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रविवार, 24 दिसंबर 2017

मादकता


ईश्वर धरती पर उतरा तो उसने पाया कि यहां, बहुत गंदगी है, बुरी चीज़ों से भरी हुई, दुष्ट लोग, रहस्मय और नरभक्षी ! ईश्वर ने सोचा कि धरती को साफ़ करने के लिये जल प्रलय लाई जाए...और गंदे लोगों, राक्षसों को डुबा कर मार दिया जाए, फिर उसने ऐसा ही किया पानी, पहाड़ों की चोटियों तक भर गया, तब एक व्यक्ति और उसकी दो पुत्रियों को छोड़कर, सारे मनुष्य जलमग्न हो गये ! दरअसल वो तीनों एक डोंगी में बैठकर बाढ़ से बच निकले थे ! जलस्तर घटने पर उन्होंने देखा कि धरती स्वच्छ हो गई है ! उन्हें बेहद भूख लगी थी, उन्होंने इधर उधर देखा, ढूँढा पर वहाँ खाने लायक कुछ भी नहीं था ! कंद मूल वाला कोई छोटा मोटा पौधा तक नहीं, केवल भिन्न प्रजातियों के कुछ बड़े पेड़ थे !

उन्होंने फर के टुकड़े को पत्थर से कूट कर काढ़ा बनाया पर...वह पीने योग्य नहीं था सो उसे फेंक दिया, इसके बाद उन्होंने पाइन, भिदुर और अन्य लकड़ियों के काढ़े बनाए पर सब व्यर्थ, अंतत बेरियों की लकड़ियों का काढ़ा तुलनात्मक रूप से पीने योग्य था ! लड़कियों ने उसे पिया और...दिया ! ये काढ़ा थोड़ा सा मादक / नशीला था ! उन्हें नशा हो गया, नशे की हालत में लड़कियों ने अपने पिता से यौन से सम्बन्ध बना लिये, पिता को कुछ पता ही नहीं चला ! इधर धरती धीरे धीरे सूख रही थी और उन तीनों की भूख बढ़ती जा रही थी, इसलिए वे तीनों लगातार बेरियों की लकड़ी का काढ़ा बना कर पीते रहे ! पिता इस मादक द्रव्य का आदी हो चला था और लड़कियां उससे अक्सर दैहिक सम्बन्ध स्थापित करती रहीं !

परिणाम स्वरुप लड़कियों ने कई बच्चों को जन्म दिया...जिस पर नशेड़ी पिता अचंभित हुआ कि वे दोनों किस प्रकार से गर्भवती हो गईं ! कालान्तर में, वयस्क होकर, इन्हीं बच्चों ने आपस में ब्याह किये और फिर उनके भी बच्चे पैदा हुए, इस प्रकार से धरती पर, मनुष्यों की पुनर्बसाहट का सिलसिला जारी रहा ! ऐसे ही पशु और पक्षी भी बहुतायत से धरती में आबाद होने लगे थे...

आर्कटिक उप-क्षेत्र के निकट अलास्का की टिलिंगिट कबीले की ये जनश्रुति, ईश्वर के हवाले से, धरती में दुष्ट लोगों की संख्या बढ़ने का संकेत देती है, जिन्हें ईश्वर, बाढ़ लाकर समाप्त कर देना चाहता है ! दुनियां में प्रचलित अन्य जल प्रलय कथाओं के इतर इस कथा में शेष बच गये पात्रों को, ईश्वर ने समय पूर्व कोई चेतावनी दी हो ऐसा उल्लेख इस कथा में नहीं मिलता और ना ही इस बात का कोई संकेत कि बर्फीले क्षेत्र के निवासियों के पास डोंगी के मौजूद होने का आशय क्या है ? क्या यह डोंगी स्लेज के साथ संबद्ध कोई लकड़ी का बड़ा टुकड़ा थी, जिसे सामान ढोने / लादने के उपयोग में लाया जाता रहा हो ? बहरहाल बाढ़ से बच गये पिता, पुत्रियों के लिये ये डोंगी, दैवीय ना सही, भौतिक / जागतिक वरदान / उपलब्धता अवश्य मानी जा सकती है !

जल प्रलय के बाद खाद्य पदार्थों की कमी स्वभाविक है और ये भी कि भूखे लोग अपने जीवन रक्षण के लिये बहुविध प्रयोग करें, जैसा कि पिता और पुत्रियों ने, कंद मूल फलों की अनुपलब्धता को देखते हुए, भिन्न भिन्न लकड़ियों को कूट कर, तरल काढ़ा बना कर, अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये किया ! इसे तुलनात्मक संयोग ही माना जाएगा कि अन्य लकड़ियों का काढ़ा पीने योग्य नहीं था और बेरियों का काढ़ा पीने योग्य पाया गया ! इसमें कोई संदेह नहीं कि, आयुगत कारणों से, पिता की अपेक्षा पुत्रियों में यौनेच्छायें अधिक प्रबल रही होंगी ! उल्लेखनीय है कि, उस काल खंड में, उनके योग्य कोई युवा नर, धरती पर जीवित नहीं था और...जीवन रक्षण के उपरान्त निज मूल प्रवृत्ति का शमन करना, उनकी विवशता हो गई होगी !

ये कथा ईश्वरीय कोप और जल प्रलय के मानदंड से विश्व की बहुचर्चित कथाओं जैसी ही है, किन्तु पुत्रियों द्वारा, अपने ही सगे पिता से देह संसर्ग स्थापित करना और कालांतर में उनसे जन्में बच्चों के पारस्परिक ब्याह के फलस्वरूप वंश वृद्धियों के कथन, बहुत संभव है कि यौन नैतिकता के मानकों से विचलित दिखाई दे, हालांकि यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है कि पुत्रियों ने अपनी मूल प्रवृत्ति का शमन करते समय यौन नैतिकता के उल्लंघन के अपराध बोध से उबरने के लिये मादक द्रव्यों का इस्तेमाल किया, यही कारण है कि पिता अपनी पुत्रियों के गर्भवती हो जाने को लेकर अचंभित बना रहा...

मंगलवार, 19 जून 2012

पूर्वजों की पवित्र धरोहर ...!

अफ्रीका के महा-जलताल विक्टोरिया के निकटवर्ती क्षेत्रों में बसे जनसमुदाय क्वाया , जल को पूर्वजों से प्राप्त पवित्र धरोहर मानते हैं  ! उनके आख्यान के अनुसार बहुत समय पहले , सारे महासागर एक छोटे से पात्र में बंद थे  !  एक क्वाया दंपत्ति ने इस पात्र को अपनी झोपड़ी की छत पर लटका रखा था  !  वे प्रतिदिन इस छोटे पात्र से अपने दैनिक उपयोग के लायक जल बड़े पात्रों में भर लिया करते थे ! उन्होंने अपनी पुत्रवधु को इस पात्र को छूने से मना करते हुए कहा था कि वो इसे ना छुये  , क्योंकि इसमें पूर्वजों के द्वारा दी गई पवित्र वस्तु बंद है  !  किन्तु पुत्रवधु ने एक दिन अति उत्सुकतावश उस पात्र / बर्तन को छू लिया , जिसके कारण से वह पात्र टूट कर बिखर गया और फिर जल उन्मुक्त होकर बह निकला , पूरी धरती पर बाढ़ आ गई  !

इस लोक आख्यान से यह संकेत स्पष्ट है कि जल एक पवित्र वस्तु है और उसका नियमित किन्तु आवश्यकता के अनुरूप उपयोग किया जाना ही अपेक्षित है , जल से अयाचित खिलवाड़ / अनाड़ियों जैसी छेड़छाड़ किये जाने की स्थिति में वह संकट का कारण भी बन सकता है , जैसा कि इस कथा में जलप्रलय के तौर पर हुआ ! नि:संदेह जल , मानव के अस्तित्व के अनिवार्य तत्व बतौर चीन्हे जाते ही अपने सुनियोजित उपयोग की अपरिहार्यता की शर्त के साथ ही धरती पर उपलब्ध है , वर्ना बीहड़ रेगिस्तानों तथा जलसंकट और सतत बाढ़ से जूझते भूक्षेत्रों की मानवीय बसाहटों को इसका महत्त्व खुद ब खुद सूझने लगता है ! जलातिरेक और जलशुष्कता , दोनों ही , मानव जीवन और उसकी बसाहटों वाली धरती में , जल की उपलब्धता की असामान्य / असहज दशायें हैं  !

यह आख्यान स्पष्ट करता है कि जब तक क्वाया दम्पत्ति नियमित रूप से पूर्वज प्रदत्त धरोहर का उपयोग करते रहे , जल उपलब्धता की दशायें सामान्य बनी रहीं ! वे समाज के अधिक अनुभवी / ज्ञानी व्यक्ति के रूप में समाज के अपेक्षाकृत कम अनुभवी व्यक्ति को पवित्र धरोहर से दूर रहने के निर्देश भी देते हैं , किन्तु वह अपनी उत्कंठा के चलते उस निर्देश की अवहेलना कर बैठती है , परिणाम , जैसा कि अपेक्षित ही रहा होगा ? जलातिरेक का संकट ! मानव जीवन के विरुद्ध एक असहज समय  !  हालांकि यह कहना कठिन है इस बाढ़ के बाद कौन कौन जीवित रहा ? और क्वाया दंपत्ति ने , जल पात्र को नहीं छूने की शर्त केवल पुत्रवधु पर ही क्यों आरोपित की थी ? पुत्र पर क्यों नहीं ? क्या यह प्रश्न इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि उस समाज में भी लैंगिक भेदभाव मौजूद था ? 

इसके अतिरिक्त अन्य कई प्रश्न भी हैं ! छोटे पात्र से बड़े पात्रों में प्रतिदिन जल निकासी का रहस्य क्वाया दंपत्ति तक ही क्यों सीमित था ? झोपड़ी में प्रतिदिन जल की निरंतर उपलब्धता पर अन्य परिजनों ने कोई प्रश्न क्यों नहीं किया / उठाया होगा ?  इन सारे प्रश्नों के सीधे सीधे उत्तर इस कथा में दिखाई नहीं देते , लेकिन प्रतीति यह  है कि परिवार / समुदाय के अनुभवीजन जल की पवित्रता / महत्ता से भलीभांति परिचित रहे होंगे , इसलिए उन्होंने जल के संतुलित उपयोग की कमान केवल अपने हाथों में सीमित रखी और उसे परिवार के कम अनुभवी सदस्यों  से  यथा संभव दूर रखने की चेष्टा की  !  लेकिन प्रश्न अब भी शेष , कि जल निकासी के ज्ञान से वंचित किया गया सदस्य , एक स्त्री ही क्यों है ?  संभव है कि क्वाया जन समुदाय के पुरुष प्रधान समाज होने में इसका उत्तर निहित हो  ! 

कथा को ज़रा सी / अतिरिक्त  कल्पनाशीलता के साथ से बांचें तो यह कथा एक अदभुत संकेत देती है ! इसके अनुसार सम्पूर्ण महासागरीय जल एक छोटे से पात्र में बंद था , जिससे प्रतिदिन बड़े पात्रों में उपयोग के लायक जल भर लिया जाता था ! एक छोटे से पात्र में मौजूद पवित्र वस्तु / जल से बड़े बड़े पात्रों में नियमित , किन्तु अबाध जलापूर्ति की व्यवस्था के कथन , का एकमात्र आशय यही हो सकता है कि जल उस छोटे से पात्र में एक पवित्र वस्तु था , यानि कि वह 'तरल जल' के बजाये किसी 'अन्य रूप' में उस पात्र में मौजूद था ! क्या आप इसे जल की , संकुचित / संघनित अवस्था / वायव्य / गैसीय रूप में , मौजूदगी के तौर पर भी स्वीकार कर सकते हैं ? क्या यह कहना गलत होगा कि 'वह' हाइड्रोजन और आक्सीजन के फ़ार्म में मौजूद था तथा उस छोटे से पात्र / या शायद उपकरण में होने वाली ,एक निश्चित प्रक्रिया के चलते प्रतिदिन जल के रूप में परिवर्तित हो जाया करता था ? ...खैर यह एक कल्पना / एक विचार मात्र है , मित्रगण , इसे 'जल के पिछले जन्म' वाला अतार्किक ख्याल कह कर ख़ारिज भी कर सकते हैं  ! 

संभवतः यह जल के कायांतरण / उत्पत्ति की प्रतीति कराने वाला कथन है , अन्यथा कोई कारण नहीं बनता कि एक छोटा सा पात्र , बड़े पात्रों में सतत जलापूर्ति कर सके , इस आशय की पुष्टि , कथा के इस कथन से भी होती है कि छोटे से पात्र में सम्पूर्ण महासागरीय जल मौजूद था !  जल की , संघनित अथवा अन्य रूप में मौजूदगी की , कहन एक स्थापित सत्य है  !  क्वाया दम्पत्ति इसे वैज्ञानिक सत्य के रूप में भले ही ना जानते रहे हों पर वे जल के कायान्तरण और उसके एकाधिक स्वरूपों से भिज्ञ अवश्य थे ! उन्हें इस बात का भान भी था कि कोई अनाड़ी / अनभिज्ञ / अनुभवहीन व्यक्ति , अनचाहे ही , जलप्लावन का कारण बन सकता है , अतः उन्होंने इसे पूर्वजों की पवित्र वस्तु के रूप में प्रचारित कर संरक्षित करने की कोशिश की , हालांकि चमत्कारी / पवित्र वस्तु के तौर पर प्रचारित करके पूर्वजों की धरोहर पात्र / उपकरण को संरक्षित रख पाने का उनका उपाय , चमत्कार को ही जानने की सहज मानवीय उत्कंठा के कारण से ध्वस्त हो गया...                                                                                                    
                              
                                                                                                                                   

[  प्रविष्टि का पांचवां पैरा लिखते वक़्त जेहन में ये ख्याल कौंधा था कि , कहीं क्वाया पूर्वज किसी दूसरे ग्रह के , विज्ञान समुन्नत , वासी तो नहीं थे ? जिन्होंने एक्सपेरीमेंट के लिए मनुष्यों को , धरती पर छोड़ते वक़्त पानी बनाने का कोई उपकरण , दिया हो और एक अनुभवहीन की छेड़छाड़  के चलते उपकरण से इतना पानी बना कि महासागर भर गये  :)  ]

शुक्रवार, 8 जून 2012

धरती पर जोड़े मधुमक्खियां बनाती हैं...!

बहुत समय पहले की बात है , एक विधवा स्त्री और उसका छोटा बच्चा साथ रहते थे ! बच्चा बहुत दयालु था और सभी उसे बेहद पसंद करते थे , किन्तु बच्चा उदास था क्योंकि उसकी कोई दादी नहीं थी , जबकि उसके सभी हमउम्र दोस्तों के पास दादियां थीं ! उसकी मां ने कहा ठीक है , हम तुम्हारे लिए दादी ढूंढेंगे ! एक दिन अपने घर के द्वार पर एक कमजोर और बूढ़ी भिखारिन को देख कर बच्चा बोला, तुम मेरी दादी होओगी ! उसने अपनी मां से कहा , बाहर जो भिखारिन स्त्री है , उसे मैं अपनी दादी बनना चाहता हूं  ! उसकी मां ने उस वृद्ध स्त्री को अंदर बुलाया , चूंकि वह बहुत गंदी थी अतः बच्चे ने कहा मां इसे हम साफ़ करेंगे / नहलायेंगे ! उन्होंने ऐसा ही किया ! बूढ़ी स्त्री के सिर से बहुत सारे गोखरू (कटीली संरचनाएं) निकले जिसे उन्होंने एक जार में बंद कर दिया ! इसपर दादी ने कहा इन्हें फेंकना नहीं बल्कि बाग में गाड़ देना और तब बाहर निकालना जब बड़ी बाढ़ आयेगी ! बच्चे ने पूछा बड़ी बाढ़ कब आयेगी ? दादी ने कहा जिस दिन जेल के बाहर वाले दो पाषाण सिंहों की आंखें लाल रंग की हो जायेंगी तब ! बच्चा फ़ौरन सिंह देखने चला गया किन्तु उनकी आंखें लाल नहीं थी ! दादी की सलाह पर बच्चे ने एक लकड़ी की एक छोटी सी नाव बनाई और एक बाक्स में रख दी !

वो हर दिन सिंहों की आंखे देखने जाने लगा जिसके कारण से गली के सब लोग विस्मित होने लगे ! एक दिन चिकन विक्रेता ने उससे पूछा वह सिंहों को देखने क्यों आता है ? इस पर बच्चे ने सब हाल कह दिया , जिसे सुनकर वह हंसा , लेकिन अगली सुबह उसने चिकन का रक्त सिंहों की आंखों में लगा दिया ! बच्चे ने जैसे ही देखा कि सिंह की आंखें लाल हो गई हैं , वह घर की ओर भागा ! उसने दादी को बताया और उसके कहे अनुसार बाग में दबे हुए जार को बाहर निकाला जोकि विशुद्ध सुन्दर मोतियों से भर गया था ! इसके बाद उसने जैसे ही छोटी नाव वाला बाक्स खोला , वो एक बड़े जहाज जैसी बन गई ! दादी ने कहा अपने मोती लेकर इसमें बैठ जाओ और बाढ़ आने पर इसकी तरफ आ रहे सभी पशुओं / जीवों को बचा लेना पर ध्यान रहे काले सिर वाले इंसान को मत बचाना !  यह सुनकर माता और पुत्र जहाज में चढ़ गये और बूढ़ी दादी अन्तर्ध्यान हो गई  !  

धीरे धीरे बारिश शुरू हुई और फिर जल्दी ही ऐसे कि , जैसे स्वर्ग से पानी उड़ेल दिया गया हो ! बाढ़ आ गई थी ! एक कुत्ता जहाज की ओर आता दिखा उसे बचा लिया गया , फिर चूहे का एक जोड़ा और उसके छोटे बच्चे , जो भय से चिल्ला रहे थे , को भी बचाया गया ! अब तक पानी घरों की छत तक पहुंच चुका था , इसलिए म्याऊं म्याऊं करती एक बिल्ली को भी छत के ऊपर से उठाया गया ! फिर वृक्ष की फुनगी पर कांव कांव करते और जोर जोर से पंख फड़फड़ाते हुए कौव्वे को भी जहाज पर शरण दे दी गई ! इसके बाद भीगे पंखों से बड़ी मुश्किल से उड़ पा रही मधुमक्खियों के एक झुण्ड को भी बचा लिया गया ! तभी काले बालों वाला एक मनुष्य जान बचाने के लिए जहाज की ओर तैरता दिखाई दिया , बच्चे की मां ने कहा , याद रखो दादी ने कहा था कि काले सिर वाले इंसान को नहीं बचाना है  !  बच्चे ने कहा जान जाने के भय से पानी में छटपटा रहे मनुष्य को देख कर मुझे दुःख हो रहा है , इसलिए मैं दादी के मना करने के बाद भी इस इंसान को बचाऊंगा ! उसने ऐसा ही किया ! 

धीरे धीरे बाढ़ कम हुई तो सारे जीव इधर उधर चले गये , जहाज फिर से छोटा हो गया तो उसे फिर से बाक्स में रख दिया गया ! इस बीच काले सिर वाले इंसान की नियत , इनके मोतियों पर लगी हुई थी सो उसने न्यायाधीश से इसकी शिकायत कर दी जिसने इन दोनों को जेल में डाल दिया ! तब चूहों ने जेल के नीचे एक सुरंग खोदी और कुत्ता भोजन के लिए मांस और बिल्ली रोटी लेकर आई , इसलिए वे जेल में भूखे नहीं रहे  ! इसी बीच न्यायाधीश के लिए कौवा ,ईश्वर का पत्र लेकर पहुंच गया , जिसमें ईश्वर ने लिखा था कि मैं धरती पर गुप्त रूप से घूमता फिर रहा था , किसी ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया / किसी ने मेरी फ़िक्र नहीं की , किन्तु इन दोनों ने , एक गंदी कमजोर बुढ़िया होने पर भी , मुझे प्यार किया , दया की तथा सगी दादी के जैसा सम्मान दिया ! इसलिए तुम इन दोनों को छोड़ दो वर्ना दंड भुगतने के लिए तैयार हो जाओ ! इस पर न्यायाधीश ने फ़ौरन इन दोनों को बुलाकर बयान लिया , जोकि ईश्वर के कथन जैसा ही था इसलिए उसने इन दोनों को छोड़ कर झूठी शिकायत करने वाले , काले सिर वाले मनुष्य को जेल में डाल दिया !

जेल से मुक्त होकर बच्चा और उसकी मां दूसरे शहर में आ गये ! धीरे धीरे बच्चा बड़ा हुआ ! उस शहर की राजकुमारी अपने लिए सुयोग्य वर ढूंढ रही थी !  उसने एक सार्वजनिक स्थल में कई अन्य युवतियों के साथ स्वयं को कचरे के डिब्बों में छुपा लिया ! यह अच्छा वर ढूंढने की एक प्रतियोगिता थी ! राजकुमारी से विवाह के इच्छुक अन्य दावेदार संभ्रमित होकर सही डिब्बे को ढूंढ नहीं सके , तभी युवा हो चुका , वो बच्चा वहां पहुंचा !  उसने देखा कि बाढ़ के समय बचाई गई मधुमक्खियां एक डिब्बे के ऊपर मंडरा रही हैं ! सो , उसने उसे ही चुना , उसमें राजकुमारी थी ! राजकुमारी की सही पहचान कर पाने के कारण उन दोनों का ब्याह हो गया और वे खुशी खुशी साथ रहने लगे !

सबसे पहले इस चीनी लोक आख्यान से मिले एक संकेत की ओर ध्यान दिया जाये ! बाढ़ से बचने और जेल से मुक्त होने के बाद बच्चा / युवा किसी दूसरे शहर में चला जाता है , जहां एक राजकुमारी और बहुत से लोग रहते हैं ! इस कथा में बच्चे के कस्बे वाली बाढ़ की विपदा के समय , राजकुमारी और उसके शहर के अन्य लोगों का कोई उल्लेख नहीं है ! कहने का आशय ये है कि ना तो वे बाढ़ में डूब रहे होते हैं और ना ही उन्हें नाव के सहारे बचाया गया था इसलिए संभावना यह है कि बच्चे के कस्बे में आई बाढ़ केवल उसके कस्बे तक ही सीमित है और उससे दूसरे शहर के लोग प्रभावित नहीं हुए होंगे ! अतः इस कथा से , जलप्रलय के आख्यानों में उल्लिखित बाढ़ों के विश्वव्यापी होने के बजाये स्थानीय होने के कथन को ज्यादा बल मिलता है , यानि कि अपना समुदाय...अपनी जलप्रलय और अपना लोक आख्यान !

अब प्रश्न ये है कि एक ही कस्बे में बाढ़ की विपदा से बच्चा और दूसरे जीव जंतु प्रभावित हुए तो फिर न्यायाधीश और उसकी जेल क्यों नहीं ?  संभावना ये है कि बाढ़ से बचाये गये जीव जंतुओं द्वारा उपकार का बदला चुकाने के दृष्टांत हेतु तथा दुष्ट मनुष्य की दुष्टता के प्रतिकार स्वरुप दंड के प्रावधान को दर्शाने के लिए , ये तत्व कथा में अलग से जोड़े गये होंगे , या फिर वे धरती पर ईश्वर के कर्मचारी / प्रतिनिधि है , जो अच्छों की जय का पाठ पढ़ाने के लिए तैनात हैं , शायद इसीलिए ईश्वर का पत्र उन्हें हुक्मनामे की तरह से स्वीकार्य भी हुआ !  एक प्रतीकात्मक संभावना ये भी है कि बाढ़ दुष्टों के विरुद्ध है ना कि न्याय करने वालों के विरुद्ध , और एक ये भी कि , संकट गरीब गुरबा पर आता है तो उन्हें बचने के लिए नाव चाहिये होती है , जबकि बड़े / समृद्ध लोगों के पास , बड़े भवन या दूसरे विकल्प होते ही होंगे ! बहरहाल इस कथा में , वे बाकायदा जीवित हैं और बाढ़ से अप्रभावित भी , तो बिना तर्क यह मान लिया जाना चाहिये कि ईश्वर ऐसा चाहता था ! वे कैसे बचे ?  फिर ईश्वर ही जाने  !

आख्यान का बच्चा दयालु है , वह विधवा का बेटा है इसलिए वंचित होने का दुःख उसे बेहतर ढंग से पता है , इधर ईश्वर अच्छे लोगों की खोज में सारी बस्ती भटकता फिरा पर किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया क्योंकि वह वृद्ध और असहाय और अस्वच्छ दिखाई दिया ! बच्चे और उसकी मां की सहृदयता , बहुरूपिये ईश्वर को पसंद आती है इसीलिए वह उनके लिए , संकट से बचने और समृद्धि का इंतजाम कर देता है ! वह उन्हें काले सिर वाले मनुष्यों से दूर रहने की सलाह देता है किन्तु उसकी सलाह नहीं मानने वाले बच्चे से रुष्ट नहीं होता , उसकी प्रशंसा करता है ! उसे दोबारा कारगार वाले संकट से बचाता है ! संभवतः उस बस्ती के मनुष्यों को ईश्वर ने दुष्ट मान लिया होगा और बाढ़ से उनके सम्पूर्ण विनाश की कामना के अंतर्गत बच्चे से कहा कि किसी काले सिर वाले मनुष्य से दूर रहना !  हो सकता है कि कलुष हृदय मनुष्यों के लिए प्रतीकात्मक तौर पर काले सिर वाला संबोधन दिया गया हो जैसा कि बाढ़ से बचाये गये मनुष्य की नियत और उसके व्यवहार से उसकी हृदयगत कलुषता की अभिव्यक्ति होती ही है  !

यह कथा अच्छे लोगों के लिए ईश्वर के आशीष और बुरे लोगों के लिए दंड का बखान करती है ! ईश्वर को दया और करुणा जैसे मानवीय गुण प्रिय हैं , इसलिए वह उनके लिए,जोकि दयावान होने की कसौटी पर खरे उतरते हैं , पशु / पक्षियों तक से उपकार का बदला चुकाए जाने जैसे कृत्य करवाता है और जो लालची तथा दुष्ट हैं , कृतघ्न हैं , उन्हें दण्डित करता है ! 


[ मित्रो लोक आख्यान श्रृंखला फिलहाल यहीं पर विश्राम करेगी  !  कुछ समय बाद इसके अंक आहिस्ता आहिस्ता आते रहेंगे ]

गुरुवार, 7 जून 2012

ईश्वर ने उसे हुक्का दिया ही क्यों था ...?

आकाश से धरती पर सबसे पहले एक बुज़ुर्ग ‘एतिम ने’ और उसकी पत्नि ‘एजाव’ आये थे ! उन दिनों धरती पर जल नहीं था इसलिए ‘एतिम ने’ ने ईश्वर ‘ओबास्सी ओसाव’ से जल के लिए प्रार्थना की ! इस पर ईश्वर ‘ओबास्सी ओसाव’ ने ‘एतिम ने’ को सात साफ़ सुथरे पत्थर और एक हुक्का दिया ! ईश्वर से उपहार पाकर 'एतिम ने'  मैदान में आया और उसने एक छोटे से छेद में जैसे ही एक पत्थर रखा तो उस जगह से जल का सोता उबल पड़ा / स्रोत फूट गया , जिसके कारण से वहां एक बड़ी सी झील बन गई ! कुछ समय बाद इस बुज़ुर्ग जोड़े से सात पुत्र और सात पुत्रियों का जन्म हुआ , जिन्होंने बड़े होकर आपस में शादी कर ली और फिर उनके भी बच्चे हुए ! ‘एतिम ने’ ने प्रत्येक गृहस्वामी को एक झील / एक नदी / एक जल स्रोत भेंट किया किन्तु कुछ समय बाद उसने अपने तीन पुत्रों से ये जल स्रोत वापस ले लिये क्योंकि वे निर्धन शिकारी थे और अपना शिकार / मांस अपने शेष स्वजनों से हिस्सा बांट / शेयर नहीं करते थे ! जब इन तीनों शिकारियों के पुत्रगण यानि कि ‘एतिम ने’ के प्रपौत्र बड़े हो गये और अलग घर में रहने चले गये तो शिकारी पुत्रों ने ‘एतिम ने’ से अनुरोध किया कि , उनसे वापस लिये गये जल स्रोत उन्हें दोबारा लौटा दिये जायें और ‘एतिम ने’ ने ऐसा ही किया  !

बुज़ुर्ग ‘एतिम ने’ ने अपने सभी बच्चों से कहा कि वे अपने पितरों के जल स्रोतों / जलधाराओं से सात पत्थर लेकर , उनमें एक एक पत्थर नियमित अंतराल में रखते जायें , ताकि उनके लिए नई जलधारायें / जल स्रोत बन सकें ! यद्यपि एक पुत्र को छोड़ कर सभी ने ऐसा ही किया ! इस पुत्र ने टोकरी भर पत्थर एक साथ , एक ही स्थान पर रख दिये , जिसके कारण से बहता हुआ जल अवरुद्ध हो गया और सारे खेत डूबने लगे ... यहां तक कि पूरी धरती के डूबने का खतरा पैदा हो गया ! जलप्रलय का माहौल देख कर सारे बच्चे दौड़कर ‘एतिम ने’ के पास पहुंचे ! ‘एतिम ने’ ने बाढ़ को रोकने के लिए ईश्वर ‘ओबास्सी ओसाव’ से प्रार्थना की , तो उसने बाढ़ रोक दी ! इसके बाद एक खेत को छोड़कर , बाढ़ का जल सारे खेतों से नीचे उतर गया ! यह खेत उस बुरे पुत्र का था , जिसने ‘एतिम ने’ का कहना नहीं माना था ... और फिर उस खेत में हमेशा हमेशा के लिए एक झील बन गई ! इस घटना क्रम के बाद ‘एतिम ने’ ने शेष पुत्रों के जल स्रोतों का नामकरण किया और उनसे कहा कि वे उसे धरती पर जल लाने वाले इंसान के रूप में याद रखें ! ठीक दो दिन बाद ‘एतिम ने’ की मृत्यु हो गई !

इस नाईजीरियाई लोक आख्यान में धरती के पहले दो मनुष्य आकाश से आये हुए बताये गये हैं और हैरान करने वाली बात ये है कि उन्हें बुज़ुर्ग कहा गया है ! संभवतः इस जोड़े को बुज़ुर्ग कहे जाने का मंतव्य , उन्हें विचार परिपक्व दिखलाने का रहा हो अन्यथा आयु से वृद्ध जोड़े के चौदह बच्चे पैदा होना , कहीं अधिक आश्चर्य का विषय माना जा सकता है ! इस आख्यान में 'एतिम ने' और 'एजाव' के सातों पुत्र , पुत्रियां , जो कि आज की स्वजनता के अनुसार सगे भाई बहन हैं , परस्पर विवाह करते हैं और उनके बच्चे भी होते हैं तथा उनकी सामाजिक जैविक वंशबेल आगे बढ़ती है ! बहुत संभव है कि उक्त समय में इस तरह के वैवाहिक संबंधों को लेकर कोई सामाजिक वर्जनायें प्रचलन में नहीं रही होंगीं ! इसलिए इस मुद्दे पर किसी विस्तृत टिप्पणी का कोई औचित्य भी नहीं है ! 'एतिम ने' और 'एजाव' के जोड़े के आगमन के समय , धरती पर जल नहीं था , तो उसे ईश्वर से मांगा गया ! यानि कि जोड़ा जानता था / मानता था कि ईश्वर सामर्थ्यशाली है और उसमें धरती को जल युक्त करने की क्षमता है ! 

धरती पर जल की उपलब्धता की प्रार्थना किये जाने पर ईश्वर ‘एतिम ने’ को एक हुक्का और सात पत्थर देता है ! हालांकि आगे की सारी कथा में पत्थरों का बहुविध उपयोग दिखाई देता है , किन्तु कथा , हुक्के को लेकर सर्वथा मौन है ! बुज़ुर्ग जोड़ा अथवा उसके वंशज कथा के किसी भी अंश में हुक्के का प्रयोग करते नहीं दिखाई देते , इसलिए प्रश्न यह है कि ईश्वर ने 'एतिम ने' को हुक्का दिया ही क्यों ? कहीं ऐसा तो नहीं कि कथा के समय का नाईजीरियाई समाज तम्बाखू की खेती करता रहा हो या फिर हुक्का उसकी नियमित दिनचर्या का अंग रहा हो , वर्ना कथा में हुक्के को ईश्वर का उपहार बताये जाने का औचित्य ही क्या है ? एक विचार यह भी है कि चूंकि हुक्का व्यसन का प्रतीक है और तत्कालीन मनुष्य अपने व्यसन को दुर्गुण कहे / समझे जाने / स्वीकारे जाने की अपेक्षा उसे ईश्वर का उपहार बता कर ‘जस्टीफाई’ करने की कोशिश / औचित्यपूर्ण ठहराने का उपक्रम कर रहा हो !

'एतिम ने' को ईश्वर प्रदत्त पत्थरों में से एक के माध्यम से , मैदानी धरती के छिद्र को जलछिद्र में परिवर्तित होना बताया गया है , शायद कुंवें और कुंवें की मुंडेर बांधने जैसा कोई यत्न  ! धरती से फूट पड़ने वाली कोई धार जिसे पत्थर से नियंत्रित किया गया हो ! पिता अपनी जल संपदा पुत्रों को विरासत में बांटता है और उन तीन पुत्रों से छीन भी लेता है , जो कि अपनी आय (मांस) शेष स्वजनों में नहीं बांटते हैं ! जलस्रोतों से वंचित किये गये पुत्रों के इस व्यवहार की पृष्ठभूमि में उनकी निर्धनता के औचित्य की मौजूदगी के बाद भी पिता , उन्हें जल विरासत से वंचित कर दण्डित करता है , क्योंकि तीनों शिकारी पुत्रों का यह व्यवहार उसे असामान्य / असहज / असामाजिक / असहिष्णुता का लगता है , भले ही आय / उपलब्धियों / शिकार की न्यूनतम / किंचित मात्रा भी स्वजनों को पारस्परिक हिस्सेदारी से वंचित करने का कारण बन रही हो !  ज़ाहिर है कि ‘एतिम ने’ चाहता है कि पुत्रों / मनुष्यों के मध्य सहकारिता / हिस्सेदारियों / साझेदारियों / मेलमिलाप की भावना प्रबल ही नहीं हो बल्कि व्यवहारिक धरातल पर दिखनी भी चाहिये  !

बुज़ुर्ग की इस इच्छा का एक बार पुनः प्रकटीकरण तब होता है जबकि वह सभी पुत्रों से एक एक पत्थर का समान उपयोग करके , नियमित अंतराल वाली जलधाराओं का बटवारा चाहता है , किन्तु उसका एक पुत्र एक समान संख्या में पत्थरों के उपयोग से जल के समान वितरण का सिद्धांत तोड़ बैठता है और सांकेतिक रूप से एक टोकरी भर पत्थरों से जल धारा को अवरुद्ध करके असमान बटवारे की चेष्टा करता है , असमान बटवारे की यह कोशिश ऐसी बाढ़ के लिए उत्तरदाई है , जिसके कारण से सबके खेत डूब जाते हैं , किन्तु 'एतिम ने' ईश्वर की सहायता से इस प्रक्रिया / बाढ़ को बाधित कर देता है और परिणाम स्वरुप दण्डित केवल वही पुत्र होता है जिसने ज्यादा पत्थरों से जल के असमान बटवारे की कोशिश की थी ! जहां सबके खेत जल मुक्त हो जाते हैं वहीं दोषी पुत्र बाढ़ के बाद शेष रह गई झील में अपने खेत गवां बैठता है  !  अंततः इस कथा से एक सन्देश और कि अपने अनुभवी पितरों का कहा मानना चाहिये , अन्यथा ...



[  मित्रो जितनी जल्दी संभव होगा , एक दो अंक ठेल कर , लोक आख्यान की श्रृंखला कुछ दिन के लिए स्थगित रखने और विषयान्तर का इरादा है ! ये श्रृंखला आगे भी ज़ारी रहेगी किन्तु अन्य विषयों के साथ टुकड़ा टुकड़ा ! जब मुझे स्वयं भी विषयगत एकरसता की अनुभूति हो रही है तो फिर आपकी बर्दाश्त की हद तो मैं समझ ही सकता हूं  :)  ]

बुधवार, 6 जून 2012

अखरोट के छिलके ...!

एक दिन सर्वोच्च देव ‘प्रामजिमास’ ने स्वर्ग की खिड़की से धरती पर झांक कर देखा , तो उसे हर ओर ईर्ष्यालु , झगड़ालू तथा एक दूसरे पर अन्याय करते हुए मनुष्य नज़र आये , अपनी धरती की ये हालत देखकर उसे क्रोध आ गया और उसने धरती से इंसानों को नष्ट करने के लिए ‘वांडू’ और ‘वेजास’ नाम के दो देव भेजे ! वांडू यानि कि जलदेव और वेजास अर्थात वायु देव ! अगले बीस दिन और रात लगातार , इन दोनों के कोप से धरती पर भयंकर विनाश हुआ ! इक्कीसवें दिन ‘प्रामजिमास’ धरती पर ‘वांडू’ और ‘वेजास’ को सौंपे गये काम की प्रगति देखने निकला ! प्रामजिमास को अखरोट खाते रहने की आदत थी और वो अखरोट के छिलके नीचे फेंकता जाता था , जिनमें से एक छिलका धरती की सबसे ऊंची पर्वत चोटी पर गिरा जहां , जल और वायु के कोप से बचने के लिए कुछ मनुष्यों और अन्य पशु जीवों ने शरण ले रखी थी ! वे सभी बाढ़ से बचने के लिए अखरोट के छिलके पे लटक गये / चिपक गये / उसे कसकर पकड़ लिया !

इस बीच सर्वोच्च ईश्वर का क्रोध कुछ कम हो चला था ! उसने वांडू और वेजास से ठहर जाने को कहा ! धीरे धीरे जलस्तर कम हुआ और अखरोट के छिलके से लटक कर प्राण बचा पाये मनुष्य तथा अन्य पशु जीव धरती पर इधर उधर बिखर गये ! एक वृद्ध जोड़ा इस आपाधापी में बहुत थक चुका था ! अतः वो थोड़ा आराम करने की नियत से वहीं रुक गया जहां , अखरोट के छिलके ने धरती को स्पर्श किया था ! प्रामजिमास ने इस वृद्ध जोड़े को सलाह देने के लिए और उनकी सुरक्षा के इरादे से इंद्र धनुष को भेजा ! इंद्र धनुष ने वृद्ध दंपत्ति से कहा कि धरती की हड्डियों के ऊपर से नौ बार कूदो ! दंपत्ति ने ऐसा ही किया ! इसके फलस्वरूप नौ अन्य जोड़े उत्पन्न हुए ! कालांतर में ‘लिथुआनियां’ की नौ जनजातियां इन्हीं जोड़ों की वंशज हुईं !

जल प्रलय के अन्य आख्यानों की तरह इस ‘लिथुआनियाई आख्यान’ में भी , ईश्वर दुष्ट मनुष्यों पर क्रोधित होता है और उन्हें नष्ट करने के लिए जल और वायु देव को आदेश देता है !  वह धरती को , ईर्ष्यालु / झगड़ालू तथा एक दूसरे पर अन्याय करने वाले मनुष्यों से मुक्त करना चाहता है !  कहने का आशय यह है कि ईश्वर को इस कोटि के मनुष्य पसंद नहीं हैं  !  जलप्रलय की दूसरी कथाओं की तरह से इस कथा में भी मनुष्य और अन्य पशु जीव किसी ऊंचे पर्वत की चोटी पर अपनी प्राणों की रक्षा के लिए शरणागत होते हैं , किन्तु इस कथा के किसी भी पात्र को जलप्रलय की भविष्यवाणी और उससे बचने के लिए नाव बनाने का कोई पूर्व दैवीय संकेत नहीं मिलता है !  ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर उन सभी से रुष्ट था अतः उसने किसी भी मनुष्य को पात्र मानकर भावी आपदा की पूर्व सूचना नहीं दी ! यद्यपि बचे हुए अनेकों जीवित मनुष्यों के प्रति उसकी सदाशयता , संभवत: उसके क्रोध के कम हो जाने का परिणाम थी  !

इस कथा में , पहाड़ की चोटी पर अपनी प्राण रक्षा के लिए मौजूद मनुष्यों और अन्य पशु जीवों को , ईश्वर के एक प्रिय शगल / उसके खाने के शौक के कारण , अकस्मात / एक अयाचित , सहायता प्राप्त हो जाती है  !  बाढ़ से बचने के लिए उन्हें इसकी आवश्यकता भी थी !  कह नहीं सकते कि , ईश्वर ने ऐसा जानबूझकर किया था या कि अनजाने में , बहरहाल उसके खाये हुए अखरोटों में से एक का छिलका , जीवन के लिए संघर्ष कर रहे मनुष्यों और अन्य पशु जीवों के लिए नाव का काम करता है !  वे जल प्रलय से बचने के लिए नाव नहीं बना सके थे क्योंकि उन्हें इस घटना का पूर्वाभास नहीं हुआ था , किन्तु ईश्वरीय अखरोट का एक छिलका , जोकि निश्चित रूप से बड़े आकार का रहा होगा , एन मौके पर उनकी इस आवश्यकता को पूरा कर देता है  !   बाढ़ थमने पर जहां सारे मनुष्य और पशु जीव अन्यत्र / धरती पर बसने के लिए तत्काल प्रस्थित हो जाते हैं  ! वहीं एक बूढ़ा जोड़ा अपनी असहायता / अपनी थकान के चलते वहीं अकेला ठहर जाता है  !

वर्षा के समय इंद्र धनुष का दिखना एक स्वाभाविक घटना है , किन्तु संकेत यह कि ईश्वर उसे , वृद्ध दंपत्ति की सहायता के लिए भेजता है , इसका एक मतलब यह भी हुआ कि ईश्वर सदैव उनके साथ है , जो असहाय हैं  ! ईश्वर वृद्ध दंपत्ति की सुरक्षा के लिए फ़िक्र मंद है , अतः वो इंद्र धनुष के माध्यम से , उस एकाकी / असहाय जोड़े से एक प्रतीकात्मक कृत्य करवा कर नौ अन्य जोड़ों को उत्पन्न कराता है तथा उसे एक बड़ा सा परिवार देता है , जिसकी वंश बेल बाद में लिथुआनियां क्षेत्र की नौ जनजातियों के रूप में पल्लवित होती दिखाई देती है  !  धरती / मिट्टी की नौ हड्डियां संभवतः एक सांकेतिक प्रतीक है अथवा कीचड़ में दबे हुए नौ जीवित जोड़ों को बचाने का कोई उपक्रम  !  कुल मिलाकर यह कथा मनुष्यों की दुष्टता के प्रति ईश्वरीय कोप , कोप कम होने पर उसके अनुग्रह , विशेष कर असहायों के प्रति ईश कृपा का कथन करती है  ! ...और इस आख्यान का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि , ईश्वर सृष्टि के पुनर्सृजन के समय अन्य जन समुदायों की तुलना में , जनजातीय समुदायों की निर्मिति को प्राथमिकता देता है  !

मंगलवार, 5 जून 2012

हिम दैत्य ...!

जलातिरेक से विनाश और पुनर्सृजन की गाथायें , काल्पनिकता और यथार्थ के मध्य चाहे जो भी घालमेल करती हों , जैसा भी ताना बाना बुनती हों , पर वे सम्बंधित भूक्षेत्रों की पारिस्थितिकी से हटकर , कदापि नहीं 'कही' जातीं ! आख्यानों में , सम्बोधित / समाहित किया गया जन समुदाय , जिस तरह के प्राकृतिक पर्यावास और आस्था / विश्वास जगत तथा जीवन शैली अथवा आदत और व्यवहार संसार , में रहता है , वो अपरिहार्य रूप से इन गाथाओं का हिस्सा होता है  ! कहने का आशय यह है कि लोक गाथायें , जन समुदायों के भौतिक जागतिक / आध्यात्मिक संसार से इतर नहीं हुआ करतीं , वे जन समुदाय के लिए निर्धारित भौतिक / आध्यात्मिक सीमा रेखाओं के दायरे में रहती हैं  , उनकी अवमानना नहीं करतीं  !

मसलन , स्केंडिनेवियन क्षेत्र के आख्यान में ‘यिमिर’ नाम के महा हिम दैत्य का उल्लेख मिलता है , ओडेन , विली और वे, नाम के तीन योद्धा , इस महा हिम दैत्य से लड़ते हैं और उसे परास्त कर देते हैं ! युद्ध में पराजित महा हिम दैत्य , यिमिर के घावों से ठंडा पानी बह निकलता है  ! इसी दौरान एक अन्य हिम दैत्य बर्गलमीर अपनी पत्नि और बच्चों सहित युद्ध क्षेत्र से बच निकलता है  !  प्राण बचाकर भागने के लिए बर्गलमीर एक पेड़ के खोखले तने का उपयोग नाव की तरह से करता है  !  कालांतर में बर्गलमीर और उसके परिवार के वंशजों के तौर पर तुसार / पाले / कुहासे के दैत्यों की प्रजाति का जन्म होता है , जबकि यिमिर का मृत शरीर , बाद में धरती बन जाता है , जिसमें , स्केंडिनेवियाई जन समुदाय निवास करता है  !  यिमिर के शरीर से जो रक्त बहा , उससे महासागर बने  !

ये कथा उन मनुष्यों को संबोधित है , जोकि सामान्यतः वर्ष पर्यंत पूर्णतः हिमाच्छादित अथवा लगभग हिमाच्छादित जैसे स्केंडिनेवियाई क्षेत्र में निवास करते हैं , अतः यिमिर के रूप में हिम के महा दैत्य की कल्पना , हिम / बर्फ में कठिन जीवन परिस्थितियों को लेकर की गई प्रतीत होती है ! मनुष्य के विरुद्ध हिम / बर्फ का खलनायकत्व एक स्वाभाविक विचार लगता है ! इस कथा को बांचते हुए हम , निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते कि हिम के खलनायकत्व / महादैत्य से लड़ने वाले , ओडेन , विली और वे , कौन हैं ? और उन्होंने हिम दैत्य को पराजित कर उसकी देह से विशाल जलराशि को उन्मुक्त कैसे किया ? किन्तु एक अनुमान यह ज़रूर लगाया जा सकता है कि , ये तीनों महायोद्धा संभवतः सांकेतिक रूप से  सूर्य , वायु और अग्नि ( विद्युत ) जैसी प्राकृतिक शक्तियां हो सकते हैं , जिन्हें तत्कालीन स्केंडिनेवियाई मनुष्य अपने रक्षक देवताओं / योद्धाओं के रूप में कल्पित करता रहा हो ! 

कोई आश्चर्य नहीं कि , यहां पर एक भारतीय प्रसंग , याद आ रहा है  !  हिलब्रैंट , सूर्य को इंद्र के रूप में देखता है , वो उसे अग्नि का जुड़वां भाई कहता है , इंद्र के आख्यान में जिस वृत्त वध का उल्लेख है , उसे कतिपय विद्वान वृत्त - शुष्कता (अनावृष्टि) मानते है और हिलब्रैंट जैसे कुछ , वृत्त - शीत ( हिम ) , अतः हिम से मुक्ति दिलाने का कार्य इंद्र / सूर्य ही कर सकता है !  उसका अस्त्र वज्र प्रहार करता है , यानि कि विद्युत प्रहार !  इस सांकेतिक प्रसंग में इंद्र या तो सूखे / अनावृष्टि का विनाश करता है या फिर हिम से जल को मुक्ति देता है ! ना जाने क्यों ? यह प्रसंग मुझे स्केंडिनेवियाई आख्यान के महा हिम दैत्य यिमिर से लड़ने वाले , ओडेन , विली और वे , को सूर्य , हवा और अग्नि / विद्युत के प्रतीकात्मक अर्थों में देखने की प्रेरणा दे रहा है  !  यिमिर का मृत होकर , निवास योग्य धरती हो जाना और उसके घावों से अथाह जल राशि ( रक्त ) की निकासी के बाद महासागरों का जन्म , प्रतीकात्मक आशयों में ही देखे जाने चाहिये  ! 

इस आख्यान में बर्गलमीर के हिम दैत्य का युद्ध क्षेत्र से सपरिवार जीवित बच निकलना , एक अदभुत कथन है जिसमें विशाल ग्लेशियरों से बड़े हिमखंड / बर्गलमीर का टूट कर बह निकलना और फिर महासागर की ऊष्ण जलधाराओं वाले क्षेत्र में तुसार / पाले या शायद कुहासे जैसे दृश्य बंधों की निर्मिति , जिसे बर्गलमीर के वंशज, दैत्यों की प्रजाति की उत्पत्ति माना गया  !  यानि कि टूट कर बहते हुए हिमखंड / बर्गलमीर और ऊष्ण जलधाराओं के सम्मिलन से उपजे , बर्गलमीर की वंश बेल , तुसार दैत्य प्रजाति  !  कथा में ऊष्ण जल धाराओं का कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है  , किन्तु तुसार / कुहासे के साथ हिमखंड का पितृत्व सम्बंध , अन्तर्निहित ऊष्ण जलधाराओं की ओर ही संकेत करता है  , भले ही आख्यान कहने वाले व्यक्ति को इसका सीधा सीधा संज्ञान ना भी रहा हो  !  तुसार को खलनायक / दैत्य मान लेने की एक वज़ह ,फसलों को उससे होने वाला नुकसान भी हो सकता है और दूसरी वज़ह , महासागर में दृष्टि को बाधित कर देने वाली उसकी क्षमता अथवा उसके गुण /दुर्गुण से होने वाली नावों / किश्तियों की , दुर्घटनायें भी  !

बर्गलमीर / हिम खंड के साथ बहने वाले किसी पेड़ के खोखले तने को उसकी नाव कहा गया है , जिसने हिम खंड  को सपरिवार एक विशिष्ट दूरी तय करने में एक सहायता दी , इस कथन की पृष्ठभूमि में , हिमखंड को दैत्य ( जीवित देह ) माने जाने की सांकेतिकता और उसके जीवित बचे रहने के लिए लकड़ी की एक नाव की आवश्यकता की अनुभूति , अन्तर्निहित हो सकती है  !  यह आख्यान इस अर्थ में महत्वपूर्ण है , क्यों कि यह सिद्ध करता है कि  , लोक आख्यान , जन समुदाय विशेष की पारिस्थितिकी / प्राकृतिक पर्यावास के दायरे में ही पल्लवित होते हैं  !

रविवार, 3 जून 2012

महाबाढ़ : जल जीवन के पाषाणीकृत अभिलेखागार !

आदिमयुगीन जीवन पर, ज्यादातर स्थानीयता के प्रभावों, कदाचित अतिशयोक्तिपूर्ण संकेतों, से लैस गाथाओं को टुकड़ा टुकड़ा बांचते हुए, यह स्मरण रखना होता है कि अर्वाचीन संसार के विश्लेषण में प्रयुक्त हो रहे इन आख्यानों को ऐतिहासिक प्रामाणिक दस्तावेजों के बतौर स्वीकारने के बजाये, उस काल का अपुष्ट और अपेक्षाकृत काल्पनिक, किन्तु उपलब्ध एकमात्र सूचना स्रोत माना जाना चाहिये ! ‘कहन’ में अन्तर्निहित तथ्यों को हम अपनी समझ / अपने बोध से किस सीमा तक औचित्यपूर्ण ठहरा सकते हैं ? इसका कोई निर्धारित पैमाना नहीं है ! अतः कथा में सांकेतिक रूप से मौजूद भिन्न तत्वों के विश्लेषण में भिन्न दृष्टिकोणों और वैविध्यपूर्ण निष्पत्तियों को तब तक व्यक्तिगत निष्पत्तियां ही माना जाना चाहिये जब तक कि व्यापक अकादमिक संसार इनमें से किसी एक के पक्ष में अपना अभिमत दर्ज ना करा दे ! इसीलिये लोक आख्यानों के विश्लेषण में अपने निज दृष्टिकोण और अपनी निष्पत्तियों को लेकर, इस आलेख का लेखक किसी मुगालते में नहीं है !

सृष्टि के पुनर्सृजन के लिए बाढ़ की संकल्पना(ओं) की विश्वव्यापी उपस्थिति, आदिम बसाहटों पर जलातिरेक की भविष्यवाणियों / पूर्वाभासों से लेकर आगामी संकट से निपटने की मानवीय तैयारियों तथा दैवीय संकेतों के प्रति अविश्वासियों के मटियामेट हो जाने के बयानों और घटनोत्तर पुनर्जीवन के कथनों से, भरी पड़ीं है ! जहां आधुनिक विज्ञान यह स्वीकार करता है कि भूमि का जीवन, सामुद्रिक गतिविधियों और धरती की प्लेटों की निज हलचलों से प्रभावित होता रहता है ! ऐसे में भूखंडों / समुद्रों का विलोपन / कायांतरण, नवपर्वतों का निर्माण तथा जलीय जीवन के फासिल्स / जीवाश्मों की, भूमि अथवा पर्वतों पर मौजूदगी, को देखकर हैरान होने का कोई कारण भी नहीं बनता ! मिसाल के तौर पर, तकरीबन पांच करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में रहा ‘टेथिस सागर’ नवनिर्मित हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं की ऊंचाइयों में दम तोड़ चुका है ! फिलहाल उत्तराखंड के चमौली जिले / जनपद का लफथल पर्वतीय क्षेत्र, तत्कालीन टेथिस सागर के जलजीवन का पाषाणीकृत अभिलेखागार बन चुका है ! यहां मौजूद घोंघे / सीप / मछलियों जैसे अनेकों समुद्री जीव जंतुओं के फासिल्स, भूविज्ञानियों / जन्तुविज्ञानियों / सुधिजनों के लिए प्रकृति प्रदत्त, पुस्तकालय/ अभिलेखागार / प्रयोगशाला है  !

पर्वतीय उच्चता पर जल जंतुओं के जीवाश्म / फासिल्स की मौजूदगी का यह उदाहरण कहता है कि धरती की दो प्लेट्स के पारस्परिक टकराव के कारण हिमालय पर्वत श्रृंखला का जन्म हुआ और टेथिस सागर, हिमालय की ऊंचाइयों की आगोश में अंतिम नींद सो गया , सो उसके पाल्य जीव जंतु भी ! मोटे तौर पर टेथिस सागर की मृत्यु का विचार जलप्रलय की मनु और श्रद्धा वाली धारणा से भिन्न माना जायेगा जिसमें अगाध बारिश और बढ़ते जल स्तर के कारण जीव जंतुओं का विनाश होना था तथा जल जंतुओं को बाढ़ के समय पर्वत की ऊंचाई पर जा पहुंचना और फिर उसमें से अनेकों का वहीं अटक / फंस जाना संभावित था ! मूल अमेरिकी आदिवासियों का जल प्रलय आख्यान हमारे मनु श्रद्धा वाले जल आख्यान से ज़रा सा भिन्न है ! हमारे आख्यान में, ईश्वर के प्रिय, केवल दो ही मनुष्य, मनु और श्रद्धा, जलप्रलय के बाद जीवित बचते हैं, जबकि वहां पर जलप्रलय से बचने वाले दैवीय स्वप्न के विश्वासी मनुष्यों की संख्या कहीं अधिक है !

मूल अमेरिकी आदिवासियों का आख्यान कहता है कि उन दिनों धरती पर जनसंख्या बहुत बढ़ गई थी जिसके कारण, जनसंख्या के अनुपात में खाद्य सामग्री कम पड़ने लगी थी तथा जनसमूहों और आखेटकों के बीच शिकारगाहों के आधिपत्य को लेकर होने वाले खूनी संघर्ष आम हो गये थे ! वे लोग शिकार निपुण होने के साथ साथ देवदार की लकड़ियों से नाव और डोंगियां बनने में भी सिद्धहस्त थे ! छाल से टोकरियां और रेशों से कपड़े बनाने का हुनर भी उन लोगों के पास था, लेकिन जनाधिक्य उनकी सबसे बड़ी समस्या थी, जोकि उनकी उदर पूर्ति और उनके अस्तित्व के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रहा थी ! उनके समुदाय के एक बुद्धिमान वृद्ध को, एक ही स्वप्न बार बार आने के कारण, उसने समाज परिषद की बैठक बुलाकर सभी को बताया कि या तो भयंकर वर्षा होने के संकेत हैं अथवा नदी में जल स्तर बढ़ने के कारण महाबाढ़ के संकेत हैं !

वृद्ध के स्वप्न पर अविश्वास करने वाले लोगों ने उसका मजाक उड़ाया और अपनी दिनचर्या में लग गये जबकि विश्वासी लोगों ने बचाव के लिए एक बड़ा जहाजी बेड़ा बनने का निर्णय लिया ! उन्होंने देवदार की लकड़ी से कई छोटी छोटी डोंगिया और एक बड़ा जहाजी बेड़ा तैयार किया, देवदार की छाल से रस्सियां बनाकर डोंगियों को बेड़े से जोड़ा गया तथा एक बड़ी रस्सी के एक छोर से बेड़े को ‘कोविचान पर्वत’ पर मजबूती से बांध दिया गया ! साथ ही एक बड़े पत्थर को लंगर बनाकर जहाजी बेड़े में अलग रस्सी से जोड़ा गया ! ऐसा करने में इन मेहनती लोगों को कई चन्द्र मास लगे ! कुछ ही समय में भयानक वर्षा होने लगी और नदियों का जल स्तर ऊपर बढ़ने लगा ! विश्वासी लोग अपने परिजनों और पर्याप्त भोजन / रसद के साथ इस बेड़े पर चढ़ गये ! महाबाढ़ से कोविचान पर्वत की चोटी भी पानी में डूब गई पर रस्सी से बंधा जहाजी बेड़ा ऊपर तैरता रहा, बाढ़ इतनी भयानक थी कि डोंगियां भी बेड़े से छूटकर इधर उधर बहने लगी किन्तु लंगर के कारण बेड़ा स्थिर बना रहा !

कई दिनों बाद जब वर्षा थमी और बाढ़ का पानी नीचे उतरने लगा तो बेड़े में बचे हुए लोग भी अपने अपने घरों को फिर से बनाने में जुट गये ! कालांतर में उनकी जनसंख्या फिर से बढ़ने लगी पर...झगड़े से बचने के लिए इस बार, वे अलग अलग कबीलों और जनजातियों की शक्ल में दूर देश / भूक्षेत्रों में जाकर बसने लगे ! यह कथा अनेकों परिवार के बच जाने का कथन करती है और यह भी कि ये सब विश्वासी लोग थे जिन्होंने दैवीय स्वप्न पर विश्वास किया और संकट से बचने के उपाय स्वरूप नाव बनने वाली अपनी दक्षता का उपयोग किया तथा कड़ी मेहनत की, वे बुद्धिमान थे इसलिए उन्होंने जहाजी बेड़े को पहाड़ की चोटी से बांधा, एक पाषाणीय लंगर की व्यवस्था की, पर्याप्त रसद रखी और वैकल्पिक डोंगियां भी तैयार कीं, यद्यपि बाढ़ के समय डोंगियों वाला विकल्प असफल रहा फिर भी यह, विश्वासी मनुष्यों की दूरदर्शिता का प्रमाण तो है ही ! उन्होंने संकट से बचने के लिए सामूहिक श्रमदान और स्थानीय संसाधनों के उपयोग की नायब मिसाल पेश की  !

मूल अमेरिकन आदिवासियों की तरह से ‘एस्किमो’ की जलप्रलय गाथा भी लगभग यही घटना विवरण दर्ज कराती है, हालांकि उनकी गाथा इस अतिरिक्त विवरण के लिए विशिष्ट मानी जायेगी कि महाबाढ़ के बाद धीरे धीरे जलस्तर गिरता रहा परन्तु अनेकों जल जंतु पर्वत की ऊंचाइयों में अटक / फंस कर रह गये ! उनका आख्यान कहता है कि यही कारण है कि सील,घोंघे, सीप, मछलियों, स्टार फिश, जैसे अनेकों समुद्री जीव जंतुओं के अवशेष / हड्डियां (फासिल्स ) आज भी पर्वत में मौजूद हैं ! क्या यह चिंतन का मुद्दा / विचारणीय बिंदु, नहीं है कि पर्वतीय ऊंचाइयों पर मौजूद समुद्री जीवों के फासिल्स के लिए ‘एस्किमो’ का यह कथन, आज के भूवैज्ञानिकों / जंतुविज्ञानियों के कथन से सैकड़ों / हजार साल पहले किया गया था !


सोमवार, 28 मई 2012

हुलकी जिसे कहते हैं ...!

गांव में बच्चे अपनी शरारत पर मां से डांट खाते, हुलकी आये ! पड़ोसियों में झगड़ा होता तो, हवा में जुमला अक्सर उछलता, हुलकी आये ! तब सोचा भी नहीं कि इस शब्द के मायने क्या हो सकते हैं ? जेहन में कुछ ख्याल कौंधते, शायद ये कोई अपशब्द होगा या कि श्राप अथवा इसमें दूसरे पक्ष को चोट पहुंचाने का सामर्थ्य ज़रूर होगा ! लेकिन जब शब्दकोष देखने की उम्र हुई तो पता चला कि, इसका मतलब वमन / उल्टी / हैजा / उबकाई / जी मिचलाना / हिलोर मारना भी हो सकता है और देखना / झांकना भी ! जिन्हें बागवानी का शौक हो, उनके लिए जानकारी ये कि पेड़ / पौधे की चोटी / टुनगी / फुनगी / कोपल को भी हुलकी कहा जा सकता है ! 

उत्तर भारत में बहुतायत से प्रयुक्त इस शब्द के इतने सारे मायने देख / सुन / पढ़कर हैरानी होती है ! उत्तर प्रदेश के उरई शहर में हुलकी माता के मंदिर की मौजूदगी, पंजाब के पटियाला और मध्य प्रदेश में जबलपुर के पास के किसी गांव का नाम हुलकी होना, बिहार का कोई हुलकी पुल, हुलकी मार्ग  ! ...मैत्रेयी पुष्पा अपने उपन्यास ‘ बेतवा बहती रहे ‘ में कह उठें, तुम पर हुलकी परे ! राजकमल चौधरी अपने उपन्यास ‘साँझक गाछ ‘ में लिखें, खिड़की से बाहर हुलकि देवनाथ चिचियाइल...सम गोटा हुलकी मार लागल ! भोजपुरी चैनल में हुलकी बुलकी का ज़िक्र हो या फिर कोई बंदा कह उठे, सांझ के हुनक हुलकी देबार समाचार ओहि मोहल्ला पसरि गेल छे ! क्या बुन्देली, क्या भोजपुरी और मैथिल क्षेत्र या फिर मगही के चाहने वाले, हुलकी के ज़लवे देखते ही बनते हैं !

इधर छत्तीसगढ़ में बस्तर संभाग के मुरिया गोंड आदिवासी, शीत ऋतु में पेन (देव) कोलांग मनाते हों तो वर्षा ऋतु में हुलकी कोलांग ज़रूर मनायेंगे ! यानि कि हरियाली / खुशहाली के लिए महोत्सव ! इस पर्व के विशिष्ट अवसर पर उल्लास की अभिव्यक्ति के लिए मुरिया गोंड समाज में प्रचलित, हुलकी पाटा एक सामूहिक नृत्य वाद्य भी है, जिसमें स्त्री पुरुष संयुक्त रूप से भाग लेते हैं और एक गीत वाद्य भी ! हुलकी गीत गायन के साथ, हुलकी पाटा नृत्य करते हुए, हुलकी मांदरी वाद्य यंत्र को बजाये जाने का उल्लेख, सारे माहौल को हुलकी मय कर देता है ! सच कहें तो हुलकी शब्द से तरंगों और लहर की तरह की ध्वनियों / हिलकोरों जैसे अर्थ की अनुभूति होती है, यहां तक कि ये संकेत, हुलकी के शाब्दिक अर्थ वमन से भी परिलक्षित होते हैं ! 

आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत का एक लोक आख्यान कहता है कि, एक भीमकाय मेंढक ने धरती का पूरा पानी पी लिया ! अन्य जीव धारियों के पीने के लिए कुछ भी नहीं बचा! हर ओर हाहाकार मच गया ! सभी जीव जंतुओं ने अपने अपने तरीके से मेंढक को हंसाने और उल्टी करवाने के यत्न किये,लेकिन मेंढक पर इसका कोई असर नहीं हुआ ! सारे जानवर अपनी कोशिश में नाकामयाब रहे ! जिसके चलते उन सभी के प्राण संकट में पड़ गये थे, तभी ईल ने अपनी शारीरिक भाव भंगिमाओं और खास किस्म की ऐंठन से मेंढक को हंसा दिया ! मेंढक के हंसते ही उसके अन्दर मौजूद सारा पानी बाहर निकल गया ! पानी की इस आकस्मिक निकासी के परिणाम स्वरूप आई, बाढ़ में अनेकों जीव जंतु बह गये, यहां तक कि, मनुष्य भी ! अगर जलसिंह बाढ़ में बहते हुए मनुष्यों को डोंगियों में नहीं डालते तो पूरी मानवता बह गई होती !

कथा में एक दानवाकार जल थल जीव मेंढक दुनिया का पूरा पानी पी लेता है, फिर दुनियां बिन पानी सब सून के हाल पर ! जब सारे जीव जंतु इस समस्या से निपटने में नाकाम रहते हैं, तब एक और जल जीव ईल, मेंढक से पानी की हुलकी / वमन कराने में सफल हो जाती है! पानी की आकस्मिक / एकमुश्त निकासी सृष्टि पर जलप्रलय सा संकट खड़ा कर देती है ! अब एक और जल जीव, जलसिंह बाढ़ में बह रहे मनुष्यों / जीवों को डोंगियों में चढ़ा कर जीवित बचा लेता है ! संभव है कि, ये डोंगियां, पानी में बह रहे, लकड़ी के बड़े बड़े लट्ठे रहे होंगे या फिर नदी / समुद्र के किनारों से बह गईं डोंगियां ही हों ! कथा, पानी के बिना जीवन दूभर होने तथा ज्यादा पानी से भी जीवन दूभर हो जाने का महती संकेत देती है और यह भी कि मनुष्य का जीवन जल जीवों से किस हद तक जुड़ा है, उन पर किस हद तक निर्भर है ! हमारे यहां हुलकी, देखना है, झांकना है, व्याधि है, समस्या है, वमन है, निजात है, उल्लास है, कोपलों के रूप में नवजीवन है...और वहां भी !