गुरुवार, 3 सितंबर 2009

इशिक तेरा तड़पावे...ओ.हो.हो...हो.हो.हो...तारे गिन गिन...

सालों हो गए इस बस्ती में...कई घर बदले...मुहल्ले भी, पर नहीं बदला तो यहां के लोगों का मिजाज ! सच कहूं तो जगदलपुर आदिवासियों की बसाहट वाला शहर है ही नहीं ! ये अपने आप में पूरा का पूरा हिंदोस्तान है...बंगाली / उड़िया / तमिल / तेलगू/ मलयाली / मराठी / गुजराती / बिहारी / पंजाबी / सिन्धी / मारवाडी...वगैरह वगैरह...कौन नहीं रहता यहां...! हर जाति / मजहब / भाषा / बोली, के नुमाइंदे मिल जायेंगे आपको ! लेकिन आदिवासी...वो सिर्फ़ दिन में आता है...इस शहर में, रोजी रोटी के लिए या फ़िर किसी सरकारी मुहकमे के चक्कर लगाने ! नम्बरों में बात करें तो यहां की आबादी में आदिवासियों का प्रतिशत 5 भी नहीं होगा ! कोई आश्चर्य नहीं कि आदिवासियों के गढ़ बस्तर की जगदलपुर विधानसभा सीट अनारक्षित हो चुकी है ! आज दिन में सोचा कि इस मुद्दे पर कुछ लिखूंगा पर समय बीता...मुद्दा फिसल गया !

अभी कुछ दिन पहले की बात है, उन सभी मुहल्लों के बच्चे बारी बारी से झुंड बना कर...घर आ धमके ! अंकल चंदा चाहिए...मैं तर्क करता हूँ कि बेटा अब तो मैं इस मुहल्ले में रहता हूं, यहां की समिति को चंदा दूंगा...वो कहते हैं...इससे क्या फर्क पड़ता है कि आप कहां रहते हो...आप तो बस हमारे हो, हमें इसके अलावा कुछ नहीं पता...बताइए कितने की रसीद कटवायेंगे...मैं फ़िर से छेड़ते हुए कहता हूं, अरे भाई इस तरह से तो मुझे सभी को देना पड़ेगा, अच्छा चलो इक्कीस रुपये ले कर मामला ख़त्म करें ...वो हँसते हैं ! उनकी मांग दहाइयों में है ही नहीं...!

अब वो मेरे करीब बैठे मित्र गोस्वामी और दुर्गेश की ओर मुखातिब होकर कहते हैं देखो न अंकल कैसा कर रहे हैं भला ऐसे में समिति कैसे काम कर पायेगी ! वो दोनो मुस्कराते हुए इशारा करते हैं, बच्चे हैं, जाने दीजिये ! मैं कहता हूं  चलो ठीक है, जो तुम कहो...दूंगा लेकिन मेरी एक शर्त है...ये कि तुम फिल्मी गाने नहीं बजाओगे और पीने का कार्यक्रम...वो मेरी बात काटते हुए कहते हैं,अरे नहीं अंकल सिर्फ़ भजन बजायेंगे और पीना तो...बिल्कुल भी नहीं ! मैं जेबें ढीली करता हूं और वो खुश होकर जा रहे हैं उनके दमकते चेहरे मुझे अच्छे लगते हैं...हालांकि मैं जानता हूं कि वो लोग क्या करने वाले हैं पर मेरा मोल भाव, सारी छेड़ छाड़ का मकसद भी तो यही था कि,नाउम्मीदी से जूझने के बाद मांग पूरी होने की चमक उनके चेहरों पर बिखरती हुई देखूं...खैर...

आज...जब...शहर की गलियों से गुजर रहा था तो विसर्जन जुलूसों की वज़ह से कई जगह गाड़ी रोकना पड़ी और...वो सारे बच्चे चिल्लाते हैं, गणपति बप्पा...मेरे पास आते हुए...अंकल...मैं जबरिया मुस्कराता हूं, वो कहते हैं, अंकल को जाने दो...अबे जगह दो...अंकल आप जाइये...थोड़ा सा रंग मुझ पर भी पड़ता है...मैं जानता हूं, उनमें से कईयों ने पी रखी है...कई दिनों की थकान उनके चेहरों से झलक रही है, लेकिन जिस्म और क़दमों की थिरकन तेजतर होती हुई...ट्रक पर बजते हुए गाने की...बीट बेहद फास्ट है...स्टीयरिंग पर मेरी ख़ुद की उंगलियां थिरकने लगी हैं... ~~ इशिक तेरा तड़पावे...ओ.हो.हो...हो.हो.हो...तारे गिन गिन~~...फिलहाल मुझे...उनका पीना बुरा नहीं लग रहा है !

5 टिप्‍पणियां:

  1. जगदलपुर का ज़िक्र होते ही शानी, लाला जगदलपुरी याद आ गये आज ही मित्र विजय सिंह से बात हुई - बन्द टाकीज के सामने । आपका यह लेख अच्छा लगा । -शरद कोकास दुर्ग ,छ.ग.

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  2. हर मोहल्ले में चंदे की रकम ऐसे ही हुल्लड़ में जाती है.....सही तस्वीर खींची आपने!

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