एक दिन सर्वोच्च देव ‘प्रामजिमास’ ने स्वर्ग की खिड़की से धरती पर झांक कर देखा , तो उसे हर ओर ईर्ष्यालु , झगड़ालू तथा एक दूसरे पर अन्याय करते हुए मनुष्य नज़र आये , अपनी धरती की ये हालत देखकर उसे क्रोध आ गया और उसने धरती से इंसानों को नष्ट करने के लिए ‘वांडू’ और ‘वेजास’ नाम के दो देव भेजे ! वांडू यानि कि जलदेव और वेजास अर्थात वायु देव ! अगले बीस दिन और रात लगातार , इन दोनों के कोप से धरती पर भयंकर विनाश हुआ ! इक्कीसवें दिन ‘प्रामजिमास’ धरती पर ‘वांडू’ और ‘वेजास’ को सौंपे गये काम की प्रगति देखने निकला ! प्रामजिमास को अखरोट खाते रहने की आदत थी और वो अखरोट के छिलके नीचे फेंकता जाता था , जिनमें से एक छिलका धरती की सबसे ऊंची पर्वत चोटी पर गिरा जहां , जल और वायु के कोप से बचने के लिए कुछ मनुष्यों और अन्य पशु जीवों ने शरण ले रखी थी ! वे सभी बाढ़ से बचने के लिए अखरोट के छिलके पे लटक गये / चिपक गये / उसे कसकर पकड़ लिया !
इस बीच सर्वोच्च ईश्वर का क्रोध कुछ कम हो चला था ! उसने वांडू और वेजास से ठहर जाने को कहा ! धीरे धीरे जलस्तर कम हुआ और अखरोट के छिलके से लटक कर प्राण बचा पाये मनुष्य तथा अन्य पशु जीव धरती पर इधर उधर बिखर गये ! एक वृद्ध जोड़ा इस आपाधापी में बहुत थक चुका था ! अतः वो थोड़ा आराम करने की नियत से वहीं रुक गया जहां , अखरोट के छिलके ने धरती को स्पर्श किया था ! प्रामजिमास ने इस वृद्ध जोड़े को सलाह देने के लिए और उनकी सुरक्षा के इरादे से इंद्र धनुष को भेजा ! इंद्र धनुष ने वृद्ध दंपत्ति से कहा कि धरती की हड्डियों के ऊपर से नौ बार कूदो ! दंपत्ति ने ऐसा ही किया ! इसके फलस्वरूप नौ अन्य जोड़े उत्पन्न हुए ! कालांतर में ‘लिथुआनियां’ की नौ जनजातियां इन्हीं जोड़ों की वंशज हुईं !
जल प्रलय के अन्य आख्यानों की तरह इस ‘लिथुआनियाई आख्यान’ में भी , ईश्वर दुष्ट मनुष्यों पर क्रोधित होता है और उन्हें नष्ट करने के लिए जल और वायु देव को आदेश देता है ! वह धरती को , ईर्ष्यालु / झगड़ालू तथा एक दूसरे पर अन्याय करने वाले मनुष्यों से मुक्त करना चाहता है ! कहने का आशय यह है कि ईश्वर को इस कोटि के मनुष्य पसंद नहीं हैं ! जलप्रलय की दूसरी कथाओं की तरह से इस कथा में भी मनुष्य और अन्य पशु जीव किसी ऊंचे पर्वत की चोटी पर अपनी प्राणों की रक्षा के लिए शरणागत होते हैं , किन्तु इस कथा के किसी भी पात्र को जलप्रलय की भविष्यवाणी और उससे बचने के लिए नाव बनाने का कोई पूर्व दैवीय संकेत नहीं मिलता है ! ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर उन सभी से रुष्ट था अतः उसने किसी भी मनुष्य को पात्र मानकर भावी आपदा की पूर्व सूचना नहीं दी ! यद्यपि बचे हुए अनेकों जीवित मनुष्यों के प्रति उसकी सदाशयता , संभवत: उसके क्रोध के कम हो जाने का परिणाम थी !
इस कथा में , पहाड़ की चोटी पर अपनी प्राण रक्षा के लिए मौजूद मनुष्यों और अन्य पशु जीवों को , ईश्वर के एक प्रिय शगल / उसके खाने के शौक के कारण , अकस्मात / एक अयाचित , सहायता प्राप्त हो जाती है ! बाढ़ से बचने के लिए उन्हें इसकी आवश्यकता भी थी ! कह नहीं सकते कि , ईश्वर ने ऐसा जानबूझकर किया था या कि अनजाने में , बहरहाल उसके खाये हुए अखरोटों में से एक का छिलका , जीवन के लिए संघर्ष कर रहे मनुष्यों और अन्य पशु जीवों के लिए नाव का काम करता है ! वे जल प्रलय से बचने के लिए नाव नहीं बना सके थे क्योंकि उन्हें इस घटना का पूर्वाभास नहीं हुआ था , किन्तु ईश्वरीय अखरोट का एक छिलका , जोकि निश्चित रूप से बड़े आकार का रहा होगा , एन मौके पर उनकी इस आवश्यकता को पूरा कर देता है ! बाढ़ थमने पर जहां सारे मनुष्य और पशु जीव अन्यत्र / धरती पर बसने के लिए तत्काल प्रस्थित हो जाते हैं ! वहीं एक बूढ़ा जोड़ा अपनी असहायता / अपनी थकान के चलते वहीं अकेला ठहर जाता है !
वर्षा के समय इंद्र धनुष का दिखना एक स्वाभाविक घटना है , किन्तु संकेत यह कि ईश्वर उसे , वृद्ध दंपत्ति की सहायता के लिए भेजता है , इसका एक मतलब यह भी हुआ कि ईश्वर सदैव उनके साथ है , जो असहाय हैं ! ईश्वर वृद्ध दंपत्ति की सुरक्षा के लिए फ़िक्र मंद है , अतः वो इंद्र धनुष के माध्यम से , उस एकाकी / असहाय जोड़े से एक प्रतीकात्मक कृत्य करवा कर नौ अन्य जोड़ों को उत्पन्न कराता है तथा उसे एक बड़ा सा परिवार देता है , जिसकी वंश बेल बाद में लिथुआनियां क्षेत्र की नौ जनजातियों के रूप में पल्लवित होती दिखाई देती है ! धरती / मिट्टी की नौ हड्डियां संभवतः एक सांकेतिक प्रतीक है अथवा कीचड़ में दबे हुए नौ जीवित जोड़ों को बचाने का कोई उपक्रम ! कुल मिलाकर यह कथा मनुष्यों की दुष्टता के प्रति ईश्वरीय कोप , कोप कम होने पर उसके अनुग्रह , विशेष कर असहायों के प्रति ईश कृपा का कथन करती है ! ...और इस आख्यान का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि , ईश्वर सृष्टि के पुनर्सृजन के समय अन्य जन समुदायों की तुलना में , जनजातीय समुदायों की निर्मिति को प्राथमिकता देता है !
...ईश्वर पहले भी मनुष्य को किये की सज़ा जल,हवा अर्थात प्रकृति के द्वारा देता था और अब भी....बाढ़,सूखा,भूकंप,तूफ़ान आदि के माध्यम से |
जवाब देंहटाएं...यह भी कि मनुष्यों को नाव बनाने की प्रेरणा अखरोट से ही मिली होगी !
ईश्वरीय दंड और प्रेरणा के विचार से सहमत हूं !
हटाएंआप बड़ी गहराई से विश्लेषण करते हैं। हर प्रतीक का ... उसके बाद कहने को रह क्या जाता है!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार !
हटाएंइतनी बारीकी से हम नहीं सोच पाए अली साहब, आपकी विवेचना वाकई शानदार है|
जवाब देंहटाएंसंजय जी ,
हटाएंहार्दिक धन्यवाद !
यह आख्यान तो और भी रोचक है -कब दंतकथाओं और मिथकीय अतिरंजनाओं का फर्क मिट जाय कहा नहीं जा सकता ...
जवाब देंहटाएंअब अखरोट के छिलके का पर्वत शिखर को ढँक लेना और उसका नाव बन जाना अपने में एक मिथकीय विराटता ही तो समेटे हुए है ...अगर हम तनिक दिमाग लड़ाएं तो इन कथाओं से मनुष्य की आदिम स्थितियों ,भौगोलिकता और विकास के साथ ही उनकी बसाहट ,पर्यावास के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं .
इस अर्थ में यह श्रृंखला बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है !
अरविन्द जी ,
हटाएं'मनुष्य की आदिम स्थितियों , भौगोलिकता तथा विकास और पर्यावास के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं' ! मैं आपके इस कथन से सहमत हूं !
"यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युथानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् |. परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च: दुष्कृताम, धर्मं संस्थापनार्थाय सम्भावामी युगे युगे ||" इस लोक आख्यान पर आपकी गहन दृष्टि गीता में श्रीकष्ण के वचन की पुष्टि करती है !
जवाब देंहटाएंरोचक !
वाणी जी ,
हटाएंएक अच्छी प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार !
सरल जनजातीय समुदाय की रचना प्राथमिक(ता) है.
जवाब देंहटाएंयही स्वाभाविक भी है ईश्वर चाहे या कि नहीं !
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