गुरुवार, 5 नवंबर 2009

अरे भाई आपके ख्यालात में रीढ़ रज्जु है कि नहीं ?

अक्सर ब्लाग जगत में यायावरी के दौरान टिप्पणियां पढने का लोभ संवरण नहीं कर पाता हूं मेरा ख्याल है कि 'विषय ' विशेष पर आलेख लिखते समय लेखक के अपने विचार /अपनी धारणा /अपने आग्रह /अपने पूर्वाग्रह हो सकते हैं ! किसी आलेख को खास तरह से उकेरना , उसे एक शक्ल देना , लेखक का अख्तियार है किंतु उसका आलेख तब तक मुकम्मल नहीं माना जा सकता जब तक कि पाठक गण ( आप समालोचक कह लें ) प्रतिक्रिया ना दे दे ! इस लिहाज से ब्लाग जगत में टिप्पणियां मेरे लिए आलेख के मुकम्मल होने का अहसास लेकर आती हैं ! पिछले काफी लंबे समय से टिप्पणियों को बांचते हुए पाया कि ज्यादातर "साधु... साधु बनाम लानत" है के स्थायी भाव से लिखी गई टिप्पणियों के आदान प्रदान में "समालोचना" कहीं खो सी गई है ! क्या यह सृजन धर्मिता के लिए शुभ संकेत है ? अगर थोडी बहुत समालोचना दिखी भी तो लेखक का रवैय्या " तू कहता है खेत की पर मैं बांचूं खलिहान की " तर्ज पर घोर असहिष्णुता भरा ! विचार और वाद पर केंद्रित लेखन तथा सहमति और असहमति का एक ही जगह में उपलब्ध होना बड़ी बात है किंतु "वाद " और "मेनिया " में कोई अन्तर है कि नहीं ? आप अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर लिखें /मानवता पर लिखें / स्वास्थ्य सेवाओ /देश प्रेम /खेल कूद या भले ही काम कला पर लिखें मित्रगण उसे 'धर्म 'से जोड़ ही देंगे ! मेरे ख्याल से यही असहजता 'मेनिया' है ! खैर ...कौन क्या लिखता है और क्यों लिखता है, ये उसकी अपनी "स्टेट आफ माइंड "है ! भला इससे मुझे क्या दिक्कत हो सकती है ? मैं तो बस एक टिप्पणीकार को पढ़कर हैरान हूँ ! वो जहाँ भी जाते हैं एक ही सुर फूटता है " भइया आप सही कह रहे हैं " / "भाई आप बिल्कुल ठीक हैं " यानि जब भी कहूँगा ~ जी ~ ही कहूँगा ! केवल जैकारा ! लेखक मार्क्सवादी हों , तत्ववादी ,धर्मवादी ,सम्प्रदायवादी हों या अन्य जो भी हों , मैं तो बस जहाँ भी जाऊँ सिर्फ़ "हाँ " कह कर आऊंगा वाले टिप्पणीकार बन्धु इसमे आपकी अपनी सोच ..अपना चिंतन कहाँ है ?
अरे भाई आपके ख्यालात में रीढ़ रज्जु है कि नहीं ?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें