मंगलवार, 29 नवंबर 2011

साजण प्रीत लगाके दूर देस मत जात !


अपने ना कुछ से कुछ हो पाने की कोशिशों की दरम्यानी सहूलियात को कभी , निज प्रदर्शन में सुधार के विरुद्ध , आ खड़ी हुई बाधा की तरह से देखा ही नहीं ! मसलन नदी के इस पार से उस पार तक के बीचो बीच हरहरा कर बहने वाले पानी को तैर कर या चल / बैठ कर पार करने के विकल्पों में से यदि किसी एक को चुनना हो, तो फिर चुना गया कोई भी विकल्प ना चुने गये विकल्प की तुलना में ज्यादा बेहतर और आरामदायक ज़रूर होना चाहिए ! इस हाल में ना चुने गये विकल्प में जो भी कठिनाई तुलनात्मक रूप से सन्निहित  रही होगी, वह निश्चित ही मेरे दैहिक सामर्थ्य के विस्तार का कारण बन सकती थी ! कहा यह जा सकता है कि मैं, दूसरे विकल्प को ना चुनते वक़्त अपनी दैहिक क्षमताओं के विस्तार के प्रति हतोत्साहित था याकि उस पार जाने के लिए मेरे पास पर्याप्त मानसिक संबल नहीं था !  मुद्दा यह कि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सुविधा सम्पन्नता एक अर्थ में बाधाओं के विरुद्ध मेरी शौर्यहीनता या मानसिक दुर्बलता  भी कही जा सकती है ! 

अगर नदी के उस पार जाना मेरे लिए अबुद्ध से बुद्ध हो पाना भी  हो , तो क्या मैं एक पुल / एक नाव की बेहतर सुविधा को ना चुन कर खुद ही तैर कर पार लगना चुनूं ? बुद्ध (नरेंद्र) ने नाव चुनी और साधु पानी पर पैदल चलना सीखने में ही जीवन के पच्चीस बरस होम कर बैठा, कुछ पैसा बनाम सिद्धि के लिए पच्चीस साल ! बेशक नरेंद्र के बुद्ध हो जाने और साधु के जल सिद्ध हो पाने के मध्य चंद सिक्कों वाले सामान्य बोध / व्यावहारिकता ने ही सामुदायिक सार्थकता बनाम व्यक्तिगत चमत्कारिक उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त किया होगा ! बहस ये कि सिक्के / नाव और पुल बनाम तैरना जैसे दैहिक सामर्थ्य विस्तार के अवसरों में से किसे चुनूं कि बुद्ध हो पाऊं ! गौतम ने भटकते हुए वृक्ष की छांह पाई और मुझे पुल का आसरा है, उस पार जाने के लिए ! अगर  पुल होता तो सोहनी कच्चे घड़े सी भाभी से धोखा ना खाती,  उसे भी उस पार जाना था अपने प्रेम के लिए !

इधर गौतम को बोध, मुझे थोड़ा सा बुद्धत्व और सोहनी को पूर्ण प्रेम चाहिए था ! उधर उद्धव, गोपियों और कान्हा के बीच / अपने आराध्य से जुड पाने की एक मात्र आस ! उद्धव, एक पुल / एक सुविधा / एक माध्यम, सो गोपियों ने उनकी सुनी ही नहीं, बस अपनी कह कर पार उतर गईं ! अगर उस पार जाने का लक्ष्य साफ़ हो तो उद्धव की सुनता ही कौन है ? तब वे केवल एक सुविधा / एक माध्यम मात्र रह जाते हैं ! ज्ञान और प्रेम यदि जागतिक प्रतीत हों और उन्हें लेकर हमारे लक्ष्य स्पष्ट हों तो हमें साधु की जल सिद्धता...भाभी प्रदत्त कच्चे घड़े के विश्वास और उद्धव के निराकार बोध की आवश्यकता नहीं है...पर जहां ज्ञान और प्रेम पारलौकिक छोर की ओर जाने का संकेत दें...वहां नरेंद्र को रामकृष्ण की अंगुली चाहिए ही पड़ेगी ! कठिनाई यह है कि ज्ञान और प्रेम अपने दोनों ही आयामों में अमूर्त है सो इन्हें साधने के लिए हमें बेहतर सुविधा और माध्यमों की आवश्यकता होगी और ऐसे में व्यक्तिगत ऊर्जा का क्षय अनावश्यक ही माना जायेगा ! 

ज्ञान और प्रेम को लेकर मनुष्य की उपलब्धियां शून्य से लेकर असीम विस्तार वाली हो सकतीं हैं और यह भी कि मनुष्य साधारण और असाधारण के बीच केवल अबुद्ध रह जाये ! यह कहना कठिन है कि हम ज्ञान और प्रेम से विरक्त होकर जी सकते हैं पर यह मानना आसान है कि हमें अपने अपने हिस्से का और अपनी अपनी औकात के अनुपात का बोध होना ही चाहिए ! ईश्वर और महिवाल, इहलोक और परलोक, भौतिकता और आध्यात्मिकता हमारे लक्ष्यों की सीमायें निर्धारित कर सकते हैं ! इन दिनों प्रेम और ईश्वर को लेकर एक गीत पर  फ़िदा हूं ! मुझे लगता है कि यह गीत ईश्वर और प्रियतम को एक साथ संबोधित करता है ! प्रियतम / ईश्वर के लिए  प्रियतमा / भक्त का आर्तनाद...कोई सिद्धि नहीं...खालिस प्रेम का पुल...


साजण प्रीत लगाके
दूर देस मत जात
बसो हमारी नगरी
मोंहें सुन्दर मुख दिखलात
कदि आ मिल सांवल यार  वे
मेरे रूं रूं चीख पुकार वे                                    
मेरी जिंदड़ी  होई  उदास वे
मेरा सांवल आस ना पास वे
मुझे मिले ना चार कहार वे
तुझ हरजाई की बांहों में
और प्यार  परीत की राहों में
मैं तो बैठी सब कुछ हार वे
कदि आ मिल सांवल यार वे





टीप : इस गीत पर जिनका भी कापी राईट हो उनसे सखेद , अकादमिक इस्तेमाल की अनुमति  की अपेक्षा सहित ! 

21 टिप्‍पणियां:

  1. इस पोस्ट से पढ़ना शुरू किया तो पीछे..पीछे...पीछे पढ़ती ही चली गई.....अब लौटना शुरू करना है ...पता नहीं कब तक लौट पाऊं यहाँ.....और फ़िर यहाँ से आगे भी जाना हो, शायद उसके बाद....

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  2. आभार!

    क्या पाना है, क्या छोड़ना है इसका गणित वाकई बहुत कठिन है। उसका कोई यूनिवर्सल सूत्र नहीं। हर किसी की अपनी मंज़िल है और अपना मार्ग। किसी को जल पर चलना मात्र दो पैसे की बचत है और किसी के लिये अंतरिक्ष का अध्ययन मानवता पर आसन्न संकट का हल। खेल क्या था, यह अक्सर बाज़ी पूरी होने के बाद ही पता लगता है, और कभी-कभी - कभी नहीं।

    उल्लिखित गीत के बारे में कुछ और जानकारी दीजिये कृपया ताकि आपके पाठक भी सुन सकें। शब्द पढकर अपने एक पुराने प्रबन्धक श्री होतूराम जी की गायी कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं:


    शीर सोण्या परदेस चले
    दूजा यार बनाना नहीं
    याद हमारी जब भी आए
    ख़त लिखण शर्माना नहीं
    चिट्ठी लिखीं, डाक विच डालीं
    दूजे हत्थ फ़डाना नहीं
    जीन्दे रहे ते फिर मिलांगे
    मरे तो दिल से भुलाना नहीं।

    (पंजाबी नहीं आती है इसलिये मूल गीत से अंतर आने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ)

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  3. 'जीवन-दर्शन' को एक सांस में या एक घूँट में पी जाना नहीं है.शायद इसीलिए ये विचार एकबारगी आत्मसात करना या ज़ज्ब करना मुश्किल हो रहा है.
    जैसे आपने इशारा दिया उस कथा का,जिसमें नदी को पार करना ,कोई सिद्धि नहीं, मात्र चंद सिक्कों की उतराई बताई थी,परमहंस जी ने ,पर इस जीवन को पार करना महज़ कुछ सिक्कों की बचत नहीं है !

    किसी ने इस राह को कृत्रिम-साधन(पैसे) से पार करना लक्ष्य बनाया है तो किसी ने स्थायी और टिकाऊ साधन(ज्ञान,ईश्वर-भक्ति) से !यह आप पर निर्भर है कि आप पुल,नाव या योग के द्वारा नदी पार करना चाहेंगे !

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  4. पुल हो... विश्वास भी हो कि यही वह पुल है जो मुझे पार ले जायेगा..पुल पर चलने की कूबत भी हो तो सभी अहंकार त्याग पानी में चलने का अभ्यास करने के बजाय पुल का ही सहारा लेना उचित है। मगर अवसर की यह संभावना उन्हीं के लिए हो सकती है जो जानते/मानते हों कि यह नदी है..हम इस पार हैं..उस पार जाना चाहिए..उस पार ही मुक्ति है।
    आर्तनाद सुनने का प्रयास कर रहा हूँ।

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  5. माशाल्लाह बहुत अच्छा लिखते हैं आप अली साहब.

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  6. @ अर्चना जी ,
    आपकी वापिसी का इंतज़ार है !

    @ स्मार्ट इन्डियन ,
    इस गीत की दो लिंक जो मुझे बेहद पसंद है आपको भेज रहा हूं और पोस्ट में भी लगा दी हैं ! यह पोस्ट महज़ आपकी वज़ह से लिखी गई ! धन्यवाद !

    @ संतोष जी ,
    मुश्किलों को भूलिये , दो लिंक दी हैं , गायकी के अलग अलग रंग चख / सुन / देख कर बताइये कि इनमें से बेहतर कौन है और क्यों है ?

    @ देवेन्द्र जी ,
    इस पार और उस पार की समझ तो न्यूनतम अपेक्षा है इसके बाद उस पार (मोक्ष) का निर्धारण भी ज़रुरी है ! तैरना चलना वगैरह तो इसके बाद के संकल्प / आयोजन हैं !...और सबसे अंत में सफलता या असफलता !

    @ शहरयार साहब ,
    बहुत शुक्रिया !

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  7. यह तो उसी परम सत्य के हाथ है कब कैसी प्रीति भाव कहाँ किसके बीच जगा दे .....

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  8. जाने क्यों याद आये बुल्ले शाह.

    नी मैं कमली आं|
    हाज़ी लोक मक्के नूं जांदे,
    असां जाणा तख्त हज़ारे,
    नी मैं कमली आं|

    जित वल यार उते वल क़ाबा,
    भावें फोल किताबां चारे,
    नी मैं कमली आं|

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  9. नदी के उस पास हरा हो ज़रूरी भी नहीं.... बस हरा दिखता भर है....

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  10. @ अरविन्द जी ,
    यह तो हुआ नियतिवाद ! प्रेम और कर्मवाद पे भी कुछ चिंतन किया जाये :)

    @ दीपक जी ,
    पंजाबी फोल्क और उसमें मौजूद सूफियाना फ्लेवर्स मुझे बेहद पसंद है !

    @ काजल भाई ,
    चाहे इस पार से उस पार या फिर उस पार से इस पार देखें ! ये समस्या दोनों पार वालों की हो सकती है :)

    @ क्षमा जी ,
    शुक्रगुज़ार हूं !

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  11. लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किसी माध्यम का सहारा मानसिक दुर्बलता नहीं होती क्यूंकि कुछ लोगों में लक्ष्य तक पहुँच कर उसे जानने-समझने की इच्छा प्रबल होती है
    तो
    कुछ ,लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग खुद ही बनाना चाहते हैं...और लक्ष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण उनके लिए यही हो जाता है.

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  12. इसी दुविधा के पलों में गुलज़ार साहब हार कर एक ऐसे मोड़ पर बैठ गए जहाँ उन्हें लगा कि
    इस मोड़ से जाते हैं/ कुछ सुस्त कदम रस्ते/ कुछ तेज कदम राहें/
    पत्थर की हवेली तक/ शीशों के घरौंदों को/ तिनकों के नशेमन तक/इस मोड़ से जाते हैं
    हाँ इसमें नदी, पुलिया/पुल का कोई ज़िक्र नहीं है..पर बात वही है.. कैफियत भी वही
    तुम तक जो पहुँचती है/ इस मोड़ से जाती है..
    वैसे भी मिलने-बिछडने का यह इतिहास बाज मर्तबा पीछे से लिखी गयी कहानियां होता हैं... कितनी कहानियां तो बस उसी पुलिया पर दम तोड़ देती हैं और जिनका ज़िक्र किसी ब्लॉग-पोस्ट में भी नहीं होता!!
    आप कहते हैं न कि मुझे बातें याद कहाँ से आती हैं.. आपकी बातों से जैसे अभी टी. शिवशंकर पिल्लै की एक मलयालम लघु-कथा याद आ रही है!! ऐसे ही किसी ने नदी किनारे कुछ पूछा और जवाब न सुन पाया.. कहानी ने कहाँ से कहाँ पहुंचाया उसे और अंत में ज्ञान प्राप्ति हुई उसी गाँव में, उसी नदी के तट पर.. उसी के सामने, उसी के मुख से, वही सब सुनकर, जो शायद उसने उस दिन सुन लिया होता तो बुद्धात्वा की यात्रा पर न निकला होता जो गृहस्थ के रास्ते से होकर गुज़रता होता था!!

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  13. कुल मिला के दुविधा की स्थिति तो है. उपलब्ध विकल्पों में से सही को चुनना भी आसान तो नहीं है.

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  14. जाना कहाँ नहीं है पता तो चलने में और भी आराम ...
    नदी जब बहाव में होती है तो उसे कहाँ पता होता है कि उसे सागर में जा मिलना है, वह तो बस चलती है ,बहती है कि चलना है ...इसी साधारणपण में जीवन आसानी से गुजर जाता है , यदि आपको गुजरना नहीं है , समझना है तो ही सारी दुविधा है !
    सूफियाना गीत सुनना यूँ भी बहुत पसंद है !

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  15. द्वंद्व, मानों मध्‍यम मार्ग का उभ-चुभ रस.

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  16. @ रश्मि जी ,
    पहला पैरा... यह भी संभव है !

    दूसरा पैरा...स्वयं को आजमाने की यह प्रवृत्ति तीन तरह के परिणाम दे सकती है ! सफलता / असफलता अथवा त्रिशंकु होना,यहां तीनों संभावनाओं का प्रतिशत बराबर माना जाये !

    @ सलिल जी ,
    वास्ते, गुलज़ार साहब...वाह,आपका जबाब नहीं !

    वास्ते, टी.शिवशंकर पिल्लै...अदभुत लघु कथा है ! मेरे आलेख पर सबसे शानदार टिप्पणी इसे ही मान रहा हूं ! आपका बहुत बहुत शुक्रिया !

    याद आना और याद रहना दो अलग अलग बाते हैं इसीलिए फिर से कहता हूं आपको इतना सब याद कैसे रहता है :)

    @ आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
    जी सहमत हूं !

    @ वाणी जी ,
    सागर में मिलना अगर लक्ष्य है तो फिर बहना ही बेहतर है ! 'बहने' और 'समझने' इसके बाद 'समझकर बहने' में फ़र्क सिर्फ दुश्वारियों की तीव्रता और दुविधा का ही है !

    आपको सूफी गीत पसंद हैं यह जानकर खुशी हुई !

    @ राहुल सिंह जी ,
    हां यही ! शत प्रतिशत शुद्ध तो नहीं पर चिंतन का अपेक्षाकृत बेहतर रास्ता !

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  17. अली साब ,अभी आपके दिए दोनों लिंक से गीत सुने.जहाँ पहली आवाज़ (कमाल खान) प्रियतम को टेरती लगती है वहीँ दूसरी(अली अब्बास) में सूफियाना रंग ज़्यादा .

    बहरहाल ,बुद्धत्व किसको कहाँ,कितनी कीमत अदा करके मिले ,यह सबके तईं अलग-अलग है.कोई यह कीमत पैसों से अदा करना चाहता है तो कोई खुद को तपाकर !

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  18. विद्वानों के बीच मैं क्या बोलूं! पोस्ट के बारे मे बाद मे बोलूंगी..........सर! नीले रंग के अक्षरों से आँखों पर बहुत जोर पड़ता है.क्या इसे बदला जा सकता है?
    आपकी हिंदी भाषा पर बहुत अच्छी पकड़ है.
    'उस पार' जाने की चाह शायद हर मन मे होती है क्योंकि वो अनदेखा अनजाना है इसलिए उसके लिए हमारी कल्पना हमारी सोच सुखद,स्वर्गिक अनुभूति से पगी है.
    मेरा कृष्णा कहीं है या नही,कौन जाने? एक दुनिया एक शख्स,एक सुकून यहाँ जो नही मिला या जिस रूप की कल्पना थी उस रूप मे नही उसीको अपनी इच्छानुसार रूप दे दिया हमने.
    हमारे गीत,कविताएँ,सारी रचनाये क्या उसी के लिए नही होती? 'उस' तक पहुँचने की पुलिया.करीबी रिश्ते ..यह दुनिया आँखों के बेहद करीब लाइ गई किताब की तरह है जिसके हर्फ़ साफ़ नही दीखते 'वो' दूर है इसलिए 'उसे' पढते हैं हम सब और.....पाना चाहते हैं.
    नही जानती ऐसा क्यों लिख रही हूँ? बस इस समय यही सोच रही हूँ.
    मेरे गीत,मेरी रचनाये,मेरे कमेंट्स तक पुलिया बन जाते हैं 'उस' तक पहुँचने के.
    'उस पार' वो है या ..........????????
    इस लिए कहती हूँ 'अज्ज होणा दीदार माहि दा 'और........वो करीब आ बैठता है.उद्धव,पुलिया,कच्चा घड़ा किसी की जरूरत नही. उसी को कहती हूँ 'पल पल रंगते रंगते मेरे आठो पहर मन भवन रंग रंगरेज मेरे!

    हे भगवान! यह क्या लिखा आपने बहते बहते कहाँ तक चली गई. मेरा कृष्णा आप से झगड़ता. कहता-'यह पागल है इसे रुलाया मत करो...फिर मुझसे भी चुप नही होगी'

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  19. @ संतोष जी ,
    आपका कथन सत्य है !

    @ इंदु जी ,
    वास्ते नीला रंग और हिन्दी भाषा ...
    इस असीम गहन कृष्ण अंतरिक्ष में केवल एक ग्रह नीलवर्ण कहलाता है और मैं अपनी अभिव्यक्ति में उसका ही अक्स होना चाहता हूं ! आपने कहा है सो देखता हूं कि इस धरती का कोई और रंग मेरे हर्फों को रास आएगा भी कि नहीं !
    हिन्दी मेरी मातृभाषा है और मैं खुद ही उसकी पकड़ में हूं :)

    वास्ते शेष टिप्पणी...
    आपके भावों के साथ मैं स्वयं भी बहता हूं इस लिए मेरा बहना ही इसका उत्तर है !

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  20. इस पार - उस पार की बात पढ़कर बच्चन जी की कवितापंक्ति याद आ गई:
    इस पार प्रिय तुम हो मधु है,
    उस पार न जाने क्या होगा।

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