रविवार, 17 जनवरी 2010

हूं...

आज अपने  ब्लागर  मित्र  से चैटिंग करते और उन्हें पढ़ते हुए मेरा 'की बोर्ड' अचानक ...हूं ...पर जा अटका ! ये बात  उन्हें  कुछ  अटपटी  लगी...सो  पूछा ....हूं ... हूं...माने क्या ? अब चौंकने की बारी मेरी थी ! उनके लम्बे वाक्य के सामने मैंने... हूं ... क्यों टाइप किया ? कारण सूझा तो फ्यूज सा उड़ गया दिमाग का ! दरअसल उनसे चैटिंग करते हुए मैं भूल गया था कि मुझे कुछ कहना / लिखना भी है ! लगा कि जैसे मैं केवल सुन रहा हूं इसलिये जबाब में टाइप किया हूं ... ! एक पुरानी आदत के तहत जो मेरे बचपन का अहम हिस्सा हुआ करती थी !
इस ...हूं ...नें जैसे मेरी स्मृतियों का पिटारा खोल कर रख दिया ! दादी को कभी देखा नहीं और दादा भी जल्दी ही गुज़र गए तो पिताजी अकेले रह गए और उनके चाचा यानि मेरे छोटे दादा तथा उनका परिवार ! छोटे दादा हर वक्त चाटुकारों से घिरे रहते / उनपर बेहिसाब खर्च करते लिहाजा उनके हिस्से की जमीने सिकुड़ती गई ! फिर वही हुआ जो हर गांव के खेतिहर परिवारों की आम कहानी है ! उन दिनों जमीनों का बटवारा जुबानी हुआ करता था इसलिये छोटे दादा जी की निगाहें अपने भतीजे की जमीनों पर टिक गई और शुरू हुई अंतहीन मुक़दमे बाजी ! घरों के अन्दर और बाहर बच्चों में कोई भेदभाव नहीं था लेकिन हर शाम को अम्मा चूल्हे पर रोटियां सेंकती , सामने पिताजी और बुआ सिर पर हाथ रखे बुदबुदाते रहते ! समझ में कुछ नहीं आता लेकिन अहसास जरुर होता कि पिताजी और छोटे दादा के बीच कुछ गड़बड़ जरुर चल रही है ! रात होते ही सारे बच्चे छोटे दादा के पास सोने पहुंच जाते ! उनके पास कथाओं का अथाह भंडार था ! दिन में उनके चेले चांटे उन्हें घेर कर आल्हा गाते और रात में हम बच्चे कहानियां सुनते ! बड़ों के पारस्परिक सम्बन्ध जरुर कटुता पूर्ण रहे होंगे ! पर रात की कहानियां , रोटियां बनाती हुई अम्मा और चूल्हे के सामने बैठे पिता जी के उदास चेहरे से ध्यान जरुर हटा दिया करती थीं ! छोटे दादा के व्यवहार से पता भी नहीं चलता था कि उन्हें मेरे पिता जी से कोई बैर भाव है ! वो अपनी धुन में कहानी सुनाते और हमारी ड्यूटी होती कि हम बच्चे हुंकारा भरेंगे ! हुंकारा यानि कि...हूं... जोकि कहानी सुनते हुए हम सबके जागते रहने का प्रमाण हुआ करता ! अब छोटे दादा जी भी नहीं रहे ...कहानियां भी नहीं रहीं ...पर हुंकारा जीवित है मेरे अंतर्मन में...तभी तो मित्र को पढ़ते हुए / अहसास हुआ जैसे कि नींद आने तक केवल सुनना ही है और भरना है कथा के साथ चलने वाला हुंकारा !

6 टिप्‍पणियां:

  1. हूँ .... ये हूंकारू के बिना डोकरी दाई, डोकरा बबा मन कहानी सुनाते नई रहिन हे.

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  2. यह जीवंतता की आवाज है हमारे दिल-दिमाग के सजग रहने की हूंकार.

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  3. हुंकारा देने की आदत से ही शायद आपने बात छोटे में कह दी.ये बहुत दुर्लभ गुण है एक उत्सुक श्रोता बने रहना.राजस्थान में भी कहानियों की वाचिक परंपरा में हुंकारा अनिवार्य तत्व है.

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  4. वाह! एक हुँकारा भी आपको इतनी दूर ले जा सकता है सोचा नहीं था। लेख रोचक है।
    घुघूती बासूती

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  5. हूंकार की डोर में बंधे अतीत तक खिंचे चले आए।
    दिलचस्प अंदाज है ...

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  6. आज आपके सभी ब्लाग भी देखे और रचनाएँ भी पढ़ी। आप के साथ साथ नमिरा, जय और अनन्या को भी पढ़ा। पढ़ना अच्छा लगा। ईर्ष्या भी हुई की आप लोग सहज में ही बहुत कुछ कह जाते हैं। कहा हुआ चेतन को नहीं शायद अवचेतन को प्रभावित करता है। लगता है चारों ब्लाग पर नियमित रुप से आना पड़ेगा।

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