शुक्रवार, 4 मई 2012

कभी यहां तुम्हें ढूंढा...कभी वहां देखा...!

रागवृंत पाण्डेय, जितना सुन्दर नाम उतने ही सुन्दर वे स्वयं भी ! गौर वर्ण, लंबा कद, सारी देह रेखायें एक दम अनुपात में ! सुसंस्कृत, साहित्यिक उत्तर भारतीय परिवार में जन्म और सर्वसुविधायुक्त पालन पोषण दशाओं में शैशव से युवापन तक की सुगम यात्रा ! अभियांत्रिकी स्नातक होते ही व्यवसाय प्रबंधन में स्नातकोत्तर उपाधि अर्जित करने का सुअवसर भी परिजन प्रदत्त...अंततः किसी मल्टीनेशनल कम्पनी में एक शानदार पैकेज लेकर रागवृंत महोदय जीवन की अगली पारी खेलने के लिए तैयार ! उनके परिजन, कुलीन, सजातीय, समृद्ध परिवारों की सुकन्याओं के अनगिन छाया चित्रों और गृह नक्षत्रों में उनका भविष्य खोजने लगे ! इस कवायद में लगभग दो वर्ष यूंहीं गुज़रे, किन्तु रागवृंत के परिजन किसी समुचित निर्णय तक नहीं पहुँच सके...और एक दिन वे असीम दुःख से भर उट्ठे,जबकि उन्हें, रागवृंत के किसी अनन्य मित्र से, यह खबर मिली कि रागवृंत, डेढ़ वर्ष पहले ही अपनी बाल सखि,  रति से प्रेम विवाह कर चुके  हैं !

रति दक्षिण भारतीय नायर परिवार में जन्मी और सुसंस्कारित हुईं, जबकि उनके पिता एक सरकारी अस्पताल में एक साधारण से लिपिक बतौर काम कर, अपना परिवार चला रहे थे ! उन्हें सरकारी कर्मचारियों के मेडिकल बिल्स के सिलसिले में छुपी हुई सहायता करने की एवज, थोड़ी बहुत अतिरिक्त आमदनी भी थी अतः उन्हें, रति को अच्छी शिक्षा देने में कोई कठिनाई नहीं हुई ! रति स्कूल की पहली सीढ़ी से ही रागवृंत के साथ, पढ़ रही थीं ! उनके मध्य प्रेम की सीमा तक अनुराग है यह जानकारी उनके अंतरंग मित्रों के अतिरिक्त किसी भी परिजन को नहीं हुई जब तक कि उन्होंने प्रेम विवाह नहीं कर लिया ! जिन दिनों रागवृंत अभियांत्रिकी के छात्र थे उन दिनों रति व्यवसाय प्रबंधन में स्नातक पाठ्यक्रम की छात्र थीं और फिर दोनों ने व्यवसाय प्रबंधन में एक साथ स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की ! ...एक ही शहर में नौकरी भी !

स्कूल की पहली क्लास से लेकर अब तक, वे जितना समय, एक साथ गुज़ार चुके थे, वह एक दूसरे को निकट से पहचानने, परस्पर अनुरक्त हो जाने...और प्रेम के गहरा जाने के लिए संभवतः पर्याप्त ही रहा होगा, इसलिए उन दोनों ने जीवन एक साथ गुज़ारने का निर्णय लिया और अपने परिजनों को खबर किये बिना, कोर्ट मैरिज कर ली ! परिजनों को अपने विवाह की खबर नहीं करने का एक कारण उन दोनों की सामाजिक पारिवारिक पृष्ठभूमि के अंतर और परिजनों के संभावित विरोध की आशंका रही होगी...और वास्तव में ऐसा हुआ भी ! परिजनों ने खबर पाकर स्तब्ध रह जाने के महीनों बाद इस सम्बन्ध पर सप्तपदी के धार्मिक अनुष्ठान के लिए अपनी सम्मति दी ! वैसे भी परिजनों के पास मात्र दो ही विकल्प शेष थे, एक ये कि नवदंपत्ति को अपने जीवन से खुरच फेंका, और हमेशा के लिए भूल जाया जाये या फिर होनी को बड़प्पन दिखा कर स्वीकार कर लिया जाये ! उन्होंने सामान्यतः चुना जाने वाला दूसरा विकल्प चुना !

रागवृंत पाण्डेय की कथा के समानांतर अनंग सिंह, बिहार मूल के एक साधारण से क्षत्रिय परिवार में जन्मा युवा, उसके पिता सरकारी पोस्ट आफिस में तृतीय श्रेणी कर्मचारी थे, अपनी छोटी सी तनख्वाह से अपने बच्चों के पालन पोषण की विवशता में उन्होंने अनंग और उसके दूसरे भाइयों को सरकारी स्कूलों में भर्ती करा दिया और उनका भविष्य नियति के हाथ में छोड़ दिया ! घरेलू कठिनाइयों और भीषण जीवन दशाओं के साथ बिहार प्रदेश की दुर्लभ जीवटता के महामेल ने अनंग को अलग ही सांचे में ढ़ाल दिया ! उसे स्कूल से लेकर कालेज तक के विद्यार्थी जीवन में मारपीट उठापटक और नेतागिरी से ही फुर्सत नहीं थी ! जैसे तैसे आर्ट्स ग्रेजुएट हो सका ! जब अनंग बी.ए. में पढ़ रहा था तो मनीषा बी.एससी. की छात्रा थी ! जहां अनंग एक ही क्लास में नींव मजबूत कर करके आगे बढ़ता रहा वहीं मनीषा हर साल अच्छे नम्बरों से पास होती रही ! बहरहाल, कालेज तक पहुंचते पहुंचते यह पता चल गया कि अनंग उम्र में मनीषा से पांच साल बड़ा है! मनीषा, ओडिशा प्रदेश के संपन्न, ब्राह्मण परिवार की गौर वर्ण, सुंदर / सुमुखी कन्या जबकि अनंग, श्यामल वर्ण, साधारण कद काठी और सामान्य शक्ल-ओ-सूरत का एक उत्पाती युवा !

मनीषा को अनंग में कोई रूचि ना थी...पर अनंग , कालेज के चुनाव और छात्रहित के दूसरे बहानों को लेकर मनीषा से लगातार मिलता रहता ! वह मनीषा से एकतरफा प्रेम करने लगा था और उसे किसी भी तरह से हासिल करना चाहता था, हालांकि उसे अच्छी तरह से पता था कि उसे लेकर मनीषा के मन में इस तरह की कोई भावना नहीं है ! वह हर दिन किसी ना किसी बहाने, मनीषा से ज़रूर मिलता ! मनीषा से बातचीत करते समय वह अत्यन्त शिष्ट युवा की तरह से व्यवहार करने की कोशिश करता और उसके मित्रवत विश्वास को अर्जित करने चेष्टा भी ! इधर मनीषा जानती थी कि उसके सामने अनंग का व्यवहार बदल जाता है जबकि वह वास्तव में एक उद्दंड युवा है ! अपने प्रति अनंग के शिष्ट व्यवहार और मित्र मंडली की सतत उपस्थित के चलते मनीषा को कभी ऐसी आशंका ही नहीं हुई कि...

एक दिन अनंग ने मनीषा को फ्रूट जूस में नशीला पदार्थ मिलाकर पिला दिया और...होश में आने तक मनीषा लुट चुकी थी पर अनंग उसे ब्लेकमेल करने या बदनाम करने की धमकी देने के स्थान पर उससे बहुत प्रेम करने और केवल उसी से विवाह करने की रट लगा बैठा ! वह कहता रहा, तुम्हे पाने के लिए मैंने जो किया, वह गलत है...पर मैं जानता था कि तुम मुझसे प्रेम नहीं करतीं और मुझे स्वीकार भी नहीं करतीं ! इसलिए तुमसे विवाह करने और तुम्हे पाने का यही एकमात्र रास्ता मुझे सूझा ! मुझे क्षमा कर दो और मुझसे विवाह कर लो ! मनीषा के सामने भी दो ही विकल्प थे, एक तो ये कि पुलिस तक जाये और दूसरा ये कि अनंग की प्रणय याचना को स्वीकार कर उसकी धोखेबाजी, उसके अपराध को क्षमा कर दे ! लंबी कशमकश के बाद उसने कानूनी प्रतिरोध और बदनामी के रास्ते के बजाये क्षमा के विकल्प को चुना ! संभवतः इस विकल्प को चुनने में उसकी रजामंदी के बजाये, मजबूरी कहीं ज्यादा थी !

और फिर एक दिन सारी बस्ती हैरान थी कि मनीषा ने अनंग जैसे युवा के साथ भागकर प्रेम विवाह कैसे कर लिया ? इस प्रकरण में भी, नवविवाहित जोड़े के परिजन, स्तब्ध थे पर उनके पास भी कोई तीसरा विकल्प नहीं था ! सो पहले को छोड़ उन्होंने दूसरा विकल्प स्वीकार किया और मनीषा, अनंग के साथ अग्नि के फेरे लेकर सामाजिक तौर पर उसकी पत्नि हो गयीं ! मनीषा और अनंग का ब्याह एक छल की नींव पर खड़ा था! इसे एक पक्षीय प्रेम की गाथा कहा जाये, जिसमें कि नायक नायिका के साथ एक अपराध करके, नायिका को हासिल करता है ! इस गाथा में नायिका को नायक से प्रेम नहीं था ! उसने नायक को मजबूरी में स्वीकार किया था ! लेकिन विवाह के बाद, चारित्रिक रूप से बदल चुके और फिलहाल ठेकेदारी करके आजीविका कमा रहे अपने पति के समर्पण से वह बेहद खुश है !

रागवृंत पाण्डेय और रति के लंबे सुदीर्घावधि सुखद मित्रवत साहचर्य की परिणति विवाह में हुई ! उनके एक पुत्री है किन्तु वैवाहिक जीवन के तीसरे वर्ष वे एक दूसरे से कानूनन तलाक ले चुके हैं, जबकि अनंग और मनीषा के अल्पावधि साहचर्य के बाद छल से हुए विवाह की परिणति एक सुखद पारिवारिक वैवाहिक जीवन है ! जहां रागवृंत-रति के संबंधों की निर्दोष शुरुवात का अंत तुरंत हो गया, वहीं अनंग के आपराधिक कृत्य का पश्चाताप, अनंग -मनीषा के संबंधों की प्रगाढ़ता में वृद्धि कर रहा है ! एक ओर रागवृंत और अनंग के प्रकरण अंतरजातीय / अंतरसामाजिक / अंतरभाषाई / अंतरसांस्कृतिक तरह के विवाह का उद्धरण साम्य रखते हैं ! वहीं दूसरी ओर उनके संबंधों में छल और निश्छलता की शुरुवात का अंतर भी है ! रागवृंत और रति  दैहिक / बौद्धिक सौंदर्य साम्य तथा मित्रवत साहचर्य के बावजूद एक दूसरे से पृथक हो गये हैं जबकि अनंग और मनीषा दैहिक / बौद्धिक सौंदर्य असाम्य और मित्रवत असाहचर्य के बावजूद अब भी एक दूसरे के साथ हैं !

यहां रागवृंत और रति अब साथ नहीं हैं...वहां अनंग और मनीषा का साथ प्रगाढ़तम होता जा रहा है ! सो प्रेम को लेकर मैं आज भी कन्फ्यूज्ड हूं ! कहना चाहता हूं ! ओह ... प्रेम ! कभी यहां तुम्हें ढूंढा ? कभी वहां देखा ! तुमने अपने कहीं भी होने या नहीं होने को लेकर मुझे परेशान कर रखा है !

56 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन तेरे रंग अनेक....
    शुभकामनायें आपके प्रयासों को !

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    1. क्षमा जी ,
      कैरेक्टर्स के नाम ज़रूर बदले गये हैं पर दोनों घटनाएं सत्य हैं !

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  3. रागवृन्त पाण्डेय और रति का प्रेम-विवाह चाहे किन्हीं भी परिस्थितियों में हुआ था,पर उसका टूटना महज़ अपवाद भी हो सकता है,जबकि अनंग और मनीषा का विवाह न टूटने पर भी न आदर्श है न सराहनीय !पहले कथानक में लड़की रति का पक्ष(पारिवारिक पृष्ठभूमि) थोड़ा कमजोर है और दूसरे में लड़के अनंग की छवि,मगर इन दोनों घटनाओं से प्रेम की परिणति या व्याख्या करना समझ नहीं आ रहा.पहला प्रसंग तो प्रेम का है अगर टूट गया तो भी वैचारिक मतभेद या अन्य वजहों से ऐसा हो सकता है लेकिन दूसरे प्रसंग को तो कतई प्रेम की परिधि से बाहर देखना चाहिए.यह एक विशुद्ध अपराधिक मामला था और मनीषा ने एक गलत निर्णय लिया था.जब किसी को पाने का आधार छल-कपट होता है,उसे एक सफल जीवन कैसे कह सकते हैं.?क्या हुआ जो रति का विवाह नहीं चल सका,पर उसमें कम से कम आत्म बल तो फिर भी बचा है.क्या हुआ जो मनीषा अपने वैवाहिक-बंधन को निभा रही है,पर यह किस कीमत पर ?

    ...और हाँ,अगर जोड़ी बनाई ही थी तो अनंग(कामदेव) और रति की बनाते,सुभीता होता !

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    1. संतोष जी ,
      रागवृंत और रति की जोड़ी के टूटने के कारण , उनके आपसी प्रेम / उनके आपसी सम्बन्ध की तुलना में अधिक तगड़े रहे होंगे ! अपना कहना भी यही है कि वहां प्रेम की उपस्थिति पर प्रश्न चिन्ह है !

      अनंग और मनीषा के प्रकरण में आपको कोई जबाब नहीं दे सकूंगा क्योंकि यह विशिष्ट परिस्थितियों के दबाब में मनीषा का अपना निर्णय था ! शुरुवात अपराध से हुई ज़रूर पर आज प्रेम वहां मौजूद है ! मनीषा के निर्णय पर अनेकों मित्र प्रश्न चिन्ह लगाएंगे ! पर मुझे केवल प्रेम की मौजूदगी रेखांकित करनी है और वह भी आपराधिकता की पृष्ठभूमि के बावजूद !

      जोड़ी आपकी मंशा के अनुरूप ही है ! कामदेव और रागवृंत में कोई अंतर नहीं है :)

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    2. मान लिया जी कि रागवृंत और कामदेव एक ही हैं !

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  4. अली सा.
    कई बार जब हम स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध कुछ कहने को तत्पर होते हैं तो हमें घोर विरोध का सामना करना पडता है. यहाँ अनंग का प्रसंग वैसा ही है.. आप चूँकि यह कथा सुना रहे हैं अतः इसे मात्र एक घटना की पुन:प्रस्तुति न मानते हुए (जहां कहने वाले की बातों पर सुनी हुई बात और उसकी प्रस्तुति की मिलावट की संभावना हो) एक प्रामाणिक घटना मान रहा हूँ.. और इसी के फलस्वरूप यह मानता हूँ कि उसकी नीयत में खोट नहीं था और वो सच्चे दिल से मनीषा को चाहता था.. (जिसका प्रमाण उनकी सुखद पारिवारिक स्थिति को देखकर लगाया जा सकता है).. इसलिए उसके एक्सप्रेशन ऑफ लव को कृष्ण का सूर्य को छिपाकर सूर्यास्त का दृश्य उपस्थित करना, शिखंडी की आड़ निर्मित करना या भीष्म का एकलव्य का अंगूठा दान में लेना या शम्बूक वध की घटना का होना जैसा ही है..
    एक पहलवान की शादी के बाद सुहाग रात में पत्नी से पहले मिलन पर लोगों ने समझाया कि मुलायमियत के साथ बात करे.. उसने पत्नी से कहा कि पंजा लड़ाएगी, जो एक पहलवान की नज़र में कोमलता की सबसे अच्छी मिसाल रही होगी.. यदि अनंग का उद्देस्श्य मनीषा को भोगना ही होता तो वह अपना उद्देश्य पूरा कर चम्पत हो जाता.. मनीषा ने स्वयं यह अनुभव किया है कि उसके सामने वह बड़े ही कोमल स्वरों में बात करने लगता था और जो भी कहता था वो सच्ची लगने लगती थीं..
    इसके विपरीत राम्वृन्त के प्यार में प्यार की सबसे पोपुलर स्वयम्सिद्धि दिखाई दे रही है जहां प्रेमी युगल प्रेम के बीच अपना बेस्ट दिखाने की कोशिश करते हैं.. और जब वास्तविकता के धरातल से वह प्यार टकराता है तो सब चूर चूर हो जाता है, भ्रम भंग होता है और परिणाम जो आपने बताया!!
    बाक़ी तो गुनीजन आते ही होंगे!!

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    1. सलिल जी ,
      दोनों घटनायें शब्दशः प्रामाणिक है ! अनंग के प्रकरण में आपके तर्क सहृदयता से विचारणीय हैं ! बाद में मनीषा ने भी अनुभव किया कि अनंग का इरादा उसे छलकर भगाना नहीं था ! इसीलिये प्रेम अब उन दोनों के बीच मौजूद है ! इस प्रकरण में अंत भला सो सब भला मान लिया है !

      किन्तु एक छोटी सी फांस अब भी है कि मनीषा अपने प्रेम को स्वयं चुनती यह अधिकार उससे छीन लिया गया कि नहीं ? मनीषा का प्रेम विवाह के बाद का प्रेम है विवाह से पहले उसे प्रेम पर आत्म निर्णय का अधिकार नहीं मिला !

      चूंकि हमारे समाज में हरण विवाह का चलन है और मुझे इस वक़्त बिहार का पकड़ुआ भी याद आ रहा है इसलिए मैं इस विवाह को समाज सम्मत मान रहा हूं !

      रागवृंत पे आपसे सहमत !

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    2. प्रेम के विषय में मेरी धारणा अपने व्यक्तिगत 'अनुभवों' और विचारों में थोड़ी भिन्न रही है.. "प्रेम को स्वयं चुनने" के अधिकार पर मेरी आपत्ति है.. और यहाँ दिए गए चारों चरित्रों पर मैं इसे बराबर लागू हुआ मानता हूँ, गो कि आपने मनीषा की बाबत कहा है.. प्रेम में "चुनना" और "अधिकार" जैसी घटनाएँ कहाँ संभव हैं.. फिल्मों में इसी बात को एक पक्ष प्रेम "समझता" रहता है, जबकि दूसरा पक्ष उसे "बहुत अच्छी दोस्ती" की श्रेणी में वर्गीकृत कर देता है.. प्रेम स्वतः प्रस्फुटित होता है (हालांकि हमारे समाज में आज भी उस स्वतः-प्रस्फुटित प्रेम का पाया जाना दुर्लभ है) और यहाँ मनीषा को इस बात का समय नहीं मिला कि वह किसके लिए हो. हम इसे ही प्रेम के चुनाव का अधिकार कह देते हैं शायद!!
      कई बार इसका पता ही बहुत देर से लगता है!! जैसा मेरे विचार में मनीषा के साथ हुआ.. और यदि उससे पूछा जाए तो वह भी यही कहेगी!! :)

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    3. सलिल जी,
      आपकी आपत्ति पर इतना ही कहूँगा कि शायद शब्दों का फेर है वर्ना जो हक़ अनंग को मिला मैं मनीषा के लिए भी उसी हक़ के संकेत दे रहा हूं :)

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  5. विचित्र है मानव जीवन! कोई एक नियम- कायदा- कानून सबपर एक -सा लागू नहीं हो पाता ...
    विवाह में प्यार के साथ प्रतिबद्धता की भी आवश्यकता होती है . लोंग लाख कहें विवाह प्रेम से निभता है , मगर विवाह प्रेम , विश्वास और सामंजस्य और वचनबद्धता से ही निभता है या निभाया जाता है ! प्रेम विवाह में भी यदि सामंजस्य या समर्पण की भावना नहीं है , तो नहीं ही निभेगा!
    मनीषा के लिए क्या हादसे को भूलना संभव था ? पिंजर की पूरो याद आ गयी!
    निश्चित रूप से आप अनंग को डीफेंड नहीं कर रहे हैं ,बल्कि रिश्तों के बदलते मिज़ाज़ों पर हैरान ही नजर आ रहे हैं !

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    1. वाणी जी ,
      मैं कितने वर्षों से यही तो चिल्ला रहा हूं कि मानवीय संबंधों पे एक नियम , एक कायदा लागू नहीं होता ! यदि पारस्परिक प्रेम ना हो तो विश्वास ,सामंजस्य ,कमिटमेंट ,समर्पण भी नहीं हो पायेगा और फिर सम्बन्ध के टिकने की संभावना भी न्यून हो जायेगी !

      हादसे पर मनीषा ने एक निर्णय लिया है भले ही विवशता में ही सही ! वह उसे भूल पाई कि नहीं कह नहीं सकते ! पर प्रतीत ऐसा होता है कि वह आज के हालात में वो उसे किसी और शक्ल में याद रख रही हो शायद ? उसकी आज की खुशी को देख कर ही ऐसा अनुमान लगा रहे हैं , वर्ना तो यह सोचना भी सरासर बेहूदगी है , खेद का विषय है !

      सलिल जी को प्रतिक्रिया देते वक़्त मुझे याद आया कि बिहार में विवाह योग्य लड़के को जबरन पकड कर अपनी लड़की से विवाह करा दिया जाता है , जिसमें लड़के की सहमति की कोई भूमिका नहीं होती ! यह प्रकरण कमोबेश मिलता जुलता लगता सा है !

      मैं अनंग को डिफेंड नहीं कर रहा हूं ! बस रिश्ते कहें या रिश्तों के लिए उत्तरदाई प्रेम पर भौंचक हूं !

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    2. @वाणी
      "पिंजर की पूरो याद आ गयी!"

      पूरो का अपहरण करके जरूर लाया गया था...पर जहाँ तक मुझे याद है .... उसके साथ कोई जबरदस्ती नहीं की गयी थी .

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    3. विवाह तो जबरन ही हुआ था पूरो का ,किसी भी कारण से हो .वैवाहिक संबंधों की मजबूरी में अनैच्छिक शुरुआत के बाद रिश्तों में धीरे -धीरे प्रगाढ़ता आना पूरो और मनीषा में साम्य दिखाता है !

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    1. सिंह साहब ,
      जो घटनाक्रम घटित हुआ , वो सब सच्चे किरदारों ने किया ! इसमें मुझे अपनी ओर से , अलग से क्या 'इस्टेब्लिश' करना था ?

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  7. शायद मैं बिलकुल एक अलग नज़रिया रख रही हूँ...

    मनीषा और अनंग का वैवाहिक जीवन बहुत सुखद है....दोनों में प्रगाढ़ प्रेम है...ये कैसे कहा जा सकता है?
    इसलिए कि दोनों साथ रह रहे हैं..अलग नहीं हुए...समाज में सबके सामने हँसते -मुस्कुराते हैं?
    जैसा कि आपने पोस्ट में उल्लेख किया है..मनीषा सिंपल ग्रेजुएट है..और नौकरी नहीं कर रही...उसके पास निभाने के सिवा चारा क्या है?
    हो सकता है...अनंग एक अच्छे पति का कर्तव्य निभा रहा हो..पर मनीषा को उस से बहुत अपेक्षाएं भी नहीं होंगी. अच्छी एडजस्टमेंट को प्रेम नहीं कहा जा सकता.

    अनंग ने मनीषा के साथ प्रेम के वशीभूत हो जबरदस्ती की...ताकि उसके साथ शादी कर सके...एक सत्य घटना और पढ़ी थी कि एकपक्षीय प्रेम में
    लड़का...लड़की के चेहरे पर तेज़ाब फेंक देता है...कि वो कुरूप हो जाए और फिर उसके सिवा कोई और उस से शादी नहीं कर सके...(यहाँ लड़की ने उसके शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था ) तो क्या उस लड़के के इस कृत्य को भी प्रेम की संज्ञा दी जायेगी?

    रति आत्मनिर्भर है...उसने समझौता नहीं किया और अलग हो गयी...कितना भी अगाध प्रेम हो..पर किसी को साथ रहकर ही जाना जा सकता है...और शायद प्रेम विवाह में अपेक्षाएं और भी ज्यादा होती हैं...और पूरी ना होने की दशा में निराशा भी उसी मात्रा में होती है.

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    1. मैंने पहले ही कहा कि अनंग ने छल से मनीषा को हासिल किया ! जोड़ों के दरम्यान अगर झगड़े फसाद की कोई रिपोर्ट ना मिलें और वे नार्मल ढंग से जीवन गुज़ार पा रहे हों तो आज के भागम भाग और तनाव भरे माहौल में इसे प्रथम दृष्टया सहजता पूर्ण जीवन फिर खुशहाल जीवन और अंततः प्रेमपूर्ण जीवन ही कहा जा सकेगा ! वैसे भी विवाह पूर्व उनमें घृणा / दुश्मनी के सम्बन्ध तो नहीं थे ना !

      कारण जो भी हों , लुट जाने का दबाब या जीवन के बर्बाद होने का भय , अपने परिजनों को बताये बगैर घर से भागने का निर्णय मनीषा ने लिया था !

      अगर एडजस्टमेंट संभव है तो उसका एकमात्र कारण / स्रोत किंचित औदार्य ही हो सकता है ! औदार्य नन्ही ही सही प्रेम की किरण तो है ही ! क्या इसे नफरत कहा जाये !

      एकतरफा प्रेम में तेज़ाब फेंकने को एकतरफा प्रेम तो कहा ही जाएगा भले ही दो तरफा नहीं ! किन्तु तेज़ाब फेंकने के बाद यदि उन दोनों में विवाह हो जाये और वे एक दूसरे को पश्चाताप सहित स्वीकार कर लें तो इस स्तर के बाद दोनों में प्रेम उपजने की संभावना से इंकार कैसे किया जा सकता है ?

      हमारे देश में ज्यादातर पति पत्नि विवाह के बाद ही एक दूसरे को जानते और एक दूसरे से प्रेम करते हैं ! अनंग और मनीषा के प्रकरण में ऐसा क्यों नहीं हो सकता ?

      बाकी संभावनायें है ! अनंत हो सकती हैं ! जीवन में फिक्स बात कहना कठिन कार्य !

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  8. पहले केस में लड़का लड़की द्वारा घर में न बताकर चुपचाप शादी करना मां बाप के लिए बहुत घातक आघात है । फिर अपनाना उनकी मज़बूरी है । लेकिन तलाक होना , कहीं न कहीं ईगो क्लैश की वज़ह से लगता है । यह आजकल अत्यंत महत्त्वाकांक्षी युवाओं में काफी कॉमन है ।

    दूसरे केस में लड़की ने अन्याय के आगे घुटने टेक कर कोई अच्छा उदाहरण पेश नहीं किया । उनका साथ निभाते रहना इस बात को दर्शाता है कि दुनिया में संभव सब कुछ है । लेकिन गाड़ी के दोनों पहिये असमान रहने से गाड़ी चलेगी तो हिचकोले खाकर ही ।

    प्रेम क्या है , यह कोई नहीं बता सकता । आखिर, मनुष्य सबसे ज्यादा खुद से प्यार करता है ।

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    1. डाक्टर साहब ,
      आपकी प्रतिक्रिया के दोनों बिंदुओं से सहमत किन्तु तीसरी बात पे मामला फिफ्टी फिफ्टी माना जाये !
      यानि कि 'प्रेम क्या है यह कोई नहीं बता सकता' से सहमत पर 'मनुष्य खुद से सबसे ज्यादा प्यार करता है' ये ज़रुरी नहीं !

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    2. तीसरी बात --अली जी ,यह बायोलोजिकल कम्पल्सन है . :)

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    3. आप तो मुझे एक छोटे से बिंदु में फिफ्टी परसेंट स्पेस भी नहीं दे रहे हैं :)

      मेरा ख्याल है कि बायोलोजिकल स्टडीज और सोशियोलॉजिकल स्टडीज के दरम्यान ऐसे अनेकों झगडे अभी सुलझना बाकी हैं :)

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  9. रागवेंद्र और रति के मामले में पलड़ा बराबर था। मनीषा और अनंग के मामले में विवाह के बाद अनंग का पलड़ा बहुत भारी हो गया। विवाह के बाद साथ रहने और न रहने के पीछे की एक सच्चाई यह भी है। रति के सामने कोई लाचारी नहीं थी। मनीषा किससे कहे कि वह खुश नहीं है? मनीषा वास्तव में प्रसन्न है तो यह मानने में अब कोई हर्ज नहीं कि अनंग सच्चा प्रेमी था । यह बात दिगर है कि उसके तरीके गलत थे। रागवेंद्र का प्रेम फूस निकला जो गृहस्थ जीवन की अग्नि परीक्षा में जलकर खाक हो गया।

    मेरे विचार से प्रेम की ये कहानियाँ साक्षी भाव से पढ़ने सुनने और महसूस करने के बाद अचंभित होने के लिए ही होती हैं। प्रेम को नैतिकता के किसी खांचे में ढालकर नहीं परखा जा सकता। इस पर दिमाग दौड़ाकर निष्कर्ष निकालने से बेहतर है यह कहना कि मैं कनफ्यूज़्ड हूँ।

    देखें और कितनों को कनफ्यूज्ड करते हैं आप! :)

    मुझे तो यह गीत याद आ रहा है......

    एक बार और जाल फेंक रे मछेरे...जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।:)

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    1. देवेन्द्र जी ,
      रागवेंद्र नहीं रागवृंत कहना उचित है :)

      कन्फ्यूजन पे आपके आरोपनुमा संवाद को छोड़ कर आपकी प्रतिक्रिया से सहमत :)

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  10. कहते हैं प्रेम अंधा होता है और यह भी कहा जाता है कि इश्क पर जोर नहीं। रागवृंत और रति का प्रेम सोचा-समझा प्रेम था जो उद्धृत परिभाषाओं में नहीं आता। लेकिन दूसरे प्रकरण में अनंग का मनीषा के प्रति प्रेम अंधा था;और इस अंधे प्रेम में अनंग ने अपनी बुद्धि और समझ से जो रास्ता मनीषा को पाने के लिए चुना वह हमारी सामाजिक मान्यताओं को तोड़ कर किया गया कृत्य है और शायद यह ऐसे में जरुरी भी हो जाता है। जिन समाजों में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से काफी कम हो जाती है,वहां अक्सर इस तरह का बल प्रयोग होता है। लेकिन अनंग के दिल में और मन में उठने वाली भावनाओं की पूर्ति हेतु उसे कोई मार्ग चुनना था। वह सीधे अपनी चाहत को हाशिल नहीं कर पा रहा था,इसलिए उसने वह किया। यदि वह पढ़ने-लिखने में अच्छा होता या मनीषा के मनोनुकूल होता तो शायद उसे यह रास्ता न अपनाना पड़ता। लेकिन व्यक्ति अपने लक्ष्य पाने के लिए जो रास्ता चुनता है;वह उसकी समझ,बुद्धि और पहुंच(शक्ति) पर निर्भर करता है। इनके विवाह के बाद की स्थिति में प्रेम है या नहीं या वह समझौता मात्र। यह तो अनंग और मनीषा स्वयं बेहतर समझते हैं। परिवार से बाहर का व्यक्ति इस पर कोई भी तथ्यात्मक निर्णय नहीं दे सकता। हालांकि आपने इस घटना को सत्य घटना कहा है;लेकिन दो व्यक्तियों के मन परस्पर किस प्रकार संगठित होते हैं या सामंजस्य बैठाते हैं इसे तीसरा व्यक्ति कभी नहीं जान सकता। लेकिन किन्हीं भी परिस्थितियों में यदि मनीषा खुश है तो निश्चित ही उसकी मानसिक,भावनात्मक और शारीरिक जरुरतें अनंग से पूरा हो रही हैं। पर पहले प्रकरण में रति की रागवृंत के साथ लम्बे समय से पहचान और इच्छित प्रेम होने के बावजूद टूटा है। इसका मतलब यह है कि रति का विवाह का निर्णय गलत था;जो उसे शादी के बाद मालूम हुआ। संभव है वह नए परिवेश को न स्वीकार कर सकी हो। संभव है उसके सास-ससुर व अन्य रिश्तेदारों का आचरण उसे अच्छा न लगा हो या फिर उसकी स्वयं की मानसिक,भावनात्मक और शारीरिक जरूरतें पूरी न हो रही हों रागवृंत से। यह भी संभव है रागवृंत का व्यवहार विवाह के बाद वैसा न रहा हो; जैसा शादी के पूर्व था।

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    1. मनोज जी ,
      अच्छी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद !
      रागवृंत और रति का प्रेम बाल सखा होने के समय का था तो कह नहीं सकते वह बालपन / युवापन में अनियोजित आकर्षण / अनियोजित प्रेम था कि नहीं पर ये सही है कि बालिग होने पर उनका प्रेम सोचा समझा था ! रागवृंत और रति का विवाह टूटने में सम्बन्धियों का कोई हाथ नहीं है ! उनमें पृष्ठभूमि के अंतर तो थे ही पर इन अंतरों को उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था ! विवाह के बाद दो नौकरीपेशा लोगों का अहम और रागवृंत का अन्य लड़कियों की ओर रुझान दिखाई देना इसका एक कारण है ! और जैसा कि आपने कहा , विवाह के बाद व्यवहार बदलना भी ! शारीरिक ज़रूरतों पर प्रश्न चिन्ह नहीं किन्तु मानसिक भावनात्मक ज़रूरतें सवाल ज़रूर हैं !
      रति की तरह मनीषा भी फिलहाल एक बेटी की मां है वह अपने विवाह पूर्व के सभी सम्बन्धियों / मित्रों के घर आना जाना करती है ! प्रसन्नता या संतुष्टि व्यवहार से प्रकटित होते हैं ! प्रसन्नता की एक्टिंग कोई करे तो ये अपवाद होगा ! मनीषा के अनंग से झगडे नहीं होना और स्वयं अपने स्वजनों / मित्रों को प्रसन्न होने का फीड बैक देना तथा उसके सहज व्यवहार से प्रकटित प्रसन्नता यह संकेत करती है कि उसका पारिवारिक वैवाहिक जीवन सहज है / खुशहाल है ! इसीलिये हम सहजता और खुशहाली को प्रेम का एक संकेत मान कर काम चला रहे हैं !

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  11. आपने कहा कि घटनायें सच्ची हैं, तो फिर इन्हें विमर्श के लिये सामने रखने के लिये धन्यवाद!
    अब मेरी दो कौड़ियाँ ...

    पहली घटना में दोनों ही पात्र पढे-लिखे, सुसंस्कृत और समझदार लग रहे हैं। उनके प्रेम में भी एक दूसरे के प्रति आदर है तो वही आदर दुर्भावना से रहित परिपक्व अलगाव का कारण सहजता से बन सकता है। मुझे उनके प्रेम और अलगाव में कुछ भी अनोखा नहीं दिखा। हाँ, माता-पिता से छिपाकर विवाह करने की बात समझने में थोड़ी कठिनाई हुई क्योंकि समझदार माता-पिता जिस प्रकार बाद में माने, उसी प्रकार शायद पहले भी समझ जाते और विवाह में न केवल सहायक सिद्ध होते बल्कि उस विवाह के टिकाऊ होने की सम्भावना भी बढ जाती। मैं पहली घटना के ऐसे पात्रों को नज़दीकी से जानता हूँ जिन्होंने जल्दबाज़ी में विवाह करने के बजाय दोनों ओर के बुज़ुर्गों के सहमत होने तक इंतज़ार किया और अब सब सुखी हैं।

    दूसरा विवाह प्रेम का नहीं बल्कि आसुरी शक्ति (और न्याय व्यवस्था के अभाव) का स्पष्ट उदाहरण है जहाँ पीड़ित भी "जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया" से ही संतुष्ट होने में भलाई समझता है। इस तरह की घटनायें समाज के अन्यायी और अराजक होने की स्थिति में सामान्य मानी जा सकती हैं लेकिन किसी न्यायपूर्ण समाज में जहाँ नर नारी वाकई स्वतंत्र हों बलात्कारी को सज़ा मिलनी चाहिये और पीड़िता को स्वयंवर का अधिकार। विवाह ही नहीं अन्य कितने मामलों में हम इस घटना जैसी दुखद स्थिति देखते हैं। जो लोग मिलावटी सामान, रिश्वतखोरी, पुलिस का अत्याचार, गुंडों की छेड़छाड़-राहज़नी, माँ-बाप और शिक्षकों की मार-कुटाई और दुर्घटना-पीड़ितों का सड़क पर पड़े-पड़े मर जाना देखते हुए और उसे सामान्य समझते हुए ही बड़े होते हैं उन्हें यह घटना अगर प्रेम का उदाहरण दिखे तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

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    1. अनुराग जी ,
      उत्तर भारतीय ब्राह्मण परिवार और दक्षिण भारतीय मलयाली / नायर परिवार में सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि के अंतर के साथ ही आहार का अंतर भी महत्वपूर्ण था ! उत्तर भारतीय परिवार के लिए मैंने लिखा है कि वे अपने पुत्र के लिए सुकन्याओं के गृह नक्षत्र और फोटोग्राफ्स के पड़ताल कर रहे थे ताश की चार गड्डियों जैसी मोटाई में फोटोग्राफ्स और कुंडलियाँ मैंने खुद देखी हैं उनके पास ! वे अपनी अभिजात्यता और ब्राह्मणत्व को लेकर काफी सतर्क थे ! इसलिए रागवृंत का छुप कर शादी करना मैं समझ पा रहा हूं ! मुझे लगता है कि अगर वह छुप कर शादी नहीं कर चुका होता तो शायद ये शादी कभी नहीं हो पाती ! उस हालत में लड़की के परिवार को कष्ट / दबाब का सामना भी करना पड़ सकता था ! विवाह से असहमत परिजन विवाह से सहमत ज़रूर हुए पर वे दुखी बने रहे ! वे जोड़े को कभी अपने घर /नगर नहीं लाये ! वे जोड़े से मिलने उनके शहर चले जाया करते थी ! इसे आप लोक समाज निंदा का भय या कोई और नाम दे सकते हैं ! किन्तु ये पक्का है कि विवाह टूटने में परिजनों का कोई हाथ नहीं है ! मुझे ये स्वीकार है कि इस तरह की शादियां टिकाऊ हो सकती हैं !
      दूसरा विवाह सिविल सोसाइटी के लिए एक आपराधिक कृत्य है और स्वयंवर के हक़ का उल्लंघन भी करता है ! किन्तु यह समाज प्राचीन काल से हरण विवाह / बलपूर्वक किये गये विवाह को मान्यता देता रहा है ! बिहार के पकडुआ प्रकरण में तो लड़के इसके पीड़ित हैं ! कहने का आशय यह है कि असहजता के बाद सहजता हो जायेगी या अपेक्षा हमारा समाज ही करता है ! और शायद मजबूरी में ऐसा हो भी जाता है अक्सर !

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    2. अली सा,
      बिहार के पकडुआ विवाह में तो पीड़ित हमेशा पुरुष ही होता था और जहां तक मैंने देखा है वैसे पुरुष उपहास के पात्र भी बने रहे हैं समाज में. इस प्रकार के विवाह की कुछ परिणाम देखने में आये हैं, जो विचार करने योग्य हैं:
      पहला, फिर वे दोनों सुखी-सुखी रहने लगे. ऐसा परिणाम तब देखने में आया है, जब पकडुआ-विवाह की गह्तना प्रायोजित रही हो. अर्थात पुरुष की इच्छा से उसका अपहरण कर उसका विवाह करवाया गया और अपने घर वालों को मजबूरी बताकर, उनकी सहानुभूति दिखाकर वे सुख से रहने लगे.
      दूसरा, जहां इस प्रकार के विवाह के उपरांत पति-पत्नी में वास्तविक तौर पर सम्बन्ध विच्छेद हो गया और दोनों का जीवन बर्बाद हुआ. न लड़का तलाक दे सकने की स्थिति में था (संपत्ति का बंटवारा एक बहुत बड़ा कारक है), न दूसरा विवाह करने की. और वही स्थिति लड़की की, जिसने शायद बाद का जीवन उस घर में, जो उसका थोपा हुआ ससुराल था, आया की नौकरी करके बिताई, क्योंकि मायके वालों ने "बला टली" का धर्म निभाया.
      तीसरा, लड़की वाले बलशाली हुए तो प्रताडना का मुकदमा बनाकर लड़के को परेशान किया.. मेरे एक सहकर्मी को पुलिस वाले ऑफिस से उठाकर ले गए.. जैसे येसे उसकी नौकरी बची.. और तीन साल बाद तलाक के साथ बात खतम हुई.. यहाँ लड़की को मोहरा बनाकर पैसे वसूले गए.. लड़की का क्या हुआ पता नहीं, लेकिन मेरे सहकर्मी आज दूसरा विवाह कर सुखी हैं.. अंतर केवल इतना आया है कि बेचारे बिलकुल खामोश हो गए हैं.
      /
      वैसे कई उदाहरण ऐसे भी हैं जहां सबकुछ सहज हो गया और समाजी पैमाने से वे सुखी भी दिखते हैं!! दरअसल इस तरह की परिस्थिति में "सिम्पथी" का एलेमेन्ट सारे तथ्य, परिस्थिति, मनोदशा और घटना के पीछे छिपी भावना पर हावी हो जाता है!!

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    3. सलिल जी ,
      स्मार्ट इन्डियन साहब को यही बात मैंने कही कि पकडुआ में लड़के पीड़ित हैं ! शेष आपके आब्जर्वेशन्स हमें सहज स्वीकार्य हैं क्योंकि सामाजिक घटनाएं ऐसे ही घटती हैं !

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    4. सलिल जी,अनुरागजी और आपका विमर्श ज़ोरदार है !

      सलिलजी ने इस पर काफ़ी मेहनत की है !मेरे एक मित्र भी 'पकडुआ-पीड़ित' हैं और मज़े से हैं !

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    5. बातें कई हैं परंतु आपकी टिप्पणी में ज़िक्र चूंकि दो जाति-विशेष के आहार के अंतर का आया है इसलिये यह तथ्य सामने रखना ज़रूरी हो जाता है कि नायर और ब्राह्मण परिवार में सम्बन्ध कोई नई बात नहीं। इस सम्बन्ध की एक अति प्राचीन परम्परा है। सच यह है कि मातृसत्तात्मक नायरों में से अनेक की माँ नायर और पिता ब्राह्मण रहे हैं। इसलिये आहार का अंतर कोई भेद उत्पन्न कर सकता है, ऐसी बात नियम कम अपवाद अधिक है। इसी प्रकार शास्त्रों से लेकर आज तक भृगु, विश्रवा, च्यवन आदि से लेकर अरुणा आसफ़ अली, सरोजिनी नायडू, इन्दिरा गान्धी तक भारत में यदि कोई एक जाति अंतर्जातीय विवाह में अग्रणी रही है तो वह ब्राह्मण जाति ही है। प्रेम की तरह शायद कट्टरता के भी कई रूप होते हैं, एक सर्वभूतहितेरतः वाला और दूसरा अहमिन्द्रो न पराजिग्ये वाला।

      इसी तरह प्रेम का अर्थ केवल साथ ही नहीं है। स्वस्थ अलगाव के लिये भी प्रेम सहायक सिद्ध होता है जबकि मजबूरी में, भय से या स्वार्थ के वशीभूत होकर भी लोग साथ जुड़ते हैं। दुश्मन का दुश्मन दोस्त जैसी कहावतें यही प्रेमहीन मिलन की स्थिति दर्शाती हैं।

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    6. अनुराग जी ,
      अंतरजातीय विवाहों पर कोई मतभेद नहीं ! किन्तु प्रकरण विशेष के ब्राह्मण परिवार को जितना निकट से मैंने जाना , आहार और कुंडली के विषय में उसी संज्ञान को आधार बना कर कहा ! नायर परिवार की बड़ी बिटिया अन्य बच्चों के साथ अकादमिक भ्रमण पर मेरे अभिभावकत्व में दक्षिण भारत गई थी सो उस परिवार को भी मैं जितना जान सका ! मैंने जो भी कथन किया , प्रकरण विशेष के लिए किया उसे सम्पूर्ण ब्राह्मण समाज या नायरों के समाज के लिए लागू नहीं मान रहा हूं !

      वैसे भी सामाजिक संबंधों और उनकी टूटन को लेकर किन्ही सार्वभौमिक नियमों की कल्पना मैं नहीं कर रहा हूं !

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    7. सलिलजी
      ये भी ध्यान रखे कि पकडुआ विवाह दहेज़ प्रथा का परिणाम है.ये कार्य गलत होते हुए भी लड़की या लड़की वालो का उतना दोष नहीं होता है जितना दहेज़ मांगने वालो का.

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  12. lovepost is really wonderfull.it has a big canvas for conversation.congrates.

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  13. जब २ पहरे नहीं पढ़े तो मैं भी मन ही मन दोनों दम्पतियों की तुलना करने लगा, और मुझे लगने लगा कि कंहीं न कहीं अनंग की ग्रहस्थी ही सही से जमेगी, और अंत में यही हुआ..

    कुछ ऐसा लग रहा है कि खुले दिमाग के तथाकथित पढ़े लिए युवा की जल्दी ही मोहभंग की स्तिति आती है और वे समझोता नहीं कर पाते, जबकि गृस्थ जीवन या फिर सामान्य सामाजिक जीवन जीना भी बिना समझोते के मुश्किल हैं.

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  14. @ पढ़े लिए = पढ़े लिखे युवा वर्ग.

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    1. दीपक जी ,
      ज्यादा ज्ञानी बजते भी ज्यादा हैं ! सहयोजन करने में उन्हें इगो की समस्या आड़े आती है उनकी तुलना में कम पढ़े लिखे लोग इगो को छोड़ कर समझौते करने में ज्यादा सफल रहते हैं !

      आपका कहना सही है ऐसा अक्सर ही होता है पर इसके उलट होने की संभावनाएं भी हुआ करती हैं ! असल में सामाजिकता ऐसे ही अंतरविरोधों को अभिव्यक्त करती है ! यहां किसी एक घटना के लिए कोई फिक्स नियम बताना कठिन होता है !

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  15. अजब प्रेम(?)की गजब कहानियाँ........

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  16. सामाजिक शास्त्र के एक प्रोफ़ेसर के पास सहज है कि ऐसी केस हिस्ट्रीज होंगी जो मानव व्यवहार को सझने आंकने का समाज शास्त्रीय अभ्यास का मौका देती हैं ..मगर जब एक प्रोफेसनल ही कन्फ्यूज है तो फिर हम लाचारों की कौन हवाल?

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    1. पंडित जी , वो तो सब ठीक है ! ...पर आपके हिन्दी टायपिंग टूल में कुछ दिक्कत है क्या ?

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  17. टूल में दिक्कत भले हो दिमाग में नहीं होनी चाहिए अली भाई -!

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  18. प्रेम क्या है?

    इस प्रश्न के उत्तर में यदि हम एक मिनट के लिए मनुष्यों के बनाये सभी नैतिक, सामाजिक, कायदे-कानून को भूल जांय तो असली प्रेमी उसी को मानेंगे जहाँ नर, मादा को पसंद करते ही, उससे येन केन प्रकारेण संभोग के लिए उद्यत हो जाय। बजाय उसके जो दिमाग चलाये .... यह सुंदर तो है लेकिन पढ़ी-लिखी नहीं है! पढ़ी-लिखी है लेकिन दूसरे धर्म की है! इसका सामाजिक स्टैटस तो मेरे बराबर है लेकिन दूसरे जाति की है! मुझसे प्रेम तो करती है लेकिन मेरा आदर नहीं करती! सच्चा प्यार वह है जिसमें सेक्स की भूख न हो !

    कहने का प्रयोजन यह कि हम जब प्रेम क्या है? विषयक विमर्ष करते हैं तो सबसे पहले उसे अपने ही बनाये खाँचे में फिट करते हैं फिर यदि वह अपने खाँचे के अनुरूप नहीं हुआ तो झट से कह देते हैं...यह तो प्रेम नहीं!

    अब ऐसे में मनुष्य जब स्वतंत्र होकर तर्क करने लगता है तो उसका कनफ्यूज्ड हो जाना स्वाभाविक है।

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  19. प्रेम पर , मनुष्यों के नैतिक, सामाजिक मानदंड भूलकर बात करें तो चलेगा...पर आप बात कुछ ज्यादा आगे बढ़ा कर ले गये :)
    प्रेम का नर और मादा के सम्भोग तक पहुंचना ज़रुरी नहीं है ! नि:संदेह सम्भोग भी प्रेम का एक प्रदर्शन है / अभिव्यक्ति है ! लेकिन केवल यही प्रेम का पर्याय नहीं है ! रूहानी प्रेम सच्चा प्रेम होता है ! आपका इतना कहना भी पर्याप्त होता :)

    अब मुद्दा ये है कि हम समाज से बाहर के किसी गायबाना तिलस्म या ईश्वर के लिए प्रेम की कल्पना अथवा चर्चा नहीं कर रहे हैं बल्कि सीधे सीधे दोपायों के मध्य , जिस आकर्षण / ज़ज्बात / संवेदना को भी आप प्रेम मान लें ,पर चर्चा कर रहे हैं , तो समाज के खांचों से जी चुराने का सवाल नहीं उठना चाहिये ! मुद्दा और कन्फ्यूजन यह है कि किसी एक खांचे में भी प्रेम एक जैसा नहीं है ! उसकी कोई नीति निर्देशिका नहीं ! उसकी कोई गाइड लाइन्स नहीं ! उसकी कोई सीधी सड़क नहीं :) वह स्त्री पुरुष में ही हो ये भी ज़रुरी नहीं :)

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  20. रूहानी प्रेम सच्चा प्रेम होता है। यह भी हमारा बनाया हुआ एक खांचा है।

    जानता हूँ जन्नत की हकीकत लेकिन
    दिल को बहलाने के लिए गालिब खयाल अच्छा है।:)

    किसी एक खांचे में भी प्रेम एक जैसा नहीं है ! उसकी कोई नीति निर्देशिका नहीं ! उसकी कोई गाइड लाइन्स नहीं ! उसकी कोई सीधी सड़क नहीं :) वह स्त्री पुरुष में ही हो ये भी ज़रुरी नहीं :)

    ...यह कन्फ्यूजन नहीं है। मुझे लगता है यही बात सोलह आने सही है। कन्फ्यूजन तब शुरू होता है जब हम उसे अपने खांचे से देखना शुरू करते हैं। अब चूंकि हमें इसी समाज में रहना है जिसे हमने अपनी बुद्धि के अनुसार सभ्य बनाने का भरपूर प्रयास किया है तो हम इन खांचों से जी भी नहीं चुरा सकते। पशुवत आचरण नहीं सकते। नीयति यह कि ऐसे ही अचंभित भाव से प्रेम के विवध रंगों से रू-ब-रू होते रहें।:)

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  21. /// किसी एक खांचे में भी प्रेम एक जैसा नहीं है ! उसकी कोई नीति निर्देशिका नहीं ! उसकी कोई गाइड लाइन्स नहीं ! उसकी कोई सीधी सड़क नहीं :) वह स्त्री पुरुष में ही हो ये भी ज़रुरी नहीं :) ///

    @ मुझे लगता है यही बात सोलह आने सही है ,

    जिस बात को आप सोलह आने सही स्वीकार कर रहे हैं ! ज़रा गौर से देखियेगा कन्फ्यूजन भी वहीं है :)

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  22. पता नहीं कौन से घटक छूट जाते हैं, कौन से तथ्‍य रेखांकित हो जाते हैं.

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  23. पोस्ट और टिप्पणियाँ फिर प्रति-टिप्पणियाँ ... रोचक बन पड़ी है पूरी पोस्ट ...
    जहां तक मेरी सोच का सवाल है ... मुझे लगता है पहले जोड़े की प्रेम कहानी लंबी चली ... उस प्रेम के दौरान दोनों एक दूसरे कों इम्रेस करने प्रयास करते रहे ... विवाह के बाद जीवन के कठोर सत्य का सामना करते हुवे एक दूजे की असलियत (मैं यस नहीं कर रहा की वो गलत थे) स्वीकार नहीं कर पाए ... ऐसा अधिकतर देखा है मैंने प्रेम विवाहों में ...
    जहां तक दूसरे विवाह की बात है ... उसमें समझौता ज्यादा है वो भी मनीषा की तरह से ... जब उसने विवाह का फैसला लिया बस तभी से उसने समझोते की शुरुआत कर डी थी और वो इस बात कों समझती रही अंत तक ... तभी उसका वैवाहिक जीवन चलता रहा ...

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  24. दोनों ही प्रकरणों में आपकी प्रतिक्रिया तसल्ली देती है !

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