कुछ ही दिन पहले फालोवर्स एक्सचेंज प्रोग्राम की नसीहतें देते, गुर सिखाते रजनीश जी की पोस्ट पढ़ी, इत्तफाक ऐसा कि एन उसी सुबह मैं, टीवी पर इस गाने को दीदा फाड़ अंदाज़ से फालो कर रहा था, लेकिन फालोवर्स के मुद्दे पर नसीहत आमेज़ उस पोस्ट में ऐसा कोई तरीका नज़र ना आया कि " तौबा तौबा इश्क मैं करियां..." पे ज़लवा अफरोज़ नायिकायें मुझे फालो करने के लिए रजामंद हो जायें ! लिहाज़ा इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा , कि मुझमें इस लम्हा वो गुण नहीं कि स्टेज तोड़ रक्स पर आमादा हसीनायें मुझे फालो करें ! तो ये ट्रेफिक, वन वे ही रहेगा ! कोई एक्सचेंज नहीं, कोई सौदागिरी नहीं ! मुझे अच्छा लगा सो अनुयाई हुआ और... वो तो मुझे जानती भी नहीं फिर भला शिकवा कैसा ?
खैर इस पोस्ट को लिखने का मकसद ये भी नहीं, कि भाईजान लोग, मुझपर तरस खाकर, लारा दत्ता और ईशा देवल को मुझे फालो करने पे मजबूर करने के उपाय खोजने लग जायें, बल्कि मैं तो सोच ये रहा हूं, कि टीवी स्क्रीन पर किसी कालखंड विशेष पर पसर गये खास लम्हें, मुझे पसंद क्यों आये ? जबकि मेरा अपना स्वभाव कुछ और ही है...शायद गायन, नृत्य, वादन, ख्याल, ख़ूबसूरती, वगैरह वगैरह के क्लासिकल, सेमीक्लासिकल या फिर सूफियाना होने जैसा...या शायद चिंतन की मौलिकता अथवा शुद्धतावाद पर टिके आग्रह जैसा ! इसके बावजूद उस सुबह मेरी अपनी दीदा दिलेरी की वज़ह क्या रही होगी भला ?
मेरे मन भाये 'तौबा तौबा' नृत्य-गीत के शब्द निश्चय ही एक छोर से प्रकटित हुए होंगे, उसपर आलाप देता कोई अन्य गायक समूह और पार्श्व संगीत किसी दीगर बंदे का ! फिर...नृत्य निर्देशन भी किसी अन्य दिशा से उपजा होगा...तो ? उन खूबसूरत बालाओं का अपना क्या था ? इन सारे टुकड़ों को अपने जिस्मों के फलक पर समोने और अनुकरणात्मक तर्ज़ पर अभिव्यक्त करने के सिवा ? अब कोई लाख कहे कि इसमें मौलिकता कहां है ? ... कहता रहे ! मुझे तो अशास्त्रीय / अमौलिक होकर भी पसंद आया ! यहां तक कि मेरे अपने स्वभावजन्य आग्रह से इतर होकर भी पसंद आया ! सच कहूं तो ये शब्द, आलाप, संगीत, नृत्य निर्देशन, भंगिमाएं , सौंदर्य अपने टुकड़ा टुकड़ा अस्तित्व में औसत से ऊपर नहीं ! ...और मुमकिन है कि ये स्वयं भी किसी दूसरे टुकड़े की अनुकृति मात्र हों तो फिर मौलिकता का दावा भी नहीं बनता ! इसके बावजूद इन सारे के सारे औसत टुकड़ों के एकजुट होते ही मैं सम्मोहित कैसे हुआ ?
संभवतः मैं ये कहना चाहता हूं कि मेरा स्वभाव कुछ भी होता रहे पर मुझे उससे अलग कोई दूसरी और साधारण से घटकों से बनी अमौलिक सी कृति भी पसंद आ सकती है बशर्ते, घटकों में संयोजन बेहतर हो तथा घटना अटूट घट सके ! ख्याल ये कि साधारण होकर भी किसी की पसंद हुआ जा सकता है, उसे अपना अनुयाई बनाया जा सकता है, इस वक्त मौलिकता,अमौलिकता, शुद्धता और शास्त्रीयता जैसे सारे सवाल हाशिये पे चले जाते हैं और चिंतनगत भेद भी कोई मायने नहीं रखता ! मेरा मंतव्य ये है कि साधारण व्यक्तियों के सफल टीमवर्क के सामने असाधारण अथवा श्रेष्ठि होने दंभ काम नहीं करता !
बड़ी ही सूफियाना लगती हुयी पोस्ट है पर है नहीं ....बारीकी से पढने पर बिलकुल जमीनी /कमीनी सचाई समोए हुए है ..कौन कब किसे अच्छा लग जाये ये कौन जाने खुदा ....तभी तो कहा जाता है जोडिया जन्नत में बनती हैं .....
जवाब देंहटाएंहमारे देखे तो ये काम नवाब , काम गुलाम वाला ही मामला है,एक दूसरे की पीठ खुजालने से तो बेहतर की ये खुजली का रोग ही न पाला जाए ....
जवाब देंहटाएं* नाम नवाब, काम गुलाम
जवाब देंहटाएंअली साहब,
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट की आखिरी पंक्ति को हमारा कमेंट माना जाये।
वैसे कहें तो कुछ जुगाड़ भिड़ाया जाये फ़ालो करवाने के लिये? जुगाड़ क्या करना है, मोबाईल कंपनियों को आईडिया भर देना है, देखिये कल से ही मैसेज पर मैसेज आने शुरू हो जायेंगे, खुद को फ़ालो करवाईये इससे, उससे @ Rs.5o\- p.m.:)
@ अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंजमीनात्मक / कमीनात्मक यथार्थ पर आपकी नज़र-ए-इनायत का शुक्रिया ! वैसे जोड़ियों का क्या जहां ? बन जायें ! ...पर सुना ये है कि जन्नत में बनी जोड़ियों की जिंदगी दोज़ख भी हो जाया करती है :)
@ मजाल साहब ,
ख्याल नेक है :)
@ मो सम कौन ? जी ,
प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया ! वैसे दीवानों के लिए @५०/ वाला पैकेज बुरा नहीं है :)
यहां दिखा आपका स्वभाव और आप जिसे स्वभाव मानते हैं वह आपका व्यवहार है, जनाब. यह मेरा नहीं कुछ मान्य फार्मूलों पर घटाकर निकाला गया निष्कर्ष है.(कुरु कुरु स्वाहा पठनीय).
जवाब देंहटाएंऐसी-वैसी चीज हमें भी पसंद नहीं पर आपस की बात बता दें आपको,'दे दे प्यार दे', 'एक दो तीन ... बारा तेरा', 'कजरारे कजरारे' की बात ही कुछ और है, सामने हो तो सब फीका लगता है.
कब किसको कौन कहाँ अच्छा लग जाय ये कहा नहीं जा सकता. इसके पीछे बहुत से कारण होते हैं या कहें तो कुछ अलग सी केमिस्ट्री होती है. मन में हमेशा एक सा भाव नहीं रहता और मेरे विचार से रहना भी नहीं चाहिए. मन में रुका हुआ भाव सड़ नहीं जायेगा क्या?
जवाब देंहटाएंइश्क को तौबा करने का लारा दत्ता और ईशा देवल का यह अंदाज हमें भी पसंद आया था, पर फालो करने की बात भूल गया था। :)
जवाब देंहटाएंहल्के-फुल्के अंदाज में पसंदगी के पहलुओं पर आपने गहरी बातें की है.
@ राहुल सिंह जी ,
जवाब देंहटाएंआपसे आपस की बात वाली उम्मीद ना थी :)
@ विचार शून्य साहब ,
भावों की सडन सेहत के लिए हानिकारक होती है उन्हें बहते रहना चाहिए ! वैसे केमिस्ट्री वाले मसले पर आपसे कुछ खुलासे की अपेक्षा थी :)
@ संजीव तिवारी जी ,
मैंने याद दिलाया कम से कम अब तो फालो करिये :)
उस्ताद जी की पोल खुल गयी है तो अब अपनी असली समझ भी खोल दे रहे हैं ..
जवाब देंहटाएंबस ब्लॉग जगत की पहेलियाँ ही बूझ सकते हैं ये ,और महिलाओं की कविताओं पर मुक्त हस्त नंबर लुटा सकते हैं .
बाकी इनके बस का कुछ है नहीं ,इनका सामूहिक बहिष्कार ही अब श्रेयस्कर है !
रजनीश जी की पोस्ट पढ़ी...मूल बात यह कि चालाकि और वास्तविकता सभी समझ जाते हैं।
जवाब देंहटाएंजो अच्छा लगे फोल्लो करो ... जो न लगे उसे न करो ... हाँ ये सच है कि हर किसी कि अपने अपने पसंद होई है ... और कौन किसी अच्छा लगे ये कोई दूसरा न कहे तो ज्यादा अच्छा ..
जवाब देंहटाएंहम लोग भी कितने खाली किस्म के लोग होते हैं ...मानीटर के पास एक मक्खी भी बैठ जाए तो उसका भी मतलब निकालने चल पड़ते हैं हम.
जवाब देंहटाएं@ रमेश केटीए जी,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
@ देवेन्द्र भाई ,
सही है !
@ दिगंबर नासवा जी ,
बात अपनी ही पसंद की है ! पलट व्यवहार की अपेक्षा सौदागिरी जैसी लगती है !
@ काजल भाई ,
मक्खी मारने वाली कहावत इसी खालीपन को लेकर बनी होगी :)
"साधारण से घटकों से बनी अमौलिक सी कृति भी पसंद आ सकती है बशर्ते , घटकों में संयोजन बेहतर हो"
जवाब देंहटाएंबस यही सार है, साधारण चीज़ों में जो निर्दोषता होती है...वह असाधारण में नहीं आ सकती..वहाँ प्रयास दिखता है...अलग बात है प्रयास भी बहुत उत्कृष्ट हो सकता है...पर सामान्यता की ताज़गी का अपना ही आकर्षण है .
साधारण होकर भी किसी की पसंद हुआ जा सकता है , उसे अपना अनुयाई बनाया जा सकता ..
जवाब देंहटाएंऔर क्या!!
तसल्ली हुई मुझे भी ...!
@ रश्मि जी ,
जवाब देंहटाएंकलाकार से ही उम्मीद बांधी हुई थी कि वो सूत्र पकड़ लें और यही हुआ ! शुक्रिया !
@ वाणी जी ,
खुद से छेड़छाड़ :)
आपके अंदर की कौन सी खूबी कब किसको पसंद आ जाए, कहा नहीं जा सकता। इसमें कोई नियम/शर्त नहीं काम नहीं करती।
जवाब देंहटाएं---------
गायब होने का सूत्र।
क्या आप सच्चे देशभक्त हैं?
अली सा! बाहर था शहर से इसलिए देर हुई..मामला ख़तम हुआ जाता है तो सोचा जल्दी से अपनी बात भी रख दूँ .. अपनी क्या उधर की बातें हैं... पंडित सत्यदेव दुबे ने कहा था एक बार कि सुबाह ऑफिस जाते समय जिस गाने को रेडियो पर सुनकर आप खीझते होते हैं अक्सर शाम को वही गीत आप गुनगुनाते दफ़्तर से घर लौटते हैं.और जिस गीत में यह खिंचाव हो वह असाधारण होता है... आख़िर में ईदुज्जुहा की मुबारक़बाद क़बूल फ़रमाएँ..आपको इस बलिदान और क़ुर्बानी के महान पर्व की शुभकामनाएँ!!
जवाब देंहटाएंलगे रहिए.
जवाब देंहटाएंपसंद का क्या है कुछ भी पसंद आ जाए..
जवाब देंहटाएंजब दिल लगा दीवार से तो परी क्या चीज़ है...
अब देखिये न मुझे आपका लेखन बहुत पसंद है...:):)
अली भाई, ईदुलज्जुहा की बहुत बहुत शुभकामनाऎँ!!!
जवाब देंहटाएंअली भाई , फिलहाल तो इतना ही कहेंगे ईद मुबारक ।
जवाब देंहटाएं@ ज़ाकिर भाई ,
जवाब देंहटाएंइधर से कोई शर्त / नियम नहीं पर आप कुछ भी पसंद तो करो :)
@ संवेदना के स्वर ,
भाई दुबे जी ने सही फरमाया ! आपको भी बहुत शुभकामनाएँ !
@ स्वराज्य करुण जी ,
मित्र की शुभकामनाएं साथ हों तो लगा ही रहूँगा :)
@ अदा जी ,
ये भी खूब कि हमारी लेखनी आपको दीवार की मानिंद पसंद आई :)
@ पंडित जी ,
आपको भी भी अशेष शुभकामनाएं !
@ कोकास जी ,
आपको भी बहुत बहुत शुभकामनाएं !
अली साहब ....आपको और आपके पूरे परिवार को ईद मुबारक ...
जवाब देंहटाएं@ दिगंबर भाई,
जवाब देंहटाएंआपको भी बहुत बहुत मुबारकबाद !
waah
जवाब देंहटाएंwaah
जवाब देंहटाएंनृत्य-संगीत की भंगिमाएं किसी को भी अपनी ओर खींचती हैं , हाँ जो कलावंत हैं उनके टेस्ट धरातल के स्तरीकरण पर टिकते हों तो वह भी गैरवाजिब नहीं !
जवाब देंहटाएं