रविवार, 27 मई 2012

उन दिनों ...!

अमूमन हम ऐसी किसी भी बात पर असहज हो उठते हैं जो, हमारी अपनी परवरिश के अनुकूल नहीं होती ! इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि चिंतन और समझ के स्तर पर हम स्वयं को, स्वनिर्धारित खांचे से बाहर जाकर दूसरी परवरिशों के सत्य को स्वीकार करने की अनुमति तक नहीं देते ! बौद्धिक परिमार्जन के द्वार बंद रखने की इस कवायद में, हद दर्जे की सनक, असहिष्णुता और पूर्वाग्रहों से गहन मैत्री के भाव लिए हुए हम, अपने कूप से बाहर के संसार और उसके आलोक सह अन्धकार के प्रति केवल नकार के सुर उचारते हुए जीवन गुज़ार देते हैं ! इसे हमारी परसोना का भयंकरतम पक्ष माना जाये कि सारी की सारी वसुंधरा के कुटुंब होने का आदर्श वाक्य कह चुकने के फ़ौरन बाद हमारी अपनी वसुंधरा हमारी अपनी परवरिश के दायरे में सिमट कर रह जाती है, फिर उसमें किसी दूसरे विचार / किसी दूसरी परवरिश के समाने की कोई गुंजायश नहीं होती !

कोई आश्चर्य नहीं कि हम आदिम युग से ही ऐसा व्यवहार करते आये हैं ! उन दिनों में, विज्ञान और तकनीक के उत्कर्ष की बात को छोड़ भी दिया जाये, तो भी अपनी परवरिश से बाहर की परवरिश के प्रति नकार की प्रवृत्ति तब भी, कमोबेश आज जैसी ही थी ! तब के जनसमुदायों के मध्य हिंसक संबंधों की दास्तान आज के जन समुदायों के मध्य मौजूद हिंसक संबंधों जैसी ही है  !  अपनी परवरिश / अपने खांचे के बाहर दूसरी कोई गुंजायश नहीं ! बेशक, नकार, घृणा और हिंसा की गहन अनुभूतियों से पीड़ित बनी हुई है, मानवता आज भी ! कह नहीं सकते कि हम इंसानों का भविष्य क्या होगा ? क्या पता हजारों साल बाद फिर से कोई एक बंदा टुकड़ा टुकड़ा धरती / खंड खंड समाजों / बंद बंद परवरिशों का हवाला देते हुए जल प्रलय के नये आख्यान लिखने बैठ जाये ! लगता तो ये है कि, उन दिनों बांचे जाने वाले लोक आख्यान जल (पानी) प्रलय के बजाये जल (अग्निपीड़ित ) प्रलय पर आधारित हुआ करेंगे ! खैर...अभी जो कथा सामने मौजूद है, पहले उसे कह लिया जाये...

एक नाइजीरियाई लोक आख्यान, सूर्य और चन्द्रमा के परस्पर पति और पत्नि होने के विचार को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि बाढ़ इस दंपत्ति की मित्र थी और उसका, इनके घर में रोज का आना जाना था ! कुछ समय बाद, सूर्य और चंद्रमा दंपत्ति ने अपने लिए, एक नया और बड़ा घर बनवाया ! जिसमें प्रवेश के शुभ अवसर पर उन्होंने अपनी मित्र बाढ़ को भी आमंत्रित किया ! नये घर के द्वार पर आकर, बाढ़ ने सूर्य और चंद्रमा से पूछा कि, क्या मैं घर के अंदर आ सकती हूं ? उन्होंने कहा हां ! मित्रों की अनुमति पाकर, जब बाढ़ घर के अन्दर प्रविष्ट हुई तो, घर में घुटनों घुटनों तक पानी भर गया, जिसके कारण सूर्य और चंद्रमा दंपत्ति को घर की छत पर अपना डेरा डालना पड़ा ! कहते हैं कि अगली बार, बाढ़ जब इस दंपत्ति के घर पहुंची तो उसके साथ, उसके ढेर सारे रिश्तेदार भी थे, मछलियां, केकड़े, कछुवे, सांप, भालू वगैरह वगैरह, जिसके कारण से पानी घर की छत तक जा पहुंचा और धीरे धीरे उससे भी ऊपर बढ़ने लगा ! ...और फिर सूर्य और चंद्रमा को मजबूरी में आकाश में नया घर बना कर रहना पड़ा !

कथा में वर्णित सूर्य के ताप को पति के क्रोध / अहंकार वगैरह से जोड़ कर देखें और पत्नि बतौर चंद्रमा को उसकी मृदुलता तथा आनंदमयी छवि से, तो पुरुष की हैसियत से मुझे बुरा ज़रूर लगेगा पर प्रतीकात्मक तौर पर यह ठीक लगता है ! चंद्रमा और सूर्य की मित्रता बाढ़ से बताया जाना एक अदभुत कथन है, ज्यादातर वन क्षेत्रों में सूर्य से तप्त धरती पर लगभग प्रतिदिन दोपहर बाद बादलों का आना और पानी बरस जाना, स्थानीयता के प्रभाव वाली बारिश माना जाता है, इसी तरह से चंद्रमा और समुद्री ज्वार के सम्बंध को भी देखा जा सकता है ! अतः कथा में सूर्य और चंद्रमा की मित्रता, जलातिरेक यानि कि बाढ़ से कहे जाने का एक मात्र तात्पर्य यही हुआ कि तत्कालीन मानव प्रकृति का सचेत / समझदार पर्यवेक्षक हुआ करता था  ! 

कथा में सूर्य और चंद्रमा के आकाशीय ठिकाने में एक सुरक्षा निहित है, निश्चित रूप से तब के मनुष्य / उनके घर / उनकी बस्तियां,जलप्लावन का शिकार होकर नये सिरे से बनती और फिर उजड़ती रही होंगी ! मित्र के रूप में जल द्वारा अनायास ही मित्रों को उजाड़ दिये जाने की कल्पना आकर्षित करती है, पीड़ित मित्र पहले नये घर की ऊंचाई में, और फिर अत्यधिक ऊंचाई पर सुरक्षित ठिकाने बना लेते हैं, जबकि जलीय जंतुओं को बाढ़ का रिश्तेदार कहा जाना, एक सांकेतिक कथन प्रतीत होता है ! प्रायः बाढ़ के समय में ये जंतु मनुष्यों की बस्तियों तक पहुंच जाते हैं ! ऐसे में यह कहना कि रिश्तेदारों को साथ लाने के कारण बाढ़ का पानी घर की छत तक पहुंच गया और गृहस्वामी को नये ठिकाने खोजने पड़े , मित्रवत जल को दोषमुक्त करने जैसा है,क्योंकि वह अपने मनुष्य मित्रों को अनायास ही जो भी नुकसान पहुंच गया है उसका कारण वो स्वयं नहीं बल्कि उसके संबंधी थे !

29 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे तो आपकी आज की प्रस्तावना ही इस कथा का सार लगी और बहुत सीधे-सपाट लहजों में आपने निष्पत्ति भी निकाली है.

    "इसे हमारी परसोना का भयंकरतम पक्ष माना जाये कि सारी की सारी वसुंधरा के कुटुंब होने का आदर्श वाक्य कह चुकने के फ़ौरन बाद हमारी अपनी वसुंधरा हमारी अपनी परवरिश के दायरे में सिमट कर रह जाती है , फिर उसमें किसी दूसरे विचार / किसी दूसरी परवरिश के समाने की कोई गुंजायश नहीं होती !"
    ...अब इसके बाद क्या कहने को बचता है ?

    लोक-कथा से मैंने तात्कालिक-सीख इत्ती सी ही ली है कि यदि आप बिना-सोचे-समझे मित्र बनायेंगे तो आपत्तियों को ही आमंत्रित करेंगे !
    ...बाकी, मनुष्य प्रकृति का सचेत पर्यवेक्षक हुआ करता था,सही है !

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    1. संतोष जी ,
      आपकी टिप्पणी को अच्छा कहूंगा तो आपको अच्छा नहीं लगेगा :)

      आपने इस आख्यान से तात्कालिक सीख लेने वाली जो बात कही है , वो भी इस आख्यान का इंटरप्रटेशन है ! आपके इस योगदान के लिए आभार व्यक्त करता हूं !

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  2. रोचक कथा, सटीक व्‍याख्‍या.

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  3. @ वह अपने मनुष्य मित्रों को अनायास ही जो भी नुकसान पहुंच गया है उसका कारण वो स्वयं नहीं बल्कि उसके संबंधी थे !
    छोटी सी लोककथा को आपकी व्याख्या ने रोचक और उपयोगी बना दिया !
    आभार !

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    1. आपको आख्यान की व्याख्या रोचक और उपयोगी लगी अस्तु आभार !

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  4. विचारोत्तेजक श्रृंखला चल रही है -जलप्लावन के अनेक दृष्टांत लोकाख्यानों ,मिथकों में भरे पड़े हैं -सूर्य -चंद्रमा का यह लोकाख्यान है तो यह भी है कि बरसात में धरती और बादल का जोड़ा बनता है और गिरने वाले पानी से गर्भाधान होता है -इनके सहज प्रतीकात्मक अर्थ भी हैं ....ताप और शीतलता ही सूर्य और चंद्रमा के सम्बन्ध का मिलन हेतु है ...
    इंद्र को इसलिए भी बुरा माना गया कि वे क्रोधित होने पर जलप्लावन कर दण्डित करते हैं -कृष्ण ने ऐसे ही एक जलप्लावन को गोबर्धन पर्वत में शरण देकर मथुरा वासियों की इंद्र के कोप से रक्षा की थी ...
    जलप्रलय हमारी स्मृति सम्वेदिकाओं में रचा बसा सा है !

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    1. अरविन्द जी ,
      आपके सारे दृष्टांत सही हैं ! आपकी प्रतिक्रिया हौसला बढाती है !

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  5. मानव कुटम्बम निवसति कूपं खींचति सांसम् गर्जति वसुधैव कुटम्बकम।

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  6. अद्भुत कथा!
    सूर्य चन्द्र की बाढ़ से मित्रता कितनी सहज कल्पना है! जल के साथ जंतुओं के आने से होने वाले जलातिरेक के कारण सूर्य चन्द्र का सुरक्षित निवास आकाश गंगा में ढूंढना प्रकृति से जीवन के अर्थ तलाशने की कवायत है।

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    1. सुरक्षित और संरक्षित जीवन मानव जाति की पहली अभिलाषा है ! मनुष्य प्रकृति से ही सब पाता है !

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  7. Jis kamaal kee gahrayee se aapne likha hai uska jawab nahee!

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  8. यानि कि यह धारणा सदियों से चली आ रही है...मित्र का कोई दोष नहीं...उसके साथ वाले नुकसान पहुंचाते हैं.
    एक ख्याल और आ रहा है कहीं ये अपना अहम् तो नहीं होता कि हमने मित्र चुनने में कोई भूल नहीं की...मित्र तो अच्छा था..उसके साथ वाले बुरे थे .

    जैसे हँसना रोना सदियों से यकसाँ हैं....प्यार, मित्रता, दुश्मनी की भावनाएं भी एक जैसी ही हैं..समय बदला... परिवेश बदलते गए..पर मनुष्य बिलकुल ही नहीं बदला.

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  9. 'अहम' भी हो सकता है और मित्रता की 'रक्षा' का भाव भी !

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  10. सर्वप्रथम तो कथा व्याख्या पर…… विशेषकर इस कथा का आपका विश्लेषण तथ्यानुकूल प्रस्तुत हुआ, सार्थक!!

    आज की प्रस्तावना भी आपकी सभी प्रस्तुतियों का सार या भावार्थ सम प्रकाश में आई है।

    किन्तु "स्वनिर्धारित खांचे","कूप से बाहर","दूसरी परवरिशों के सत्य को स्वीकार करने" से क्या आशय है? जानना या अपनाना? क्योंकि दूसरी परवरिशों के सत्य की उपस्थिति को स्वीकार किया जाता है फिर बौद्धिक परिमार्जन के प्रति सनक कहां है हमारी? हां अनुसरण नहीं किया जाता। तो क्या अनुसरण करने पर ही हम सहिष्णु और पूर्वाग्रह रहित माने जाएंगे?

    ज्ञानार्जन व चिंतन दृष्टि का एक श्रेष्ठ नियम है 'ज्ञेय' 'हेय' 'उपादेय' अर्थात् जानने की वस्तु को जानना, छोडने या त्यागने की वस्तु को त्यागना, अपनाने की वस्तु को ही अपनाना। विचारों के लिए भी यही है। क्योंकि सभी ज्ञान ज्ञेय तो हो सकता है पर उपादेय नहीं, उसमें कोई न अपनाने योग्य होता है तो कोई अपनाने योग्य। इसलिए जान तो हमने कुछ भी लिया हो किन्तु उपादेय वह खांचा है जिससे हेय हमेशा बाहर ही रह जाएगा, वह खांचे में फ़िट बैठेगा ही नहीं।

    इसलिए अन्य परिवेशों के आदर्शों का आग्रह हम पर जानने तक ही सीमित होना चाहिए। बौद्धिक परिमार्जन के लिए भी सत्य का या स्वीकार्यता का बंधन गैरजरूरी है। जैसे कि जलप्रलय की इन सारी कथाओं को एक सत्य के रूप स्वीकार नहीं कहा जा सकता, हो सकता है सभी में सत्य के कुछ बीज विद्यमान हो, न सभी का मेल करके सर्वमान्य एक सत्य कथा का संयोजन किया जा सकता है।

    @ इसे हमारी परसोना का भयंकरतम पक्ष माना जाये कि सारी की सारी वसुंधरा के कुटुंब होने का आदर्श वाक्य कह चुकने के फ़ौरन बाद हमारी अपनी वसुंधरा हमारी अपनी परवरिश के दायरे में सिमट कर रह जाती है ,

    नहीं! हम ऐसा आरोप कैसे लगा सकते है?, क्योंकि जिस परवरिश के दायरे और उसके आदर्शों से 'वसुंधरा एक कुटुंब' आदर्श वाक्य निसृत हुआ है तो कुटुंब के पैमाने व आदर्श उसी के परिभाषित होंगे,उसी के अनुसार परवरिश के दायरे व मर्यादाएं होगी। फ़ौरन बाद सिमटनें का प्रश्न ही नहीं होता। यह दबाव कुछ ऐसा है जैसे कोई व्यक्ति सारे मुहल्ले को अपना परिवार कहे और कोई अपने परिवार का द्रोही उसपर सौहार्द और बंधुत्व का इसलिए दबाव बनाए कि वह सारे मुहल्ले को अपना परिवार मानता है? इसलिए कुटुंब के सदस्यों से जिस आदर्श (मानवता)की उसकी अपेक्षा रही होगी उन्ही मर्यादाओं में रहते हुए उस कुटुंब का सदस्य होगा। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं।

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  11. प्रिय सुज्ञ जी ,
    उपादेय / हेय और अनुसरणीय तक कहां पहुंच गये आप ? अभी तो केवल भिन्न परवरिशों की मौजूदगी के संज्ञान / और उनके सम्मानजनक सह अस्तित्व के स्वीकार तक ही सीमित रहिये !

    मेरा ख्याल है कि , जनसमुदायों के दरम्यान 'हिंसा की मौजूदगी' आपकी सारी शंकाओं का समाधान करती है ! मैं जो कह रहा हूं उसे एक बार 'इसी मौजूदगी के नज़रिये' से बांच कर देखिये तो सही :)

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    1. अली सा,
      सोचने के तरीके में भारी अन्तर है, जिसे आप कहां तक पहुँचना मान रहे है वह मेरे लिए तो जानने की प्रक्रिया प्रारम्भ करते ही प्रथम चिंतन का उपकरण है। (ज्ञेय,हेय,उपादेय)। क्या जनसमुदायों के दरम्यान 'हिंसा की मौजूदगी' को स्थापित सत्य की तरह देखना है? क्या इसकी मौजूदगी को सम्मानजनक सहअस्तित्व स्वीकार करना है? अगर आपका आशय यह है तो सम्मानजनक मान लेने के बाद कौन सी असहमति शेष रह जाती है।

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    2. प्रिय सुज्ञ जी ,
      अंतर तो दिख ही रहा है ! आपने ध्यान ही नहीं दिया कि मैंने ज्ञेय को छोड़कर केवल 'उपादेय हेय और अनुसरणीय' तक पहुंच जाने की बात कही है ! स्पष्ट है कि मैंने संज्ञान (ज्ञेय) तक सीमित रहने की बात कही और सह अस्तित्व को ससम्मान स्वीकार करने तक सीमित रहने की बात कही है !

      आपका यह कहना दुरुस्त नहीं है कि 'हेय और उपादेय' चिंतन की प्रक्रिया के प्रारंभिक उपकरण / स्तर हैं ! किन्तु आपका यह कहना दुरुस्त है कि 'ज्ञेय' चिंतन की प्रक्रिया का प्रारम्भिक स्तर है ! हेय / उपादेय और अनुसरण इसके बाद आते हैं ! मैंने आपकी पहली बात पर सहमति जताई और उस पर सीमित रहने के लिए कहा !

      असहमति और सम्मान का क्या सम्बंध है ? अगर दो पक्ष (जनसमुदाय) एक दूसरे के अस्तित्व को ससम्मान स्वीकार करें तो इसमें मुद्दों पर असहमत नहीं होने की शर्त कहां है ? अगर दो पक्ष होंगे ही नहीं तो काहे की असहमति ? काहे की चर्चा ? और काहे के निर्णय ? इसलिए पहले दो पक्षों का अस्तित्व ससम्मान स्वीकारने और बाद में मुद्दों पर असहमति / सहमतियों पे वार्ता का प्रश्न उठेगा कि नहीं ?

      आपने यह भी ध्यान नहीं दिया कि मैंने कहा कि "हम अपने कूप से बाहर के संसार और उसके आलोक सह अन्धकार के प्रति केवल नकार के सुर उचारते हुए जीवन गुज़ार देते हैं"...तो फिर हमारे दायरे के बाहर के संसार के "आलोक" सह "अन्धकार" को कहने का अर्थ क्या हुआ ?

      नि:संदेह जनसमुदायों के मध्य 'हिंसा की मौजूदगी' स्थापित सत्य है और मैंने आपसे आग्रह किया कि मेरे वक्तव्य को इसी आलोक में पढ़ा जाये ! अगर मैंने , जनसमुदायों के मध्य मौजूद हिंसक संबंधों , नकार और घृणा का उल्लेख करते हुए कोई वक्तव्य (आलेख देखें) दिया है तो फिर आप उसे मेरे वक्तव्य से हटा कर / काट कर प्रतिक्रिया क्यों दे रहे हैं ?

      और हां चलते चलते एक बात व्यक्तिगत तौर पर कहना चाहूंगा ...आप मुझे 'अली सा' और मैं आपको 'प्रिय सुज्ञ जी' , संबोधित करते हुए , हार्दिक प्रेम / स्नेह / सम्मान के साथ स्वीकार करने के बाद भी मुद्दों पर असहमत हो पा रहे हैं कि नहीं ? ऐसा केवल इसलिए कि सम्मान / प्रेम / स्नेह जन्य स्वीकार के कारण हमारे बीच कोई हिंसा मौजूद नहीं है सो हम मुद्दों पर बात कर पा रहे हैं ! सहमति / उपादेयता / हेय / अनुसरण , बाद में आते रहेंगे ! उम्मीद करता हूं कि आप मेरा मंतव्य समझ सकेंगे !

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  12. अली सा,
    अपने खांचे से बाहर न आ पाने की बात पर तो बस इतना ही कहना चाहूँगा कि हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व दूसरों के अनुभवों से निर्मित हुआ है.. कोई किसी के विचारों/वक्तव्यों/अनुभवों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने स्वयं अनुभव किये बिना ही उन्हें अपना अनुभव मान लिया और बस बन गया खांचा.. न स्वयं अनुभव किया, न व्यक्तिगत निर्णय लिया, न जानना चाहा.. और बस दूसरे के ज्ञान का कुआं अपना संसार बना लिया!!
    नाइजीरियाई लोकाख्यान पर तो मुझे जो तत्काल प्रतिक्रया सूझी वो मजाक ही है, लेकिन है वो तात्कालिक प्रतिक्रया..
    सूरज-चाँद के परिवार में एक अतिथि आता है और पूरे घर में पसर जाता है.. यहाँ तक कि घरवालों को छत पर जाना पड़ा और अतिथि महोदय के सगे-संबंधी भी डेरा जमाकर पसर गए.. बेचारों को आसमान में शरण लेना पडी..
    शरद जोशी ने शायद वर्त्तमान अतिथि समस्या पर लिखा था कि अतिथि तुम कब जाओगे!! किन्तु यह लोकाख्यान में वर्णित समस्या है यह आज जाना!! :)

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    1. सलिल जी ,
      मेरा कथन एक प्रवृत्ति की ओर संकेत मात्र है ! इसे सार्वजनीन सत्य की तरह स्वीकार मत कीजिये !...वैसे दूसरों का कुआं कब्जाने के मामले में , मैं भी आपके जैसा हूं :)

      आख्यान के ठसियल मेहमान पर आपकी प्रतिक्रिया परफेक्ट है :)

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  13. कथा एक प्रकार की कल्पना है जो किसी कवी द्वारा उस समय की घटनाओं कों शब्दों में बाँधने की एक प्रक्रिया रही होगी ... आपने जिस प्रकार से उसको वास्तविकता से जोड़ा है वो एक आंकलन है जो कुछ हद तक ठीक है ... इसी तरह से अपने देश में प्रचलित कथाएँ भी क्या सत्य से करीब नहीं हैं ...

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    1. दिगम्बर नासवा जी ,
      कल्पना तो है , पर गाथा के रूप में इसे , कवि की कल्पना नहीं कहा जा सकता ! कवि की कल्पनाओं को लोकगीत की शक्ल में बांचा / देखा जाता है !

      ये आकलन सिर्फ आकलन है , कह नहीं सकते कि सत्य के कितना करीब होगा !

      अपने देश की गाथायें पहले भी कहीं हैं और आगे भी उनका ज़िक्र करूंगा !

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  14. "अपनी-अपनी वुसअते* फिकरो-यकीं की बात है,

    जिसने जो 'आलम' बनाया वो उसी का हो गया." -Anonymous

    *वुसअत = फैलाव

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