लोक-गल्प अच्छे अच्छों को निपटाने की गरज़ से गढ़े और प्रसरित किये जाते है कभी सदेच्छाओं के साथ और कभी कभी सुनियोजित दुर्भावना के तहत ! इंसानों से लेकर देवता तक इनकी मारक परिधि से बाहर नही और वैविध्य इतना कि श्लीलता से लेकर अश्लीलता तक , शब्द से लेकर अपशब्द तक और सौजन्यता से लेकर धृष्टता तक के सारे के सारे भाव इनके अधिकार क्षेत्र में शामिल माने जाते हैं ! गौर से देखा जाये तो ये भाषा और व्याकरण की सीमाओं से इतर और अंतरवर्ती सभी क्षेत्रों मे व्याप्त हुआ करते हैं , लोक-गल्पों का लोकव्यापीकरण , समय और जुगराफिया के दायरे का मोह्ताज नही ! इन्हें गली मुहल्लों की क्षुद्रता से लेकर विश्वव्यापी विराट मंच तक अपनी विजय पताका फहराते हुए देखा जा सकता है ! कोई आश्चर्य नही कि लोक-गल्प जिस पर भी आरोपित कर दिये जायें वह पीढियों तक इनके पाश से बंधा रह जाता है , बल्कि आरोपित व्यक्ति / परिवार / कुल / गांव / समाज अपनी निज पहचान के बजाये आरोपित गल्प से पहचाना जाता है ! जैसे पठान / सरदार या लखनऊ कहते ही समलैंगिकता की लोक-गल्प मुखर हो उठती है जोकि उनकी बहादुरी और नफासत जैसी विशेषताओं को हाशिये पर छोडती चलती है ! वैसे ये सम्भव है कि गल्प का स्रोत उसी इकाई की अच्छी या बुरी विशेषताओं मे से कोई एक हो !
लोक-गल्प मे किसी अशिक्षित / गंवार परिवार के दुर्गुणों को उसके शिक्षित हो चुकने के बाद भी किस तरह से उकेरा जाता है ज़रा उसकी बानगी देखिये , कहते हैं कि एक परिवार अपने दिन प्रतिदिन के सम्वादों में अपशब्दों के आदतन प्रयोग के लिये कुख्यात था अभिभावकों ने सोचा कि हम तो बिगड ही चुके हैं , कम से कम बच्चे को शिक्षित और शालीन बनाया जाये ! लिहाज़ा बच्चा अध्ययन के लिये परदेश भेजा गया और जब शिक्षित होकर वापस घर लौटा तो अभिभावकों के सीने गर्व से चौड़े हो गये , भोजन के समय बच्चे ने कहा "तनिक जल" दीजिये अभिभावक...पुलकित अहा ..हा बच्चा पानी को जल कह रहा है , कितना सुसंस्कृत , देखा 'बाहर' भेजकर शिक्षा दिलाने का परिणाम...( बस गल्प यहीं से शुरु मानियें ) ...बच्चा बोल पड़ा अभी तो पानी को जल ही कहा है , तो इतना खुश हो रहे हो जब घी को घृत कहूंगा तो ...( अपशब्द् ) ! बस यूं समझिये कि इस गल्प का निहितार्थ ये हुआ कि काबुल में घोडे होते होंगें पर अपना गधा वहां भेजने से घोड़ा नहीं बन जायेगा उसे गधा ही बने रहना है !
जाने अंजाने ब्लाग्स मे विचरते हुए उनके आलेखों और उनपर नामी / बेनामी टिप्पणियों को पढते हुए मुझे अक्सर लोक-गल्प याद आ जाते हैं , अभी पिछ्ले ही दिनो अपने मित्र के ब्लाग से गुज़र रहा था कि एक छद्मनामी टिप्पणीकार को बांचते हुए बस एक ही ख्याल आया "उफ...ये शिष्ट बच्चा...सिर झुका कर...अपशब्द कहता है" अगर मैं गलत नही हूं ...मेरी स्मरण शक्ति ठीक ठाक है ...और मैने अपने केश धूप में नही सुखायें है , तो उक्त छद्मनामी को मैने कुल जमा दो ब्लाग्स मे टिप्पणी करते हुए देखा है , तीसरा कोई ब्लाग बिल्कुल भी नहीं ! मजेदार ये कि बन्धुवर अपनी मूल आई डी के साथ भी इन ब्लाग्स में नमूदार होते है पर मूल आई डी के साथ कुछ ज्यादा ब्लाग्स में ...अब ये मत पूछियेगा कि मैने इन्हें पहचाना कैसे ? मित्रो , गोपन क्या इतनी सहजता से ओपन किया जा सकता है ? खैर अभी तो मैं सिर्फ इतना ही सोच रहा हूं कि काबुल जाकर भी मेरा बच्चा घोड़ा ना बन सका ! आह ... मैं और ये गल्प ...!
सुंदर बात, अच्छे संकेत!
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंकाबुल जाकर भी मेरा बच्चा घोड़ा ना बन सका ! आह ..ओह!!!
जवाब देंहटाएंगोपन क्या इतनी सहजता से ओपन किया जा सकता है ?????
जवाब देंहटाएंतथाकथित शिष्ट बच्चे के गल्प को बूझने का प्रयास कर रहे हैं पर मन कहता है कि सिर झुकाकर कहे कि सीना तानकर अपशब्द तो अपशब्द ही है.
जवाब देंहटाएंगोपन क्या इतनी सहजता से ओपन किया जा सकता है ?
इस ज़ुमले पर हज़ार बार कुरबान जाऊँ !
काश वह ( बेनामी ) गोपन भी अपने ओपन ( गाली ) ्के विषय में ऎसा ही सोचता !
मैं जान गया बस जान गया और आपको मान गया !
जवाब देंहटाएंअच्छा हुआ आप पहचान गए... शायद अब बाज आये...
जवाब देंहटाएंसन्दर्भ तो ठीक ठाक समझ न पड़ा....पर पोस्ट लाजवाब लगी....आनंद आ गया पढ़कर !!!
जवाब देंहटाएं..गोपन क्या इतनी सहजता से ओपन किया जा सकता है ?..
जवाब देंहटाएं..वाह क्या बात है ! सन्दर्भ जानने की कसक दिल में ही रह गयी मगर इस शानदार पोस्ट ने दबियत खुश कर दी.
..आभार.
हा हा!
जवाब देंहटाएंआप भी जान गए!!
बढ़िया :-)