शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

इस पोस्ट का दो अक्टूबर से कोई लेना देना नहीं है !


पिछले कई वर्षों से पतिदेव की मित्र मण्डली ~ बिला नागा ~हर रोज़ ~ हर शाम ~ मुतवातिर ~बस एक ही काम करने में लगी हुई है ! बहस ~खालिस बहस ~ कभी अंध राष्ट्रवाद /कभी साम्प्रदायिकता /कभी आतंकवाद /कभी अतिवाद ~ नक्सलवाद वगैरह वगैरह ! कई बार तो बेहद बेतुकी और अंतहीन बहस ! जी करता है कह दूँ बंद कीजिये ये सब ~ क्या चाय बनाने का ठेका मैंने ले रखा है बार बार लगातार ! शायद एक बार का स्वाद ख़त्म भी नहीं होता होगा कि नई फरमाइश , अरे भाई सुनती हो एक एक कप और हो जाए ~ बाखुदा तुम्हारे हाथों की चाय , भाई मज़ा जाता है ! कमाल है ... मज़ा उनका , जमावडा उनका , बहस- ओ- मुबाहिसे उनके ..पर सजा तो मेरी हुई ना ! शुरू शुरू में अच्छा लगता था कि घर में गहमा गहमी रहती है , फ़िर बुरा लगने लगा कि इस सारी उठापटक में पतिदेव भी मेहमान जैसे लगते हैं और मेजबान.... मैं अकेली ! लगातार फरमाइशों पर निगाहें तरेर कर आपत्ति भी करना व्यर्थ ~क्योंकि पति महोदय इसी जुबान में चिरौरी करने में माहिर हैं ! कल शाम बात कुछ बदली हुई सी लगी , एक मित्र नें कहा अरे भाई मैं तो जो भी लिखता हूँ ~ सब कुछ 'स्वान्तः सुखाय' लिखता हूँ ! कोई क्या सोचेगा इसकी मुझे परवाह नहीं ! जाहिर है इस मुद्दे पर भी उन लोगों में एक राय नहीं होना थी तो नहीं हुई ! मुझसे रहा नहीं गया मैंने पूछा भाईसाहब अगर सब 'स्वान्तः सुखाय' है तो दिल में ही रख कर मजे क्यों नहीं लेते ! ख्यालात भी आपके ! दिल भी आपका ! बोलकर किसी को सुनाइए याकि कहीं पर छाप दीजिये , इसका तो एक ही मतलब हुआ ना कि इसे दूसरे लोग भी सुने और पढ़े ~ प्रतिक्रिया दें ! भला ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति और छपास की आपकी इच्छा को हम 'स्वान्तः सुखाय' कैसे मान लें ! इसके बाद वो भाई साहब मेरे रिएक्शन पर खिसियानी हँसी भले ही हंस रहे थे पर ये तो पक्का है कि मेरे हाथों की चाय उन्हें बदमज़ा ही लगी होगी !

खैर दिन था ~ उसे गुजरना ही होता है ! अब मैं जानती हूँ कि आज शाम मित्र मण्डली की चर्चा का प्रिय विषय होगा ~ दो अक्टूबर ~ राष्ट्रपिता ~ लाल बहादुर शास्त्री ~ और मैं फ़िर से खट रही होउंगी बैठक और किचन के दरम्यान !

और हाँ इस पोस्ट का दो अक्टूबर से कोइ लेना देना नहीं है और ना ही मैंने इसे 'स्वान्तः सुखाय' छापा है !

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