मंगलवार, 5 जून 2012

हिम दैत्य ...!

जलातिरेक से विनाश और पुनर्सृजन की गाथायें , काल्पनिकता और यथार्थ के मध्य चाहे जो भी घालमेल करती हों , जैसा भी ताना बाना बुनती हों , पर वे सम्बंधित भूक्षेत्रों की पारिस्थितिकी से हटकर , कदापि नहीं 'कही' जातीं ! आख्यानों में , सम्बोधित / समाहित किया गया जन समुदाय , जिस तरह के प्राकृतिक पर्यावास और आस्था / विश्वास जगत तथा जीवन शैली अथवा आदत और व्यवहार संसार , में रहता है , वो अपरिहार्य रूप से इन गाथाओं का हिस्सा होता है  ! कहने का आशय यह है कि लोक गाथायें , जन समुदायों के भौतिक जागतिक / आध्यात्मिक संसार से इतर नहीं हुआ करतीं , वे जन समुदाय के लिए निर्धारित भौतिक / आध्यात्मिक सीमा रेखाओं के दायरे में रहती हैं  , उनकी अवमानना नहीं करतीं  !

मसलन , स्केंडिनेवियन क्षेत्र के आख्यान में ‘यिमिर’ नाम के महा हिम दैत्य का उल्लेख मिलता है , ओडेन , विली और वे, नाम के तीन योद्धा , इस महा हिम दैत्य से लड़ते हैं और उसे परास्त कर देते हैं ! युद्ध में पराजित महा हिम दैत्य , यिमिर के घावों से ठंडा पानी बह निकलता है  ! इसी दौरान एक अन्य हिम दैत्य बर्गलमीर अपनी पत्नि और बच्चों सहित युद्ध क्षेत्र से बच निकलता है  !  प्राण बचाकर भागने के लिए बर्गलमीर एक पेड़ के खोखले तने का उपयोग नाव की तरह से करता है  !  कालांतर में बर्गलमीर और उसके परिवार के वंशजों के तौर पर तुसार / पाले / कुहासे के दैत्यों की प्रजाति का जन्म होता है , जबकि यिमिर का मृत शरीर , बाद में धरती बन जाता है , जिसमें , स्केंडिनेवियाई जन समुदाय निवास करता है  !  यिमिर के शरीर से जो रक्त बहा , उससे महासागर बने  !

ये कथा उन मनुष्यों को संबोधित है , जोकि सामान्यतः वर्ष पर्यंत पूर्णतः हिमाच्छादित अथवा लगभग हिमाच्छादित जैसे स्केंडिनेवियाई क्षेत्र में निवास करते हैं , अतः यिमिर के रूप में हिम के महा दैत्य की कल्पना , हिम / बर्फ में कठिन जीवन परिस्थितियों को लेकर की गई प्रतीत होती है ! मनुष्य के विरुद्ध हिम / बर्फ का खलनायकत्व एक स्वाभाविक विचार लगता है ! इस कथा को बांचते हुए हम , निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते कि हिम के खलनायकत्व / महादैत्य से लड़ने वाले , ओडेन , विली और वे , कौन हैं ? और उन्होंने हिम दैत्य को पराजित कर उसकी देह से विशाल जलराशि को उन्मुक्त कैसे किया ? किन्तु एक अनुमान यह ज़रूर लगाया जा सकता है कि , ये तीनों महायोद्धा संभवतः सांकेतिक रूप से  सूर्य , वायु और अग्नि ( विद्युत ) जैसी प्राकृतिक शक्तियां हो सकते हैं , जिन्हें तत्कालीन स्केंडिनेवियाई मनुष्य अपने रक्षक देवताओं / योद्धाओं के रूप में कल्पित करता रहा हो ! 

कोई आश्चर्य नहीं कि , यहां पर एक भारतीय प्रसंग , याद आ रहा है  !  हिलब्रैंट , सूर्य को इंद्र के रूप में देखता है , वो उसे अग्नि का जुड़वां भाई कहता है , इंद्र के आख्यान में जिस वृत्त वध का उल्लेख है , उसे कतिपय विद्वान वृत्त - शुष्कता (अनावृष्टि) मानते है और हिलब्रैंट जैसे कुछ , वृत्त - शीत ( हिम ) , अतः हिम से मुक्ति दिलाने का कार्य इंद्र / सूर्य ही कर सकता है !  उसका अस्त्र वज्र प्रहार करता है , यानि कि विद्युत प्रहार !  इस सांकेतिक प्रसंग में इंद्र या तो सूखे / अनावृष्टि का विनाश करता है या फिर हिम से जल को मुक्ति देता है ! ना जाने क्यों ? यह प्रसंग मुझे स्केंडिनेवियाई आख्यान के महा हिम दैत्य यिमिर से लड़ने वाले , ओडेन , विली और वे , को सूर्य , हवा और अग्नि / विद्युत के प्रतीकात्मक अर्थों में देखने की प्रेरणा दे रहा है  !  यिमिर का मृत होकर , निवास योग्य धरती हो जाना और उसके घावों से अथाह जल राशि ( रक्त ) की निकासी के बाद महासागरों का जन्म , प्रतीकात्मक आशयों में ही देखे जाने चाहिये  ! 

इस आख्यान में बर्गलमीर के हिम दैत्य का युद्ध क्षेत्र से सपरिवार जीवित बच निकलना , एक अदभुत कथन है जिसमें विशाल ग्लेशियरों से बड़े हिमखंड / बर्गलमीर का टूट कर बह निकलना और फिर महासागर की ऊष्ण जलधाराओं वाले क्षेत्र में तुसार / पाले या शायद कुहासे जैसे दृश्य बंधों की निर्मिति , जिसे बर्गलमीर के वंशज, दैत्यों की प्रजाति की उत्पत्ति माना गया  !  यानि कि टूट कर बहते हुए हिमखंड / बर्गलमीर और ऊष्ण जलधाराओं के सम्मिलन से उपजे , बर्गलमीर की वंश बेल , तुसार दैत्य प्रजाति  !  कथा में ऊष्ण जल धाराओं का कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं है  , किन्तु तुसार / कुहासे के साथ हिमखंड का पितृत्व सम्बंध , अन्तर्निहित ऊष्ण जलधाराओं की ओर ही संकेत करता है  , भले ही आख्यान कहने वाले व्यक्ति को इसका सीधा सीधा संज्ञान ना भी रहा हो  !  तुसार को खलनायक / दैत्य मान लेने की एक वज़ह ,फसलों को उससे होने वाला नुकसान भी हो सकता है और दूसरी वज़ह , महासागर में दृष्टि को बाधित कर देने वाली उसकी क्षमता अथवा उसके गुण /दुर्गुण से होने वाली नावों / किश्तियों की , दुर्घटनायें भी  !

बर्गलमीर / हिम खंड के साथ बहने वाले किसी पेड़ के खोखले तने को उसकी नाव कहा गया है , जिसने हिम खंड  को सपरिवार एक विशिष्ट दूरी तय करने में एक सहायता दी , इस कथन की पृष्ठभूमि में , हिमखंड को दैत्य ( जीवित देह ) माने जाने की सांकेतिकता और उसके जीवित बचे रहने के लिए लकड़ी की एक नाव की आवश्यकता की अनुभूति , अन्तर्निहित हो सकती है  !  यह आख्यान इस अर्थ में महत्वपूर्ण है , क्यों कि यह सिद्ध करता है कि  , लोक आख्यान , जन समुदाय विशेष की पारिस्थितिकी / प्राकृतिक पर्यावास के दायरे में ही पल्लवित होते हैं  !

30 टिप्‍पणियां:

  1. गज़ब आख्यान है और उससे भी ज़्यादा आपकी विवेचना.....आपके आलेख में कितना कुछ आप स्वयं कह जाते हैं कि उससे इतर कुछ कहना जोखिम भरा लगता है.

    ...आपकी निष्पत्ति कि सूर्य , वायु और अग्नि ( विद्युत ) जैसी प्राकृतिक शक्तियां ही हिम दैत्य को नष्ट करने वाली हो सकती हैं,से सहमत हूँ !

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    1. संतोष जी ,
      ये कथा हिमाच्छादन और फिर हिम के पिघलने से होने वाले अतुलित जलस्राव तथा तुसार के वर्णन के कारण मुझे पसंद है ! वैसे भी इस कथा से लोक आख्यानों में स्थानीय विशिष्टताओं की अपरिहार्य मौजूगी के तथ्य को बल मिलता है !

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  2. चारों और कठोरता से आच्छांदित हिम ही ‘यिमिर’ और 'बर्गलमीर' नाम के प्रतीक हिमदैत्य प्रतीत होते है। हिमस्खलन ही दैवी तत्वों सूर्य , वायु और तडित आदि का युद्ध व संघर्ष है, परिणाम स्वरूप ग्ले्शियर उसके घावों का बहना है। 'बर्गलमीर' का पेडों के कारण स्खलन न होना और विशाल टुकडों के रूप में साबुत रहना नाव का प्रतीक है। आपकी निष्पत्ति सही है। इस आख्यान पर

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    1. प्रिय सुज्ञ जी ,
      कथ्य विश्लेषण और अनुमानित निष्कर्षों पर सहमति के लिए आभार !

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  3. अद्भुत कथा...और आपका विवेचन इसे समझने में काफी सहायता कर रहा है..

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  4. आपकी इस रोचक श्रृंखला को एक साथ पढ़ रही हूँ। टिप्पणी अभी नहीं कर रही।
    घुघूती बासूती

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    1. जी.बी.
      जब भी उचित समझें , अपनी सहूलियत से टिप्पणी दें ! आपको इसे पढ़ते हुए रोचकता की प्रतीति हो रही है , यह अधिक महत्वपूर्ण है !

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  5. दरअसल इन लोक स्मृति कथाओं में प्रकृति के विविध रूपों से मनुष्य की अदम्य जिजीविषा ,विस्मय,भय और आशंकाओं का प्रगटन होता है ...जो धरती और धरती वासी के सामने की आदि -आरंभिक शक्तियां हैं ....इंद्र भी हैं तो वायु भी हैं और अग्नि भी और वरुण भी .....ऐसे में एक हिम दैत्य का भी तो होना ही था .....
    आलेख को पुस्तकीय भाषा से से यथासंभव बाहर ही रखिये अगर इसे आम पाठकों के लिए लिख रहे हों तो ..मगर अगर समान विद्वत पाठकों /समवयी पाठकों का लक्ष्य है तो फिर कोई बात नहीं ...

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    1. अरविन्द जी ,
      टिप्पणी के पहले पैरे से पूर्ण सहमति !

      अब बात दूसरे पैरे की...क्या करूं ? अपनी जुबान पे कंट्रोल ही नहीं होता , सच कहूं तो यह भाषा मेरे क्लास रूम की अपनी वाचिकता है / अपनी आदत है ! छात्रों ने कभी टोका नहीं , लिखने की आदत थी नहीं , सालों साल बस बोलते ही रहे तो पता भी नहीं चला ... और आज जब लिख चुकता हूं , तो मुझे भी लगता है कि ये तो सामान्य बोलचाल की भाषा ही नहीं है :)

      आपने सुझाव दिया है , दराल साहब भी कह ही चुके हैं , सो देखता हूं कि बुढ़ापे की आदत कैसे भी तो ? छूट जाये :)

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    2. ...अली साब ब्लॉगिंग की भाषा मंचीय-कविता जैसी होनी चाहिए.इधर पंक्ति पूरी नहीं हुई कि उधर तालियाँ .!

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    3. संतोष जी ,
      आपके इरादे तो नेक हैं ना :)

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  6. आज विश्व पर्यावरण दिवस पर तो यही कहूंगा कि कर दिया है। औद्योगिक विकास के कारण पृथ्वी के जीवन पर दबाव पड़ रहा है। जीवन खतरे में पड़ गया है। सौर प्रणाली में ढ़ेर सारे भौतिक और रासायनिक बदलाव आ रहे हैं। जीवनोपयोगी प्रणालियों में भी परिवर्तन आ रहा है। जीवन की न सिर्फ़ गुणवत्ता नष्ट हो रही है बल्कि जीवन की क्षमता भी प्रभावित हो रही है। जीव-जंतु विलुप्त हो रहे हैं। फसलों की पैदावार घट रही है। जल-संकट गहराता जा रहा है। आज पृथ्वी की पर्यावरण चिन्ता सर्वाधिक महत्वपूर्ण सरोकार और गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि आज हम खुद को बचाने के उपाय ढ़ूंढ़ रहे हैं।

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    1. मनोज जी ,
      आपकी चिंताओं से सहमत हूं ! हालांकि इस मुद्दे पर मेरा व्यक्तिगत अभिमत यह है कि , इस तरह , दिवसों से बात बनने वाली नहीं है , ये एजेंडा ३६५ दिन का होना चाहिये !

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  7. हिम मानव की कथाओं मे एक साम्य है, ये सभी गाथायें उत्तरी गोलार्ध मे ही है। येती, हिम मानव, बीग फुट, अलग अलग नाम ज़रूर है, लेकिन सभी के आकार प्रकार एक जैसे कहे जाते हैं। इन्हे देखे जाने के कई प्रत्यक्षदर्शी है लेकिन अभी तक एक भी साफ चित्र या स्पष्ट प्रमाण नही मिला है।

    हिम मानव के अस्तित्व के विरोध मे सबसे बड़ा तर्क है उनकी संख्या। यदि वे हैं तो उनके प्रजनन और अस्तित्व को बनाये रखने के लिये उनकी नजर मे आ जाने लायक जनसंख्या होनी चाहिये। लेकिन ऐसा दृष्टिगोचर नही होता है।

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    1. हिम मानव / बिग फुट / येती के अस्तित्व का प्रश्न , अभी ही प्रश्न है ! इसे कथित रूप से देखने वालों के दावों की पुष्टि नहीं हो सकी ! कारण शायद वही हो इनकी न्यून संख्या ? इसके आगे सवाल भी वही कि प्रजनन और अस्तित्व को बनाये रखने और नज़र आने लायक संख्या ?

      आपके कथन से सहमति , केवल एक आंशिक संशोधन और जोड़ना चाहूँगा , येती वगैरह के उल्लेख उत्तरी गोलार्ध के अलावा हिमालयन रेंज में भी मिलते हैं ! यानि कि जिन पर्वत श्रृंखलाओं में भारी मात्रा में बर्फ की मौजूदगी हो , वहां पर इनकी मौजूदगी की कल्पना की जा सकती है !

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  8. ओडेन, विली और वे को सूर्य, वायु और अग्नि से जोड़कर आपने इस लोक कथा को अर्थ दे दिया है। वरना इसे कभी यूँ ही पढ़ा होता तो किसी बच्चों की पत्रिका में छपी काल्पनिक कथा मानकर आगे बढ़ जाता। लोक आख्यान पर आपके दृष्टिकोण को पढ़कर यह विचार भी आ रहे हैं कि क्या अन्य समाजशास्त्रियों/विद्वानो ने पहले भी इन लोक आख्यानो के अर्थ ढूँढने के प्रयास किये हैं? क्या इस कथा पर और भी विमर्श पूर्व में हुआ है?

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    1. सबसे पहले इसे बांचने के लिए धन्यवाद !

      इनकी चर्चायें ज़रुर हुई होंगी , पर समाजशास्त्रियों ने इन्हें ब्लाग पर नहीं डाला होगा :)

      देवेन्द्र जी ये विषय अछूते रखने लायक विषय नहीं हैं , इन पर चर्चा अवश्यम्भावी है किन्तु व्याख्यात्मक दृष्टिकोण की भिन्नता मायने रखती है ! चर्चा और व्याख्या , अध्ययन की गहनता को रेखांकित करने वाले दो विचार / शब्द / धारणायें हैं !

      मैंने विमर्श के जो ट्रेंड सामान्यतः अब तक देखे हैं , वो ये कि , एक कथा कह दी जाये और किसी दूसरी कथा से उसके साम्य और विषमता की तुलना कर दी जाये !

      बहरहाल लोक अध्ययनों की प्रचुरता से सहमत हूं ! मोटे तौर पर इन अध्ययनों में मेरा अपना कोई योगदान नहीं है , मैं केवल उपलब्ध अध्ययनों का इंटरप्रटेशन कर रहा हूं ! यानि कि इस अकिंचन को पकी पकाई में से कच्चा पक्का देखने और मसालों के फ्लेवर तथा स्वाद ढूंढने वाला मान लिया जाये :)

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  9. लोक आख्यान सामाजिक , राजनैतिक ,आर्थिक परिस्थितियों के अतिरिक्त भौगोलिक परिस्थितियों से भी अछूते नहीं रह सकते , सही है . लोक आख्यानों में ग्लैशियर के टूटने में पर्यावरण की भूमिका को लोक आख्यानों में हिम दैत्यों और योद्धाओं के बीच होने वाले युद्ध और उसके परिणामों के रूप में विरूपित किया ही है .
    रोचक श्रृंखला में आपकी निष्पत्ति हमारा ज्ञान बढ़ा रही है !

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    1. हां...इस कथा को प्रतीकात्मक तौर पर प्राकृतिक शक्तियों से होने वाले सृजन और विनाश के तौर पर ही पढ़ा जाना चाहिये ! आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद !

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  10. bahut bahut sundar srinkhla banch rahe ali sa..........kai baten/tathya samjh ke kendra me ane laga hai.....

    pranam.

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  11. रुचिकर विषय है भाई जी ...
    भाषा सरल कर दें तो आनंद अधिक आये , संतोष त्रिवेदी की तरह !

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    1. लगता है मेरे कवि ह्रदय मित्रों ने मेरी भाषा की सुपारी ले ली है :)

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    2. मेरा मानना है कि लिखते वक्त लेखक को भाषा पर कत्तई ध्यान नहीं देना चाहिए। उसकी जो शैली हो उसी में लिखना चाहिए। लेख को उत्कृष्ट बनाने के चक्कर में न तो कठिन शब्द ढूँढ कर लिखना चाहिए और न ही पाठकों के उकसाने पर अपनी मौलिक शैली को सरल कर, बर्बाद कर देना चाहिए। इस माथा पच्ची में शब्द तो अच्छे/सरल मिल जाते हैं, भाव गुम हो जाते हैं। हो सकता है लिखते वक्त, प्रवाह में यदि उसने शब्दों पर ध्यान न दिया होता तो उसकी दृष्टि और भी व्यापक होती। हाँ, पाठक, लेखक से उन शब्दों/पंक्तियों के अर्थ बताने का आग्रह कर सकते हैं जो उन्हें समझ में नहीं आये।

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    3. देवेन्द्र जी ,
      बहुत बहुत आभार ! आपके नज़रिये से हौसला मिला !

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  12. ये कहानियां/लोक कथाएं किसी न किसी कल्पना का रूप ही हैं और समय समय पर इनकी व्याख्या अपने अपने अंदाज़ से होती रहती है ... पर इनका सामजस्य जब किसी दूसरी लोक कथा से हो जाए तो संभवता लगता है की दुनिया बहुत लंबी नहीं है ....
    वैसे ये आपकी कल्पना शक्ति का भी धयोतक है ... सहज सामजस्य ढूंढ लिया आपने ...

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