रविवार, 4 जुलाई 2010

पार: पार: हुआ पैराहने जां : अ'रीना में निओ - ग्लेडिएटर्स ?

अपने प्रोफाइल में पसंदीदा फिल्मों का ज़िक्र करते  वक़्त ग्लेडिएटर्स  टाइप करते हुए मेरी  अंगुलियां कांप रहीं थीं...धड़कने औसत से ज्यादा रफ़्तार पर...और  बेहद  ज़ज्बाती  तौर पर  मैं उन परिजनों के बारे में सोच रहा था,जिनके बच्चे विषम  परिस्थितियों का शिकार होकर सरे बाज़ार बेचे गये होंगे...तब के हालात ,बिकने वाली शय भी इंसान और खरीदार भी ! उन  दिनों प्राचीन रोमन एम्पायर ही क्यों सारी की सारी दुनिया गरीब  इंसानों की मंडी में तब्दील हो चुकी थी  !  वे  बिकते  इंसानों  का क़त्ल करने  के लिये...या फिर इंसानों से क़त्ल हो जाने के लिये ! तमाशाई भी इंसान हुआ करते और तमाशेबाज़ भी !  बारहा सोचता हूं कि तब के हालात ऐसे थे कि पूंजी इंसानों के लिये नहीं बल्कि इंसान पूंजी के लिये बा-आसानी मयस्सर हुआ  करते थे !...शायद पूंजी का आविष्कार ही उन्हें , उनकी औकात दिखाने के  लिये हुआ होगा ? ...कहते हैं वो बर्बरियत का दौर  था जो गुज़र गया ! 

आहिस्ता आहिस्ता नव-सभ्यतायें विकसित हुईं और इंसानियत का  इकबाल बुलंद हुआ ! दुनिया के नक्शे में जुग्राफियाई /  प्रजातीय / धर्माधारित / भाषाई या फिर भिन्न राजनैतिक विचारधाराओं पर आधारित राष्ट्रीयतायें जन्मीं, जिन्होंने पारस्परिक  तुलना में खुद को इंसानियत का सबसे बड़ा अलम्बरदार घोषित करना अपना परम लक्ष्य बना लिया...भले ही अंदरूनी  वास्तविकतायें  कुछ  और  बनी  रही  हों  !  निजी तौर  पर  मुझे  ये  बदलाव  बहुत  बड़ा  दिखता  है , जहां रोमन सम्राटों के  पसंदीदा अ'रीना , बड़े बड़े राष्ट्रों में तब्दील गये हों और 'एम्परर' 'लोकशाहों' का मुखौटा पहन कर अभिनय कर रहे हों ! तब के  परिजनों के बच्चे दासों की शक्ल में बिकते और अब के बच्चे , नौकर / कर्मचारियों की शक्ल में ! खरीदार तब भी इंसान थे,  खरीदार अब भी इंसान हैं ! कुछ छोटे, कुछ बड़े, कुछ चिल्लर और कुछ थोक व्यापारी !  व्यापार की टर्म्स एंड कंडीशन्स में  बड़ा फर्क दिखता है अभी...तब माल की कीमत एकमुश्त चुकाई जाती थी अब रकम माहवाराना किश्तों में तय होती है ! जिस  तरह से बर्बरियत के उस युग में सभी दास ग्लेडियेटर्स नहीं हुआ करते थे लगभग उसी तर्ज़ पर आज भी सभी नौकर  ग्लेडियेटर्स नहीं हुआ करते  ! 

वक़्त का फर्क बहुत लंबा है और सभ्यतायें भी विकसित हुई हैं इसलिए ग्लेडियेटर्स के साज़-ओ-सामान में भी भारी बदलाव  नज़र आता है मसलन तलवार के बदले ए.के.४७ , कलम, टाइपराइटर,कम्प्यूटर्स वगैरह वगैरह और जिरह बख्तर की जगह  वर्दियां / यूनिफार्म वगैरह वगैरह ! मुमकिन है मेरी सोच , मेरा चिंतन उन 'दासों' को मजाक लगे जो बैंकों ,शिक्षण संस्थानों  जैसे शालीन अपेक्षाकृत निरापद  खरीदारों के पास बिके हैं , पर उन दासों का क्या ? जिन्हें रक्षा संस्थानों जैसे रफ एंड टफ  खरीदार नसीब हुए हैं !  बुरा मत मानिये...इंसान तब भी बिकता था और इंसान आज भी बिकता है...पेट के लिये ? अस्तित्व के  लिये ? परिजनों के लिये ? आपको क्या लगता है ?  दुनिया में अ'रीना कहां नहीं हैं ?  ग्लेडियेटर्स कहां नहीं हैं ? तब सम्राट दिलजोई के लिये ग्लेडियेटर्स के तमाशे करते थे आज राष्ट्रीयतायें ,विचारधाराओं और इंसानियत की आज़ादी के नाम से तमाशे  करती हैं ! दिलजोई करने वाला भी इंसान...दिलजोई के लिये शहीद होने वाला भी इंसान ! राष्ट्रीयताओं और विचारधाराओं का  राग अलापने वाला भी इंसान और इस राग पर कुर्बान होने वाला भी इंसान ! शताब्दियों बाद बहाने भले ही बदल गये हों पर  रिज़्क ( रोजी रोटी ) के लिये ग्लेडियेटर्स होना और ग्लेडियेटर्स के परिजनों की पीड़ा शाश्वत है !    

मेरी धरती.. माफ कीजिये...हम सबकी धरती...लहूलुहान, क्षत विक्षत धरती के लिये 'स्लेव' अली गाते रहेंगे "पार: पार:  हुआ पैराहने जां" वे सब गाने के लिये अभिशप्त  हैं ,क्योंकि उनके दिल में रोमान हैं , माशूकायें हैं , बीबियां हैं ,बच्चे हैं , परिजन हैं ,  अस्तित्व की आरजूएं हैं , जिम्मेदारियां हैं !...और हैं...शिद्दत से नफरतें भी ,खरीदारी के ज़ज्बे के साथ ! मैं खुद थक चुका हूं  सोच सोच कर कि दुनिया में अ'रीना कहां पर नहीं है यहां , जहां मैं रहता हूं ,बस्तर भी तो...? हमेशा की तरह अपने अस्तित्व /  अपने परिजनों के लिये मंडियों में बिकते इंसान...शहीद होते...परिजनों को बिलखता छोड़ कर जाते निरंतर...अ'रीना में निओ ग्लेडियेटर्स  ?

13 टिप्‍पणियां:

  1. @ज़ील
    शुक्रिया !
    चूंकि मैं आपका फालोवर हूं इसलिये आपकी हर नई पोस्ट नियमित रूप से पढ़ लेता हूं ! आगे से दस्तखत कर के आया करुंगा ! यकीन जानिये :)

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  2. नितांत गहन विचार है. यह ग्लैडिएटरी हमेशा से ही चलती आई है बस नाम और शक़्ल बदली है...आने वाले कल में भी इससे निजात की उम्मीद नहीं ही की जानी चाहिये. नियति है यह.

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  3. अंतिम पैरा तो काव्य है गुरुदेव!
    लगा जैसे बहुत क्षुब्ध होकर लिखे हैं । कड़वी है लेकिन सचाई है। किसी शायर ने कभी राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु बताया था।
    क्या कीजै? यथार्थ है।

    अविष्कार - आविष्कार

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  4. @ समीर जी ,भावना जी ,
    शुक्रिया !

    @ काजल भाई
    फिलहाल तो नियति जैसी ही लग रही है !

    @ गिरिजेश जी ,
    प्रभु कल शाम से आज अपरान्ह ढाई बजे तक नेट बंद था,ज़रा सोचिये कितना बौखलाया रहा होउंगा मैं:) वांछित सुधार कर लिया गया है !
    आपकी टीप प्रविष्टि का हौसला बढ़ा रही है !

    @ ज़ील
    क्या दुखी होने से पहले , आपने अपना ब्लॉग देखा ?

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  5. इस पोस्‍ट को पढ़ने के बाद अहसास हुआ कि तरह तरह के ग्लेडिएटर्स के बीच एक ग्लेडिएटर्स मैं भी हूं. आदि ग्लेडिएटर्स भावनाशून्‍य बना दिये जाते थे इसलिए उनका परफारमेंस तमाशा योग्‍य होता था, किन्‍तु दुख है कि हमारे जैसे ग्लेडिएटर्स किसी के इशारों में नाचते तो हैं पर भावना व संवेदना हमें मथ डालती हैं. मैंनें अपने तन के ग्लेडिएटर्स को एक कविता में स्‍पष्‍ट किया था कब तक, कब तक होता रहेगा यह प्रयोग

    बस्‍तर में ग्लेडिएटर्स की हालत बदतर है, जज्‍बा तो है ही नहीं. फिर भी अपने लाशों को अस्तित्व / परिजनों के लिये मंडियों में बेंचने के लिए विवश हैं. उनका जज्‍बा हार्वट फ्रास्‍ट के आदिविद्रोही जैसा नहीं है.

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  6. हाँ इस दौर में यह मनुष्य ग्लेडियेटर ही तो है अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता हुआ ।
    " पुरातत्ववेत्ता " मे यह पोस्ट देखी या नहीं
    http://sharadkokas.blogspot.com

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  7. अजीब सी किक दे गयी ये पोस्ट.....दिलचस्प.....आखिरी लाइने तो खासी गज़ब है ....

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  8. सचमुच ये सारी फिलासाफी पेट की ही है -हम ग्लैडियेर्स से जोम्बी बनने को अभिशप्त हैं ! आपकी पीड़ा उभर आयी है !

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  9. @संजीव तिवारी ,क्षमा जी
    शुक्रिया !

    @शरद कोकास, शुक्रिया ,अभी पढता हूं भाई !

    @द्विवेदी जी
    समझ की ही समस्या है :)

    @अनुराग जी
    कोई ज़ज्बाती बन्दा ही रिएक्ट कर सकता है आपकी तरह ! शुक्रिया !

    @अरविन्द जी
    शुक्रिया बात पेट की है और बहुत दूर तक जाती है

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