बुधवार, 27 दिसंबर 2017

कम्बल

पुराने दिनों की बात है जब निद्रालीन यूट पर्वत, महान योद्धा देव हुआ करता था और मनुष्यता को कष्ट देने वाले, दुष्ट दैत्य से युद्ध लड़ने के लिये धरती पर आया था ! उस समय महान योद्धा देव और दैत्य के मध्य भयंकर संघर्ष हुआ, युद्ध के दौरान वे दोनों ही धरती पर, मजबूती के साथ अपने पैरों को जमाये रखने की चेष्टा करते रहते, सो उनके पैरों तले रौंदी गई धरती में, जगह जगह घाटियां और पर्वत बन गये और इस तरह से युद्ध क्षेत्र की भू-आकृति निर्मित हुई ! युद्ध में दैत्य पर विजय प्राप्त करने तक, योद्धा देव बहुत थक गये थे और...उन्हें गंभीर चोटें भी आईं थी, इसलिए वे वहीं लेट कर आराम करने लगे ! थकान के कारण से उन्हें गहरी नींद आ गई, हालांकि उनके जख्मों से रक्त बहता रहा, जो पानी में बदल गया और धरती के जीवधारियों के पीने के काम आया !

कहते हैं कि निद्रालीन महादेव / यूट पर्वत के ऊपर धुंध छाने, वर्षा होने, शीत अथवा  गर्मी पड़ने का मतलब है कि, सुप्त महादेव ने अपना कम्बल / ओढा हुआ वस्त्र बदला है, यानि कि निद्रालीन महादेव के कम्बल बदलने के साथ ही साथ ऋतुएं बदलती हैं ! जब भी मूल अमेरिकन इन्डियन लोग, यूट पर्वत के ऊपर हरा कम्बल देखते हैं, तो वे समझ जाते हैं कि ये वसंत का मौसम है, एन इसी तरह से गहरा हरा कम्बल गर्मियों, पीला और लाल वर्षा तथा सफ़ेद कम्बल सर्दियों की ऋतु लेकर आता है ! अमेरिकन इंडियंस को विश्वास है कि जब भी यूट पर्वत के ऊपर बादल घिरते हैं तब, महान देवता, स्थानीय आबादी पर प्रसन्न होता है और देवता की प्रसन्नता के कारण से क्षेत्र में बारिश होती है ! उन्हें यह भी विश्वास है कि एक दिन महान देवता फिर से उठकर, बुराई से लड़ने में उनकी मदद करेगा !

दुनियां में ऐसे ईश्वरीय पूजा स्थल / आस्था केन्द्र बहुत कम होंगे, जिन्हें भू सतह के नीचे, गहरे खड्ड अथवा गर्त में स्थापित किया गया हो, ध्यातव्य है कि आस्थागत / अधिप्राकृतिक शक्तियों की उपासना के केन्द्र, बहुतायत से ऊंचे पर्वतों / पठारों में स्थापित किये जाने का चलन काफी पुराना है, बहुत संभव है कि इसकी पृष्ठभूमि में, मानवेत्तर शक्तियों को आदर देने / स्वयं से ऊंचा स्थान देने की धारणा कारगर रही हो ! मूल अमेरिकन इंडियन समुदाय का ये आख्यान भी विश्वव्यापी धारणाओं के अनुरूप कथन करता है, यहां सत्य और न्याय के पक्ष में लड़ने के लिये एक महान देवता अवतरित होते हैं और उनका उद्देश्य मूल निवासियों को बुराई/ असत्य/ दुष्टता के दैत्य से बचाना है ! दुनियां में प्रचलित अन्य धर्म सत्य रक्षण कथाओं की तरह से इस कथा का खलनायक दैत्य भी महा बलशाली है और वो देवता को कड़ी टक्कर देता है यानि कि यहां भी सत्य की विजय आसानी से नहीं होती !

देवता के आहत हो जाने और थक कर आराम करने / निद्रालीन हो जाने के, कथन से स्पष्ट होता है कि दुष्टता, सज्जनता को क्षत विक्षत करने की हद तक लड़ती है, कहने का तात्पर्य ये कि दुष्टता और सज्जनता के मध्य बेहद बारीक शक्ति संतुलन है...सो सज्जनता की पूर्व घोषित / निर्धारित विजय, गहरी चोट खाए बिना संभव नहीं होती ! महादेव तथा दैत्य के युद्ध को मल्ल युद्ध की तरह से देखें तो भू-आकृति के निर्धारण में उन योद्धाओं के क़दमों / पैरों का योगदान, कम-ओ-बेश वैसा ही नज़र आता है, जैसे कि अखाड़े की भुरभुरी मिट्टी, अस्त व्यस्त / ऊबड़ खाबड़ और किंचित सपाट हो जाए, यानि कि भू-भौतिक विन्यास, घाटी, पर्वत और मैदान, मल्ल योद्धाओं की शक्तिमत्ता एवं शौर्य प्रदर्शन का परिणाम हैं ! बहरहाल यूट पर्वत वो देवता है, जो कि युद्ध से थका हारा आराम कर रहा है और एक दिन फिर से जागेगा, बुराई पर पुनर्विजय के लक्ष्य के साथ !  

आख्यान में रोचक किन्तु प्रतीकात्मक कहन ये कि देवता के घावों से होने वाले रक्त स्राव से स्थानीय आबादी को पीने का पानी मिला, इसके मायने ये कि जब देवता स्वयं निद्रालीन पर्वत हो जाए, तो पर्वत शिखर के हिमाच्छादन / ग्लेशियरों से मैदानी बसाहटों को पेय जल मिलना स्वभाविक है !  सोये हुए / आराम कर रहे, देवता के कम्बल बदलने से, साल में चार बार मौसम बदलने का कथन भी मज़ेदार है ! यूट पर्वत की ऊंचाइयों में बदलते परिदृश्य और रंगों से ऋतु परिवर्तन को भांप लेना आदिम समुदाय के यथार्थपरक जीवन अनुभवों का प्रतीक है, चूंकि ये जनश्रुति दैविक आस्था और आस्थागत कर्मकांडों के प्रतिसाद स्वरूप, अपेक्षित पारलौकिक सहायता की धारणा पर आधारित है अतः कथा कालीन समुदाय में भी, विश्व के अन्य धर्मभीरू समाजों की तरह से, आपात सहायता के लिये ईश्वर / देवताओं का ही आसरा है !

भविष्य में ईश्वर फिर से जागेगा / अवतरित होगा और बुराई से लड़ने में मानव समुदाय की सहायता करेगा, नितांत भाग्यवादी धारणा है ये ! हमें स्वीकार करना होगा कि आदिम समुदाय, हमारे पूर्वज समुदाय है / सूत्र समाज हैं सो...उनका देवतावाद / उनकी पारलौकिकतावाद / उनका नियतिवाद, हमें विरासत में मिला है ! हमने इसे लेशमात्र भी खोया नहीं है, बल्कि ईश्वरीयता के फटे कम्बल / काल्पनिक विचार को और भी शिद्दत से पकड़ा है / अपनाया है ! नि:संदेह जनश्रुति का समय धर्म की अपरिपक्व / कच्ची उत्पत्ति का समय था और आज हम धार्मिक पुनरुत्थानवाद के बीहड़ समय से गुज़र रहे हैं...