शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

भला क्या चाहता हूं मैं ?


कई बार लगता है कि जैसे बाहर से कहीं ज़्यादा अंदर का अंधेरा गहरा रहा हो , फिलहाल आकाश में चांद नहीं है और मेरे पास खुद के सवालों के जबाब भी नहीं ! भला क्या  चाहता  हूं मैं ? पहले पहल उसे सुनते हुए सुरों का ख्याल रहता था , अब सुरों से पहले उसे सुनते हुए दूसरे लोगों की सूरत निगाहों में तैरती है ! एक भटकन सी है कि मेरा ध्यान उस आलाप से विचलित हुआ जैसा , जिसका कि मैं शैदाई होने का दावा करता हूं ! वो पहले भी मेरे पसंदीदा गायकों में से एक था और अब भी है ... पर मैं हूं कि उसकी गायकी पर पहले जैसा फोकस नहीं कर पा रहा हूं ! इधर वो गा रहा है और मैं उसे सुन कर भी अनसुना किये जाता हूं ! महफ़िल में मौजूद दूसरे श्रोताओं के चेहरों पे मैं वही तसल्ली , वही तस्कीन और उसकी गायकी पे मुग्धता के भाव ढूंढता हूं  , जो कभी , उसे सुनते हुए मेरे चेहरे पे रहा करते होंगे  !

मुझे ख्याल नहीं कि इस वक़्त उसने कौन से शब्द उचारे हैं ! मैं तो बस उन चेहरों में एन अपने जैसी क़द्रदानियों की मौजूदगी के सबूत देखना चाहता हूं ! मैं संतुष्ट होना चाहता हूं कि महफ़िल में कोई एक चेहरा भी उससे विरक्त नहीं है !  उसके वास्ते , मुझे तलाश है , सारे के सारे चेहरों में स्मित हास्य की ! शायद मैं चाहता हूं कि मेरी पसंद ही सबकी पसंद हो वर्ना मैं उसे सुनने के बजाये दूसरी सूरतें क्यों ताकता रहता ? उन दिनों जबकि मैंने उसे पहले पहल सुना होगा तब मेरे ध्यान में केवल उसके सुर हुआ करते थे तब किसी दूसरे श्रोता का वज़ूद मेरे ख्यालों की दुनिया से बाहर हुआ करता पर अब ,जबकि मैं उसके सुरों का मुरीद हूं  ! मेरा फोकस उसके सुरों के बजाये उन श्रोताओं पर है जोकि उसे सुन रहे हैं  ! उन चेहरों में , मैं अपने जैसी साम्यता देखना चाहता हूं  ! यक़ीनन मुझे नागवार गुज़रेगा जो मैं किसी श्रोता को ,उसे और उसकी गायकी को नापसंद करते देखूंगा  ! 

मुझे पता नहीं कि ईश्वर वाकई में है या कि नहीं , पर दुनिया में उसके चाहने वाले तो मौजूद हैं ही , उसके होने की गवाही को लेकर  ! उन्हें ज़रूर ईश्वर के होने की अनुभूति हुई होगी पहले पहल और फिर वे भी अनुरक्त हुए होंगे उस पर , ठीक उस तरह से जैसे कि मैं इस बंदे के सुरों पे अनुरक्त हुआ था ! क्या पता , शायद ,अब वे भी , ईश्वर पर फोकस नहीं कर पा रहे होंगें , मेरी मानिंद ! मुमकिन है कि उन्हें भी खुद की पसंद से साम्यता और मुग्धता रखने वाले चेहरों की तलाश होगी , कदाचित वे भी विचलित हो गये होंगे ईश्वर से , अपनी जैसी निशानियों की तलाश में !  अपनी पसंद के ईश्वर के प्रति किसी बंदे की अरुचि उन्हें भी नागवार गुज़रती होगी , ठीक वैसे ही जैसे कि मैं अपनी पसंद के गायक को नापसंद करने वाले चेहरों की तलाश में रहता हूं कि उन्हें चीन्ह कर उनसे नफरत कर सकूं !  निश्चय ही हमारे अनुराग , हममें , हमारी अभिरुचियों के दायरे से बाहर के इंसानों के प्रति घृणा के बीज बोते हैं  ! हमारी आसक्ति की तीव्रता हमें आसक्ति के केन्द्र बिंदु से विचलित करती है , हमें आसक्ति के केन्द्र से इतर साम्यता की तलाश और विषमता के प्रति असहिष्णुता  में  फोकस करने के लिये बाध्य करती है  ! 

मुझे पता नहीं कि पसंद और प्रेम की शुरुवात के बाद के इन हालात में इंसानों को इनके मूल आकर्षण बिंदु से भटका हुआ , शायद , अंधभक्त जैसा कोई संबोधन दिया जा सकता है कि नहीं ? या फिर ये पसंदों की गिरोहबंदी का कोई मरहला है  ?  जो इंसानों के दरम्यान नफरतों के द्वार भी खोलता है  ? सुरों  , मजहबों , राजनीति , जीवन दर्शनों , वगैरह वगैरह में , जहां तक निगाह दौडाऊं  कमोबेश यही सूरत नज़र आती है !  तो क्या दुनियां इन दिनों वैसी ही मनःस्थितियों से गुज़र रही है जैसे कि मैं एक गायक का मुरीद होकर भी उससे विचलित जैसा  ?  डगर से भटका हुआ  ?

63 टिप्‍पणियां:

  1. निश्चित ही यह आसक्ति अलग तरह की है.इसमें आप जिसे चाहते हैं,पूजते हैं,मानते हैं ,उसकी ओर पहले उसके गुणों की तरफ ध्यान देते हैं बाद में उसकी चाहत के पैमाने की टोह या थाह लेते हैं.उसके प्रति आसक्ति से स्वयं तो विरत हो जाते हैं और उससे जो विरक्ति दिखाते हैं उनसे घृणा !

    दूसरी ओर एक दैहिक-सुंदरता भी है जिसमें अपने अलवा कोई और आसक्त होता है तो हमें पीड़ा होती है !

    आप जिस विचलन वाली मनोदशा में जी रहे हैं,उससे कम जुदा मेरी नहीं है !

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    1. शानदार प्रतिक्रिया ! आपने दैहिक सौंदर्य के हवाले से , प्रविष्टि में उल्लिखित मनोदशा के द्वैध को रेखांकित किया है ! अस्तु साधुवाद !

      ...पर आप विचलन वाली मनोदशा में क्यों हैं :)

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    2. जब से आपका साया मिला है,
      थोड़ा-सा पायादार हुआ जाता हूँ !

      सोचता हूँ कुछ,करता हूँ कुछ,
      सिमटा हुआ था,विस्तार हुआ जाता हूँ !

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    3. वाह! संतोष जी। आज तो आपने कमाल कर दिया!

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    4. कमाल तो हम रोज़ करते हैं,
      आप नज़र-अंदाज़ करते हैं,ये और बात है !!

      आभार !

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  2. "कभी ए हकीक़ते मुन्तज़िर, नज़र आ लिबास मजाज़ में,
    के हज़ारो सजदे तड़प रहे, है मेरी जबीने नियाज़ में."

    क्यों न हम अपने पसंदीदा के ही पसंदीदा होने की कोशिश करे, अपने अईनाए दिल को शिकस्ता करके ?

    'संतोष त्रिवेदीजी' ने भी ख़ूब ध्यान खींचा है दैहिक या भौतिक सुंदरता की तरफ, बाहर और अंदर दोनों के अंधयारे कम करने के लिए !
    http://aatm-manthan.com

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    1. खूब पकड़ा आपने,मुझे भी ऐसा ही लगता है कि संतोष त्रिवेदी जी इन दिनों भौतिक सौंदर्य के मोहपाश में हैं :)

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    2. न किसी की चाह है,न इन्तज़ार है,
      अपने को ढूँढता ,होशियार हुआ जाता हूँ !

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  3. पढ़ कर इस मनोदशा में नहीं पहुंच सका, इसलिए आगे जब इस तरह का सघन भाव बने, तब फिर पढूंगा.

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    1. मैं भी देखते सुनते हुए ही इस मनोदशा में पहुंचा था पढकर नहीं :)

      आशा करता हूं कि संस्कृति कर्म / लोकरंग संसार में जीते हुए किसी एक दिन , आप में भी ऐसे ही भाव घनीभूत होंगे :)

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  4. सचमुच, सारी दुनिया ही इन दिनों भटकी-भटकी सी नजर आ रही है। मुझे खुद भी शामिल करना मत भूलिएगा इसमें :)

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    1. जो खुद ही भटकन में शामिल होने का दावा करें , उन्हें भूलना कैसा :)

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  5. मन को भी ट्रेनिंग की ज़रूरत होती है. पर ये है कि शरारती बच्चों की मांनिद ही, ट्रेनिंग के बाद भी बदमाशियों पर उतर ही आता है इसलिए ज़यादा ध्यान देने की ज़रूरत नहीं ☺ लौट आएगा वापस...

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    1. काजल भाई ,
      ज्यादा या कम ध्यान की समस्या नहीं है ये सब तो बे-ध्यानी में होता है :)
      हो सकता है कि ये सब ट्रेनिंग के कारण ही स्वचलित मोड में होने जैसा लग रहा हो !

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  6. सारी कायनात मुझे चाहे ये अच्छी बात है
    मगर तुम चाहो तो और भी अच्छी बात है

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  7. वो जिधर देख रहे हैं, सब उधर देख रहे हैं,
    हम तो बस देखने वालों की नज़र देख रहे हैं!
    /
    सीमों द बुवाँ ने जो बात नारी-स्वभाव के सम्बन्ध में कही थी, उसे यूनिवर्सल तौर पर जेंडर से परे कहा जाए तो कोई जब किसी को सम्पूर्णता से प्यार करता/ती है तो उसकी (चाहने वाले की)नज़र उसकी हर उस नज़र में समाई रहती है जो वह दूसरों की ओर उठाता/ती है..
    /
    एक सुलतान का सिपाही किसी कि मोहब्बत में मुब्तिला था. इत्तेफाकन सुलतान भी उसे चाहते थे.. उसने अपने सिपाही और उसकी माशूका को सज़ा देकर बदला लेना चाहा. सज़ा ये तजवीज़ की गई कि दोनों को एक दूसरे के साथ, एक दूसरे के रू-ब-रू बाँध दिया जाए. बताते हैं लगातार कई दिनों तक बंधे रहने के बाद जब उन दोनों को आज़ाद किया गया तो वे अपने अपने रास्ते चले गए. जिन्हें देखते हुए आँखें न थकती थीं, उन्हें ताउम्र दुबारा नहीं देखा!!
    /
    आसक्ति..अनासक्ति.. विरक्ति.. या पता नहीं क्या!!

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    1. एकदम मुनासिब शेर और माकूल उदाहरण ढूंढ कर लाये हैं आप !
      इसे आसक्ति से विरक्ति तो नहीं कहूँगा पर आसक्ति के लिए समर्थन / अपने जैसे समर्पण , की तलाश में आसक्ति के प्रति उदासीनता / निस्पृहता जैसी भावना तो है ही !

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  8. शायद कुछ लोगो में दूसरों पर नियंत्रण की भावना प्रबल होती है...जिस चीज़ में भी उनकी आसक्ति है...उसका आनंद ना लेकर यह देखने में लगे होते हैं कि दूसरों में भी वैसी आसक्ति है या नहीं...और अगर नहीं है..तो फिर वह उनकी नफरत का पात्र बन जाता है.

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    1. सटीक !
      एक कहानी याद आ रही है , पत्नी अपने पति की खूबसूरत सहकर्मी के सामने खुद को बहुत हीन और पति को स्मार्ट समझती है , परन्तु जब वह देखती है कि उक्त खूबसूरत महिला की उसके पति में कोई रूचि नहीं तो उसकी ईर्ष्या समाप्त हो जाती है और वह अपने पति को खुद से कमतर आंकने लगती है !

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    2. रश्मि जी ,
      आपका नियंत्रण की भावना वाला तर्क काबिल-ए-क़ुबूल लग रहा है !

      @ वाणी जी ,
      ये पत्नियां :)

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    3. उक्त कहानी पत्नी के बारे में थी , वरना यह मानसिकता पति /पत्नी , प्रेमी /प्रेमिका , सखा /सखी के लिए भी एक समान ही है :):)

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  9. आज ही मनोज जी के ब्लॉग पर पढ़ा ... अत्यधिक प्रेम अनिष्ट की आशंका व्यक्त करता है।
    वैसे मैं मानती हूँ आत्मिक प्रेम निकटता या दूरी से घटता/ बढ़ता नहीं ...जो बदलता है वह कुछ और हो सकता है !!!

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    1. अधिक प्रीति मन भा संदेहा....तुलसी

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    2. वाणी जी ,
      यहां प्रेम की घट बढ़ इश्यू नहीं है ! आलेख में अपने आसक्ति केन्द्र के प्रति बाहरी समर्थन जुटाने के भाव के साथ साथ ही समर्थन ना देने वालों के प्रति विद्वेष जागने की बात कही गई है ! कहने का मतलब सिर्फ इतना जानिये कि हम जिसे समर्पित हैं उसके लिए दूसरों का समर्पण ढूंढते वक्त हम खुद अपने समर्पण को फोकस नहीं करते हैं :)

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  10. हल्के फुल्के ढंग से बात शुरू की आपने और कहां से कहां खींच ले गये! ईश्वर है इसमें संदेह नहीं। ईश्वर को देखने वाले भी हुए, इसमें संदेह नहीं। संदेह है तो बस स्वयम् पर है कि हम इस लायक नहीं हुए कि ईश्वर को देख सकें। हमने किया बस इतना कि ईश्वर के नाम पर उसके घर बना दिये। ये तेरा घर, ये मेरा घर.. के बीच ईश्वर को ढूँढते रहे। हमार अच्छा तुम्हारा खराब, कहते रहे। एक दूजे पर संदेह करते और आपस में झगड़ते रहे। कभी खुद को ईश्वर के करीब नहीं ला पाये। कुछ ऐसा नहीं किया कि ईश्वर का अहसास भी हो सके। किया तो सिर्फ संदेह। अपने पर विश्वास और दूसरों पर संदेह करने की मानसिकता ने हमे ईश्वर से महरूम कर दिया। संगीत में डूबे ही नहीं बस झंकार सुनाते रहे। अपनी पसंद को ही सर्वोच्च कहते रहे। चाहते रहे कि दूसरा भी उसे वैसे ही पसंद करे। पूरी दुनियाँ वैसी ही हो चली है। एक की मुरीद होकर विचलित सी..डगर हीन।

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    1. मुझे क्या पता था कि मैं डगर च्युत और आप डागर युत हैं :)

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  11. मैं तो बस उन चेहरों में एन अपने जैसी क़द्रदानियों की मौजूदगी के सबूत देखना चाहता हूं ! मैं संतुष्ट होना चाहता हूं कि महफ़िल में कोई एक चेहरा भी उससे विरक्त नहीं है---

    यह आसक्ति तो हद से गुजर जाने जैसी है । :)
    सुनते आए थे कि --तुम्हे कोई और देखे तो जलता है दिल ।
    लेकिन तुम्हे कोई और क्यों नहीं देख रहा --इसमें दिल क्यों जलाएं !

    संगीत का जादू तो सुनने में है --आँख बंद करके ।
    आज भी उस भिखारी की आवाज़ नहीं भूला हूँ जो ३० साल पहले घर के आगे रफ़ी की आवाज़ में गाते हुए भीख मांग रहा था । क्या जादू था उसकी आवाज़ में !

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    1. यह भी कि --संगीत जाति या धर्म से परे है । इसमें घृणा के लिए कोई जगह नहीं है । इसी तरह ईश्वर के प्रति आसक्ति भी घृणा का श्रोत नहीं होना चाहिए । इस मामले में आपका चिंतन सही है ॥

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    2. दराल साहब ,
      जलन खोरियां संतोष त्रिवेदी जी वाली फील्ड है यानि कि भौतिक सौंदर्य ! हमने उस पर हाथ नहीं डाला वर्ना हम भी जलनखोर हो सकते थे :)

      अपनी मुराद तो टैलेंट का मुरीद होने से है और चाहते हैं कि दूसरे भी उसी टैलेंट के वैसे ही मुरीद दिखाई दें जैसे कि हम :)

      हटाएं
    3. नि:संदेह आसक्ति घृणा का स्रोत नहीं होनी चाहिये आपसे सहमत !

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  12. उत्तर
    1. पकड़ कर डाल तो दिया है टिप्पणी के पिंजड़े में :)

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  13. वैचारिक सहिषणुता की जरुरत पर लिखा
    चिंतन परक आलेख।अक्सर यही देखा गया है कि 'लोग
    बुरे नहीं होते धारणाएँ बुरी होती हैं',....
    एक तू है ,बात भी सहता नहीं
    एक हम हैं तेरा ग़म भी सह गए ।
    तेरी मेरी चाहतों के नाम पर
    लोग कहने को बहुत कुछ कह गए।

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    1. रोहित जी ,
      आपकी शानदार प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार !

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  14. आजकल मुस्करा के ही स्मार्ट बन रहे हैं आप !

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  15. .
    .
    .
    निश्चय ही हमारे अनुराग , हममें , हमारी अभिरुचियों के दायरे से बाहर के इंसानों के प्रति घृणा के बीज बोते हैं ! हमारी आसक्ति की तीव्रता हमें आसक्ति के केन्द्र बिंदु से विचलित करती है , हमें आसक्ति के केन्द्र से इतर साम्यता की तलाश और विषमता के प्रति असहिष्णुता में फोकस करने के लिये बाध्य करती है !

    मुझे पता नहीं कि पसंद और प्रेम की शुरुवात के बाद के इन हालात में इंसानों को इनके मूल आकर्षण बिंदु से भटका हुआ , शायद , अंधभक्त जैसा कोई संबोधन दिया जा सकता है कि नहीं ? या फिर ये पसंदों की गिरोहबंदी का कोई मरहला है ? जो इंसानों के दरम्यान नफरतों के द्वार भी खोलता है ? सुरों , मजहबों , राजनीति , जीवन दर्शनों , वगैरह वगैरह में , जहां तक निगाह दौडाऊं कमोबेश यही सूरत नज़र आती है !


    एकदम सही पकड़े हैं आप, अपने अनुराग, अपनी आसक्ति, अपने फलसफे, अपने निष्कर्षों को इतना गंभीरता से लेने लगते हैं हम कि उनसे इतर कोई भी राय हमें नागवार सी लगती है... और बातों की तो जाने दीजिये आहार जैसे मामले पर भी बहुत शाब्दिक हिंसा दिखती है कहीं कहीं... 'लाइट लो यार'... खुद को भी और दूसरों को भी...किसी भी चीज को ज्यादा सीरियसली लेने से ही बबाल होता है... जिंदगी में हर रंग तभी खिलेगा...



    ...

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    1. आहार वाले मसले में शाब्दिक हिंसा को खूब पकड़ा आपने :)
      लाईट लेना ही सहजता है !

      हटाएं
    2. वास्तव में सही पकड़ में आया है।,
      अपने ईश्वर या अपनी मनोग्रंथियों को मनवाने के समान ही, आहार मामले में 'प्राणांत हिंसा समर्थक'भी बात जब अपने पर आती है तो उन्हें 'शाब्दिक हिंसा' भी अनहद खलने लगती है और शिकायत भी करता है पर भीतर झांक कर नहीं देखता कि उसकी मनोवृति तो स्पष्ट हिंसक है।

      ऐसी स्थिति में बताएं भला हिंसा से कोई क्यों करे अनुराग? सहिष्णुता मानव के प्रति निभाई जा सकती है पर हिंसक मनोवृति के प्रति नहीं।

      कुछ लोग हिंसा को लाईट लेते है और कुछ लोग हिंसा की कल्पना से ही अन्दर तक आहत होते है।

      हटाएं
    3. जिन्हें प्राणांत हिंसा नहीं खलती उन्हें शाब्दिक हिंसा क्यों खलेगी :)

      कैसी भी हिंसा , तभी अभिव्यक्त होगी जब वो आपके अंदर मौजूद हो :)


      प्रिय सुज्ञ जी , कभी आहार पे पोस्ट लिखूंगा तो उस पर आपके कमेन्ट का इंतज़ार रहेगा ! बहुत पहले कभी एक पोस्ट लिखी थी पर उस पर कुछ खास कमेन्ट नहीं आये थे ! हां उस पोस्ट की वज़ह से एक मित्र ज़रूर बनाया था मैंने :)

      हटाएं
    4. 1.
      All that glitters is not gold ...
      2.
      टके सेर भाजी + टके सेर खाजा = अन्धेर नगरी + चौपट राजा
      3.
      तत्व एक कोयले हीरे में, रख कोयला हीरा खोते न
      फल ज़हरीले दिख पाते तो, बीज कनक के यूँ बोते न

      4.
      कौन सुनेगा, किसको सुनायें, इसलिये चुप रहते हैं
      हमसे अपने रूठ न जायें, इसलिये चुप रहते हैं ...
      5.
      संजो के रखो इसे, हाथ से न जाने दो
      बात निकलेगी तो बेकार चली जायेगी।

      6.
      ये बातें झूठी बातें हैं जो लोगों ने फैलाई हैं ...
      तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं

      7.
      सच मेरे यार हैं, बाक़ी बेकार हैं ... A man is known by the company he keeps.
      8.
      नो कमेंट्स! इधर से गुज़रा था, सोचा सलाम करता चलूँ ...

      हटाएं
    5. स्मार्ट इन्डियन जी ,
      सबसे पहले अफ़सोस , टिप्पणी स्पैम में गई थी पर मुझे देखने में देर हुई !
      आज कुछ अलग ही मूड नज़र आया आपका ! उचित समझियेगा तो बताइयेगा !

      हटाएं
    6. @ कैसी भी हिंसा , तभी अभिव्यक्त होगी जब वो आपके अंदर मौजूद हो :)

      माननीय अली सा,

      हम भी यही तो कहते है कि हिंसा मनोवृति होती है वह कैसी भी हो, प्रथम अंदर मौजूद होती है, मनोवृति के अनुसार उसी प्रकार अभिव्यक्त होती है। इसीलिए प्राणांत हिंसा में मजे लेने वाले, दया के विचारों पर व्यंग्यबाण आदि चलाने वाले लोगों को अपनी मनोवृति के विपरित वचन शाब्दिक हिंसा क्यों प्रतीत होते है?, और क्यों खलते है भला? आश्चर्य इसी बात पर होता है कि अपने द्वारा दी गई परपीड़ा इन्हें न महसुस होती है न याद रहती है।

      अली सा,आहार पर आपकी पोस्ट का स्वागत है। मनोयोग से पठन भी करेंगे और कमेंट भी। लेखों के माध्यम से विचार-साम्य मित्र बनते ही है। मित्र बनाना आसान है सहेज कर रखना बडा मुश्किल। मित्र की भावनाओं का आदर सुरक्षित रखना प्राथमिक आवश्यकता होती है।

      आपके इन दोनो मुद्दों से पूर्णतः सहमत!! ( सारी अभिव्यक्ति मुस्कान :)सहित )

      हटाएं
    7. अली जी, सर्दी के मौसम में लगातार कई दिनों तक धूप दिखे तो मूड शायराना होना स्वाभाविक है
      (, जब अपनी पंक्तियाँ कम पड़ें तो बड़े शायरों की भी जोड़ लीं)।
      कुछ खास नहीं (तथा नथिंग पर्सनल एट आल), बस सुज्ञ जी के साथ आपकी बातचीत देखकर अपनी भी दो कौड़ियाँ (टू सेंट्स) जोड़ने का मन किया, विषय हिंसा की श्रेणियों का और आपत्ति हिंसा से अहिंसक असहयोग को भी हिंसा की तोहमत देने के विषय में थी। ऋतेश त्रिपाठी के शब्द उधार लूँ तो -
      यह नया ज़माना मुझे हैरत में डालता है
      जिसका गला दबाओ वही आँखें निकालता है

      सादर,
      अनुराग

      हटाएं
  16. मेरी पसंद सबकी पसंद हो और उतनी ही डिग्री की हो, मुझे तो ये कामना भी एक किस्म की अनुचित\अवांछित तानाशाही ही लगती है।
    पता नहीं मैं पोस्ट के मर्म को समझ भी पाया हूँ कि नहीं, गहन चिंतन है आपका।

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  17. मो सम कौन जी ,
    हाहाहा ! कामनाओं की तानाशाही ! एकदम सही :)

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  18. इश्वर को देखा नहीं तो उसके होने न होने पे विश्वास करूं ये सही नहीं ... कई बार भटकाव अपने आप से ही होता है और तलाश प्रश्नों के भीड़ में खो के रह जाती है ... आसक्ति .. अनासक्ति ... प्रेम ... विरह मन की स्थिति है वो बदलती रहती है समयानुसार ... अंधभक्ति जहां तक एकाग्र होने के लिए अच्छी है वहीं किसी दुसरे के प्रति नफरत की हद तक ले जाए तो भक्ति के मायने खो देती है ...

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  19. आपको, आपकी पसंद, इतनी पसंद है कि आप पसंद करते हैं, वो सबकी पसंद बन जाए...
    इस पसंद को सबकी पसंद बनवाना आपको बहुत पसंद है..उसे कोई नापसंद करे, ये आपको पसंद नहीं...
    आप तो अपनी पसंद, को पसंद करें न, दूसरे चेहरों पर अपनी पसंद क्यों देख रहे हैं..?
    वो पसंद करें या नापसंद...ये तो उनकी पसंद है न...!!
    आप तो बस, अपनी पसंद को पसंद करें...
    एक, सबकी पसंद हो...मुश्किल है...
    एक को, सब पसंद हों...ऐसा हो नहीं सकता...
    हाँ नहीं तो..!!

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  20. shukra hai hum aisi kamna nhi karte ki jo hame pasand ho vahi sabhi ko pasand ho....hum to jeeo aur jeene do mein vishvas rakhte hai...sabhi ki apni apni pasand..apni apni chah :)

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    1. जियो और जीने दो इस संसार के कायम रहने की न्यूनतम शर्त है ! पर हम जो कह रहे हैं वो इसके बाद का मनःविलास है :)

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    2. @ जियो और जीने दो!
      सुन्दर!

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  21. "अपनी पसंद के ईश्वर के प्रति किसी बंदे की अरुचि उन्हें भी नागवार गुज़रती होगी , ठीक वैसे ही जैसे कि मैं अपनी पसंद के गायक को नापसंद करने वाले चेहरों की तलाश में रहता हूं कि उन्हें चीन्ह कर उनसे नफरत कर सकूं" बड़ी ठोस बातें हैं. आपकी पसंद हमें भी पसंद है.

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  22. koi ummeed bar nahi aati,
    koi surat nazar nahi aati.


    apka lekh toote hue man ke lye Madhushala hai...
    har bar ki tarah is bar bhi lajawab.....
    kripya lekhan me mera margdarshan karien !!!

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  23. koi ummeed bar nahi aati,
    koi surat nazar nahi aati.


    apka lekh toote hue man ke lye Madhushala hai...
    har bar ki tarah is bar bhi lajawab.....
    kripya lekhan me mera margdarshan karien !!!

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