कल अचानक नज़र पड़ी कि सुजाता जी ने मिथिलेश दुबे जी के विचारों पर विमर्श के लिये एक पोस्ट डाल दी है उसे पढ़ा और प्रतिक्रियाओं को भी ! मन में आया कि इसी बहाने उनसे कुछ कहा जाये ! आम तौर पर वे नोट पैड नाम से लिखती रही हैं इसलिये अपने कथन की शुरुवात इसी तरह कर बैठा !अब एक गुज़ारिश कि इसे वे अन्यथा नहीं लेंगी ! लिखना वहां भी हो सकता था लेकिन माहौल पोस्ट के अनुरूप और टिप्पणी के अनुकूल नहीं लगा लिहाज़ा इसे अपने ब्लाग पर ही लेना ठीक लगा !
मेरा ख्याल है कि समूह हितों से जुड़ी चिंतन प्रणाली/सोच को यकबयक खुरच कर नहीं फेंका जा सकता तब तक वैचारिक प्रतिबद्धताओं और असहमतियों का सम्मान होना ही चाहिये और बहस तर्क आधारित हो आपने एक अच्छी बहस की शुरुवात की लेकिन आख़िर तक की प्रतिक्रियायें पढ़ते हुए लगा जैसे इस मुद्दे को 'व्यक्तिगत वैमनस्य नें हाइजैक' कर लिया हो ! इस दरम्यान पोस्ट के समर्थन में कुछ प्रतिक्रियायें आईं जैसे मुद्दे पर फोकस करती हुई ,घुघूती बासूती...हमेशा की तरह संतुलित कुछ और अच्छी प्रतिक्रियायें भी दिखीं आगे इसी मुद्दे पर असहमति के सुर डाक्टर अरविन्द मिश्र की ओर से ! जैसा कि मैंने पहले भी निवेदन किया कि मुद्दे पर विमर्श के समय सहमति अथवा असहमति के सूत्र सीधे सीधे , समूह हितों से जुड़े हुए होते हैं ! अतः बहस की सार्थक परिणति उभय पक्षों के तर्क आधारित चिंतन और एक दूसरे को सम्माननीय ढंग से बर्दाश्त करने पर निर्भर करती है ! किन्तु हतप्रभ हूं कि यहां पर बहस कहां से कहां जा पहुंची !
गुज़ारिश ये कि क्या स्वस्थ बहस की हाईजैकिंग रोके जाने के मुद्दे पर चिन्तन और निषेधात्मक उपायों की आवश्यकता नहीं है खास तौर पर तब जबकि आप बहस की शुरुवात कर रहे हों ! मेरा ख्याल है कि बहस की शुरुआत करने वाले को पहले से ही सतर्क होना होगा कि प्रतिक्रियायें मुद्दे से भटकाव न ले सकें और अगर ऐसा होते दिखे तो ऐसी प्रतिक्रियाओं को खारिज किया जाना चाहिए क्योंकि वे मुद्दे की हाईजैकिंग करते समय यह ख्याल भी नहीं रखतीं कि बहस और मुद्दा उनके व्यक्तिगत वैचारिक द्वेषगत पंक में गर्त हो रहा है
ये बस ख्याल है अनावश्यक समझ कर ख़ारिज़ किये जाने से मुझे दुःख नहीं होगा ...मेरे लिए असहमतियां महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे पुनर्विचार का अवसर देती हैं और पुनर्विचार से रास्ते खुलते हैं बौद्धिकता के धारदार होने और इंसानियत की बेहतरी के ...
अली सा यहाँ व्यक्तिगत कटूक्तियां जब शुरू हुईं और जिसे एक प्रमुख घोषित पुरुष नारीवादी द्वारा शुरू की गयीं तो मुझे भी लगा की यह स्कोर भी वंस एंड आल सेटिल ही कर लिया जाय -रोज रोज का हें हें ठीक नहीं है -
जवाब देंहटाएंबात आपकी बिलकुल दुरुस्त है की कोई भी विमर्श समूह के पक्ष /विपक्ष में होना चाहिए .
अब मैं तो घोषित naaree निंदक हो ही chukaa !
...मेरा ख्याल है कि बहस की शुरुआत करने वाले को पहले से ही सतर्क होना होगा कि प्रतिक्रियायें मुद्दे से भटकाव न ले सकें और अगर ऐसा होते दिखे तो ऐसी प्रतिक्रियाओं को खारिज किया जाना चाहिए ...
जवाब देंहटाएं....सही सुझाव !!!
बहस निंदा प्रशंसा की कहाँ है, बात है क्यों हम अपने अर्धांग को कोसते हैं. उसे सहचर रूप में करते.
जवाब देंहटाएं"...बहस की सार्थक परिणति उभय पक्षों के तर्क आधारित चिंतन और एक दूसरे को सम्माननीय ढंग से बर्दाश्त करने पर निर्भर करती है !..."
जवाब देंहटाएंआज के माहौल में आपकी बात निरर्थक सी लगती है..कहां रह गए हैं इस बात के कुछ भी मायने..
पर फिर भी नक़्क़ारखाने में तूती की आवाज़ बंद होने की कोई सूरत नहीं बननी चाहिये. सहमत.
मेरे लिए असहमतियां महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे पुनर्विचार का अवसर देती हैं
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भईया, बहुत आवश्यक थी यह पोस्ट.
अली, बात तो आपने सही कही है। किन्तु अप्रासांगिक या बहस को मुद्दे से हटाती हुई टिप्पणियों को हटाने की जगह यदि वे टिप्पणियाँ अलग से दिखाई जा सकतीं तो बेहतर होता। परन्तु ऐसी सुविधा शायद अभी नहीं है। मैं टिप्पणियाँ हटाना भी नहीं चाहूँगी किन्तु उन्हें बहस पर हावी भी नहीं होने देना चाहूँगी। कोई अन्य रास्ता नहीं निकल सकता क्या ?
जवाब देंहटाएंव्यक्तिगत शत्रुता यदि लोग अपने ब्लॉग पर या उससे भी बेहतर एक दूसरे को मेल लिखकर निकालें तो क्या बेहतर न होगा? या फिर क्रोध निकालने के लिए किसी पंचिंग बैग का उपयोग नहीं किया जा सकता ?
जो मित्र सोचते हैं कि उन्हें अपने या किसी के विरुद्ध माना जा रहा है वे गलत सोच रहे हैं। बहुत से लोग केवल किसी विषय पर भिन्न विचार रखते हैं। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि उनसे हर बात पर विरोध है।
घुघूती बासूती
ब्लॉग जगत में अक्सर यह देखता हूँ कि जब किसी विषय पर बहस होती है तो लोग उसे सीधे अपने अहंकार से जोड़ लेते हैं...! यह भी नहीं सोंचते की यह बात कौन कह रहा है ..! उसने अपने पिछले में कैसे विचार रखे थे...! कहने का मतलब यह कि विरोध की भाषा भी नियंत्रित व मर्यादित होनी चाहिए.
जवाब देंहटाएंअरे..! यह तो लगना ही चाहिए न कि दो पढ़े लिखे लोग बहस कर रहे हैं...!
Badahi santulit aalekh hai..
जवाब देंहटाएंअली जी, का यह आलेख समस्त चर्चाकारों के हित में है...
जवाब देंहटाएंजोर से बोलना, लगार पछार करते रहना, आज ब्लॉगजगत में एक हथयार हो गया है. विज्ञ और अनभिज्ञ का अंतर मिट रहा है...
टिप्पणी और प्रतिटिप्पणियों की सार्थकता कायम रहे.
व्यक्तिगत वैमनस्य ब्लॉग पर होना ही नहीं चाहिये था क्युकी ये आभासी दुनिया हैं लोगो ने इसको सोसिअल नेट्वोर्किंग मे तब्दील कर दिया हैं और इस लिये लोग मुद्दे के साथ नहीं ब्लॉगर के साथ खड़े होते हैं । एक दूसरे को मेल भेज कर फोन करके टीप देने के लिये कहते हैं । निसपक्ष हो कर बहस नहीं होती । साक्ष्य और प्रमाण देने पर भी बात को गलत कहा जाता हैं । जब तक ब्लोगिंग से सोसिअल नेट वर्क नहीं ख़तम होगा लोग मुद्दे कि बात पर नहीं ब्लॉगर पर बात करेगे ।
जवाब देंहटाएंयहाँ रहते हमने तो आज तक यही देखा है कि चाहे कैसा भी कोई मुद्दा उठ जाए लेकिन वो व्यक्तिगत वैमनस्य की भेंट चढ ही जाता है.....
जवाब देंहटाएंbahut khoob.,.....meaningful post!
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