्र जी मैं आपकी पीड़ा समझ रहा हूँ -मगर यही वह क्लैव्यता भी है जिसके चलते इसी वर्ग का शोषण भी लोग इसी तरह की
      मुंह दुबरई के कारण कर देते हैं और विचारे चुपचाप बर्दाश्त भी कर लेते हैं ....
      अब कुछ तेज तर्रार बनने का वक्त है -छुई मुई होकर शोषण कराने का नहीं .....

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    2. देवेन्द्र जी खास आपके लिए कुछ फोटो चिपका रहा हूं इस पोस्ट में :)

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    3. दोनो चित्र अश्लील नहीं हैं। दोनो में उनकी सामाजिक पृष्ठभूमी साफ झलकती है। इन चित्रों को खींचना और उसे देख कर मुग्ध होना भी अश्लीलता नहीं है लेकिन यहीं इसका बाजारीकरण कर दिया जाय, इसे अश्लील चित्रों के पक्ष में ढाल की तरह इस्तेमाल किया जाय और यह कहा जाय कि अश्लीलता तो देखने वाले की निगाह में होती है तो वह गलत है। जैसे सभी देखने वाले समझदार नहीं होते वैसे ही सभी दिखाने वाले ईमानदार नहीं होते। एक पत्रिका यदि व्यावसायिक दृष्टि से, बिक्री को ध्यान में रखकर यदि इन चित्रों का बेजा ईस्तेमाल करती है तो वह गलत हो जायेगा। वहीं यदि आलेख के कंटेंट के अनुरूप हुआ तो कहीं से गलत नहीं होगा।

      चित्र दिखाया आपने मुझे और देख लिया उसने भी जो इसे अश्लील समझता है। अब आप क्या करेंगे? करते रहिये उससे बहस कि यह अश्लील नहीं है। वह तो आपकी ईमानदारी पर भी प्रश्न चिन्ह लगा सकता है।:) जबकि मैं समझता हूँ कि आप सही कह रहे हैं।

      इस बहस के बीच उस मध्यमवर्गीय परिवार की मानसिकता को भी समझना चाहिए जैसा कि मैने ऊपर टीप में लिखा है। सिर्फ इसे 'मध्यमवर्ग की बिलबिलाहट' की संज्ञा से नवाजने से काम नहीं चलेगा। मध्यमवर्ग में बने रहना और उन्ही सामाजिक हालातों में जीवन व्यतीत करना उसकी नीयति है। उसके दंश के प्रति उच्च वर्ग की खिलखिलाहट और भी संवेदनहीनता है। तब जब कि उच्च वर्ग के पास संवेदनहीन होने की कोई मजबूरी नहीं है।

      अरविंद मिश्र जी को इस बाद के लिए धन्यवाद देता हूँ कि उन्होने इस पीड़ा को समझा और सलाह दी कि अब तेज तर्रार बनने का वक्त है, छुई मुई होकर शोषण कराने का नहीं..। मध्यमवर्ग की इस पीड़ा को समझ कर उन्हें मानसिक रूप से सशक्त बनाने की आवश्यकता है।

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    4. देवेन्द्र जी ,
      देह वही है पर सामाजिक आशय की संगति उसे देखे जाने का ढंग बदल सकती हैं और यही मैं कहना चाहता हूं कि देह का अपना कोई कुसूर नहीं है अगर आप देह के साथ वाले सामाजिक आशयों की अवहेलना करते हैं तो आपको अश्लीलता देखने से कौन रोक सकता है ?

      अश्लीलता हमारी सोच / हमारे आधे अधूरे निर्णय / हमारी मन:स्थिति का हिस्सा है ! प्रकटीकरण है !

      अपनी ईमानदारी पे प्रश्न चिन्ह लगने के डर से क्या कहने योग्य कहा भी ना जायेगा :)

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  7. सदियों से स्त्री देह के सामिप्य को पौरुष विजय के प्रतिक के रूप में समझा जाता
    रहा है,गोया नितांत निजी क्षणों की अंतरगता पुरुष की अग्निपरीक्षा हो। स्वाभाविक
    है स्त्री देह सामिप्य का आकर्षण व परिणामिक विजय में निहित शंका ने स्त्री की निजता
    पर पुरुषों द्वारा निर्मित तौर-तरीके लाद दिए हैं।यही कारण है कि अन्य पुरुषों से सम्बन्ध
    रखने वाली स्त्री 'कुलटा' है जब कि यही शौक रखने वाला पुरुष 'रंगीन मिजाज'।
    चरित्र की शुद्धता मध्यम वर्ग का ओड़ा /लादा हुआ आडम्बर है जो कई बार अपने
    खोखलेपन के साथ खुल कर सामने आता है।मुक्त अर्थव्यवस्था को अपनाते हुए देश में यह सामाजिक मूल्यों
    के संक्रमण का दौर है,ऐसे में मध्यम वर्ग की बिलबिलाहट स्वाभाविक है।

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  8. रेत के ढ़ेर में सिर घुसाए हुए शुतुरमुर्ग जैसे सुधिजन ! बदलाव को तुम रोक नहीं सकते ,कोई भी नहीं रोक सकता ,मैं भी नहीं ! धार के साथ बहो वर्ना तालाब के ठहरे पानी की तरह सडांध मारते हुए खुद भी दुखी होओगे और दूसरों का जीवन तो पहले ही दूभर किये हुए हो ! नैसर्गिकता बदलाव में है ! सहजता बदलाव में है ! स्त्रियों को तुम्हारी मुट्ठी में बाँधने की कोशिश मत करो ! वो जो चाहती हैं वह उनका हक़ है ! अपनी निर्बलता का इलाज़ करो ,आत्मसंयम की साधना करो ! तुम्हारे रोकने से हवाएं रुकने वाली नहीं ! ख़ारिज कर दिए जाने से पहले सुधर जाओ ! ओ कायर स्त्री देह से भयभीत होकर तुम अनजाने में ही कुदरत से भी द्रोह कर रहे हो !

    .....बड़ी तगड़ी लताड़ है गुरूजी! एकदम सही लग रहा है पढ़ने में तो!! अपनी निर्बलता का इलाज करने के चक्कर में कहीं ऐसा न हो कि ये गरीब, मनः दुर्बल सुधिजन, न घर के रहें न घाट के ऐसे में आपका दर खुला रहेगा न ? :)

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  9. ओ कायर स्त्री देह से भयभीत होकर तुम अनजाने में ही कुदरत से भी द्रोह कर रहे हो !
    Kitna sahee kaha aapne!

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    1. क्षमा जी,क्षमा करें,आप मुद्दे को समझ नहीं पा रही हैं !

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    2. क्षमा जी धन्यवाद !

      संतोष जी यही बात आपसे क्षमा जी भी कह सकती हैं :)

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    3. क्षमा जी ब्लागरों में प्रबुद्ध स्थान रखती हैं -उनके अद्भुत सृजन कर्म का मैं तो फैन रहा हूँ -और वे इस बात को जानती भी हैं ....

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    4. कायर कहे तो कहे या भले उपसाए, किसी अन्य परिभाषित मान्यता व मानदंडों वाली कुदरत की वफादारी अपने से तो न होगी। :)

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    5. 'कुदरत से भी' कहना कुदरत को अलग से गिनना है ! फिर आप मान्यता और मानदंडों में कुदरत को क्यों मिक्सअप कर रहे हैं :)

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    6. अच्छा, तो कुदरत द्रोह की गणना अलग से करना है। अर्थात पहला द्रोह भयभीत होकर स्त्रीदेह के साथ है और दूसरा द्रोह कुदरत के साथ भी? तब भी 'कुदरत से भी द्रोह' होना आपका गढ़ा हुआ मन्तव्य है। ऐसी आपकी मान्यता है और इस भय को कुदरत से भी द्रोह के रूप में आप परिभाषित कर रहे है। मानदंडों में कुदरत का मिक्सअप तो आप कर चुके, एक ही रास्ता बचता है अब मात्र आपके मन्तव्य के मुताबिक कुदरत द्रोह स्वीकार करें या नहीं? लेकिन आपके ही कथन न्याय से 'यह जरूरी नहीं सभी आपके मानदंड स्वीकार कर ले' और इस आशय से कुदरत के प्रति वफादारी का प्रमाण देने का फर्ज निभाए। भय संज्ञा सभी प्राणीयों की कुदरती संज्ञा होती है। कुदरती संज्ञा को कुदरत से ही द्रोह मानने को हमारी विचारधारा तैयार नहीं। अतः हम किसी अन्य के निर्धारित द्रोह से ग्लानि महसुस क्यों करें? और क्यों वह अवधारणा मानने को विवश हों? :)

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    7. प्रिय सुज्ञ जी,
      मैंने लिखा "ओ कायर स्त्री देह से भयभीत होकर तुम अनजाने में ही कुदरत से भी द्रोह कर रहे हो" आपने कहा कि मैं कुदरत के द्रोह के साथ मानदंडों मिक्सअप कर रहा हूं :)

      अपने आलेख में मैंने अपने ही मंतव्य दर्ज किये हैं जैसे कि आप भी अपने आलेखों में अपने ही मंतव्य दर्ज करते होंगे तो क्या यह कोई अस्वाभाविक बात है :)

      आप इनसे सहमत नहीं हैं आपकी इच्छा / आपका मंतव्य / आपका अधिकार :)

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    8. जी!!

      मैं भी सभी के अपने अपने मन्तव्यों की ही बात कर रहा हूँ। और भिन्न सामाजिक परिवेश के मानदंड समग्र समाज पर लागु नहीं किए जा सकते, यही स्मरण करवाने का प्रयास है। जो कर्म आपके मंतव्य से 'कायराना' अथवा 'कुदरत से द्रोह'माने जाते है वही कर्म भिन्न परिवेश में 'चरित्र परिष्कार के संघर्ष' माने जाते है।
      जिस तरह नैतिकता के अन्योनय मानदंडो और उसके मन्तव्य मात्र को आप तानाशाही पूर्वक का आरोपण मानते है ठीक उसी तरह दूसरा पक्ष स्वतंत्रता के नाम पर स्वछंदता को अपनी ओर आता नैतिक पतन मानते है।
      मैं द्वैध के निष्पक्ष न्यासंगत वर्गीकरण की बात कर रहा हूँ। और आपके भी इस अधिकार से सहमत हूँ…
      आप इनसे सहमत नहीं हैं आपकी इच्छा / आपका मंतव्य / आपका अधिकार :)

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    9. प्रिय सुज्ञ जी,
      एक ही बात को कितनी बार कहना चाहेंगे आप :)

      अगर आप आलेख लिखते / और अपना मंतव्य आप रखते तो असहमत होना या सहमत होना मेरा अधिकार होता ! इस बार आलेख मैंने लिखा है / अपना मंतव्य मैंने रखा है तो फिर मुझसे असहमति या सहमति आपका ही अधिकार है :)

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    10. यकिन मानिए यदि 'असहमति' के पांच अक्षरों से भाव प्रकट हो जाता तो मैं छट्वां अक्षर भी न उच्चारता, दोहराव मुझे भी अनुकूल नहीं :)

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    11. प्रिय सुज्ञ जी,
      जैसा कि आपने कहा ! भाव प्रकटन के लिये आपके यत्न पर यकीन मान ले रहा हूं :)

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  10. parabaton ne hi ghatiyon ko maan diya hai .
    wasundharaa ne hi aasamaan ko maan diya hai.

    hamara nazariya hamen kahin dusaron se alag
    kar deta hai warna nari to sada hi pujya hai .
    wishamata prakriti ka mul hai fir isase parhej kyon?

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  11. बदलाव के साथ-साथ परंपरा भी चल ही रही है। देखें कौन किस पर भारी पड़ता है?

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    1. मनोज जी ,
      देखें परम्परा यथास्थिति बनाये रख पाती है कि नहीं :)

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  12. आज तो टिप्पणियां पसन्द आयीं प्रोफ़ेसर !
    आनंद ले रहा हूँ ...
    शुभकामनायें आपको !

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    1. आज तो केवल टिप्पणियाँ पसंद करके आलेख के प्रति निर्मम हो गये आप :)

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    2. ओह ...
      मेरा मतलब यह तो बिलकुल न था ...
      आपके लेख संग्रहणीय हैं भाई जी ! और इसे टिप्पणी न माने सच्चाई है !
      बधाई आपको !

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    3. कभी कभार मजाक भी करने दिया करें :)

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  13. एक परिचित के घर कचरे में पड़ा आदिवासी स्त्रियों के ऐसे चित्रों से सजा कैलेण्डर मांग कर ले आई और क्यूंकि वे इसे अपने घर में लगाने योग्य नहीं पा रही थी . कला और नग्नता के फर्क को इन तस्वीरों और उस पत्रिका की तस्वीर में स्पष्टतः देखा जा सकता है .
    मेरी आपत्ति महिलाओं को प्रोडक्ट बना दिए जाने पर है , श्लील /अश्लील /नातिक्ताता /अनैतिकता पर नहीं !क्योंकि ये सब बातें किसी के लिए सही और किसी दूसरे के लिए गलत हो सकती हैं , मगर महिलाओं को बाज़ार बना दिया जाना किसी के लिए भी सही नहीं हो सकता . मजबूरी में या पैसे कमाने के लिए अपनाई जाने वाली नग्नता या दुष्टता,थोपे जाने वाली हरकतों में बदलते देर नहीं लगती , शायद आप मेरा आशय समझे !
    यकीनन आप बहुत अच्छे मित्र हैं, लेकिन सभी मित्रों की भावनाओं का एकसमान ध्यान रखना चाहिए , शब्दों को नहीं , भावनाओं को समझिये :)

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    1. वाणी जी ,
      ये आदिवासी स्त्रियों के शौक की तस्वीर नहीं है ! इसे कोई कला माने या नहीं पर यह किसी भी एंगल से अश्लील कदापि नहीं कही जा सकती ! कारण बेहद स्पष्ट है कि हमें उसकी सीमित साधन सम्पन्नता की पृष्ठभूमि मालूम है इसलिए हूबहू वही देह हमें अश्लील दिखाई नहीं देती ! मतलब साफ़ है कि अश्लीलता देह में नहीं उसे देखने वाले की निगाहों और मन में बसती है !

      मैं भी यही कहने की कोशिश कर रहा हूं कि किसी स्त्री के आत्म निर्णय का अधिकार स्वीकार किया जाये क्योंकि वही बेहतर जानती है कि उसके निर्णय का आधार / कारण / परिस्थितियां क्या है ! उसका निर्णय आदिवासी स्त्री की तरह से तर्क संगत भी हो सकता है ! सच तो ये है कि उसकी देह अश्लील नहीं है अपितु उसे अश्लील देखने का निर्णय हमारा है , हमारी अपनी सोच की वज़ह से है , बगैर उसके हालात को समझे , बगैर उसका पक्ष सुने !

      जीवन जीने के अवसरों में साधन सम्पन्नता की डिग्री का अंतर कमोबेश हो सकता है ! हम सभी किसी ना किसी रूप जीवित रहने के लिए अपना श्रम ( देह का ही रूपांतरित स्वरूप ) बेचते हैं और इस विक्रय का आधार हमारी अपनी क्षमता और परिस्थितियां होती हैं जिन्हें जाने बगैर कोई भी बंदा अश्लील होने का लेबल कैसे चटका सकता है ? मैंने कहा ना कि अश्लीलता देह में नहीं वरन हमारी सोच और दृष्टि में निवास करती है ! आदिवासी स्त्री का उदाहरण इसका ठोस प्रमाण है क्योंकि उसके प्रकरण में हमारा निर्णय परिस्थितियों के भरपूर संज्ञान के साथ निर्धारित है / होता है !

      इतना तो मैं भी समझता हूं कि श्लीलता और अश्लीलता का भेद कहां से शुरू होता है ! ये एक नाज़ुक मसला है जो मूलतः हमारी सोच / दृष्टि का कमाल है इसलिए हमें भावनाओं से नहीं तर्क से काम लेना चाहिये ऐसा मुझे उचित लगता है ! निर्णय में जंप लगाने से पहले पर्याप्त तार्किक सतर्कता ज़रुरी है वर्ना निर्णय भावनात्मक दोष से दूषित भी हो सकता है !

      अनुरोध कर रहा हूं कि हमें क्या लगता है , से भी ज्यादा ज़रुरी यह जानना है कि उसका पक्ष क्या है ?

      कृपया अन्यथा मत लीजियेगा ! मैं भेड़िया धसान चिंतन के विरुद्ध हूं मुझे लगता है कि मेरे निर्णय में सम्बंधित का पक्ष भी शामिल होना चाहिये ! संतोष त्रिवेदी जी को क्या सूझा ? क्या दिखाई दिया ? उनकी कथित नैतिकता ? उनका सामाजिक विघटन संबंधी सरोकार है , ये उनका अपना अधिकार तो है पर तार्किक बिल्कुल भी नहीं क्योंकि वे कंटेंट / सन्दर्भ / पृष्ठभूमि को देखना / सुनना ही नहीं चाहते ! उन्हें फोटो में अश्लीलता दिखना थी सो दिखाई दे गई और...फोटो में ही स्त्री देह के मुताल्लिक पत्रिका की नकली चिंता का इलहाम उन्हें कैसे हुआ वे ही जाने :)

      आखिर में देह की गरिमा के सम्मान युक्त निर्धारण में मेरी सदाशयता पर विश्वास करने के अनुरोध के साथ आपसे फिलहाल विदा चाहूंगा ! मेरे शब्दों से यदि आपको लेश मात्र भी कष्ट हुआ हो तो अग्रिम खेद व्यक्त कर रहा हूं !

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    2. अगर स्त्री की सर्वांग समग्र सुन्दरता या उसके अंग अंग -नख शिख के सौन्दर्य की अनुभूति परक प्रशंसा की जाय तो
      इसमें अनुचित क्या है ? और कितने व्यवसाय तो इन्ही सौन्दर्य प्रतीकों को लेकर ही चल रहे हैं -क्या सब बंद कर दिए जायं ?
      क्या नारी महज बच्चा पैदा करने की मशीन भर रह जाय -आखिर ये कन्फ्यूज लोग चाहते क्या हैं ? मैंने साईब्लाग पर जब नारी देह पर्यटन -नख शिख वर्णन शुरू किया तो भी इन्ही लोगों ने चिल्ल पों मचायी थी -हाँ जब यह तर्क रखा गया कि पुरुष की सुन्दरता फिर क्यों वर्णित नहीं तो मैंने पुरुष पर्यवेक्षण की भी एक लम्बी श्रृंखला की ...सच है दोष दृष्टि में है दृश्य में है ...और मेरे काबिल दोस्त (लोग कहे वे मेरे चेले हैं ) की हरकतें संदेह के घेरे में हैं -एक कहावत है गाँवों में -आधी ऊखी लिए जाय और बहन बहन कहे जायं .....ऐसे लोगों से होशियार रहो हे भद्रानियों:)

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    3. *दोष दृष्टि में है दृश्य में नहीं! और नारी को आपने असेट्स पर उसकी प्रशंसा पर तो गर्वित होना चाहिए -कहाँ गयीं वे रूप गर्वितायें! ?

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    4. दृष्टि दोष से सहमति पहले ही दे चुके हैं !

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  14. कुलवंत हैप्पी , संतोष त्रिवेदी और अब आप तीनो ने एक ही मुद्दे पर अपने विचार रखे हैं
    ब्रेस्ट इम्प्लांट करना ना करना किसी का अपना अधिकार हैं जो उसको संविधान और कानून ने दिया हैं
    इस पर बहस करना फिजूल हैं अगर क़ोई एडल्ट हैं और ये करना चाहता हैं तो उसकी अपनी मर्ज़ी हैं
    ब्रेस्ट इम्प्लांट किये भी जाते हैं और निकाले भी जाते है क्युकी ये महज एक साइंस की तकनीक हैं
    अब किस की क्या जरुरत हैं ये उस पर छोड़ देना बेहतर होगा .
    विरोध किस बात का हैं , इंडिया टुडे ने जिस प्रकार का कवर छापा हैं उसका हैं . क्या ब्रेस्ट इम्प्लांट को समझाने के लिये ब्रेस्ट को दिखाना जरुरी हैं वो भी कवर पेज पर . यहाँ क़ोई साइंस की कक्षा नहीं चलरही हैं .
    प्ले बॉय मैगजीन और इंडिया टुडे में क्या फरक हैं , क्या दोनों मैगजीन आम भारतीये घरो में सेंटर टेबल पर रखी जा सकती हैं ?? ब्लू फिल्म क्या आम आदमी अपनी पत्नी और बच्चो के साथ एक आम भारतीये घर में देख सकता हैं ??
    नारी देह के अश्लील चित्र { अब अश्लील की परिभाषा भी ब्लोगर से ब्लोगर बदल रही हैं . कुछ लोग पोर्न साईट का लिंक अपने ब्लॉग पर लगा कर एडल्ट होने का दावा करते हैं } जगह जगह लगाए जाते हैं , विज्ञापन में भी और नैतिकता की बात अगर होती हैं तो उस मोडल की ज़िम्मेदारी कह दी जाती हैं जिसका चित्र होता हैं पर उस खरीदार का क्या जो अपनी आखे सेंकता हैं ???
    आदिवासियों का शोषण हो रहा हैं उनके चित्र और विडियो टूरिस्ट को लुभाने के लिये डाले जा रहे और बाकयदा टूरिस्ट पैकेज बन रहे हैं . क्या सही हैं की हम आदिवासियों के चित्र डाल कर उनकी निजता का नेट के जरिये अपमान करे ?
    क्या फरक हैं हम में और मीडिया में . ब्लॉग वैकल्पिक मीडिया इसीलिये बना हैं क्युकी यहाँ हम मीडिया का विरोध कर सकते हैं
    नारी अपने चित्र रखे , खरीदे , बेचे , अपने शरीर को बेचे वो सब उसकी चीज़ हैं , और सदियों से बिकते बिकते वो इतना समझ गयी हैं की अब उसको दलाल नहीं चाहिये वो अपनी मार्केटिंग खुद कर सकती हैं { अफ़सोस हैं } लेकिन उसकी इस सोच के लिये कौन जिम्मेदार हैं ?? कौन सा समाज .
    ब्रेस्ट इम्प्लांट की जरुरत क्यूँ , क्युकी सौंदर्य की उपासना करने वाले उपासक हैं . ये उपासक ना होते , सौंदर्य का महत्व ना होता तो ब्रेस्ट इम्प्लांट , रंग बदल कर उजला करने वाली क्रीम और भी ना जाने क्या क्या सब होते ही ना .

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    1. @ अब किस की क्या जरुरत हैं ये उस पर छोड़ देना बेहतर होगा ?

      तो फिर चित्र छपवाने वाले को उसके अधिकार उसकी ज़रूरत / उसके औचित्य के नाम पर छोड़ क्यों नहीं देते ?

      ब्रेस्ट इम्प्लांट और ब्ल्यू फिल्म का जिक्र आपकी जुबान मुबारक से आया है हमने तो इसके बारे कुछ भी नहीं कहा और आलेख भी हमने किसी का चित्र दिखाने की गरज से नहीं लिखा ! हमें अश्लील और श्लील दिखाई देने पे अपना दृष्टिकोण रखना था बस वही किया ! यह सोच का तरीका है ! अब चिंतन पे बंदिश तो नहीं लगी हैं ना ?

      आदिवासियों के बीच पिछले तीस वर्षों रह रहा हूं और मुझे इस बात पर गर्व है कि वे मुझे अपने से अलग नहीं मानते इसलिए कृपा कर उनके लिए मेरे सरोकारों पर कोई भ्रम ना पालियेगा !

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    2. फिर चित्र छपवाने वाले को उसके अधिकार उसकी ज़रूरत / उसके औचित्य के नाम पर छोड़ क्यों नहीं देते ?

      agar kanun aur censor sae paas haen to ham virodh darj karvaa saktae haen aur uskae liyae kisi sae puchhane ki jarurat nahin haen nijtaa par ungli nahin uthaaii jaatii haen virodh darj karvaa kar print media kae khillaf


      आदिवासियों के बीच पिछले तीस वर्षों रह रहा हूं और मुझे इस बात पर गर्व है कि वे मुझे अपने से अलग नहीं मानते इसलिए कृपा कर उनके लिए मेरे सरोकारों पर कोई भ्रम ना पालियेगा !

      mae kabhie bhi koi bhrm nahin paaltee abhi peechhae kafi hangmaa rahaa haen tourism aur adivaasi ko lae kar mera kament usii silsilae mae haen

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    3. http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2012-02-26/india/31100850_1_foreign-tourists-tribal-areas-vulnerable-tribal-groups

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    4. हर आदमी अपनी बात कहने / विरोध या सहमति दर्ज करने के लिए के लिए स्वतंत्र है ! हमारे मन में मित्रों के इस अधिकार का सम्मान है और उनसे यही अपेक्षा रहती है !

      जारवा लोगों के जीवन में पर्यटन विभाग ने जहर घोल दिया है उनकी दुर्दशा के लिए सरकारी तंत्र जितना जिम्मेदार है उतना कोई दूसरा नहीं !

      हमारे क्षेत्र में इससे मिलती जुलती समस्याओं ने ही लाल रंग को पनाह दी है फिलहाल बारूद , खून , युद्ध जैसे हालात और संसाधनों की खुली लूट इस इलाके अहम सत्य है !

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    5. मंशा बस इतनी होनी चाहिये की हम अपने निज के आचरण और सोच से समाज के हित में काम कर सके . समाज की गलत बातो के खिलाफ खड़े हो सके और सही का साथ दे सके . मित्र अगर गलत हो तो उसके साथ खड़े ना होकर ही हम उसका भला कर सकते हैं . सुधार खुद में खुद से आता हैं लेकिन कारण अनेक होते हैं . अपनी कथनी और करनी का फरक ब्लॉग पोस्ट और अपने घर में अपने आचरण / व्यवहार से पता चलता हैं . अपनी कथनी और करनी एक हो जाए यानी तो ब्लू फिल्म , पोर्न इत्यादि के हिमायती हैं वो अपने घर में अपनी बेटी और बहू के साथ बैठ कर देखे और पोप कोर्न खाये उसके बाद उन चित्रों को यानि अपने परिवार के साथ ख़ुशी से ये सब एन्जॉय करना डाले तब दूसरो को सौन्दर्य बोध का पाठ पढाये , वाह वाह करने हम भी आयेगे क्युकी तब नीति एक सी होगी . अपनी पत्नी को घर की चार दिवारी में रखना और दूसरी महिला के ब्रेस्ट इम्प्लांट की चर्चा करना बहुत आसन हैं सदियों से हो रहा हैं नया क्या हैं

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    6. रचनाजी,
      बहुत सही कहा आपने,पर समाज के मुद्दे किसी खास वर्ग में महदूद नहीं रहते.आप की नारीवाद पर चिंताएं जायज हैं पर यह भी मानिए कि नूतन,मधुबाला और राखी सावंत,पूनम पांडे की पहचान यकसा नहीं है.इसलिए बिना किसी जाति,धर्म,लिंग के भेद किये हम सोचें तो ज़्यादा बेहतर होगा !
      जहाँ भी सार्थक और समाज-परक मुद्दा हो उस पर बोलना चाहिए !

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    7. @ मंशा ,
      अच्छी मंशा और समाज हित के अनकूल आचरण के सवाल से कौन असहमत हो सकता है ! द्वैध ना हो यह कोशिश ज़रूर होनी चाहिये ! यह स्वीकार करने में मुझे कोई कठिनाई नहीं कि संभवतः द्वैध मुझमें भी ज़रूर हो सकते है ! अपने दुर्गुण आम तौर से खुद को पता नहीं चलते ! वह मित्रों का फर्ज है कि आगाह करें !

      हटाएं
    8. "अपनी कथनी और करनी का फरक ब्लॉग पोस्ट और अपने घर में अपने आचरण / व्यवहार से पता चलता हैं . अपनी कथनी और करनी एक हो जाए यानी तो ब्लू फिल्म , पोर्न इत्यादि के हिमायती हैं वो अपने घर में अपनी बेटी और बहू के साथ बैठ कर देखे और पोप कोर्न खाये उसके बाद उन चित्रों को यानि अपने परिवार के साथ ख़ुशी से ये सब एन्जॉय करना डाले तब दूसरो को सौन्दर्य बोध का पाठ पढाये"

      यह एक थका हारा और बहु उद्धृत असहाय सा तर्क होता है ...क्या संसार की सारी औरतें /लडकियां सभी की माँ,बहने,बेटियाँ हैं ?
      फिर तो प्रजनन का काम ही रुक जाएगा? मानव वंश बली ही ख़त्म हो जायेगी ! अहमकाना तर्क है कि बाहर किये जाने वाला हर कर्म घर के सदस्यों से किया जाय -यह राय उन लोगों के लिए मुफीद हो सकती है जिन्होंने ब्लागजगत में न जाने कितनी माताएं बहन ,बेटियाँ बनायी है -वे लोग जरुर घर में ब्लू फिल्म नहीं देखते होंगे और यदि देखते होंगे तो बाहर की बहू बेटियों से भी वैसा ही बर्ताव करते होंगे -ये दुहरे मानदंड वाले कुछ भी कर सकते हैं !
      मुझे आशा है अब आगे से ऐसे सतही भोथरे तर्कों का इस्तेमाल बैद्धिक विमर्शों में नहीं किया जाएगा!

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  15. अली साब.संवाद अच्छी तरह से uthaya है आपने. दोहरेपण की खबर ली है आपने.

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  16. बहुत अच्छा लेख है. नग्नता की दुहाई देने वाले अधिकतर पुरुष ही होते हैं, महिलाएं नहीं

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  17. I have subscribed to comments so got a comment from santosh trevedi in email but probably its in spam my reply is as under

    संतोष जी
    मै नारीवाद की परिभाषा नहीं समझती केवल कानून और संविधान में दी हुई बातो की परिभाषा समझती हूँ , जानती और प्रचारित करती हूँ . लिंग भेद से ऊपर उठ कर बात करने की जरुरत पर में पहले भी कह चुकी हूँ और अगर आप उसके हिमायती हैं तो पूनम पाण्डेय और राखी सावंत को शरीर ना समझ कर मनुष्य समझे और उनको दी हुई समानता जो कानून और संविधान संगत हैं उस पर ऊँगली ना उठाये . विरोध करना हैं तो दोयम होने का विरोध करे . राखी सावंत और पूनम पाण्डेय इस लिये हैं क्युकी सौंदर्य के उपासक हैं . सौंदर्य शरीर का दिखता हैं पर मन का अगर लोग देखते तो इतना बाय बवेला ही ना मचता

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    1. हां काफी देर तक इंटरनेट से दूर रहा इस बीच संतोष जी की आपको संबोधित एक टिप्पणी स्पैम में थी !

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  18. चित्र बाद में लगे हैं शायद, चित्रों के बीच लिखे शब्द ' ग़ुरबत की पृष्ठभूमि में अश्लीलता अथवा यथार्थ उदभूत श्लीलता के निर्णय के लिए पारखी मित्रों के समक्ष प्रस्तुत' स्वयं ही बहुत कुछ कह देते हैं| जहां से मामला शुरू हुआ, उस तस्वीर में और इन चित्रों में कोई समानता है?
    बच्चे को स्तनपान करवाती मां का चित्र, गरीबी के कारण अंग न ढंके होने के चित्र और शौक\बाजार\अधिकार के चलते अपनी मर्जी से अंग प्रदर्शन करना सब अलग अलग मुद्दे हैं| वैसे ही जैसे सैनिक द्वारा कर्तव्यनिर्वाहन के दौरान हुई हिंसा, पेट भरने के लिए की जाने वाली जीव ह्त्या और शौक\स्वाद के चलते की जाने वाली जीव ह्त्या अलग अलग बात हैं| तस्वीरें तो और भी बहुत याद आती हैं, स्कूल कालेज जाने वाली लड़कियों के लिए ड्रेस कोड\हिजाब की मजबूरी बताते पोस्टर\फरमान, हिजाब न पहनने या ब्यूटी पार्लर जाने पर झुलसा दिए गए चेहरों के चित्र और वो भी इसी देश के किसी हिस्से के, लेकिन क्या क्या दिखाए जायेंगे और किस किस पर सवाल उठेंगे, जाने दीजिये|
    एक बात स्पष्ट कर दूं कि मैं भी बहुत हद तक स्त्री स्वतंत्रता का सम्मान करता हूँ बस थोड़ी सी उलझन है तो वो उस मानसिकता की वजह से हैं जिसमें शुरू में स्त्री-अधिकार की बात होती है और अंत तक पहुँचते पहुँचते पुरुष पर शोषण, अत्याचार और इससे आगे के आरोप लग जाते हैं| अपने कहे पर और किये पर स्टैंड लेना ही चाहिए सबको, इस समानता वाले युग में|
    संक्षेप में इस मुद्दे पर आपका दृष्टिकोण तार्किक कम और सम्बन्ध निभाता ज्यादा लगा|
    आप आक्रोशित हैं, अच्छा नहीं लग रहा(वैसे बहुत बुरा भी नहीं लग रहा), कभी कभी गुस्सा भी करना चाहिए :)
    स्माईली इसलिए लगा रहा हूँ कि कहीं यहाँ भी तल्ख़ कमेन्ट ना समझ लिया जाए, कभी कभी अपना मन भी करता है कि समझदार दिखें और ब्लॉग विमर्श से अच्छा कौन सा प्लेटफोर्म होगा, और अगर जाना पहचाना मंच हो तो थोडा बहुत पिछले संबंधों का हवाला काम आना ही चाहिए:)

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    1. संजय जी ,
      मित्रों को अपनी बात कह पाऊं इसलिए ये फोटो बाद में लगाईं सिर्फ यह साबित करने के लिए कि हर नग्न देह अश्लील दिखाई दे ये ज़रुरी नहीं है ! अश्लीलता नहीं दिखना या दिखना उस देह और आस पास के हालात पर निर्भर हमारी आँखों और मन का निर्णय है ! कहने का आशय यह है कि एक खालिस नग्न देह अपने आप में शालीन / अशालीन नहीं होती बल्कि वह किसी सामाजिक फैक्टर की बिना पर शालीन अथवा अशालीन कही जा सकती है / मानी जा सकती है ! मैग्जीन वाले चित्र के मसले में देह से बाहर की किसी भी सामाजिक परिस्थिति / कारण / हालात को विचारण में लिए बगैर , उसे अश्लील कहा गया है ! यहां तक कि उस मैग्जीन में उस चित्र के आलेख कंटेंट को भी खुल्लमखुल्ला इग्नोर किया गया है ! मेरा कहना है कि अश्लील कहने से पहले चित्र के पक्ष में न्यायपरक विचरण नहीं हुआ है ! ठीक वैसा जैसा कि मेरे कहने या सुझाने से या आपकी स्वयं की विवेक क्षमता के कारण आदिवासी चित्रों के साथ किया गया है !

      बाकी सारे सवाल दुरुस्त हैं मैं किसी लिंग विशेष को दोष नहीं दे रहा हूं ! मेरा उद्देश्य ,फैसले लेने से पहले चिंतन को प्रेरित करना मात्र है ! सम्बंधित का पक्ष जाने बगैर तो जज साहबान भी फैसला नहीं देते जनाब !

      मुझे क्रोध नहीं है ज़ल्दबाज़ी में पक्षकार को पूरी तरह से समझे / सुने बिना चारित्रिक किस्म के फैसले जड़ देना मुझे जमा नहीं सो कह दिया ! अब बात को इत्ती सीरियसली ले चुकने के बाद स्माइली चिपकाता तो अच्छा लगता क्या :)

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    2. संजय जी ,
      अब यही देखिये कि संतोष जी पुलकित तो हुए पर स्माइली लगाना भूल गये :)

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    3. स्माइली abhi aayae haen !!! yae pehlae sae hi haen !!!!

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    4. एक बात स्पष्ट कर दूं कि मैं भी बहुत हद तक स्त्री स्वतंत्रता का सम्मान करता हूँ बस थोड़ी सी उलझन है तो वो उस मानसिकता की वजह से हैं जिसमें शुरू में स्त्री-अधिकार की बात होती है और अंत तक पहुँचते पहुँचते पुरुष पर शोषण, अत्याचार और इससे आगे के आरोप लग जाते हैं


      अनैतिकता बोली नैतिकता से
      मंडियों , बाजारों और कोठो
      पर मेरे शरीर को बेच कर
      कमाई तुम खाते थे
      अब मै खुद अपने शरीर को
      बेचती हूँ , अपनी चीज़ की
      कमाई खुद खाती हूँ
      तो रोष तुम दिखाते हो
      मनोविज्ञान और नैतिकता का
      पाठ मुझे पढाते हो
      क्या अपनी कमाई के
      साधन घट जाने से
      घबराते हों
      इसीलिये
      अनैतिकता को नैतिकता का
      आवरण पहनाते हो
      ताकि फिर आचरण
      अनैतिक कर सको
      और
      नैतिक भी बने रह सकोhttp://mypoemsmyemotions.blogspot.in/2009/05/blog-post_3872.html

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    5. @ स्माइली ,
      कमेन्टस में स्माइली शुरू से हैं ,वह दो चर्चाकारों के आपसी सम्बन्ध और उनकी आपसी चर्चा पर निर्भर है !

      स्माइली चिपकाने की बात मैंने संजय मो सम कौन जी से मेरे आलेख के लिए कही है !

      हटाएं
    6. @ अनैतिकता Vs नैतिकता-
      मेरा आशय रोज अखबारों, टीवी में दिखते उन समाचारों से था जिसमें शिकायत दर्ज की जाती है कि नौकरी या विवाह के लालच में पिछले कई महीनों\सालों से शारीरिक शोषण किया जा रहा था| एक मामले में तो छः साल के बाद शिकायत की गयी थी| पोर्न साईट्स वाली बात को सब विरोध करने वालों पर थोपने पर मेरी आपत्ति थी तो आपकी कविता से यह समझ आता है कि सभी विरोधी स्वर नारी देह की कमाई खाने वालों के हैं, प्रोटेस्ट के अलावा और क्या कहा जाए इस आरोप पर? आप स्वस्थ विमर्श की बात करती रहती हैं, ऐसी बहस में ऐसी कविता क्वोट करना स्वस्थ विमर्श कहलाता है तो मैं अस्वस्थ कहलाना\होना\माना जाना प्रेफर करूंगा| आप जीत गईं, बधाई|

      हटाएं
    7. यहाँ संजय जी की टिप्पणी के कुछ अंश डाल कर, कविता डालने का का मतलब समझ में नहीं आया...?????

      मेरे ख्याल से बात, इंडिया टुडे के कवर पेज की हो रही थी, ओब्जेक्शन उसपर उठाया गया था....यहाँ आदिवासियों की तस्वीर लगा कर ये साबित करना की दोनों तसवीरें समकक्ष हैं और उनके मकसद एक हैं बेकार की बात है.....ये सब तो होता ही रहेगा, तब तक जब तक क़ानून इसमें दखल न दे....अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश जब तक न लगे..ये होना ही है, इन मामलों में कहना ही पड़ता है 'तालेबानी क़ानून' ही सही है...अब पूनम पांडे को कोई कैसे समझा सकता है, देह उसकी, कैमरा उसका, फेसबुक या ट्विटर उसका...जो जी में आएगा करगी वो...
      ऐसी बातों को रोकने का एक ही तरीका है, नए क़ानून बनना, जो सब पर लागू एक सामान लागू हो...
      समाचार में अक्सर देखती हूँ, वेलेंतायिन डे के दिन पुलिस सबको खदेडती रहती है...फिर इस तरह की बातों के लिए पुलिसिंग क्यों नहीं...जो भी ऐसी ग़लती करे उसके ऊपर ज़बरदस्त जुर्माना ठोका जाए...फिर तो बात बनेगी..वरना अब कैट ईज आउट ऑफ़ दी बैग.....

      हटाएं
    8. अदा जी ,
      संजय जी के मसले में टिप्पणीकार अपना आशय स्वयं बताये तो बेहतर होगा ! हां उनकी कविता पर मैंने टिप्पणी जरुर दी है !

      आदिवासियों की तस्वीर खुली देह के साथ अपने सामाजिक आर्थिक हालात के साथ मौजूद है इसलिए हम उसे अश्लील नहीं कह सकते / नहीं कह पाते / कहने की सोच भी नहीं सकते ! यह एक उदाहरण मात्र है जिससे यह पता चलता है कि किसी खुली देह वाली तस्वीर के साथ उसके सामाजिक आर्थिक या अन्य कोई हालात हों तो वह तस्वीर अश्लील नहीं मानी जायेगी ! किन्तु मैग्जीन वाली फोटो में खुली देह के साथ किसी अन्य कारण को इस तरह के निर्णय का आधार नहीं बनाया गया है ! इसलिए उसे अश्लील कहने के निर्णय को तब तक उचित नहीं माना जा सकता जब तक कि खुली देह की फोटो के साथ अन्य निहित कारक ना देखे गये हों , सम्बंधित का देहेतर पक्ष ना जाना गया हो ! ठीक वैसे ही जैसे कि आदिवासी चित्रों के लिए किया गया ! ऐसा करना ही नैसर्गिक न्याय है !

      कृपया यह जान लें कि मैंने यहां पर आदिवासियों के चित्र इसलिए नहीं लगाये गये हैं कि दोनों चित्रों को एक ही कह रहा हूं ! मैं तो केवल दोनों चित्रों को श्लील और अश्लील निर्धारित करने में आपके द्वारा जो भेद भाव / पक्षपात किया गया है ! उसका संकेत देना चाहता हूं ! एक प्रकरण में आपका निर्णय खुली देह के साथ सामाजिक पृष्ठभूमि पर निर्भर है जबकि दूसरे प्रकरण में आप केवल खुली देह देख कर निर्णय ले ले रहे हैं !

      दो अलग अलग प्रकरणों में शालीनता के निर्णय कि इस विसंगति को उजागर करने के लिए ही यह चित्र लगाये गये हैं और इनका कोई अन्य उद्देश्य नहीं है !

      मेरा मानना है कि कोई देह अपने आप में अश्लील नहीं होती बल्कि उस देह के साथ अन्य निहित कारकों के समेकित विवेचन के बाद हमारा मन , हमारी आंखे , ऐसा होना या ना होना तय करती हैं !

      पूनम पांडे और कानून वाले मसले पर केवल इतना ही कह सकता हूं कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता , उसकी मजबूरी या उसका शौक ये जो भी हो मुझे पता नहीं ! अगर समाज किसी बात को अनुचित मानता है तो फिर समाज और सरकार का निषेधात्मक कानून बनाने के साथ ही साथ एक फर्ज़ ये भी है कि वो उसे समुचित जीवन अवसर उपलब्ध कराये !

      नागरिको को गरिमामय और समुचित जीवन अवसरों की प्राप्ति का अधिकार बनाम निषेधात्मक कानून , एक पृथक बहस और आलेख में चर्चा के अंतर्गत शामिल किये जा सकते हैं ! बहरहाल प्रतिक्रिया लंबी हो रही है ! फिलहाल इतना ही ! आगमन के लिए शुक्रिया ! प्रतिक्रिया के किसी अंश से दुःख अनुभव करें तो नि:शर्त खेद !

      हटाएं
  19. @ कविता ,
    बिम्ब चुने ठीक ! बात कही ठीक ! पर यह अंश अंश सत्य है सार्वजनीन सत्य नहीं है इस तरह के सरलीकरण से समूचे समाज पर लांछना ध्वनित होती है ! नि:संदेह यह समस्या है पर उसके लिए पूरे समाज को एक ही लाठी से नहीं हांका जा सकता !

    ना तो पूरी महिलायें आकंठ कष्ट में है और ना ही पूरे पुरुष लुटेरे और आक्रांता कहे जा सकते हैं !

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  20. कविता क्या कहती हैं
    महज इतना की नारी का शरीर पहले भी बिकता था और अब भी बिकता हैं , पहले दलाल बेचते थे और कमाई खाते थे सो अब नारी खुद बेचती हैं और यहाँ बेचना केवल शारीरिक सम्बन्ध के लिये बेचना नहीं हैं , प्रोडक्ट मार्केटिंग के लिये भी हैं , कविता पोस्ट कर देने से विमर्श को गलत दिशा कैसे मिल गयी मै समझने में असमर्थ हूँ , और विमर्श में कविता क्यूँ नहीं कोट की जा सकती ?? क्या महज इसलिये क्युकी वो कटु हैं , और ये किसने कहा हैं की ये यहाँ पर विमर्श करते लोगो पर लिखी हैं . लिंक साथ इसीलिये दिया हैं की समय का आभास हो जाए . शोषण हमेशा निर्बल का होता हैं और वही निर्बल धीरे धीरे बल अर्जित कर के वही सब खुद करता हैं जो वो देखता हैं पर अपने फायदे के लिये .

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  21. मतलब ये हुआ कि नारी का अपने ब्रेस्ट इम्प्लांट और पाउडर लाली के लिए शरीर बेचना अनैतिक नहीं है...वो बेच सकती है, और इसे 'नैतिक' माना जाना चाहिए...इन लड़कियों को कौन निर्बल कहता है ???
    अगर ये निर्बल और अबला है तो फिर सबला का डेफिनेशन क्या होता है ..कोई बता दे...

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    उत्तर
    1. और सरोगेसी ?

      मेरे ख्याल से नैतिकता और अनैतिकता समय / स्थान तथा समाज हित के अनुसार बदलने योग्य धारणाएं हैं और बदलती भी रहती हैं ! यही वज़ह है कि पश्चिम पूरब उत्तर दक्खिन हमारे मानदंड अलग अलग मौजूद होते हैं और हमारे वैचारिक टकराव भी प्रायः इसी कारण से होते हैं ! हमें यह स्वीकार करना होगा कि सामाजिकताओं और संस्कृतियों का साम्य इसका सैद्धांतिक हल तो है पर यह संभव नहीं है ! हमें विविधता में ही खुश रहना और दूसरों को बर्दाश्त करना सीखना होगा तभी वे हमें बर्दाश्त कर सकेंगे ! पारस्परिक सहजीविता और टोलरेंस ! हालांकि आज का माहौल इसके ठीक विपरीत है ! कोई भी किसी को दैहिक स्पेस तो क्या वैचारिक स्पेस देने भी सहमत नहीं है :)

      और हां अबला सबला का मसला भी कमोबेश ऐसा ही है ! मसलन गारो / खासी और मुस्लिम मापेलाओं में लड़किया दूल्हे को विदा करके अपने घर ले जाती हैं और शेष आदिवासी भारत में आदिवासी लडकियां वधु मूल्य वसूलने की सामर्थ्य और समाज की एक्टिव मेम्बर की हैसियत से सबलायें हैं ! जबकि हमारे आपके एरिया की लडकियां इस मसले में अबला की श्रेणी में शामिल हैं ! अब देश तो एक ही है ना !

      इसलिए सामाजिकता में , फिक्स धारणायें लेकर ( अच्छी ) बहस नहीं की जा सकती !

      हटाएं
  22. @ रचना जी,
    आप असमर्थ हैं तो फिर समर्थ कौन है यहाँ? ये तो आप विनम्रता के चलते ऐसा कह रही हैं|
    कविता वही कहती है जो आप कह रही हैं लेकिन इस जगह पर वो असहमति जताते लोगों को दलाल बता रही है| विमर्श में कविता ही क्यूँ, कुछ भी सम्बन्धित बात क्वोट की जा सकती है और कटु मधुर वाली तो बात ही नहीं है, तल्खी कटुता वाला खिताब तो मैंने भी अभी तीन चार दिन पहले हासिल किया है, उससे कोई दिक्कत नहीं है| मैंने गलत दिशा की बजाय स्वस्थ अस्वस्थ विमर्श की बात कही है और जहां तक मैं समझता हूँ मैं बौद्धिक बहस वाले एरिया में ना ही आऊँ तो अच्छा है, फालतू फंड वाली अपनी दुकानदारी मस्त चल रही है:)
    you intellectuals, carry on please.

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    उत्तर
    1. अरे नहीं यार ! हटने की बात मत करियेगा !

      टिप्पणीकारों की अपनी अपनी स्टाइल होती है सो रचना जी की भी है ! असहमति और अस्वीकार का भाव उनमें दूसरों से कहीं ज्यादा है ! तो इससे क्या ? हम सब आपस में बात ही तो कर रहे होते हैं ! उनकी कविता पे अपनी तर्ज़ की असहमति तो हमने भी दर्ज कराई है !

      हटाएं
  23. मैंने आपकी पोस्ट पढ़ी. अरविन्द जी और संतोष जी की भी. आपकी और अरविन्द जी की सभी बातें अपनी जगह पर सही हैं, लेकिन मेरे विचार से संतोष जी की पोस्ट पत्रिका की नीति पर आपत्ति प्रकट करती है, अन्य बातों पर नहीं. मैं खुद भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की पक्षधर हूँ, लेकिन मुझे भी पत्रिका की ये रणनीति अच्छी नहीं लगी. बात अगर सौंदर्यवर्धन के लिए सर्जरी की थी, जो कि स्त्री-पुरुष दोनों करवाते हैं, तो तस्वीर स्त्री की क्यों? और वो भी क्लोज़ अप वाली. साफ बात है कि ये चित्र ना जानकारी देने के लिए है और ना ही जागरूकता बढ़ाने के लिए. ये पुरुषप्रधान समाज की उस मानसिकता को दर्शाता है, जिसमें बाज़ार वही दिखाता है, जो पुरुष देखना चाहते हैं. विभिन्न पुरुष उत्पादों में स्त्री-देह का प्रदर्शन इसी रणनीति का एक हिस्सा हैं.
    मैं बाज़ार की उस नीति का विरोध करती हूँ, जिसके तहत स्त्री-देह को इस्तेमाल किया जाता है, विभिन्न उत्पादों को बेचने के लिए. इण्डिया टुडे एक नामचीन प्रकाशन-समूह की पत्रिका है, कोई उपभोग का उत्पाद नहीं और उससे कम से कम इसकी उम्मीद नहीं थी.

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    उत्तर
    1. मुक्ति जी ,
      संतोष जी के यहां मैंने आपका कमेन्ट पढ़ा था सो उस मसले पर आपका स्टेंड मेरे लिए स्पष्ट है ! बाज़ारवाद की समेकित चिंताओं पर आपसे पूर्ण सहमति !

      उस आलेख में संतोष जी के फैसले कुछ इस तरह से आये ...

      (१) उन्हें चित्र को अश्लील मानने के लिए अंदर के कंटेंट को विचारण में लेने की ज़रूरत ही नहीं है !

      (२) वह एक देह का फोटो देखते ही उसके अश्लील होने का एकतरफा निर्णय ले लेते हैं जबकि उन्होंने इस विषय में पत्रिका , माडल का पक्ष जाना ही नहीं !

      (३) नारी अंग विशेष की नकली चिंता वह केवल फोटो देखकर कैसे उद्घोषित कर सकते हैं ?

      (४) एक स्त्री के जीवन अवसर क्या वे ही निर्धारित करेंगे ?

      (५) एक स्त्री की देह को अशालीन कहने योग्य पड़ताल तक नहीं करते वे ? उन्हें स्त्रियों के अपने फैसले खुद लेने के अधिकार का भान तक नहीं !

      और भी बहुत कुछ पर... निर्णय लेने की उनकी त्वरा , सब कुछ खुद ही तय कर डालने की अहमन्यता , सही / गलत / नैतिक / अनैतिक / अश्लील / श्लील में उनकी एकांगी कसौटियां , चमड़े के सिक्कों की तर्ज़ पर बरस ही रहीं थीं ! यह वह जगह है जहां कथित संस्कारों और कथित पूजनीय संस्कृति का मदमस्त हाथी मानवीय गरिमा को बस रौंद ही डालता है ! कोई चिंतन नहीं ! कोई तर्क नहीं ! कोई सुनवाई नहीं ! हमने जिसके लिए जो भी कही बस वही सही !

      संवेदनशील विषयों पर इतनी संवेदनहीनता ?

      मैं जानता हूं कि वे इन विषयों के विद्यार्थी नहीं रहे हैं ! उनका उन्मुखीकरण क्षेत्रीय परम्पराओं पर आधारित रहा है ! इसलिए दूसरा पक्ष उनके समक्ष रखने की गरज से ही बात छेड़ी है ! वे मित्र हैं उनके लिए अन्य कोई मंतव्य नहीं केवल वैचारिक शल्य क्रिया के कुछ संकेत ! चिंतन की शुभता मात्र के लिए !

      हटाएं
    2. बात तो मुक्ति की सही है ..यहाँ सहमति..मगर पुरुष का कोई समकक्षी चित्र हो भी तो क्या ? क्या सिक्स पैक से काम चल जाएगा ?:)
      बाकी तो विदेशी पत्रिकाएं पुरुषों को भी बेंच रही हैं अब -और खरीददार बढ़ते ही गए हैं -इण्डिया टूडे वालों से यह चूक हो गयी ..साथ में पौरुष प्रदर्श होता तो ठीक था ...
      यह बहस ऐतिहासिक बन गयी है ...
      सञ्चालन श्रम के लिए बधाई!

      हटाएं
    3. अली साब,आपने हमें मित्र माना इसका आभार,पर मेरी आपत्तियों को आपने अपनी निष्पत्ति बना डाली.मैंने कंटेंट के होने को लेकर इसीलिए अपनी बात रखी थी कि अंदर क्या है,यह इतना ज़्यादा मायने नहीं रखता,जब आपने(पत्रिका ने ) मुद्दे की गंभीरता ही विवाद से पैदा कर दी हो ! सीधा उदाहरण है,जब बलात्कार के केस की सुनवाई होती है वहाँ भी वकील 'उस' सबका पुनः प्रसारण करना चाहते हैं,जो एक स्त्री को असहज कर देता है.क्या बलात्कार-सम्बन्धी अच्छे कंटेंट को उसी तरह मुखपृष्ठ पर उतारना ज़रूरी है?

      मेरा मुख्य विरोध पत्रिका की स्त्री-देह के बहाने नकली-चिंताओं को लेकर था.उन्होंने जो भी अंदर लिखा है,वह स्त्री के साधारण चित्र से भी बता सकते थे.पढ़ने वालों को उन चित्रों को अपनी कल्पना में लेने दे सकते थे.यह अगर कोई बंधन है तो सिर्फ नैतिक,पर आप उसकी आलोचना भी नहीं करने देते.बिकना सबका अपना निजी मामला हो सकता है,पर इस बिकने से यदि समाज के एक बड़े वर्ग नकारात्मक-सन्देश जाता है तो क्या सही है यह ?

      फिल्मों में,टीवी में बहुत खुल्लम-खुल्ला सब कुछ परोसा जा रहा है तो भी,इस तरह की पत्रिका(जो फैशन या ग्लैमर की नहीं है) ऐसे चित्र मुखपृष्ठ पर छापती है और आप स्त्री-देह से भयभीत होने का तमगा हमें पहनाते हैं.
      ...आखिर ऐसे खुले-चित्रों को हम ड्राइंग-रूम में लगा सकते हैं क्या ?

      सादर !

      हटाएं
    4. अली साहब,
      आपने कितनी साफगोई से सारा ध्यान हमारे बहाने दूसरी ओर मोड़ दिया,जबकि मुक्तिजी की निष्पत्तियों का जवाब नहीं दिया.मुक्ति जी और मेरे कहे में मुझे फर्क नहीं दिखता,हाँ आपको और मिश्र जी को ज़रूर दिख रहा है !

      @वैचारिक शल्य-क्रिया तो ज़रूरी है.
      इसकी ज़रूरत तो मुझे तो बहुत अरसे से थी,पर क्या आप और मिश्रजी इस सुविधा का लाभ उठाने के हक़दार नहीं हैं ??

      हटाएं
    5. संतोष जी ,
      (१)
      सबसे पहले तो ये कहूँगा कि अगर आदिवासी स्त्री की देह अपनी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के आलोक में मासूम है , शालीन है ! एक स्त्री देह अपने बहन और मां होने के आलोक में श्लील है , निष्पाप है तो फिर उसी तरह से कवर पेज की स्त्री भी कंटेंट या उसकी अन्य किसी पृष्ठभूमि के आलोक में देखी जानी चाहिये तभी निर्णय हो कि वह श्लील है कि नहीं ! मेरे उदाहरण आपके उदाहरण के समतुल्य हैं ! कभी बलात्कार पर आलेख लिखियेगा तो वहां की असहजताओं पे भी चर्चा कर ली जायेगी ! आपका मुद्दा फिलहाल एक देह पर कपडे नहीं होने से सम्बंधित है ना कि किसी स्त्री के साथ किसी मर्द के दुर्व्यवहार से !

      यही तो मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आपने मात्र फोटो देख कर पत्रिका की चिंता का नकली होना कैसे कह दिया ? याद रहे इस पैरे में आप फिर से नैतिकता की बात कह रहे हैं :)

      आप बुद्धिजीवी हैं ! बहस आपसे हो रही है ! पत्रिका भी बुद्धिजीवी ही पढ़ते हैं तो उस चित्र के बारे में बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग में नकारात्मक सुझाव / सन्देश तो आप ही परोस रहे हैं ! अपनी आपत्ति भी यही है मीलार्ड कि सामने वाले की पृष्ठभूमि और पक्ष सुन कर ही जजमेंट दिया जाये ! आपका प्रथम दृष्टया निर्णय सरासर अन्याय है / ज़ुल्म है हुज़ूर ,जबकि आपने सामने वाले को जाना ही नहीं , सुनवाई का कोई अवसर ही नहीं दिया !

      जिसे जो चित्र उसकी पृष्ठभूमि सहित शालीन लगेगा वह ज़रूर लगायेगा ! आपकी विधि द्वारा घोषित कोई चित्र मुझे अगर श्लील लगेगा तो बेडरूम से लेकर ड्राइंगरूम , यहां तक कि आप चाहें तो लाकेट में भी लगवा लूंगा :) ये बात ऊपर आपको संबोधित कर पहले भी कही है :) वैसे आप शायद गृहशोभा जैसी मैग्जीन अपने घर में नहीं मंगाते होंगे ! आप कहें तो उनमें से नमूने काट कर आपको भेजूं :)

      (२) आपने मुक्ति जी को लिखे मेरे जबाब को पढ़ने का या तो कष्ट ही नहीं किया या फिर आप जल्दबाजी में निर्णय निकाल कर मुझे दुखी कर रहे हैं ! कृपया पढ़ें ! मैंने उनसे कहा है कि ...

      " संतोष जी के यहां मैंने आपका कमेन्ट पढ़ा था सो उस मसले पर आपका स्टेंड मेरे लिए स्पष्ट है ! बाज़ारवाद की समेकित चिंताओं पर आपसे पूर्ण सहमति ! "

      मेरे वाक्य के पहले हिस्से पे गौर फरमाइए मैंने कहा कि संतोष जी के यहां आपके कमेन्ट को मैंने पढ़ा है और उस मसले पर आपका स्टेंड मेरे लिए स्पष्ट है ! जो स्टेंड / पक्ष स्पष्ट हो , उसके पृथक से जबाब की आवश्यकता तभी होगी ना जब उस स्टेंड से सम्बंधित मूल आलेख की आलोचना ना की जा रही हो :) जोकि मैं आपके दृष्टिकोण लेकर कर ही रहा हूं :)

      मेरे वाक्य का दूसरा हिस्सा देखिये जहां मैं समेकित बाज़ारवाद पर उनसे सहमति भी दर्ज करा रहा हूं ! अब और क्या चाहते हैं आप ? क्या ये कहूं कि मुक्ति जी आप संतोष जी की आलोचना करने के आरोप मेरे प्राण ले लीजिए :)

      @ वैचारिक शल्य क्रिया ,
      नि:संदेह आपको इसकी आवश्यकता थी / आगे भी रह सकती है इसे स्वीकार करने हेतु आपका आभार !
      व्हाया मुक्ति जी , बात आपके और मेरे मध्य चल रही थी पर आपने उसमें अरविन्द जी का नाम नाहक ही खींच लिया ! मैं उनके बारे में कमेन्ट नहीं करना चाहता पर मुझे विश्वास है कि जो कुछ मैं अपने बारे में कहूँगा उसे वे अपने लिए भी सहज स्वीकार लेंगे :)

      मित्र हम धरती पे अवतार लेने के दिन से ही इस ट्रेनिंग में मुब्तिला हैं और जीवन के हर दिन वैचारिक शल्यक्रिया कराते रहते हैं ! भविष्य में भी ऐसा कराते रहने में हमें आल्हाद की अनुभूति होती रहेगी ! ऐसा कोई दिन नहीं जब हम अपनी किसी ना किसी वैचारिक व्याधि का इलाज ना करवाते हों ! ये तो हमारे ही मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर है इससे शर्म कैसी :)

      हमने तो अपने प्रोफाइल में भी ऐसी ही एक अभिलाषा चिपका रखी है संभवतः आप ही मित्रों का ख्याल नहीं रखते :) आपको इस बाबत सवाल क्यों पूछना था ? आपको तो पता होना चाहिये था :)

      हटाएं
    6. संतोष जी,
      गूगल प्लस से अपना परिचय कापी कर , आपकी सेवा में चस्पा कर रहा हूं :)


      बचपन में कंचे खेले / पतंगें उड़ाई / तैरना सीखा / थोड़ी हाकी , ज़रा सा क्रिकेट भी , ... और इन सबके साथ , शायद अच्छे बच्चे की तरह से पढ़ाई भी की ! पर हाथ में क्या ? हासिल शून्य ! लिहाज़ा मैं ? अब कुछ भी नहीं हूँ ! फिर से एक बार बड़ों और बच्चों से सीखने की कोशिश कर रहा हूँ !

      हटाएं
    7. अब जान गया हूँ,आगे से ध्यान रखूंगा !

      हटाएं
  24. @ ali ji, वैचारिक शल्य-क्रिया तो ज़रूरी है.
    @Arvind Mishra,मेरा ये मतलब नहीं था. मेरी आपत्ति बाजारीकरण में स्त्री-देह के इस्तेमाल को लेकर थी.

    जवाब देंहटाएं
  25. .
    .
    .
    "कपड़े की सामर्थ्य पर इतना भरोसा कि अपनी खुद की सामर्थ्य से भरोसा उठ गया ! उन्हें परवाह नहीं कि दुनिया में जीवित रहने के अवसरों में भारी असंतुलन है ! अपने जीवन के हर मौके का फायदा उठाने की कोशिश करने वाले गरीब गुरबा बिना रेफरेंस / अकारण उनके निशाने पर हैं ! वे नहीं चाहते कि कोई बालिग / परिपक्व बंदा अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से गुज़ार सके ! अपनी सोच की तानाशाही उन्हें समाज की बहबूदी का रास्ता नज़र आती है ! रेत के ढ़ेर में सिर घुसाए हुए शुतुरमुर्ग जैसे सुधिजन ! बदलाव को तुम रोक नहीं सकते ,कोई भी नहीं रोक सकता ,मैं भी नहीं ! धार के साथ बहो वर्ना तालाब के ठहरे पानी की तरह सडांध मारते हुए खुद भी दुखी होओगे और दूसरों का जीवन तो पहले ही दूभर किये हुए हो ! नैसर्गिकता बदलाव में है ! सहजता बदलाव में है ! स्त्रियों को तुम्हारी मुट्ठी में बाँधने की कोशिश मत करो ! वो जो चाहती हैं वह उनका हक़ है ! अपनी निर्बलता का इलाज़ करो ,आत्मसंयम की साधना करो ! तुम्हारे रोकने से हवाएं रुकने वाली नहीं ! ख़ारिज कर दिए जाने से पहले सुधर जाओ ! ओ कायर स्त्री देह से भयभीत होकर तुम अनजाने में ही कुदरत से भी द्रोह कर रहे हो !"

    सही कहा अली सैयद साहब, कपड़े से ज्यादा अपने मन पर भरोसा रखिये यारों...



    ...

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  26. उत्तर
    1. प्रवीण जी,हमें तो अपने मन पर भरोसा है पर इस समाज में ,परिवार में हम अकेले थोड़ी हैं,बच्चे भी तो हैं !

      हटाएं
    2. .
      .
      .
      संतोष जी,

      नये दौर के बच्चे हैं, अपने फैसले लेना जानते हैं... उन पर भी भरोसा रखिये... भरोसा सबसे अहम चीज है... जल्द लिखूँगा इस मुद्दे पर...


      ...

      हटाएं
    3. प्रवीण जी,यदि बच्चे फैसले लेने लायक उम्र के हों तो ऐसी दिक्कत नहीं आती.अगर बचपन से ही उनके आगे ऐसे दृश्य नाचेंगे,तो वैसे ही संस्कारित भी होंगे.यह काम टीवी बखूबी कर रहा है !

      आपके लेख का स्वागत है !

      हटाएं
  27. bari marak post ho gaya ye to........khair, manthan se hi amrit-ghat bahar hota hai.....

    "santulan rakhna sahi hai"


    pranam.

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    उत्तर
    1. सञ्जय भाई ,
      संतुलन बनाये रखने की कोशिश ज़ारी रहेगी !

      हटाएं
  28. अली साब !
    मेरी इत्ती सारी असहमतियों व 'बद-जुबानी' को सहज भाव से लेने का आभार !
    मिश्रजी से भी क्षमा-याचना सहित !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. संतोष जी ,
      असहमतियां वैचारिक परिष्कार का कारण हुआ करती हैं अस्तु उन्हें कोई कैसे अस्वीकार कर सकता है ! बाकी जो काम आपने किया नहीं (बद-ज़ुबानी) उसे क्यों कह रहे हैं ?
      मित्र आपके लिए कोई असहजता नहीं पाली ! अगर आपको लगे कि हमारी बातों से आपको कोई कष्ट हो रहा है तो बस एक संकेत दीजिएगा उन बातों के मुंह तोड़ दिए जायेंगे !

      हटाएं
  29. चकाचक पोस्ट!

    "स्त्रियों को तुम्हारी मुट्ठी में बाँधने की कोशिश मत करो ! वो जो चाहती हैं वह उनका हक़ है ! अपनी निर्बलता का इलाज़ करो ,आत्मसंयम की साधना करो ! तुम्हारे रोकने से हवाएं रुकने वाली नहीं ! ख़ारिज कर दिए जाने से पहले सुधर जाओ !"

    गजनट!

    टिप्पणियां भी मजेदार ही हैं। :)

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    उत्तर
    1. गजनट शब्द सुना हुआ था पर स्पष्ट किया अनूपजी को फोनकर ! उन्होंने इसे चकाचक,शानदार के समकक्ष बताया है !!

      हटाएं
  30. चर्चा शायद अब समाप्त है और आपका आवेश भी कम हो गया है और सुधिजनो के प्रति हलाहल भी।
    अब सार रूप में यह जानने की उत्सुकता है कि इंडिया टुडे का यह कवरपेज चित्र उसके कंटेंट अनुकूल, आपके दृष्टिकोण से आदिवासी चित्र के समान ही निर्दोष है? आपका निष्कर्ष क्या है?

    जवाब देंहटाएं
  31. प्रिय सुज्ञ जी ,
    कोई आवेश नहीं और सुधिजनों के प्रति 'हलाहल' भी नहीं ! मैं केवल उस युवती के प्रति न्याय की मांग कर रहा था जिसने अपना चित्र खिंचवाने का निर्णय लिया था ! उस युवती ने मैग्जीन से क्या कांट्रेक्ट किया ? वह स्वयं इम्प्लांट की प्रक्रिया से गुज़री कि नहीं ? उस मैग्जीन के कंटेंट से उसका वास्ता कितना है ? और भीं कई प्रश्न हैं जिनके समाधान के बाद ही उस युवती के चित्र पर मैं शालीनता / अशालीनता बोधक कोई निर्णय लेना चाहूँगा ! संतोष जी के त्वरित निर्णय पर मेरी आपत्ति भी यही है !

    आदिवासियों की पृष्ठभूमि को लेकर मेरे मन में कोई दूसरा विचार नहीं , मैं स्वयं उनके मध्य में ही हूं इसलिए उनकी परिस्थितियों और शालीनता पर मेरा कोई प्रश्नचिन्ह भी नहीं है ! आदिवासी समाज ने मेरी चिंतन धारा / मेरे माइंड सेट पर खासा प्रभाव छोड़ा है ! अब मैं किसी भी स्त्री देह को देखते ही उसे अशालीनता / अश्लीलता की श्रेणी में नहीं सोच पाता हूं ! 'अतः व्यक्तिगत रूप से उस युवती के लिए भी मेरा इम्प्रेशन अब तक यही है' !

    हालात और तथ्यों की रौशनी में इसके आगे जो भी सिद्ध हो जाये ! मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी ! मेरा तर्क उस युवती के पक्ष में नैसर्गिक न्याय मांगने का है ! और दूसरों के लिए भी हमेशा रहेगा !

    मेरे लिए चर्चा कभी समाप्त नहीं होगी ! मैं पिछले सैंतीस वर्षों से इन्हीं विषयों का विद्यार्थी हूं !

    जवाब देंहटाएं
  32. मान्यवर अली सा,
    पूरे प्रकरण में किसी ने भी चित्रप्रदाता युवती को कटघरे में खडा नहीं किया, उसके उपर किसी नें भी नैतिकता थोपने का उपक्रम भी नहीं किया, न ऐसा कोई अन्याय हुआ न युवती के प्रति न्याय की मांग उपस्थित हुई वस्तुतः इस प्रकाशन वा पत्रिका की मंशाओं बिकने की ललक या व्यापारिक हितों पर प्रश्न खडे किए गए है। यहां तक संतोष जी नें अपनी पूरी पोस्ट ही पत्रिका के इस तरह की बिकाउ अभिलाषा के विरूद्ध लिखी है। आपकी इस पोस्ट में भी युवती के अधिकारों से कहीं अधिक नैतिक मूल्यों के सलाहकार सुधिजनों को उदाहरण और कटाक्ष के 'हलाहल ' से कोसा गया है। स्त्रीदेह से भयाक्रांत निर्बल आलेखित किया गया है। बिना जांच परख के आप युवती के चित्र पर निर्णय को अन्याय मानते है तो चिंतित सुधिजनों पर "नैतिकता के टूटने की आशंका में अपना आत्म विश्वास खो बैठे !" "आत्मसंयम सामर्थ्य रसातल को जा पहुंचा" "मनः दुर्बल सुधिजन ! कामुक साइट्स पे अंगुलियां चटकाने और हिट्स बढ़ाने वाले पाखंडी सुधिजन!" "नौटंकियां…वेश्यालय… कोठे भी सुधिजनों की कृपा से आबाद हैं" जैसे निराधार आरोप क्यों? क्या यह अन्याय नहीं है? न्याय अन्याय का आधार तो सत्य और निष्पक्ष होना चाहिए।
    यदि यह युवती इम्प्लांट की प्रक्रिया से गुज़र कर सुदर्शना बनी हो तब भी क्या वह प्रक्रिया प्रकृतिपुत्रियों आदिवासी सन्नारियों के निर्दोष जीवन व्यवहार के समकक्ष बैठ सकती है?
    नैतिक मूल्यों के सुझाव को तीव्रावेश से खारिज करके उसे थोपने के कृत्य में खपा कर भी बडे हक से सुधिजनों को "अपनी निर्बलता का इलाज़ करो ,आत्मसंयम की साधना करो !" आदेश ही देने लगते है। नैतिकता के सभी के स्वतंत्र पैमाने के पक्षधर आप अपनी धारणा की 'मानवीय गरिमा' कैसे थोप सकते है? इस आशय से तो सबकी अपनी अपनी मानवीय गरीमा की धारणा और समझ होती है फिर उनके लिए भी दिशा-निर्देश करने वाले हम कौन होते है। यदि कोई अनुशासित जीवन में सुख संतोष माने और चाहे तो उसे उछ्रंखल जीवन की स्वतंत्रता की सीख देने वाले हम कौन होते है।
    निसंदेह आपका आदिवासी कल्याण कार्यों में योगदान होगा,आदिवासी समाज ने आपकी चिंतन धारा पर भी प्रभाव छोडा होगा। ऐसा चिंतन वास्तविक जीवन मूल्यों पर आधारित और देहातीत ही होता है। आप देह देख ही नहीं सकते, मात्र जीवन देखते है और जीवन के महत्व और संघर्ष को सम्मान देने लगते है। मनोरंजन मनमौज तो पता नहीं कहां लुप्त हो जाता है। बचता है तो मात्र जीवन के प्रति आदर।
    आपने कहा- "मैं पिछले सैंतीस वर्षों से इन्हीं विषयों का विद्यार्थी हूं" आप तो शिक्षण क्षेत्र से है संतोष जी भी इसी क्षेत्र में है। वि्द्या प्रदाता गुरू के स्थान पर है, विद्या के साथ साथ नैतिक मूल्यों के सींचन का दारोमदार आप पर है। यदि आपकी ही अवधारणा में नैतिकताओं की परिभाषाएं अलग अलग होगी तो पाठ्यक्रम की सर्वजन अनुकरणीय नैतिकता कौनसी होगी जिसकी सीख दी जा सके?

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    1. प्रिय सुज्ञ जी ,
      जिस क्षण वो तस्वीर अश्लील कही गई एक निर्णय हुआ ! यही बात पत्रिका के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है ! आप संभवतः ब्लाग में आलेख के पठन पाठन और टिप्पणियों के इतर , विषय पर मित्रों की पारस्परिक दूरभाष चर्चा को गिनती में नहीं लेते ! इस विषय पर मेरी कई सुधिजनों से दूरभाष पर चर्चा हुई ! उनके कथन उनके कमिटमेंट , मेरे कथन का आधार हैं ! पोर्न साइट्स देखना स्वीकार करने वाले , किन्हीं मित्रों का नाम नहीं लेना मेरी सौजन्यता है...पर सार्वजनिक तौर पर स्त्री देह के लिए उनके नैतिकतावादी कथन , उनका द्वैध है / पाखण्ड है ! अपने आलेख में उन्हें मैंने यही कहा है !

      नौटंकी देखने / पोर्न साइट्स देखने वाले मित्रों को सार्वजानिक तौर पर स्त्री देह की कथित नग्नता की चिंता करते देखूं तो क्या कहूं उन्हें ? क्या पोर्न साइट्स , उनसे आबाद हैं कहना गलत है ?

      नग्न अथवा अर्ध नग्न स्त्री देख कर जिन बंधुओं का स्वयं पर से भरोसा उठ जाये ! उनमे आत्म संयम की कमीं ना कहूं तो क्या कहूं ! उनके मन की दुर्बलता को क्या नाम दूं ?

      हां ! मैं , अपने सुधिजन मित्रों के चिंतन द्वैध , उनके पोर्न प्रेम बनाम नैतिकता के उपदेश , स्त्री देह को देखते ही उनके संयम के क्षरण , उनकी मानसिक निर्बलता को , व्यंग से संबोधित कर रहा हूं ! किन्तु प्रिय सुज्ञ जी आप इसे बार बार "हलाहल" क्यों कह रहे हैं ! क्या आप मुझे विमर्श रत इंसान मानने के बजाये हलाहल त्यागी सर्प मानते हैं ? यदि मैं इसे प्रतीकात्मक रूप से समझूं तो क्या मेरे विचार जहर बुझे हैं ?

      प्रकृति पुत्रियों और नगर पुत्रियों की अपनी अपनी श्रेणी की विवशतायें हो सकती हैं ! यहां सवाल व्यक्तिगत समानता का नहीं उनकी मजबूरियों के साम्य और न्याय के लिए उनके औचित्य का है ! इसीलिए मैंने कहा जब तक कुछ सिद्ध ना हो जाये "उस युवती के लिए मेरा इम्प्रेशन यही है" !

      जो बंधु , पोर्न साइट्स देखें और स्त्रियों को नैतिकता की सीख दें , जो मित्र , स्त्री देह पर पिघलने की अपनी निर्बलता से स्त्री के आवरण की ओट में बचने का प्रयास करें ! उन सुधिजनों को , मैं तीव्र प्रतिक्रिया देता हूं यह सही है ! पर आप हैं कि इसे तीव्र प्रतिक्रिया / तीव्र सुझाव की जगह 'आदेश' का नाम दे डालते हैं ! खैर...

      आपको यह भ्रम नहीं होना चाहिये कि मैं किसी को अपनी मानवीय गरिमा वाली समझ थोप रहा हूं दिशा निर्देश दे रहा हूं ! थोपना शब्द और दिशा निर्देश शब्द के प्रयोग से यह संकेत मिलता है कि जैसे कुछ लोग मुझ पर अपनी बातें / अपनी समझ थोप रहे थे और अब मैं उन पर अपनी समझ थोप रहा हूं ! निश्चय ही यह संकेत , विमर्श की प्रक्रिया पर आपकी ओर से आया है ! आपसे निवेदन करना चाहूंगा कि यहां हर व्यक्ति स्वतंत्र है , उसपर थोपने थोपाने की बातें करना गलत है ! विमर्श में क्रिया और प्रतिक्रिया स्वाभाविक हैं ! विमर्श में सवालों / जबाबों अथवा सुझावों / प्रतिसुझावों को तीव्रता से दिया जा सकता है पर इसे थोपना कहना अनुचित है ! थोपना विमर्श के बाहर की शब्दावली है ! सुझाव और प्रतिसुझाव अपनी पूरी शिद्दत के साथ विमर्श के अंदर की धारणायें हैं ! मुझे सुझाव जितनी तीव्रता से मिले मैंने भी प्रतिसुझाव उतनी ही तीव्रता से दिये !

      विद्यार्थी होने के कारण ही मुझे ज्ञात हुआ कि हर समुदाय / हर समूह की अपनी अपनी नैतिकतायें / अपने अपने सामाजिक मूल्य होते हैं इसलिए एक समूह की नैतिकता और मूल्य दूसरे समूह में पाले जायें यह अपेक्षा भी नहीं करता ! नैतिकताओं की शिक्षा के लिए हर समूह के अंदर , अनुभवियों / गुरुओं की मौजूदगी हुआ करती है ! मैं वह नहीं हूं ! मुझे किसी विशिष्ट समूह का नैतिकता गुरु होने की बजाये हर समूह की नैतिकताओं / हर समूह के सामाजिक जीवन / हर समुदाय के अस्तित्व का निरपेक्ष विद्यार्थी होना है ! मैं अपने अनुभवों को अपने अनुजों से बांटते समय यह विशेष ध्यान रखता हूं कि वे पृथक पृथक सामाजिक जीवनों / सांस्कृतिक विरासतों / सामुदायिक विशिष्टताओं को उनके ही सन्दर्भ में जान लें ! भिन्न मानवीय समूहों के स्वतंत्र अस्तित्व और गरिमा के निरपेक्ष विद्यार्थी बने ! इस आशय में मेरा और मेरे अनुजों का काम किसी समूह विशेष का गुरु हो जाना नहीं है ! बल्कि अंतरसमूहों / अंतरसामुदयिकाताओं के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन / उनकी अस्मिता को जान लेना है ! आप के कहे अनुसार जब मैं गुरु होता हूं तो मैं अपने शिष्यों को संश्लिष्ट सामाजिकताओं को समझने / जान लेने के लिए एक वैज्ञानिक नज़रिया / एक अध्ययन दृष्टि मात्र देने का यत्न करता हूं ! आगे वे और उनकी अध्ययन दृष्टि और वैविध्य भरा सामाजिक जीवन है ! निष्कर्ष उन्हें निकालने हैं ! मैं स्वयं भी अब तक यही कर रहा हूं !

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    2. प्रिय सुज्ञ जी ,
      आपने संतोष जी का जिक्र किया था तो कह दूं कि वे गुरु हैं इसलिए खट से निर्णय पर पहुंच जाते हैं ! जबकि मैं अब भी विद्यार्थी हूं सो निर्णय तक पहुंचने से पहले कारण निवारण की चिंता करता हूं :)

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  33. ओह!! अली सा,

    तो यह सुधिजन ब्लॉगपोस्ट चर्चा वाले नहीं आपकी पारस्परिक दूरभाष चर्चा वाले है। मैं कैसे संज्ञान में ले सकता था? विरोधाभास तो होता ही है फिर ये दूरभाष चर्चा वाले सुधिजन अंगुलियों पर गिनती के होंगे॥ तब तो यह द्वैध सामुहिक सभी सुधिजन पर आपने लागु कर वाकई सभी पर अन्याय किया है। हांलांकि मेरा अपना यह मानना है कि द्वैध मानसिकता को भी कटाक्ष से इतर प्रिय वचनों से संदेश दिया जाना चाहिए तथापि आपने अपनी समझ आधारित उनपर मर्मभेदी चोट कर कोई बुरा नहीं किया।

    मेरे "हलाहल" शब्द को दूर न ले जाएँ जो मैने सोचा ही न हो। किसी को भी कष्ट्दायक व्यंग्य को
    मैं हलाहल कहता हूँ, मेरे लिए मधुर वचनों का विलोम हलाहल वचन है। जो वचन प्रतिपक्षी के जेहन तक पहुँचते ही उसके मन में जलन व दाह उत्पन्न करे मैं हलाहल की संज्ञा देता हूँ। आप जैसा विद्वान आशय को व्यक्तिगत नहीं ले सकता। फिर भी यह चिंतन क्यों हुआ, आश्चर्य है। आपके इस पोस्ट मात्र तक सीमित बोल ही मुझे 'सुधिजनों' के लिए जहर-बुझे लगे, मात्र एकाध पोस्ट या टिप से मै आपके समग्र विचारों को कैसे आरोपित कर सकता हूँ।

    आपके कुछ वाक्यों से यह संकेत तो मिला ही था कि कथित सुधिजन अपनी नैतिकता या सामाजिक संस्कृति थोप रहे है। या मोरल पुलिसिंग कर रहे है। आपकी तीव्र प्रतिक्रिया में उसी दबाव का प्रतिकार ही तो है। आपकी पोस्ट के ये कुछ अंश है जो यह दर्शा रहे है कि सुधिजनों द्वारा थोपी जा रही नैतिकताओं का विरोध है………
    "आदिम सभ्यताओं में भी नैतिकता की ऐसी जोर जबरदस्ती कहीं देखी ना सुनी !" "सतत सुचिंतित सुधिजनों ने भूलोक के कल्याणार्थ नैतिकता और कपड़ों के जो कड़े प्रावधान किये थे उससे धरती का कल्याण हुआ हो कि नहीं उनकी खुद की नींदे हराम ज़रूर हो गईं !" "एक दिन एक शाम एक रोटी ना बांट सकने वाले सुधिजन किस मुंह से दिशा निर्देश जारी करते हैं !" "वे समाज को अपनी जागीर समझते हैं ! इंसान गोया उनके इशारों पे नाचने वाली कठपुतलियां हों !" "वे नहीं चाहते कि कोई बालिग / परिपक्व बंदा अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से गुज़ार सके ! अपनी सोच की तानाशाही उन्हें समाज की बहबूदी का रास्ता नज़र आती है !" "स्त्रियों को तुम्हारी मुट्ठी में बाँधने की कोशिश मत करो !" थोपना यहीं से ग्रहित हुआ है।
    "धार के साथ बहो वर्ना तालाब के ठहरे पानी की तरह सडांध मारते हुए खुद भी दुखी होओगे" और "अपनी निर्बलता का इलाज़ करो ,आत्मसंयम की साधना करो !" यह वाक्य स्पष्ठतः 'आदेश' है।
    जब बदलाव का कोई प्रतिकारई नहीं है बदलाव तो प्रकृति का नियम है मात्र बदलावों को सार्थक बनाने की बात है तब यह कथन "बदलाव को तुम रोक नहीं सकते ,कोई भी नहीं रोक सकता" "ख़ारिज कर दिए जाने से पहले सुधर जाओ" अनावश्यक अहंकार की हुंकार बन जाता है।

    मेरा आशय समुहविशेष के गुरू से नहीं था। शिक्षा विद्यादाता गुरू से था। हां आप तो प्रोफेसर है इसलिए आपके विद्यार्थी भी व्यस्क है नैतिकताओं के निहितार्थ वे अपने अपने मानदंडो के अनुसार निर्धारित कर सकते है। इसलिए आप अपने शिष्यों को एक नज़रिया अर्पित कर निरपेक्ष हो पाते है। यह तो मेरी व्यक्तिगत धारणा का प्रभाव था कि मैं मानता हूं नैतिकता के कुछ प्रारम्भिक आधारभूत सर्वस्वीकार्य सिद्धांत होते है।

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  34. प्रिय सुज्ञ जी ,
    कटाक्ष द्वैध पर है लेकिन सुधिजनों में सारा संसार नहीं समेटा ,यूं मानिए कि जिनसे चर्चा हुई होगी केवल वे ही ! इसलिए कटाक्ष भी , चर्चारत पे ही मानिए !

    कोई दिक्कत नहीं ! मैं हलाहल को प्रतीकात्मक रूप से स्वीकार कर समस्या सहल कर चुका था :)

    एक ओर आप मेरे आलेख को कटाक्ष भी स्वीकार कर रहे हैं दूसरी ओर उसे आदेशात्मक या थोपने की श्रेणी में भी गिन रहे हैं ! जैसा कि मैंने पहले ही कहा तीव्र सुझाव के प्रतिसुझाव भी तीव्र ही होंगे !

    'आदिम सभ्यताओं में भी नैतिकता की ऐसी जोर जबरदस्ती कहीं देखी ना सुनी' का संकेत एक समय विशेष के समाज को लेकर है और 'ऐसी जोर ज़बरदस्ती' का आशय सुधिजनों के 'कुतर्क' से है ! ठीक वैसे ही जैसे आप किसी तर्क को कुटिल तर्क कहते हैं !

    'इसी तरह से सतत सुचिंतित सुधिजनों...उनकी नींदे खुद हराम हो गईं' - अब ज़रा कल्पना कीजिये कि किसी समय में कपड़ों और नैतिकता के प्रावधान नहीं किये गये होते और इंसान आज भी नग्न बने रहते तो क्या शालीनता / अशालीनता / कम या ज्यादा कपड़ों और उत्तेजना को लेकर जो बहस आज चल रही है वो चलती ? तो फिर नींदे हराम होने का मतलब यही हुआ ना कि अपने ही प्रावधानों पे अनथक बहस ! बहुत कुछ अपने पैरों कुल्हाड़ी मारने जैसा !

    इससे तो बेहतर था कि इंसान नग्न ही बना रहता कम से कम शाब्दिक मारकाट की नौबत तो नहीं आती :)

    'एक दिन रोटी ... दिशा निर्देश जारी करते हैं' यह स्पष्टतः द्वैध पर कटाक्ष है पर उपदेश कुशल बहुतेरे की तर्ज का !
    'वे समाज को ...जागीर समझते हैं' 'गोया इंसान...कठपुतलियाँ हों' 'वे नहीं चाहते...बहबूदी का रास्ता नज़र आती है' स्त्रियों को मुट्ठी...कोशिश मत करो' - यह स्पष्टतः सुधिजनों की समझ / चाहना / चिंतन की तानाशाही / और सब अपने अनुकूल चलाने के यत्न पर मेरा 'आक्षेप' है जिसका वे 'जबाब' दे सकते हैं ! सुधिजनों की 'मानसिकता' और उसपर मेरे 'कटु आक्षेप कथन' को आप दोतरफा थोपने के तौर पर ग्रहण क्यों कर रहे हैं ?

    'धार के साथ...आत्म संयम की साधना करो' - ये सब मेरे 'तीव्र प्रतिसुझाव' हैं जिन्हें आप 'आदेश' कह रहे हैं ! इसी प्रकार बदलाव को लेकर मेरे तीव्र प्रतिसुझाव में से आपने उस अंश को हटा कर उद्धृत किया जहां मैं कहता हूं कि बदलाव को तुम रोक नहीं सकते 'मैं भी नहीं' - अब जब बदलाव को समान रूप से 'तुम' और 'मैं' रोक ही नहीं सकते तो इसमें अहंकार कहां से आ गया ?

    'प्रकृति से अनुकूलता बदलाव के साथ चलना और उससे प्रतिकूलता ख़ारिज हो जाना' जैसा प्रतिसुझाव भी मैं पूर्ण तीव्रता से दे रहा हूं ! इसे भी आप अहंकार की हुंकार क्यों मान रहे हैं ?

    आप मेरे आलेख के व्यंग्य भाव को तो स्वीकार करते हैं पर वहां से कुछ शब्द और कथन पकड़ कर दुखी भी हो रहे हैं यह मुझे उचित नहीं लगता ! जिन्हें मैं बहस में तीव्र सुझाव और तीव्र प्रतिसुझाव कहता हूं / जिन्हें मैं कुतर्क कहता हूं / जिन्हें मैं कटु आक्षेप कहता हूं उन सबको मेरे आलेख के व्यंग्य भाव के आलोक में ही स्वीकारें तो कृपा होगी !

    यह आलेख मैंने थोपने / आदेश देने / अहंकार की हुंकार वाली शब्द भूमि और मंशा से नहीं लिखा है !

    शुभकामनाओं सहित !

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  35. अली सा,

    आलेख को कटाक्ष या व्यंग्य स्वीकार करते ही सभी भाव और निष्कर्ष स्वीकार्य नहीं हो जाते। विरोधाभासियों पर किए गए कटाक्षो में आपके विचार और निष्कर्ष भी समाहित है जो इन द्वैधों के साथ ही निर्दोष किन्तु जीवन मूल्यों पर चिंता करने वाले सुधिजनो को भी प्रभावित कर जाते है। भले अलग अलग मानदंड के ही सही पर नैतिक जीवन-मूल्यों को हतोत्साहित कर जाते है। जैसे कि नैतिकता के सुझावकार सभी विरोधाभासी और दोगले ही होते है, या नैतिकता जैसा कुछ नहीं होता जो अपने को अच्छा लगे वह करो, अपनी मर्जी को अपनी नौतिकता का पैमाना मानो आदि। इसलिए आपके चिंतन,निष्कर्षो और'प्रतिसुझावो'पर चर्चा व विश्लेषण जरूरी हो जाता है।

    @'ऐसी जोर ज़बरदस्ती' का आशय सुधिजनों के 'कुतर्क' से है ! ठीक वैसे ही जैसे आप किसी तर्क को कुटिल तर्क कहते हैं !

    जी!! मैं यही तो जानना चाहता था कि इस चर्चा के सारे वाद प्रतिवाद 'जैसे को तैसा' या 'ईट का जवाब पत्थर' पद्धति पर आधारित है या कुछ और, जो कि आपने बार बार 'बहस में तीव्र सुझाव और तीव्र प्रतिसुझाव'उल्लेख कर स्पष्ट किया ही है। और इसीलिए व्यंग्य भाव के आलोक में आपके आलेख की सभी बातों को स्वीकार नहीं कर पाता।
    और यही कारण है कि सुधिजनों की 'मानसिकता' और उसपर आपके 'कटु आक्षेप कथन' को परस्पर दोतरफा थोपने के तौर पर ग्रहण कर रहा हूँ। कुछ 'आक्षेप'निराधार धारणाएं मात्र होती है, वस्तुत: न्याय पसन्द व्यक्ति जो अकारण किसी को भी बिना प्रमाण कटघरे में देखना नहीं चाहता उसे पूर्वधारित आक्षेप आरोप भी न लगाने चाहिए।

    @'मैं भी नहीं' - अब जब बदलाव को समान रूप से 'तुम' और 'मैं' रोक ही नहीं सकते तो इसमें अहंकार कहां से आ गया ?

    यहाँ 'मैं' के अहंकार की बात नहीं हो रही, यह आपका व्यक्तिगत अहंकार नहीं यह निष्कर्षों का अहंकार है। बदलाव को रोकने की किसी की चुनौति ही नहीं तो मैं आप और समस्त समाज के समक्ष चुनौति फैकने का क्या प्रयोजन? उसी तरह "ख़ारिज कर दिए जाने से पहले सुधर जाओ" में सुझाव कम और चेतावनी ज्यादा है इसलिए इसे व्यक्तिगत नहीं, विचारों की हुँकार कहता हूँ।

    मेरा भी उद्देश्य आप पर थोपना, आदेश,अहंकार या हुंकार जैसे नए नए अवगुण मढ़ना नहीं है। आपकी विचार श्रेणी का मनन मात्र है। मुद्दे को जानने समझने की चर्चा से लेता हूँ, मैं भी नए ज्ञान का विद्यार्थी हूँ, त्वरित निर्णयों निष्कर्षों पर पहुँच जाने का अपना सामर्थ्य और योग्यता नहीं।

    आपके पोस्ट शीर्षक "स्त्री देह से भयभीत सुधिजन" देखकर यही लगा कि मुझ 'देह-डरपोक' को लक्ष्य कर पोस्ट लिखी गई होगी। चर्चा देखता रहा कि अभी कोई राज़ खोलेगा। :)

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  36. प्रिय सुज्ञ जी ,
    सबसे पहले आखिर से , मुझ देह डरपोक को लक्ष्य कर लिखी गई होगी :) अरे नहीं ! मुझे तो ये भी पता नहीं कि आप देह डरपोक हैं :)

    अब शुरू से , मैंने कहा ना कटाक्ष जिनसे चर्चा हुई केवल उनपर , सुधिजनों में सारा संसार नहीं समेटा ! अतः नैतिकता के अन्य सुझावकार इसके दायरे से बाहर ही हुए ! सभी या कुछ निष्कर्षों को स्वीकार करना / नहीं करना , सुनने / पढ़ने वाले का अधिकार है निश्चय ही उसके अपने मानदंड हो सकते हैं और विश्लेषण विधि भी !

    जिनसे चर्चा हुई उनपर आक्षेप तथ्याधारित ही हैं ! नैसर्गिक न्याय प्रेमी होने के कारण यह संज्ञान मुझे है कि उनपर आक्षेप क्यों लगा रहा हूं और उन्हें भी यह संज्ञान है ! वे जबाब दे सकते हैं ! मैं उनके जबाब की प्रतीक्षा में हूं !

    बदलाव को रोक पाने में सब असमर्थ होते हैं इस निष्कर्ष तक पहुंचने वाला मैं प्रथम व्यक्ति नहीं हूं ये निष्कर्ष कमोबेश सबका है ! यही बात मैं चर्चारत सुधिजनों को तीव्र सुझाव बतौर याद दिला रहा हूं ! याद किन्हें दिलाया जाना है और क्यों ? तथा क्या ? यह कार्य आप भी करते होंगे ! याद दिलाए जाने को आप चुनौती फेंकना कहना चाहें और आपको चेतावनी शब्द अच्छा लगता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं ! बहरहाल मैं इसे 'याद' और 'तीव्र सुझाव' ही कहना पसंद करूँगा क्योंकि आलेख लिखते समय यही फीलिंग्स मुझमें थीं !

    नहीं नहीं :) आप मुझ पर कोई नये नये अवगुण नहीं मढ़ रहे हैं ! मैं इसे विमर्श का हिस्सा मान रहा हूं :)

    विमर्श में हिस्सा लेना अहम है ! असहमतियों से वैचारिक परिष्कार की संभावनायें बनती हैं ! असहमतियां ज्ञान की परिशुद्धता के द्वार खोलती हैं ! असहमतियां हमें चिंतन सामर्थ्य देती हैं ! असहमतियां हमारे मनःसंसार को व्यापक करती हैं ! एक विद्यार्थी के रूप में मेरे जीवन में इनका सदैव स्वागत है !

    पुनः शुभकामनाओं सहित !

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  37. @'अरे नहीं ! मुझे तो ये भी पता नहीं कि आप देह डरपोक हैं :)

    क्यों जानकारी का लोपन कर रहे है अली सा :) बैसवारी पर चर्चा के दौरान आपने परीक्षा कर ही ली होगी, आखिर यह पोस्ट भी उसी चर्चा से उत्प्रेरित है। :) और अब आपको पता चल ही गया है तो स्वीकार करने में क्या हर्ज है, वाकई एक बच्चे की मानिद मैं अनावृत स्त्रीदेह से भयभीरू हूँ, पोर्न के बारे में सुनने से ही डरता हूँ। अल्पवसना स्त्री चित्रों पर अनायास नजर पड जाए तो उस रात यह सपना आता है जैसे घनघोर जंगल में निर्वस्त्र स्त्री पुरूष का मेला उग आया हो। न किसी को भूख है न कोई सर्दी-गर्मी से बचने की इच्छा। न कोई काम। बस रतिमग्न। देखता हूँ वृक्षों पर फूल की तरह उगते स्त्री-पुरूष वे आपस में टकराते फल बनते और शीघ्र ही भूमि पर गिरकर सड़ने लगते। मैं डर के मारे सींहर कर जाग उठता। इसीलिए डरता हूँ।

    हमें कोई आपत्ति नहीं जब यह पोस्ट आपके सीमित और लक्षित सुधिजनो के लिए है आपके सुविचारित गणनायुक्त आधार पर आक्षेप कटाक्ष और निष्कर्ष है। जवाब आना मुश्किल है पर आपके साथ हम भी प्रतीक्षारत रहेंगे।

    @याद दिलाए जाने को आप चुनौती फेंकना कहना चाहें और आपको चेतावनी शब्द अच्छा लगता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं !
    - जब आपको आपत्ति नहीं तो रहने दीजिए। असम्बद्ध लगने पर देखा जाएगा। :)

    @असहमतियों से वैचारिक परिष्कार की संभावनायें बनती हैं !

    -इन वैचारिक परिष्कार सम्भावनाओं का आप उच्छेद कर चुके है यह कहकर कि सभी के अपने अपने सोचने के ढ़ंग होते है सभी के अलग अलग सामाजिक आचार विचार होते है नैतिकताओं के सबके अपने अपने मानदंड होते है। अपने ढंग से दूसरों की सोच को सोचने पर मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। अतः परिष्कार,परिशुद्धता आदि की सम्भावनाएँ क्षीण है।

    लेकिन मैं आज की इस चर्चा से प्रसन्नचित हूँ। मेरी जानकारियों में अविस्मर्णीय वृद्धि हुई है ऐसी चर्चा का मेरे जीवन में भी सदैव स्वागत है।

    आभार सहित अनेकों शुभकामनाएं!!

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  38. प्रिय सुज्ञ जी,
    मुझे यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि संतोष जी का आलेख मेरे आलेख का कारण बना ! किन्तु ...
    आपने कहा सो मैंने अभी चेक किया ! आपने बैसवारी पर संभवतः रचना जी , अदा जी और मेरी चर्चा के दौरान मुझे संबोधित किये बिना एक टिप्पणी दिनांक 28.4.12 की सुबह 6.58 पर दी थी चूंकि बातचीत तीन लोगों के बीच चल रही थी तो मुझे लगा ही नहीं कि आप मुझे सम्बोधित कर रहे हैं इसलिए एक संक्षिप्त सा जबाब मैंने आपको सौजन्यतावश सुबह 10.34 पर दिया ! समय के हिसाब से आपकी मुझे संबोधित पहली टिप्पणी 28.4.12 को सुबह 11.39 मिनट पर बैसवारी में छपी जिसे मैंने दोपहर 12.10 पर पढ़ा और जबाब दिया ! इस बीच मैं 28.4.12 की सुबह 11.46 बजे मैं अपना आलेख छापता हूं तो उसका आपकी किसी भी टिप्पणी या आपसे मेरी चर्चा से सम्बंध कैसे हुआ ? चूंकि बैसवारी पर आपसे मेरी पूरी चर्चा ही मेरा आलेख छपने के बाद हो रही थी इसलिए मेरे आलेख का आपसे हुई चर्चा से कोई लेना देना नहीं है और ना ही आप मेरे आलेख में लक्षित / आलोचित व्यक्ति हुए ! अतः कृपा कर यह भ्रम , यदि हो तो , त्याग दें कि अपने आलेख में , मैं आपको भी आलोचित कर रहा हूं ! मुझे लग रहा है कि मेरा आलेख अकारण ही आपके दुःख का कारण बन रहा है जबकि बैसवारी में मेरा आपसे सम्पूर्ण संवाद उसके छपने के बाद का है !

    बैसवारी पर आपसे हो रही चर्चा के दौरान मेरी कई टिप्पणियां विलोपित हो गईं थीं इसकी खबर मैंने संतोष जी को भी दी थी ! इस कारण से मैं किंचित दुखी भी था ! देह डरपोक होने के विषय में अगर मैं आपको बैसवारी में जान पाता तो यहां अपनी टिप्पणी में क्यों कहता ? अब आपने बतला दिया है तो मैंने ( देह डरपोक होने वाला ) आपका परिचय यहीं पाया मानिये :)

    असहमति पर वैचारिक परिष्कार की संभावनायें आपको क्षीण लगती होंगी किन्तु मैं अलग अलग सोचने वालों के मध्य एक ही तरह के सामाजिक परिदृश्य में होने वाली बहस पर असहमतियों की बात कर रहा हूं ! अलग सामाजिक परिदृश्यों / मानदंडों की तुलना और उसपर असहमति की बात मैंने नहीं की ! किसी एक सामाजिक परिदृश्य की तुलना में दूसरे सामाजिक परिदृश्य को आधार बनाकर बहस वैसे भी औचित्यहीन है !

    शुभकामनाओं सहित !

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  39. मैने तो वैसे भी अनुमानित और संदेहात्मक ही कहा था। मुझे लक्षित किया कहना भी परिहास में था। और ऐसे लक्षित आलोचित करते भी तो कोई दुख का कारण नहीं होता, इतने सारे सन्दर्भों से स्पष्टिकरण जरूरी भी नहीं था। मैं मानता हूँ मेरे बतलाने से ही स्त्रीदेह भीरू का मेरा परिचय आपके संज्ञान में आया होगा। अस्तु मुझे कोई शिकायत नहीं, अनावश्यक भ्रम मैं पालता भी नहीं। अपने अबुझ परिहास से आपको दिए अनावश्यक श्रम के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

    वैचारिक चर्चा के दौरान अलग अलग सामाजिक परिदृश्य का वर्गीकरण कर सभी के नैतिक अनैतिक अवधारणाओं को संज्ञान में रखते हुए बहस एक कठिन कार्य है। किन्तु आप चेतन रहकर न्याय कर पाएं तो उत्तम पद्धति है।

    @किसी एक सामाजिक परिदृश्य की तुलना में दूसरे सामाजिक परिदृश्य को आधार बनाकर बहस वैसे भी औचित्यहीन है !
    -औचित्यहीन? तो क्या आदान-प्रदान के लाभ से वंचित ही रहेगे? विकास प्रेरणात्मक तुलना ही न होगी? तो क्या निरन्तर संस्करण प्रक्रिया बाधित ही रहेगी? तो फिर अवश्यंभावी बदलाव किस सामाजिक परिदृश्य के लिए होंगे?

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  40. प्रिय सुज्ञ जी,
    नहीं क्षमा प्रार्थी होने का कोई कारण नहीं बनता ! आपके अनुमान / संदेह या परिहास जो भी कहिये उससे मुझे लगा कि वस्तुस्थिति चेक कर लूं ! इसमें अनावश्यक श्रम कैसा ! यह बात मुझे भी खटक रही थी कि जब आलेख लिखते समय आप या आपके विचार मेरे जेहन में नहीं थे तो यह भ्रम क्यों हो रहा है !

    तुलनायें बेशक अध्ययन की महती प्रणालियां हैं पर मुझे लगता है कि वह सभी परिस्थितियों में सम्यक निर्णय तक पहुंचने नहीं देतीं ! अतः इनकी उपादेयता पर चर्चा फिर कभी !

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  41. आधी रात को इत्ता सब एक साथ पढ़ना समझना संभव नहीं
    तात्कालिक टिप्पणी अंतिम तस्वीरों के लिए कि
    ये कहीं से भी अश्लील नहीं लगीं मुझे.
    बचपन से ऐसे ही माहौल में पला बढ़ा.
    कुछ अटपटा नहीं लगता
    रही बात उभार की सनक वाले चित्र की
    तो शायद वह पचा नहीं खोखली सोच वालों को
    अगर खूबसूरती देखने वालों की आँखों में होती है तो अश्लीलता भी .....
    शेष फिर

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    उत्तर
    1. "अगर खूबसूरती देखने वालों की आँखों में होती है तो अश्लीलता भी"


      शेष फिर - क्या पाबला जी आपने तो कहानी यही खत्म कर दी :) संक्षिप्त सुन्दर और टिकाऊ प्रतिक्रिया !

      हटाएं
  42. ताज्जुब है, ये पोस्ट और बहस कैसे चूक गयी?
    अली साहब, आपसे गुज़ारिश है कि अपनी पोस्टों में कोई चित्र ज़रूर लगायें, चाहे वह कितना ही छोटा और एबस्ट्रेक्ट क्यों न हो. बुकमार्किंग में आसानी होती है.

    जवाब देंहटाएं