शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

हिंदी मेरी मातृभाषा है और मैं जबड़ों में दर्द से परेशान हूँ !

हमेशा की तरह उस दिन भी मैं अपने पसंदीदा ब्लाग्स  में  से नये आलेखों की खोज के अभियान पर था और ...अचानक  वह हुआ जिसकी मुझे अपेक्षा भी नहीं थी !  लगा कि  मेरी आँखों में कुछ चुभन सी हो रही है , दौड़ा और आई ड्रॉप की कुछ बूंदें आंखों के अन्दर डालने के बाद चैन की सांस ली  !  इस बार सोचा , सस्वर पाठ किया जाये , इस तरह से पढने का अभ्यास सा छूट गया है !  आलेख किसी उदीयमान कवि के कृतित्व के बारे में था पर लग यह रहा था कि  लेखक को कवि से अधिक  अपनी  इंटलेक्चुअल छवि को स्थापित करने की चिंता आन पड़ी थी !  मैं पढ़ रहा था और मेरे जबड़े दुःख रहे थे !  उनका शब्द संसार निः संदेह किसी साधारण हिंदी पाठक के लिए तो था ही नहीं !  अब अपनी ही  मातृभाषा के लिये डिक्शनरी की जरुरत पड़ जायेगी ऐसी तो कल्पना भी नहीं की थी मैंने !  हालांकि  उस घटना को कई दिन गुज़र गए है फिर भी मुझे लगता है कि  क्या हिंदी में भी किसी श्रेष्ठि वर्ग को ध्यान में रख कर  भारी भरकम शब्दों को गढ़ा जाना जरुरी है ?  और क्या यह भाषा के हित में है ! उस दिन विद्वान् मित्र नें चाहे जिस भी कारण से हो , अपने आलेख में जिस तरह के शब्द गढ़े थे उन्हें क्या कहूं ..हाहाकारी...प्रलयंकारी...भयंकर...भीषण ...वज्रसम आदि आदि !  चाहे जितना भी कोशिश करूं कोई संज्ञा नहीं सूझती मुझे ! पर इतना तो समझ में आ ही रहा है कि अनावश्यक पांडित्य प्रदर्शन भाषा की धीमी मौत का कारण भी हो सकता है ! आखिर भाषायें संचार /संवाद की सहजता के लिये हैं  ?  या पांडित्य प्रदर्शन के लिये ये तो तय होना ही चाहिए !  हिंदी मेरी मातृभाषा है और मैं जबड़ों में दर्द से परेशान हूँ !   

7 टिप्‍पणियां:

  1. क्या भारी शब्दों के उच्चारने से हुआ व्यायाम भी पीड़ा निवारण नहीं कर सका?

    लगता है शब्द हर तरह से बेअसर होते जा रहे हैं...:)

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  2. अजित भाई ईश्वर ना करे की आप उस बेरहम के चंगुल में फंस जायें :)

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  3. भाषा तो संवाद का एक माध्यम है वह जितना अधिक सुगम और सरल होगा उतना ही अच्छा. सामान्य से विषयो के लिये भी बेवजह पांडित्य प्रदर्शन के लिये शब्दो को दुरूह बनाना उचित नही है. किंतु भैया कइ बार मैने अनुभव किया है कि कुछ लोग अपनी प्रवृत्ति कुछ एसी बना लेते है कि वे चाह कर भी अपने लेखन मे सरल शब्दो का चुनाव और प्रयोग नही कर पाते और बाद मे पछताते है. प्रदर्शन धीरे धीरे प्रवृत्ति बन जाती है और उन्हे यह पता ही नही चलता.

    मेरे कुछ मित्र मुझे ही बार बार टोकते है कि मै तत्सम और तद्भव का प्रयोग बेवजह करता हूँ जबकि मुझे एसा नही लगता जब वे दिखाते है तब तक लेख प्रकाशित हो गया रहता है.

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  4. शायद लेखक का विचार होगा कि कब तक डंब्बल से काम चलाओगे...प्रापर वेट-लिफ़्टिंग हो जाए :)

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  5. अरे बाप रे ,कर दिया न मुष्टिका प्रहार अली महाबली ने .मेरा जबड़ा टूटा आह !

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  6. आप भी न जाने क्या क्या पढ़ आते हैं!
    घुघूती बासूती

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  7. प्रश्न जबड़े के दर्द की तरह महत्वपूर्ण है. यदि आप आम जन के लिए लिख रहे हैं तो आपको आम जन की भाषा का ही सहारा लेना पड़ेग..लेकिन यदि आपने सरल हिंदी के चक्कर में हिंदी का स्तर ही गिरा दिया तो यह और भी गंभीर बात होगी!

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