रविवार, 11 जुलाई 2010

ओ देव...

कहते हैं यहां खर दूषण का राज था कभी , उनकी अपनी रक्ष प्रजा , अपनी रक्ष संस्कृति !  तब रक्ष कुल की युवतियां अपने पति का वरण अपनी मनमर्जी से कर पाने के लिये स्वतंत्र हुआ करतीं !  वेश भूषा...खान पान...रहन सहन के उनके अपने तौर तरीके थे !  देवताओं को यज्ञं भाग देने वाले ऋषि उनके परम शत्रु हुआ करते !  राजकन्या सूर्पनखा इन्हीं परम शत्रुओं के अभयार्थ आहूत देव पुरुषों के प्रेम में क्या पडी , अपने ही कुल के विनाश का कारण बन गई !  उस प्रेमातुर राजकन्या को इस सत्य का भान ही नहीं हुआ कि विजातीय संस्कृतियों में प्रेम और दैहिक संबंधों के स्वीकरण के नैतिक मानदंड भिन्न हैं अतः उसका प्रणय निवेदन ठुकराया जाना निश्चित है...शेष कथा इतिहास हुई !  इसके बाद शताब्दियों का लंबा अंतराल और ...अब तो ये तय कर पाना भी मुश्किल है कि सांस्कृतिक सहवास और सम्मिश्रण के परिणाम क्या हुए ?  कौन शुद्ध रक्ष कुलीन और कौन शुद्ध देव पूजक शेष रहा यहां  !  पर अब भी ... 

कहते हैं ये खर दूषण की धरती है यहां प्रेम से पहले संस्कृति...धर्म...भाषाओं और विजातीयताओं का ख्याल नहीं किया जाता , परिणाम चाहे कुछ भी हो ! पता नहीं वे लोग कौन होंगे जो ये सब पूछ परख करनें के बाद प्रेम करते होंगे पर यहां की स्त्रियां और पुरुष अब भी कैलकुलेटेड प्रेम नहीं कर पाते, बल्कि उन्हें तो प्रेम करना ही नहीं पड़ता , बस हो जाया करता है...ये देस प्रेम की परम स्वतंत्रता का देस है !  उत्तर दिशा से देवता अब भी आते जाते हैं यहां...पर वे किसी यज्ञं और संस्कृति की रक्षा के लिए नहीं पधारते और ना ही प्रेम की किन्हीं खास मर्यादाओं से बंधे हुए  होते हैं ! उनके अपने एजेंडे के पूर्ण होने तक वे राजकन्याओं के प्रणय निवेदन को बाकायदा स्वीकार भी करते हैं ,यहां तक कि उन्हें एक पत्नी व्रत से भी कोई लेना देना जरुरी नहीं रह गया शायद !...संभव है इंसानों के तौर पर अवतार लेते रहने की लंबी और एकरस प्रक्रिया के चलते कुछ इंसानी दुर्गुण उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गये हों  ? 

ऋषि आश्रम का स्थाई सदस्य होने के नाते ऐसी कई प्रेम गाथाओं को रचते हुए देखा है मैंने...लगभग १६-१७ वर्ष पूर्व हमारे आश्रम में एक सुदर्शन देव पुरुष का आगमन हुआ वे काव्य रचते...उनकी ऋचायें , पाषाण खण्डों से टकरा कर अदभुत सम्मोहन संसार सृजित करतीं !  शीघ्र ही वे विवाहोत्सुक युवतियों के आराध्य की तरह स्थापित हो गये !  उनके प्रति युवतियों का प्रबल आकर्षण आश्रम के निकटवर्ती आवास क्षेत्रों के अन्य वाचाल युवकों के रागद्वेष का कारण बन गया !  बिगड़ती हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए,  उन्होंने आश्रम का त्याग कर दिया और वापस उत्तर दिशा की ओर प्रस्थित हो गये किन्तु उनसे अशेष / सीमाहीन प्रेम करने वाली युवती रेत सम देव पुरुष को मुट्ठी में कैद करने की लालसा लिए इधर उधर भटकती रही !  उसकी मुट्ठी से फिसलती रेत के चिन्ह साफ़ नज़र आते और मैं किसी अनहोनी से आशंकित बना   रहता क्योंकि इस धरती का इतिहास...?

शायद समय किसी भी स्पर्श और उसके निशानों को खुरच कर फेंक देने में मददगार हो गया हो !  लिहाजा ताजातरीन घटनाक्रम की सूचना मैंनें खुद उस प्रस्थित प्रेमी को दे दी है और कहा कि ... ओ देव...राजकन्या तुम्हारे प्रेम पाश से मुक्त हो किसी साधारण मनुष्य से शादी कर रही है , फिलहाल इस प्रकरण में प्रेम के लिए कुल विनाश या फिर आनर किलिंग की संभावना समाप्त हुई...भले ही खर दूषण की धरती है ये ! 


18 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी पोस्टें निरंतर गहन संकेतात्मक होती जा रही हैगे भाऊ !
    ये आर्य तो ऐसे ही बेवकूफी भरे नैतिक चिन्तनों से कितने ही सुअवसर हाँथ से गँवा देते हैं ...
    यह मौका भी गया ही समझो !

    जवाब देंहटाएं
  2. मैं केवल पढ़ रही हूँ। हर बार कुछ कहने को हो आवश्यक तो नहीं।
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
  3. उसे देव पुरुष क्यों कह रहे हैं ?

    जवाब देंहटाएं
  4. कुछ समझा ...कुछ नहीं भी समझा ....!

    जवाब देंहटाएं
  5. @रमेशकेटीए जी ,
    आपका कहना सही है किन्तु इधर शब्दों को कपड़े पहना कर बाहर भेजने की आदत पड़ी हुई है !

    @भावना जी , आपसे सहमत !

    @अजय कुमार जी , प्रतिक्रिया हेतु आभार !

    @अरविन्द जी , भगवन...सांकेतिकता/प्रतीकात्मकता अपनी परम्परा में है !

    @समीर भाई ,कुछेक नौकरशाहों नें जबरिया शादी करवाने का प्रयोग किया था जो विफल रहा ! प्राथमिक स्तर पर स्त्रियों के सचेत होने से समाधान की गुंजायश बनती है पर संभावनाएं और भी हैं ,कभी पृथक से चर्चा की जाये !

    @बेनामी जी , स्वच्छंदता और धोखे को अलग अलग करके देखा जाये !

    @नमिरा जी ,सहमत !

    @घुघूती बासूती , नहीं हर बार कुछ कहना बिलकुल भी जरुरी नहीं है ! हमारे लिए आपका अकथन ही काफी है !

    @एसबीएस जी , उन्होंने क्या किया आपको मालूम है पर हमने सौजन्यता नहीं छोड़ी है मित्र !

    @वाणी गीत जी , लिखने में जरुर मुझसे कुछ चूक हुई होगी !

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी चूक नहीं ...हमारी समझ की बात है ...कई बार हम कुछ नहीं भी समझते हैं ...:)

    जवाब देंहटाएं
  7. @ वाणी गीत जी
    देखिये अब तो हम अपनी गलती मान चुके हैं :)

    जवाब देंहटाएं
  8. अली भाई बहुत लम्बा चक्कर घुमाए दिए,
    लेकिन यह भी जरुरी था।


    आभार

    जवाब देंहटाएं
  9. @ ललित भाई ,
    आपके आगमन का शुक्रिया !

    आपके प्रोफाइल में ब्लाग्स की भरमार है मुझे ये समझ में नहीं आया कि इसमें से आपका सर्वाधिक प्रिय ब्लॉग किसे मानूं इसलिए आग्रह कर रहा हूं कोई एक लिंक मुझे दे दे ठाकुर :)

    जवाब देंहटाएं
  10. अली भाई, ये स्त्री देह के लिए लपकते और लार टपकाते कलयुगी देव पुरूष हैं, जिनकी सिर्फ यही संस्कृ्ति है ’यूज एंड थ्रो‘.....

    जवाब देंहटाएं
  11. शब्दों को कपड़े पहना कर बाहर भेजने की आदत बहुत अच्छी है. पढ़ते-पढ़ते लोगों को समझने की आदत भी पड़ जायेगी.
    ..उम्दा पोस्ट.

    जवाब देंहटाएं
  12. आदरणीय अली जी ,

    जैसे ही टीपना शुरू किया बरबस 'मरकस' की याद आने लगी ! थोड़ा दारा , फिर अपने मन को कहा - 'टीपो राजा देखा जाएगा !'

    पहले तो मुझ अज्ञानी को '' ummaten '' का मतलब समझा दिया जाय , सब ऊपर से गुजर जा रहा है !

    पढ़ते पढ़ते एक जगह रुका तो उसके आगे देखा कि '' शेष कथा इतिहास हुई ! '', लिखा हुआ है फिर मेरा आधार ही गड्डमड्ड हो गया | खोया खोया हूँ ! आर्य ! , [ इस शब्द में समस्या होगी तो बता दीजिएगा , आज प्रयोग के तौर पर रख रहा हूँ फिर आगे से सम्हल जाउंगा : -) ] स्थूल-बुद्धि हूँ , इतनी सघन प्रतीकात्मकता को ग्रहण न कर सका ! आपका नया पाठक बना हूँ यह भी एक कारण हो सकता है | आप और ''.............'' ( नाम लिखते डरता हूँ कि फिर ... ) जी में 'गलती मानने ' की होड़ देखकर यह खुशी हुई कि यहाँ मैं अपनी 'सो काल्ड' अहंनिष्ठता के चलते कभी गलती न मानूंगा तो भी मामला 'बैलेंस' रहेगा !

    आपकी प्रोफाइल पर भी पांच ब्लॉग हैं , क्या मैं मुख्य ब्लॉग पर और सही जगह पहुंचा हूँ ?

    आपके यहाँ अनुसरणकर्ता का विकल्प नहीं है , इसलिए आपके ब्लॉग का फीड गूगल रीडर में संजो लिया है | आभार !

    जवाब देंहटाएं
  13. @ दिनेश जी , सही !

    @ देवेन्द्र भाई , शुक्रिया !

    @ आदरणीय अमरेन्द्र जी ,
    आपने टीप कर शुरुआत की देखिये कुछ भी नहीं हुआ :)

    उम्मत=पंथ,स्कूल आफ थाट,एक विशिष्ट दर्शन के अनुयाई!
    उम्मतें इसका बहुवचन है उम्मीद ये कि मेरा ब्लॉग बहु दर्शनों के सह-अस्तित्व का पड़ाव हो!पता नहीं कैसे ये विश्वास है कि वैचारिक भिन्नता/चिंतन वैषम्य की समादृत सहजीविता का विचार मुझे कुछ बेहतर इंसान बनाने में मददगार साबित होगा! पाठकों की बनिस्बत थोडा सा सेल्फ करेक्शनल है ये ख्याल !

    दो गलतियां मानने वालों के साथ एक गलती ना मानने वाला बन्दा इस ब्लॉग के विचार को सार्थक कर गया :)

    कुछ मित्र हैं जो स्टार्ट लेकर थम गये/लंबी नींद सो गये!बस निशानी बतौर उनके ब्लॉग टांगे हुए घूम रहा हूं!हां जय जरुर सक्रिय हैं अब भी! मेरा अपना 'कीबोर्ड''उम्मतें'से भांवरें पाड़ चुका है,बस कभी कभार फ्लर्टिंग कर लेता है :)
    आपका स्वागत है !

    जवाब देंहटाएं
  14. बकौल अरविन्‍द मिश्रा जी 'आपकी पोस्टें निरंतर गहन संकेतात्मक होती जा रही हैगे भाऊ !'

    और हम भक्‍कुवाये ब्‍लॉगर हाईवे में टिरैफिक संकेताक्षरों को बूझने का ही प्रयास कर रहे हैं.

    जवाब देंहटाएं