गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

देह स्वजनता : वर्जनायें बनाम वरीयतायें बनाम नैतिकता !


कहना मुश्किल है कि देह राग से विरत इंसान , सामाजिकता के दायरे में मौजूद नहीं होंगे पर ये कहना आसान है कि इस राग के शौक़ीन जमीन के हर उस टुकड़े पे आबाद होंगे जहां भी तबियत से उछाला गया कोई पत्थर आ गिरे ! इंसान की नैसर्गिक प्रवृत्ति के बतौर इस शय की अभिव्यक्ति देहों के दायरे में ही होती है  !  दैहिक नैकट्य का बहुआयामी प्रकटन ज़्यादातर अनंग और रति के युग्म में , कभी पुष्पधन्वा संग पुष्पधन्वा की सहगामिता में या फिर रति सह रति के मदनोत्सव में !  इसके इतर स्मर और रति पृथक पृथक संग चतुष्पाद प्राणी वगैरह वगैरह  ! आशय यह कि देह राग का विस्तार  देह साम्य से देह असाम्य तक  !  आयु , जाति , धर्म , भाषा , रंग , सौंदर्य , आंचलिकताओं  की सरहदों और सल्तनतों  को लांघते हुए बारहा ! 

धरती में टुकड़ा टुकड़ा आबाद होते वक़्त इंसानों की देह स्वजनता के इन आकारों से किसी नैतिकता अथवा वर्जना या फिर वरीयता की अनुगूंज सुनाई देने में शताब्दियां होम हुई होंगी ! लेकिन  यह तय है कि समय इन्हें एक जैसी संहिता के झंडे तले समेट पाने में सर्वथा असफल रहा है क्योंकि इंसान के वैचारिक असाम्य , जीवन शैलियों की विषमताओं के जनक हैं जिसे स्वीकार करने में कोई असहजता भी नहीं होना चाहिए !  नव -राष्ट्रीयताओं और उनकी विधिक परम्पराओं के विकास के इतर सामाजिक जीवन की वरीयताओं , वर्जनाओं और नैतिकताओं का इतिहास  कहीं अधिक अर्वाचीन और अधिक प्रबल  /  प्रगाढ़ है ! कहने का आशय यह है  कि राष्ट्रों के लिए स्वीकृत विधि तंत्र की अपेक्षा समाजों के लिए स्वीकृत प्रणालियों और अनुशंसाओं की प्रभावशीलता के प्रमाण देह स्वजनता पर भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं  !  बहरहाल प्रश्नाधीन विषय विधि बनाम सामाजिक संस्वीकृतियों के बजाये सामाजिक संस्वीकृति विरुद्ध सामाजिक संस्वीकृति है  ! 

देह के आकर्षण और उसकी परिणति को स्व-समाज की मानक स्थापनाओं के आईने में निरखने / परखने और परिणामतः आधार उदघोष से पहले हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारा आईना किसी दूसरे समाज के मानक आईने से भिन्न हो सकता है अतः देह स्वजनता की वर्जना अथवा निषेध या फिर नैतिकता के वक्तव्य हमसे अत्यधिक संयम चाहते हैं  !  हम यह भी नहीं कह सकते कि अमुक समाज के मानदंड अनैतिक है और केवल हमारे सामुदायिक मानक सर्व-स्वीकार्य या दसों दिशाओं में आरोपण योग्य हैं अन्यथा  अपने विरुद्ध यही तर्क हमें  दूसरे पक्ष से सुनने के लिए तैयार रहना होगा !  देह स्वजनता का मुद्दा किसी समुदाय या समाज विशेष के संकेत मात्र से सार्वजनीन नृत्य के लिए आतुर धारणा नहीं है  !  इसे समाज बनाम समाज की अपनी अपनी संवेदनशीलताओं और मानकों के स्पेस को ध्यान में रखकर ही देखा जाना चाहिए ! ख्याल रहे कि मनुष्य की दैहिक अभिव्यक्तियों , उससे प्रकटित संबंधों और सामाजिक जीवन की जटिलताओं पे सरल निष्कर्षों की  बहुत अधिक गुंजायश नहीं हुआ करती !

प्रायः यह देखा गया है कि बौद्धिक होने के अहसास से लदा फंदा जीव श्रेष्ठि ,अख़बारों पे अत्यधिक विश्वास करता है ! निवेदन यह कि व्यक्तिगत वक्तव्य को अभिप्रमाणित वक्तव्य की तरह से प्रस्तुत किये जाने का चलन इन दिनों जोरों पर है  ! क्या यह प्रवृत्ति सामाजिक ताने बाने की संश्लिष्टताओं के मद्दे नज़र वांछित भी है  ? क्या इसे सामाजिक जीवन की यथार्थपरक समझ के तौर पर स्वीकार क्या जा सकता है  ?  कुछ माह पहले एक  खबरनामें  के नियमित स्तम्भ को बांचते हुए पाया कि एक विशिष्ट समाज में वर्जित देह स्वजनता मानक के उल्लंघनकर्ता किसी अनाम पाठक ने अपनी करनी से निपटने का जुगाड़ सार्वजानिक तौर पर पूछा तो वहां पर भांति भांति की प्रतिक्रियाओं की झड़ी लग गई  !  प्रतिक्रियाओं में निंदा से लेकर संकट हल करने के सुझावों तक के शेड्स दिखाई दिये !  सोचता हूं कि उस व्यक्ति ने अपने एक साल के वैवाहिक जीवन में सामाजिक वरीयता के लाभार्थी होने के साथ ही सामाजिक वर्जना के उल्लंघनकर्ता का किरदार कैसे निभाया ?  वह किन क्षणों में ऐसा करने के लिए प्रेरित / उद्ध्यत हुआ और क्यों ? क्या वर्जना लंघन के लिए वह एक मात्र दोषी है या उसकी सास भी ? दोष निर्धारण अथवा अन्य परिणामों जैसे  किसी निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए , निश्चय ही मुझे खबरनामें को बांचने मात्र से अधिक सतर्कता बरतनी होगी  ! अभी केवल इतना ही कहा जा सकता है कि कथित घटनाक्रम सम्बंधित समाज की देह राग गायन वरीयताओं के अनुकूल  प्रतीत  नहीं होता है अतः इसे अनैतिक माना जा सकेगा  ! 

बौद्धिक जगत का आम तबका जाने अथवा  ना जाने  किन्तु  नृजाति शास्त्र के स्नातक स्तरीय विद्यार्थी भी जानते है  कि उल्लिखित घटना किसी अन्य   समाज   के लिए  वर्जना नहीं है बल्कि उसे  वहां वरीयता के तौर पर स्वीकार किया जाता है  ! उत्तर पूर्वी भारत के गारो आदिवासी हमसे अलग मातृवंशीय समाज हैं जहां श्वसुर की मृत्यु होते ही जामाता को अपनी सास से विवाह कर लेने की सामाजिक अनुशंसा प्रचलित है  !  हो सकता है कि गारो जामाता अपने पत्नी और सास से देह स्वजनता स्थापित करने के समय आयु अथवा ऐसी ही  किसी अन्य विसंगति से भी दो चार होता हो या फिर इस संबंध को लेकर उसकी व्यक्तिगत रुचि ना भी हो , किन्तु संपत्ति की अधिकारिणी विधवा सास से विवाह ना करने निर्णय वह तभी ले सकता है जबकि उक्त संपत्ति से स्वयं बेदखल होना तय कर ले  अन्यथा अपनी सास से विवाह करने और देह स्वजनता स्थापित करने में उसके आगे कोई सामाजिक वर्जना मौजूद नहीं है !  कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि इस महादेश के एक समुदाय के लिए जो घटना वर्जित या अनैतिक हो सकती है वही घटना किसी दूसरे समुदाय के लिए वरीयता और नैतिकता की श्रेणी में मान्य है  ! बस यही कारण है कि हम  इंसानों की मूल प्रवृत्तियों से उदभूत यथार्थों को उनके समुदाय विशेष के मानकों में ही  देखें / परखें  तो बेहतर होगा ! सामाजिक प्रघटनाओं  / संप्रत्ययों को अखिल ब्रम्हांड के सत्य की तरह से देखने का नज़रिया सही नहीं है , भले ही यह घटनाएं देह स्वजनता जैसे सार्वजनीन तथ्य पर ही आधारित क्यों ना हों  ! 

39 टिप्‍पणियां:

  1. इस नाजुक मुद्दे पर आम ब्‍लागरी के बजाय विश्‍लेषणपरक जो गंभीरता अपेक्षित हो सकती है, उसका बेहतरीन निर्वाह हुआ है.

    पढ़कर लगा कि ऐसे विषयों पर मानव विज्ञानी भावों और समझ के साथ ही न्‍याय किया जा सकना संभव है.

    पोस्‍ट लेखक यह निवेदन करने पर विचार कर सकते हैं कि ''फैसला देने वाले, पक्ष-विपक्ष में हाथ उठाने वालों के उपयुक्‍त नहीं है यह पोस्‍ट''.

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  2. पढ़ लिया है,जब समझ में आएगा तब टीपूंगा ......बहुत दार्शनिक और हम जैसे लल्लुओं के लिए भारी है यह पोस्ट !

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  3. अपनी खोल से बाहर निकलते ही प्रकृति में व्याप्त नाना प्रकार की लीलायें दिखलाई देने लगती हैं। अस्तित्व हमे उन्हें समझने की शक्ति देता है। बालक की तरह जीवन पर्यंत कौतूहल भाव से इनको बस देखते रहने की जरूरत है। जहां विद्वता दिखाये..वहां दूसरे बच्चे चीखने लगेंगे...तुम बुद्धू हो..! तुम बुद्धू हो..! तुम बुद्धू हो..!
    आपने भी कुशल चित्रकार की तरह हमारे ही समाज में व्याप्त रीतियों को जस का तस दिखा भर दिया है। जहां एक खुद को सही और दूसरे को गलत कहता है।

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  4. सामाजिक वर्जनाओं के चलते, यह यह अत्यधिक महत्वपूर्ण विषय, मानवता के लिए, लगभग अछूता सा हो गया है !
    देश के बड़े बड़े लिख्खाड दिग्गजों की कलम भी, यहाँ आकर अपनी आँख बंद कर लेती है ! इन महारथियों के सामने मेरी लिखनियाँ क्या लिख पाएगी :-)
    जो लोग भी इस विषय पर लिखने की हिम्मत जुटा पाते हैं मेरा उनका सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ नमन !
    कृपया राह दिखाते चलें !

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  5. कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि इस महादेश के एक समुदाय के लिए जो घटना वर्जित या अनैतिक हो सकती है वही घटना किसी दूसरे समुदाय के लिए वरीयता और नैतिकता की श्रेणी में मान्य है ! बस यही कारण है कि हम इंसानों की मूल प्रवृत्तियों से उदभूत यथार्थों को उनके समुदाय विशेष के मानकों में ही देखें / परखें तो बेहतर होगा !
    इससे सहमत होने में कोई हर्ज नहीं। :)

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  6. @ राहुल सिंह जी ,
    वास्ते टीप का पैरा नम्बर १,२ ... धन्यवाद !
    वास्ते टीप का पैरा नंबर ३ ...फिलहाल 'जो तुझ भावे' के अंदाज़ में रखने का इरादा है आगे ज़रूरत पड़ी तो निवेदन भी कर लेंगे !

    @ संतोष जी ,
    आपके कहने का यह मतलब निकाल रहा हूं कि अत्यधिक दार्शनिक और लल्लुओं ( सीधे सादे महानुभावों ) के लिए बोझ समान है यह प्रविष्टि :)

    @ देवेन्द्र जी ,
    धन्यवाद ! लगता यही है कि अपना आपा खोकर ही सबको पाया जा सकता है !

    @ सतीश भाई ,
    कोशिश की है कि प्रचलित शब्दों का प्रयोग ना करके भी बात कह पाऊँ ! मुद्दे के लिए जिन शब्दों का चलन देखा , वे प्रायः घिस चुके हैं और उनके अर्थ में भी थोड़ा बाज़ारूपन झलकने लगा है शायद इसीलिये लोग चर्चा करने से परहेज़ करते हैं ! बहरहाल यह तो आप ही बेहतर कह पायेंगे कि बात हो भी सकी या कि नहीं !

    @ अनूप जी ,
    आपकी सहमति से असहमत होने का तुक ही नहीं बनता :)
    धन्यवाद !

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  7. Jo mujhe abhibhoot karta hai,wo hai aapkaa bhasha prabhutv aur aapkee shaili!

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  8. अली सा.
    कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि इस महादेश के एक समुदाय के लिए जो घटना वर्जित या अनैतिक हो सकती है वही घटना किसी दूसरे समुदाय के लिए वरीयता और नैतिकता की श्रेणी में मान्य है!
    मेरे विचार में इस तथ्य/विचार/दर्शन/निर्णय/सिद्धांत से किसी को इनकार नहीं होगा... पटना में किसी स्त्री को नाभिदर्शना सारी पहने देख जो रसायन-संचार देह में होता है, वही दिल्ली में नहीं होता और गोवा के तट पर सर्वथा नग्न स्त्रियों को देखकर तो कदापि नहीं होता...
    उस खबरनामे में प्रकाशित "दुखवा मैं का से कहूँ" वाले अंदाज़ में किये गए प्रश्न के युधिष्ठिर यदि गारो अथवा खासी समुदाय के होते तो यह प्रश्न उत्पन्न ही नहीं होता. किन्तु जिस समाज से यह प्रश्न किया गया, उसने सही अनुमान लगाया कि यह प्रश्न इसी समाज के व्यक्ति से पूछा जा रहा इसलिए उसने लानतें मलामतें भेजीं. इट्स एज सिंपल एज दैट!!
    अब रूस की संस्कृति में जहां का मुख्य (या कई पेशों में से एक) पेशा वेश्यावृत्ति है, जहां की औरतों को (जब मैं दुबई में था, तब सुना था) अरब अमीरात में वीसा देना सिर्फ इसीलिये मना/कम कर दिया गया था कि उन्होंने वहाँ भी अपनी दूकान खोल रखी थी, जिस देश की खोज ही ऑटोमेटिक कलाश्निकोव (ए.के.४७/५६) है, वहाँ गीता को प्रतिबंधित करने की मांग हिंसा को बढ़ावा देने और कुछ ऐसे ही कारणों से की जा रही है. इतने दिनों बाद उनको भी आभास हुआ कि
    कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि इस महादेश के एक समुदाय के लिए जो घटना वर्जित या अनैतिक हो सकती है वही घटना किसी दूसरे समुदाय के लिए वरीयता और नैतिकता की श्रेणी में मान्य है!

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  9. फिर पढ़ते हैं बहुत पाठ्य-पुस्तकीय भाषा हो गयी है ...दिमाग में घुस नहीं रही है ..नाश्ता वास्ता करके फिर जमते हैं!

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  10. Achha hua jo aapne sujhaya....aapke comment ke alawa any 6 comment spam me chale gaye the.Bahut,bahut shukriya!

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  11. अली सा
    आज जाना कि कितने अनपढ़ हैं हम....अपन के भेजे में यह पुष्ट और बलिष्ठ भाषा घुस नहीं रही है.जो आपकी नज़र में अच्छी टीप हो,वाही मेरी भी समझी जाय :-)

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  12. @ क्षमा जी ,
    (१) आभारी हूं !
    (२) हर रोज एक बार स्पैम चेक कर लिया कीजिये !

    @ सलिल जी ,
    मुझे लगता है चर्च , कृष्णमार्गियों से भयभीत है ! उसे सारी दुनिया में अपना राग फैलाना है / आरोपित करना है जबकि कृष्णमार्गी उसके अपने गढ़ में घुस गये हैं !
    यह दुखद स्थिति है कि वे एक धर्म ग्रन्थ से आतंकित होने का ढोंग कर रहे हैं ! उसे पढ़कर संवाद से / तर्क से असहमत होते तो अलग बात थी !

    @ अरविन्द जी ,
    धन्य हो महाराज ! नाश्ता वास्ता करने से कुछ हल निकलेगा :)

    @ संतोष जी ,
    आप इशारा तो कीजिये कौन सी वाली :)

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  13. वादे के मुताबिक़ पुनः हाज़िर साहब!
    आज आपने अहसास का दिया कि आप समाजशास्त्र के पुरोधा पुरायट खुर्राट (हा हा ) प्रोफ़ेसर हैं ....
    छोटी सी बात के लिए इतना शब्दाडम्बर ?
    कोई सास से प्रणय सम्बन्ध स्थापित कर ले और कोई भाभी से यह परिस्थति विशेष और परम्पराओं में सर्वथा वर्जित नहीं है ....मगर बिना मकसद अनायास काम बुभुक्षा से ये सम्बन्ध स्वीकार्य नहीं हैं ....
    दैहिक स्वजनता शब्द पहली बार सुना ..इस पर मनन कर रहा हूँ ....क्या इसे दैहिक युग्मता भी कह सकते हैं ?
    बाकी तो जिसके लिए ये पोस्ट है वह समझने से रहा और हम समझ के क्या करेगें?

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  14. अली साहब,
    असहमति वाली बहुत सी बातों पर जब दही का लस्सी बनाने की कोशिश की तो हमें चित्र के थ्री डामेंशन्स की तरह घटनाओं के पीछे काल, स्थान और व्यक्ति-विशेष, इन तीन आयामों का प्रभावी होने वाली थ्योरी सर्वाधिक उपयुक्त लगती है। इन तीन कारकों में थोड़ा सा फ़ेरबदल होते ही निर्णय जायज-नाजायज, नैतिक-अनैतिक, करणीय-अकरणीय के झूले झूलने लगते हैं। उदाहरण के लिये आज से एक हजार साल पहले जो सही लगता था, वो आज गलत है। भारत में जो सही है, कहीं और वो बेवकूफ़ी दिख सकती है। अली साहब जिस काम को कर रहे हों, संजय अनेजा उसे करे तो शायद अपनों-परायों से बेभाव की पड़ने लगें।

    और हाँ, स्पैम आप भी चैक किया करें, कोई नुकसान नहीं होगा। क्या समझे? आप जरूर समझ सकेंगे:))

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  15. वर्जित और कुंठा ग्रस्त विषयों पर अपनाये गए नजरिये आम-तौर पर आदर्श-वादी क्षेत्रीय सोचों
    से प्रभावित होतें हैं।रहा सवाल नैतिकता का,वो तो सांस्क्रतिक प्रष्ठभूमि के सापेक्ष होती है।सही सतुलित सोच अपनाने के लिए रुड़ियों से आजाद होना जरुरी है।बढ़िया बौद्धिक खुराक।

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  16. यह एक महत्‍वपूर्ण बात है कि मनुष्‍य की नैतिकताएं भौगोलिकता के अनुसार निर्धारित होती हैं। लेकिन यह बात ज्‍यादातर लोगों को समझ नहीं आती। यही कारण है कि अपनी नैतिकता को ज्‍यादा ऊंचा साबित करने के चक्‍कर में इंसान अक्‍सर दूसरों को नीचा दिखाने की हिमाकत करता रहता है।

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    आपका हार्दिक स्‍वागत है..
    डॉ0 अरविंद मिश्र के ब्‍लॉगों की दुनिया...

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  17. @ अरविन्द जी ,
    जिस रिश्ते से 'दुनिया कायम' है उसे आप छोटी सी बात क्यों कह रहे हैं ! सारा शब्दाडम्बर / सारी कहन बस इसीलिये :)
    शब्द बहुत थे पर मैं इस सम्बन्ध के लिये बहुत ही साफ्ट हैंडलिंग (नाज़ुक बर्ताव) वाला शब्द प्रयोग में लेना चाहता था :)

    @ मो सम कौन जी ?
    अली और आपकी करनी , उनकी अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर नैतिक अनैतिक ठहराई जायेगी / जाना चाहिए ,बस यही कहना है :)

    स्पैम चेक करने की आदत डाल ली है जी :)


    @ रोहित बिष्ट जी ,
    सांस्कृतिक पृष्ठभूमि सह नैतिकता वाली बात सही है ! हार्दिक धन्यवाद !


    @ डाक्टर ज़ाकिर अली रजनीश साहब ,
    श्रीमान जी अब तो आपका नाम ही इतना लंबा लिखना पड़ रहा है कि इसे ही टिप्पणी का जबाब / के प्रति धन्यवाद मान लीजियेगा :)

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  18. अली सा
    आपसे फोन पर बात हुई और आपने लिंक पढ़ने की सलाह दी,मैं समझता हूँ,इस तरह अख़बारों और पत्रिकाओं में काल्पनिक और सेंसेशनल प्रश्न बतौर मसाला डाले जाते हैं.

    जहाँ तक मैं समझता हूँ कि दैहिक-भूख का अंधापन रिश्तों-नातों की वर्जनाओं को नहीं मानता.हालाँकि तुलसीदास बाबा ने जब लिखा था,तब सही रहा होगा (मोह न नारि नारि के रूपा ) लेकिन अब तो लेस्बियन-सम्बन्ध बन रहे हैं.

    इससे आगे हमारी उड़ान नहीं है.रति,अनंग(कामदेव)अपना-अपना ठीहा ढूंढ ही लेते हैं.

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  19. दिमागी वर्जिश की जरूरत पड़ेगी और फिलहाल यहाँ केफे में नहीं हो पायेगा. लल्लू कहलाना ही ब्लिस्स्फुल लग रहा है. .. कोयम्बतूर से...

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  20. यह कौन सी भाषा में लिखते हैं अली सा ॥
    भई हमने तो नवीं कक्षा में अनिवार्य हिंदी का टेस्ट पास कर अपना फ़र्ज़ पूरा कर दिया था । :)

    कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि इस महादेश के एक समुदाय के लिए जो घटना वर्जित या अनैतिक हो सकती है वही घटना किसी दूसरे समुदाय के लिए वरीयता और नैतिकता की श्रेणी में मान्य है !

    अली सा , तर्क तो सही है । लेकिन हमें लगता है कि नैतिक मूल्य सम्पूर्ण मानव जाति पर लागु होता है न कि एक समुदाय विशेष पर । भले ही विभिन्न समुदायों की सोच , मान्यताओं और धारणाओं में अंतर हो , लेकिन जो कृत्य मानवता के विरुद्ध हो , वह त्याज्य ही कहलायेगा ।

    अब यदि आप पूछें कि कौन सा कृत्य मानवता के विरुद्ध है , इसका निर्णय कौन करेगा --तो मुश्किल होगी ।

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  21. एक बात और अली सा। खबरनामें की खबर को अन्य समाज के लिए वर्जना लिंक से जोड़कर नहीं तोला जा सकता । यदि यह व्यक्ति उस समुदाय का होता तो उसके पास एक कारण होता । लेकिन ऐसा नहीं था । इसलिए यह कृत्य तो कुकर्म ही कहलायेगा , जो भर्त्सनीय है ।

    वैसे भी गीतानुसार , एक विवाहित पुरुष के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करने का अर्थ होता है , किसी दूसरी नारी से शारीरिक सम्बन्ध न रखना ।

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  22. .
    .
    .
    हम इंसानों की मूल प्रवृत्तियों से उदभूत यथार्थों को उनके समुदाय विशेष के मानकों में ही देखें / परखें तो बेहतर होगा ! सामाजिक प्रघटनाओं / संप्रत्ययों को अखिल ब्रम्हांड के सत्य की तरह से देखने का नज़रिया सही नहीं है , भले ही यह घटनाएं देह स्वजनता जैसे सार्वजनीन तथ्य पर ही आधारित क्यों ना हों !

    अली सैयद साहब,

    सत्य तो यही है, और यह इंसान की हर मूल प्रवृत्ति पर लागू होता है, हमें उनसे उदभूत यथार्थों को उनके समुदाय विशेष के मानकों में ही देखना परखना होगा/चाहिये... पर आपने यह भी देखा होगा कि दुनिया के आदमी, समूह या समाज भी बिना किसी ठोस आधार के 'अपने प्रचलन' को सम्पूर्ण विश्व यहाँ तक कि ब्रहमांड तक के लिये 'ध्येय-सत्य' जैसा मान लेते हैं व अपनी धारणा को दूसरे पर लादने को जीवन-मिशन बना लेते हैं... टकराव यहीं से उपजता है...

    अंत में यही कहूंगा कि इंसान की मूल प्रवृत्तियों के बारे में कभी नहीं कहा जा सकता कि 'यही एक सत्य है'... यहाँ कई सत्य हो सकते हैं और कोई भी किसी दूसरे से कमतर नहीं होगा, किसी भी कोण से... जितनी जल्दी हम यह समझें उतना शीघ्र बुद्धत्व पायेंगे !




    ...

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  23. @ संतोष जी,
    रति और अनंग ही नहीं ,अनंग और अनंग ,रति और रति ,और ये दोनों कभी कभार पशुओं के साथ ठीहा ढूंढ ही लेते है यही मैंने कहा :)
    खबरनामों में सेंसेशनल मुद्दे उछालने वाली बात सही है ! पर उसने जो कहा वो हमारे समाज में वर्जित सत्य है निंदनीय है जबकि किसी दूसरे समाज में यह वरीय सत्य और प्रशंसनीय है इसलिए सामाजिक वर्जनाओं और वरीयताओं पर हमारे हाथ समुदायगत भिन्नता के चलते बंधे हुए है और हमें इसी पृष्ठभूमि में सामाजिक घटनाओं पर वक्तव्य देने चाहिए ! दोबारा पधारने के लिए आपका धन्यवाद !

    @ आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
    बुजुर्गों के मार्गदर्शन की ओर आशा भरी निगाहों से देखता है समाज :)

    @ डाक्टर दराल साहब ,
    वास्ते आपकी टीप १,२...
    कौन सी भाषा :)
    पहली लिंक वाली भाषा पर ६०० से ज्यादा टिप्पणियां आईं तो मैं डर गया , मुद्दा गंभीर है सो मुझे समझदार पाठक और गंभीर प्रतिक्रियायें चाहिए थीं ! मैंने केवल शब्दों के नये प्रयोग किये हैं मिसाल के तौर पर देह स्वजनता/देह राग(यौन सम्बन्ध) अनंग /स्मर /पुष्पधन्वा(मर्द) रति (स्त्री) चतुष्पाद (पशु) मदनोत्सव (कामक्रीड़ा) वगैरह वगैरह :)

    दिक्कत ये है कि सम्पूर्ण मानव समाज अपने रीति रिवाजों / रहन सहन में एक जैसा नहीं है बस इसी लिए उचित और अनुचित भी स्थानीयता के सत्य हैं विज्ञान की तर्ज पर सामाजिक जीवन में सार्वभौम सत्य / सार्वभौमिक नैतिकता की कल्पना ज़रा कठिन सी है !
    अब इन्हीं दोनों लिंक्स को तुलनात्मक रूप से देखिये ! सास से सहवास की घटना हमारे समाज के लिए वर्जित है/त्याज्य है/निंदनीय है/अनैतिक है किन्तु यही घटना गारो समाज में वरीय है/स्वीकार्य है/प्रशंसनीय है /नैतिक है !
    आलेख केवल यह सुझाव दे रहा है कि सामाजिक घटनाओं पर सार्वभौमिक निष्कर्ष निकालने कठिन हैं इसीलिये हमें 'उन्हें' उस समुदाय विशेष की पृष्ठभूमि में देखकर ही दाखिल ख़ारिज करना चाहिए :)

    @ प्रवीण शाह जी ,
    आपकी प्रतिक्रिया को पढ़कर तसल्ली हुई ! अपने सामाजिक घटनाक्रमों ( सत्यों ) को सम्पूर्ण ब्रम्हांड पे लादने की प्रवृत्ति नि:संदेह गलत है !
    मनुष्य ने अलग अलग झुंडों में रहना तय किया है इसलिए उसके सत्य भी उसके अपने झुण्ड के ही सत्य माने जायेंगे ! हमारी समुदायगत भिन्नता एक ही विषय पर कई सत्य की धारणा की पुष्टि करती है ! आपका कहना सही है कि इनमे से हरेक सत्य किसी अन्य सत्य से कमतर नहीं है !

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  24. @ वास्ते आपकी टीप दराल साहब के लिए

    आपका तो समझाना भी दुरूह है,भाई !

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  25. देहाकर्षण और नैतिक मूल्यों की देहरियों पर तो चर्चा होती रहेगी .....पर ये जो शब्दान्वेषण कर रहे हैं आप उनसे मोहित हो रहा हूँ. आपकी दैहिक स्वजनता....मिश्र जी की दैहिक युग्मता के अतिरिक्त भी .....कुछ और शब्दों की प्रतीक्षा है .... चलिए, हम लोग हिन्दी में कुछ नए शब्दों का प्रयोग करें. ऐसे प्रयोगों का सदा स्वागत है.
    मुझे सापेक्षवाद ने जितना प्रभावित किया है उतना किसी अन्य वाद ने नहीं. यही कारण है कि मैं हमेशा एक कोना खाली रखता हूँ. देह सम्मोहन एक स्वाभाविक फिजियोलोजिकल घटना है ...घटना इसलिए क्योंकि यह घटित होने के बाद अपनी पूर्व स्थिति को प्राप्त करने की दिशा में गमन करने लगती है. खैर! यह घटना प्राणिमात्र की ही घटना नहीं है....परमाण्विक स्तर पर भी यही घटना घटित होती है. तत्वों की आवर्त सारिणी में हर वर्ग की देह स्वजनता के लिए कुछ विशिष्ट मर्यादाएं हैं ....यहाँ हमारे भिन्न-भिन्न समाजों में भी हैं . जैसे हर घर की देहरी अलग होती है वैसे ही हर समाज की मर्यादाएं भी अलग होती हैं ....उनके नैतिक मूल्य और पाप-पुण्य भी अलग है......सब कुछ सापेक्ष है. कुछ मर्यादाएं तो वैश्विक हैं किन्तु बहुत कुछ स्थानीय और कंडीशनल भी. जब नैतिकता की बात आती है तो सीधा सा एक ही विचार आता है कि किसी कृत्य के पीछे कर्ता की धारणा क्या है.
    देह सम्मोहनजन्य युग्मता के नैतिक-अनैतिक पक्षों पर मनुष्य ने सर्वाधिक चिंतन किया है ....मर्यादाएं बनायी हैं ....उन्हें तोड़ा है ...और पुनः नए परिप्रेक्ष्यों में बारम्बार उन्हें परिभाषित भी किया है....इससे एक बात तो प्रमाणित हो ही गयी कि यह मनुष्य समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण विषय है. अति सरल शब्दों में कहें तो बिना किसी का अहित किये ...बिना किसी दुर्भावना के ....रचनात्मक आवश्यकता कि लिए स्थापित किया गया सम्बन्ध मर्यादित ही कहा जाएगा.

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  26. एक मजेदार संयोग,राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में रहने वाली जन जाति है 'गरासिया'। उनमें'हरण विवाह'यानि प्रेम विवाह और
    'live in relationship'को सामाजिक स्वीक्रति हासिल है।अभिजात्य वर्ग भी संबंधों के इन दोनों संस्करणों को सहर्ष स्वीकार करता है।ऐसे में वर्जनाएं,वरीयताएं और नैतिकताएं संभवतः संबंधों की मध्यमवर्गीय मानसिकता से जुड़े शब्द हैं
    तभी तो कुंठाएं करनी के लिए उकसाती हैं और फिर निपटने का जुगाड़ भी समझा देती हैं।

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  27. @ संजय जी,
    आपका बहुत बहुत धन्यवाद !

    @ संतोष जी ,
    दुरुहता के अपने ही मजे हैं :)

    @ कौशलेन्द्र जी ,
    आपकी प्रतिक्रिया पसंद आई ! मेरे विचार से नैतिकता और अनैतिकता में वही अन्तर है जो सार्वजनिक हितानुकूलता और व्यक्तिगत हितानुकूलता में है !

    @ रोहित बिष्ट जी ,
    हरण विवाह पृथ्वीराज चौहान ने भी किया था ! यह लड़की की मर्जी के साथ या उसकी मर्जी के बिना भी हो सकता है ! प्रेमविवाह के लिए अमूमन सहपलायन शब्द प्रयुक्त होता है ! आदिवासी समाजों में सेक्स को लेकर ज्यादा वर्जनायें नहीं हैं इसलिए आप वहां लिव इन रिलेशनशिप भी पायेंगे और सहजता से पुनर्विवाह भी ! इन समाजों को जानना बहुत रुचिकर है !

    वर्जनायें / वरीयतायें और नैतिकता वगैरह सामान्यतः समुदायगत /समाजगत धारणायें है किन्तु इन्हें आप वर्गों में भी देख सकते हैं जैसा कि आपने कहा ! लेकिन इसे आप हर वर्ग में पायेंगे चाहे वह उच्च हो या मध्यम अथवा निम्न ! प्रत्येक वर्ग अपने सदस्यों के प्रति वर्जनाओं /वरीयताओं /नैतिकता का तंत्र विकसित करता है !अन्तर केवल इतना है कि एक वर्ग की धारणा दूसरे पे लागू नहीं होती !

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  28. एक बेहद जटिल मुद्दे पर ब्लोगिंग की क्रीमी लेयर को विस्तार से विचार विमर्श करते देख ब्लोगिंग की सार्थकता पर विश्वास होने लगा है ।

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  29. @व्यक्तिगत वक्तव्य को अभिप्रमाणित वक्तव्य की तरह से प्रस्तुत किये जाने का चलन इन दिनों जोरों पर है!

    जी, सहमत हूँ, बात भी अपनी ही सही और परम्परा भी।

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  30. हे भगवान ऐसी हिन्दी !
    यह आंवला खाने मैं बाद में आउंगा.....:-)

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  31. @ डाक्टर दराल साहब ,
    आभार !

    @ स्मार्ट इन्डियन जी ,
    हां यही तो !

    @ काजल भाई ,
    :)

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  32. सब जगह, सब कुछ होता रहता है,सब तरह से... जिस दिन मेरा निर्जला वॄत होता है, आपकी ईद हो सकती है .........कई लोग समझते हैं इस बात को और कईयों को समझाना पड़ता है। है तो नाजुक मुद्दा और आम ब्लॉगरी का विषय भी नहीं पर लल्लुओं पर भारी है यह पोस्ट...ये भी सही है ..:-)

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  33. कहने में कोई हर्ज़ नहीं कि इस महादेश के एक समुदाय के लिए जो घटना वर्जित या अनैतिक हो सकती है वही घटना किसी दूसरे समुदाय के लिए वरीयता और नैतिकता की श्रेणी में मान्य है ...

    ये सच है अली साहब पर फिर भी कुछ लोग जो अपने आपको सभी कहते हैं .. अपनी पद्धति और विचारों को दूसरे पे थोपने में गुरेज़ नहीं करते ...
    उत्तर पूर्व में ही खासी जाती के लोगों में अपनी अलग परंपरा है जहां शादी के बाद लड़का ससुराल आ के रहने लगता है ... और शायद उनमें प्रोपर्टी का अधिकार भी लड़की के साथ ही चलता है ... ऐसा प्रचलित होने एमिन जरूर कोई कारण रहा होगा .. ऐसा सोचने की आवश्यकता है ...

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  34. @ अर्चना जी ,
    :)
    इस विषय पर ब्लाग्स पर पहले से ही बहुत कुछ लिखा जा रहा है भाई !

    @ दिगंबर नासवा साहब ,
    :)
    मैंने खासी के पड़ोसी गारो आदिवासियों का उल्लेख किया है ! ये दोनों मातृवंशीय समाज हैं ! इसलिए विवाह के बाद लड़के को अपनी ससुराल जाकर रहना पड़ता है ! संपत्ति का अधिकार स्त्रियों से स्त्रियों की ओर चलता है !

    हमारे प्रारंभिक समाजों में भी मातृवंश का उल्लेख मिलता है ! निश्चित रूप से यह सब सकारण ही है !

    यह आलेख अपनी पद्धति और विचार थोपने वालों के ही विरूद्ध है !

    @ धीरेन्द्र जी ,
    धन्यवाद ! आप केवल अपनी पोस्ट की लिंक दे दिया करें !

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  35. टिप्पणी देने अगले साल आता हूँ
    तब तक कुछ ना कुछ समझ आ ही जाएगा

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  36. @ पाबला जी,
    अगला साल दूर नहीं है ध्यान रखियेगा :)

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