शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

उसे तो बुद्ध होना था ...


अगस्त 82 के आस पास के ही दिन रहे होंगे तब ! वो हर रोज राह की एक पुलिया के अनकरीब  मिलता ! स्याह सुफैद खिचड़ी दाढ़ी, बढे...बिखरे बेतरतीब बाल, सांवली रंगत जो उसके बेनहायेपन की वज़ह से उसको अश्वेत वर्णी होना साबित करती ! कपड़े पैबंदों के साथ तार तार और एक गहरा कत्थई काला सा कम्बल ! वो राहगीरों को देखता,बोधित करता और उचारता कुछ अर्थहीन से शब्द हवाओं में...हालांकि किसी भी राहगीर पर जिस्मानी तौर पर झपटा नहीं वो कभी भी ! उसे देखकर हमने पहली यह बार जाना कि कुछ शब्द अर्थहीन भी हो सकते हैं और उनके साथ जड़ी हुई कुछ ध्वनियां भी...फिर भले ही उन्हें कोई इंसान अपने कंठ से साधता हो और अपनी जुबान  देता हो  !

लगता कि जैसे अपनी सारी बेमानी ध्वनियों और शब्दों को हवा में बिखेर कर,कह रहा हो कि मैंने जो कहा नहीं...उसे सुनो ! मैंने जो सुना नहीं...उसे कहो ! मैंने जो लिखा नहीं...उसे पढ़ो ! मैंने जो पढ़ा नहीं...उसे लिखो ! पर कुछ ऐसा...ऐसा कुछ भी, कि मैं इन्सान हो जाऊं ! इंसान उसे  पागल कहते ! अरसे तक वह उसी सड़क पर झूमता रहा, अपने उस वजूद के साथ, जिसे उसपर चस्पा करके लोग उसे चीन्हते रहे, जबकि पहले के किसी एक दिन वह ऐसा नहीं भी रहा होगा ! तब शायद उसकी परसोना, उसे अब हिकारत से देखने वालों जैसी ही रही होगी !

अक्सर ये ख्याल आता कि दो मजबूत पैरों पर टिके हुए जिस्म और हाथों की दसों अंगुलियों की जीवित थिरकन के साथ चेहरे की कोटर में चिपकी हुई मशाल सी जलती बुझती आंखों के अलावा उसमें ज़िंदा इंसान होने की वो सारी निशानियां मौजूद थीं जो उसे फिलहाल होशमंद नहीं मानने वाले इंसानों में हुआ करती हैं...तो क्या दैहिक विशिष्टताओं की मौजूदगी और ध्वनियुक्त शब्दाचार की अपनी क्षमताओं के बावजूद वह एक इंसान इसलिए नहीं है कि उसका ध्वन्यात्मक आग्रह अर्थहीन है! यह तो तब भी मुमकिन था जब वह संकेतों की मौन भाषा पे आरूढ़ होकर भी, दूसरे मस्तिष्कों में अर्थयुक्त ढंग से प्रविष्ट होने में असफल रहता ! यानि कि इंसान होने के लिए एक जीवित देह मात्र की उपलब्धता पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे दूसरे इंसानों तक अर्थपूर्ण ढंग से पहुंचने  का हुनरमंद भी होना होगा ! साबित यह कि शब्द और संकेत...ध्वनियां  और अध्वनियां...यदि बेमानी हुआ करें तो इंसान का इंसान होना ही बेमानी हो जाएगा जैसे कि वो अपनी जीवित देह और अपनी सम्पूर्ण वाक् क्षमता के बावजूद इंसान नहीं माना गया कभी  !  


सुना था कि उसने जीवन और मृत्यु के सभी रहस्यों को जानने की उत्कंठा में अपनी सांसे होम कर दीं, कितने ही गुरुओं और ग्रंथों की शरण नहीं गया वो...! उसे अपने भीतर कुण्डलिनी जागृत करना थी और शायद इसी यत्न में ,वो एक होशमंद इंसान नहीं रहा ! अपनी कोशिश के हिसाब से उसे तो बुद्ध होना था...लेकिन अब वो अपने पूरे वजूद और पूरी अभिव्यक्तियों केआलोक में अर्थहीन शब्दों सा एक अर्थहीन जिस्म होकर रह गया है ! पता नहीं कैसे मैं , ब्लॉग जगत की कुछ चौड़ी कुछ तंग गलियों से गुज़रते हुए किसी एक पुलिया के एन सामने ठिठक जाता हूं और मेरे सामने वही अर्थहीन शब्द गूंजने लगते हैं, फिर मैं इस निष्कर्ष पर जा अटकता हूं कि इसे तो बुद्ध होना था ...

28 टिप्‍पणियां:

  1. यानि कि इंसान होने के लिए एक जीवित देह मात्र की उपलब्धता पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे दूसरे इंसानों तक अर्थपूर्ण ढंग से पहुंचने का हुनरमंद भी होना होगा !

    चिंतनपरक आलेख !

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  2. बड़ी धूमिल सी रेखा है, कभी दिखती है कभी नहीं। न जाने कब किस ओर खड़े हों। कई बार सोचता हूँ, क्या फ़र्क पड़ता है? जब लगता है कि फ़र्क पड़ता है, शायद तब भी नहीं। लेकिन फ़र्क न पड़ना तो इंसानियत नहीं हुई। अपनी ज़मीन छोड़ॆ बिना देवत्व की मंज़िल तक पहुँचा जा सकता है क्या? कहीं ऐसा न हो कि ना ख़ुदा मिला ना विसाले सनम। छोड़िये भी, आप कनफ़्यूज़ कर रहे हैं। शायद वह बुद्ध हो गया होगा, हम ही शिष्य न हो सके वरना समझ पाते सब कुछ। वैसे, पुल-पुलियाँ होती क्यों होती हैं? लोगों को तैरने से हतोत्साहित करने के लिये?

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  3. अब इंसान को समझने के लिए पहले 'दर्शन' समझना होगा और 'दर्शन' प्राप्त करने के लिए बुद्धत्व !
    इतनी सारी जटिलताओं में फंसकर हम रह जाते हैं या यही जीवन का रंग है.
    अपनी समझ 'दर्शन' और बुद्धत्व से कोसों दूर है !

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  4. साबित यह कि शब्द और संकेत...ध्वनियां और अध्वनियां...यदि बेमानी हुआ करें तो इंसान का इंसान होना ही बेमानी हो जाएगा जैसे कि वो अपनी जीवित देह और अपनी सम्पूर्ण वाक् क्षमता के बावजूद इंसान नहीं माना गया कभी !
    Shayad is jagat kee yahee sachhayee hai!

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  5. @ रश्मि जी ,
    शुक्रिया !

    @ स्मार्ट इन्डियन जी ,
    कन्फ्यूजन...नहीं बिलकुल नहीं , स्वयं बुद्ध को भी अभिव्यक्त होना पड़ा था , बुद्धत्व की उपलब्धि को प्रमाणित करने अथवा अज्ञानियों को ज्ञान देने की सदाशयता वास्ते !

    आपकी टिप्पणी में पुल प्रसंग अदभुत है :) पहले सोचा तो नहीं था...लेकिन अब इस प्रविष्टि का दूसरा भाग यथाशीघ्र लेकर हाज़िर होऊंगा !... सौजन्य आपकी टिप्पणी !

    @ संतोष जी ,
    हां आप और मैं उन लोगों से कोसों दूर हैं जो कुण्डलिनी जागृत करने में असफल रहे पर बुदबुदाना बंद नहीं कर रहे :)

    @ क्षमा जी ,
    आभार !
    आपकी पिछली पोस्ट पर मेरी एक टिप्पणी शायद स्पैम में चली गई होगी वो प्रकाशित दिखी नहीं ! कृपया स्पैम भी चेक कर लिया कीजिये !

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  6. 'उधेड़बुन' के 'गोरखधंधे' से ही 'परमहंसत्‍व' की प्राप्ति होती है. ('...' शब्‍दों को शाब्दिक अर्थ और पुनः मुहावरों के रूप में प्रयुक्‍त माना जाय.)

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  7. @ स्मार्ट इंडियन आपने सही सवाल उठाया है पुल-पुलियों के होने पर ! अगर ये अस्तित्व में न होते तो हम कब का तैर कर पार हो जाते,बिना सुस्ताये :-)

    @ अली साब मैं तो रास्ते में चलते-चलते कई बार ठिठका हूँ कि कहाँ जा रहा हूँ ,क्यों जा रहा हूँ !अब यह क्या है,यह भी नहीं पता !

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  8. आपका आलेख तो सहज संवाद बना रहा है मगर पूरे वाकये पर विचार करने पर एक आर्त भाव उस भाग्यहीन को लेकर भी उभरता है -एक मानव ज़िन्दगी जो अन्यथा मानवता के काम न आ सकी -कभी कभी आत्मानंद और आत्मालाप की स्वकेंद्रित आत्मरतियाँ ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण परिणति को प्राप्त हो जाती हैं जो प्रेक्षक के लिए एक ह्रदय विदारक यादगार प्रसंग बन जाती है -मगर यह भी क्या पता कि वह ब्रह्मानन्द प्राप्त कर उस चैतन्य दशा को पहुंचा हो ....या हम ही वह चेतना के उस धरातल तक न पहुच पाने के असहाय आक्रोश का प्रगटन ऐसे कर रहे हों ? कौन जाने ?
    अनुराग जी की पुलिया पर पहुंचिएगा जरुर और अपने अर्थबोध का खुलासा ऍम रियाया के लिए भी करियेगा जनाब !

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  9. हमें नहीं बनाना बुद्ध ...ऐसे ही ठीक हैं !
    कुछ साधारण लोगों के लिए भी लिखा करो गुरु !

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  10. @ राहुल सिंह जी ,
    माना गया :)

    @ संतोष जी ,
    कहां और क्यों जा रहे हैं इसपे चर्चा ज़रूर करेंगे पर पहले ये बताइये कि ऐसा कब होता है , श्रीमती त्रिवेदी से झगड़ा करने के पहले या बाद में :)

    @ अरविन्द जी ,
    आपकी टिप्पणी के प्रथम हिस्से से सहमत ! आगे असहमति ये कि यदि वो ब्रम्हानन्द को प्राप्त कर चुका हो तो उसे हम जैसे अबोध / अज्ञानियों के धरातल पे आकर हमें उपकृत क्यों नहीं करना चाहिए ?
    अनुराग जी से जो भी बात होगी वो जहाँपनाह के सामने ज़रूर पेश की जायेगी :)

    @ सतीश भाई ,
    लिखते वक़्त यही ख्याल रहता है कि मेरे मित्रों को मेरे लिखे की वज़ह से शर्मिंदगी ना हो !

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  11. पता नहीं क्यों आपकी पोस्ट पर रश्मि जी की टीप मुझे सटीक लग रही है..

    @ rashmi ravija ने कहा…
    यानि कि इंसान होने के लिए एक जीवित देह मात्र की उपलब्धता पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे दूसरे इंसानों तक अर्थपूर्ण ढंग से पहुंचने का हुनरमंद भी होना होगा !

    वैसे कहें तो असरदार लेख.

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  12. @ दीपक बाबा जी ,

    रश्मि जी की टीप है...
    'चिंतनपरक आलेख' :)

    और अब आपकी टीप हुई...
    'पता नहीं क्यों आपकी पोस्ट पर रश्मि जी की टीप मुझे सटीक लग रही है...वैसे कहें तो असरदार लेख' :)

    बाकी मामला तो मियां की जूती मियां के सिर वाला लग रहा है :)
    हो सके तो इस आलेख के तीसरे पैरे की छठवीं और सातवीं लाइन पे गौर फरमाइयेगा :)

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  13. @ दीपक बाबा आखिर अली साब के फंदे में फंस ही गए !

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  14. इंसानी फितरत... 400nm से 800nm वाली रोशनी को देखता है और सोचता है कि इससे कम और ज़्यादा कोई रोशनी ही नहीं होती... मानता भी है तो सिर्फ यह ज़ाहिर करने के लिए कि वो साइंसदान है, जो सब जानता है... 20Hz से 20KHz तक की आवाज़ सुनता है और समझता है कि इसके बाहर कोई आवाज़ ही नहीं होती... इस इंसान से बेहतर तो कुत्ते हैं जो उनसे ज़्यादा सुन लेते हैं और वो भी सुन लेते हैं, जो न कहा गया.. सिर्फ निगाहों से अयाँ हुआ..
    लिहाजा इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि वो शख्स जिस जुबान में बोलता था, वो तमाम इंसानी जुबान जो इसने रोज़े अज़ल से अब तक सीखी है, के रेंज से बाहर की जुबान हो...
    बुद्ध तो वैसे भी किसी इंसान का नाम नहीं था, बुद्ध होना तो एक अवस्था को कहते हैं... काश मिला होता मुझे भी वो उस पुलिया पर तो देखता कि क्या सचमुच जो बुद्ध हो जाते हैं उनके चहरे से नूर टपकता है या उनके गिर्द रोशनी का दायरा होता है क्या?? होते होंगे, लेकिन वो नज़र कहाँ से लाता, जो उस नूर को देख पातीं... जिसकी जुबान नहीं समझी उसके नूर के दीदार... ना-मु-म-कि-न!!

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  15. .
    .
    .

    पता नहीं कैसे मैं , ब्लॉग जगत की कुछ चौड़ी कुछ तंग गलियों से गुज़रते हुए किसी एक पुलिया के एन सामने ठिठक जाता हूं और मेरे सामने वही अर्थहीन शब्द गूंजने लगते हैं ,फिर मैं इस निष्कर्ष पर जा अटकता हूं कि इसे तो बुद्ध होना था ...

    हाँ, यही तो विडंबना है साहब, अर्थहीन, बेमानी व निराधार शब्दों का दिन रात वमन करने वाले कई अपने को बुद्ध ही मानते हैं और रहेंगे भी जिंदगी में भी व अपने ब्लॉगवुड में भी... जबके जमीनी हकीकत यह है कि बुद्ध बनना तो छोड़ें अगर इंसान भी बन पायें तो यह कम उपलब्धि नहीं होगी उनकी...


    ,,,

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  16. @ दीपक बाबा जी ,
    उपस्थितियां हौसला देती हैं !

    @ संतोष जी ,
    इसे प्रेमपाश कहूंगा :)

    @ सलिल जी,
    इंसानों और दूसरे जीवधारियों की पारस्परिक औकात की तुलना ना भी करें तो इंसान बनाम इंसान में प्रथमदृष्टया यह फ़र्क बोध (समझ) के तौर पर प्रकट होता है इसे आप बोध के विस्तार का अंतर भी कह सकते हैं !

    ( इसके अलावा इंसान अपनी दैहिक क्षमताओं के विस्तार में भी इस अन्तर का अक्सर प्रदर्शन करता आया है ! अब अन्तर के कारण चाहे जो भी हों एक इंसान अगर अपने खांचे से विलग होकर दूसरे खांचे में जा पहुंचे तो पूर्व के साथियों से अपरिचित हो ही जायेगा )

    आपने आलेख को एक नया आयाम दिया , स्मार्ट इन्डियन साहब ने भी अपनी टीप में यही संकेत दिये थे ! रेंज से बाहर की जुबान और बोध के मामले में अगर उसकी उपलब्धियों पे यकीन कर ही लिया जाये तो भी वो हम जैसे आम इंसानों के खांचे से बाहर हुआ !

    आपसे सहमत हूं कि बुद्ध नाम नहीं अवस्था है ! बुद्धत्व के नूर...जुबान और रेंज को लेकर आपने बेहद सार्थक प्रतिक्रिया दी है ! यूं कहूं कि उसके हक़ में आपकी तमाम दलीलें पसंद आईं !


    @ प्रवीण शाह जी ,
    ये लोग समझते हैं कि इंसान होने से बेहतर है बुद्ध हो जाना :)

    नि:संदेह इंसान होना एक अदभुत उपलब्धि है ! सहमत !

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  17. समझ समझ की बात है।
    जिन्हें सत्य का ज्ञान हुआ वे सभी बुद्ध हैं। जिन्हे सत्य का ज्ञान हो जाता है वे सभी बता नहीं पाते...। कुछ ने बताया भी तो कितना समझा लोगों ने? सुकरात को समझा तब, जब उन्होने जहर का प्याला पी लिया। ईशा को समझा तब, जब उन्हें सूली पर चढ़ा दिया। संभव है वह बुद्द ही हो..जानता हो कि इन्हें समझाना बेवकूफी है..ये समझेंगे नहीं। अनाप सनाप बोलो, सुनकर मेरे पास नहीं फटकेंगे। ज्ञानी होने का ढोंग नहीं करेंगे। मुझे मंदिर पर बिठाकर, अपनी दुकान तो नहीं चला पायेंगे।

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  18. @ देवेन्द्र जी ,
    सुन्दर और सारगर्भित टिप्पणी है आपकी !

    जहां सत्य और असत्य की स्वीकृति / स्थापना स्थानीयता आधारित हो वहां अपनी अपनी दुनिया का हर बंदा बुद्ध है , यह ज्ञान की (स्थानिक) लोकलाइज्ड अवस्था है जिसमें सनी लियोन का सत्य हमारा असत्य हो सकता है :)

    ईसा और सुकरात दोनों ही अलग अलग सत्य के बुद्ध थे ! जीते जी दोनों ने स्वयं को अभिव्यक्त करने के प्रयास किये ! वे अभिव्यक्त हुए और जाने (समझे) भी गये तभी तो इस सत्य के विरुद्ध खड़े पक्ष ने घात की / कर सके ! चूंकि उनका सत्य प्रचलित सत्य से हटकर था सो प्रचलित सत्य ने उन्हें रास्ते से हटा कर स्वयं को जीवित रखना चाहा ! प्रचलित सत्य के समर्थकों को यह बात देर से समझ में आई कि बड़ा सत्य , अधुनातन सत्य , अद्यतन सत्य किन्हीं देहों की मृत्यु पर मरता नहीं है और प्रचलित सत्य को अंततः अपनी बलि देनी ही होगी !

    बुद्ध को मृत्यु से भय कैसा ? उसे तो मृत्यु के बाद की पूजा से भय होना चाहिए :)

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  19. कम से कम लोगों को गाली देता चलता तो संभवतः उसका बुद्धत्व स्वीकार किया जा सकता था!

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  20. @ आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
    जगदलपुर से धरमपुरा आते वक़्त कादम्बरी के पहले राइस मिल से लगी हुई जो पुलिया थी , वही उसका ठिकाना थी ! क्या पता आपने भी उसे देखा हो कभी !

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  21. बुद्ध को मृत्यु से भय कैसा ? उसे तो मृत्यु के बाद की पूजा से भय होना चाहिए :).....

    बुद्ध को मृत्यु से भय नहीं होता। यह हो सकता है कि वह जानता हो कि इन्हें बताना बेकार है, ये समझेंगे नहीं। मुझे पागल समझेंगे। अभी इनकी अवस्था समझने की नहीं है। दूसरी बात यह भी कि सत्य को जानने वाला जरूरी नहीं कि इतना सामर्थ्यवान हो कि वह सबको समझा सके। ज्ञान प्राप्त करना और ज्ञान देना दोनो में बहुत अंतर है। इसे आपसे बढ़कर कौन जान सकता है! कभी अपने शिष्यों को समझाते वक्त आपको भी पीड़ा पहुंची होगी...मूर्ख अब इन्हें कैसे समझाऊँ! यह भाव भी आया होगा।

    सत्य का ज्ञान जिसे हुआ वह कभी नहीं कहता कि मेरे बाद मेरी पूजा करो। पूजा करना और दुकान चलाना तो उसके अंध या लोभी अनुयायी करते हैं।
    अभी हमारे बीच से ओशो गुजर गये। मैं नहीं कहता कि वे भगवान थे। लेकिन उनका ज्ञान हम साधारण लोगों से कहीं अधिक था। क्या उन्होने कहा कि मेरी पूजा करो..? मेरी मूर्ति बनाओ..? उन्होने तो सख्त मना किया था कि मेरे बाद मेरी पूजा मत करना। मुझे मंदिर में मत बिठाना। लेकिन लोग हैं कि पूजा किये जा रहे हैं!

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  22. @ देवेन्द्र जी ,
    अपने गुरुओं के संपर्क में रहते हुए उपेक्षा ,अपेक्षा और पक्षपात जैसे अनुभव मुझे सदैव स्मरण रहते हैं जो मुझे , मेरे विद्यार्थियों से समुचित व्यवहार के लिए चेताते रहते हैं ! बस यही ध्यान में रखकर मैं अपने कर्म के लिए उत्तरदाई होता हूं ! लेना अथवा ना लेना , यह तय करने का अधिकार विद्यार्थियों का है ! बाकी मैं स्वयं ही एक विद्यार्थी हूं सो जहां मिले , जो भी मिले सीखने का यत्न हमेशा करता हूं !

    संयोगवश ओशो उसी यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे जहां बाद में , मैं भी विद्यार्थी हुआ ! वही छात्रावास , वही होटल , वही शिक्षक , वही चपरासी , वही माहौल , जहां वे साधारण से असाधारण और फिर ओशो हुए ! उनके आगे मैं कुछ भी नहीं हूं ! वे बुद्ध और मैं अब भी अबुद्ध :)

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  23. संयोगवश ओशो उसी यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे जहां बाद में , मैं भी विद्यार्थी हुआ ! वही छात्रावास , वही होटल , वही शिक्षक , वही चपरासी , वही माहौल , जहां वे साधारण से असाधारण और फिर ओशो हुए ..
    ..वाह! सुख देने वाली जानकारी। कमेंट सार्थक हुआ। तभी तो..! धन्य भाग्य जो 'दर्शन' पायो।

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  24. @ देवेन्द्र जी ,
    इतनी रात गये आप जाग रहे हैं :)

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  25. आपकी नजर ने उसमे बुद्धत्व देखा.उसे बुद्ध होना था.सबके पास जो नजर थी उसमे वो पागल ही था. वैसे चित्तोड शहर के पागलो की मैं बहुत चहेती ही हूँ बचपन से.जाने कहाँ कहाँ से हाथ पकड़ लेते.बात करते.सब भागते डर कर.गोस्वामीजी भी छिटक कर दूर हो जाते 'कोई पत्थर दे मरेगा.गला पकड़ लेगा.क्या करती हो तुम?'
    पर ... तब भी यही सोचती लोभ,लालच,द्वेष,इर्ष्य,घृणा राग विराग से परे हैं ये लोग.प्रेम की भाषा जानते है.कहते हैं बच्चा और ईश्वर भी इसी भाषा को समझते हैं!!!!!!!!!!

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  26. @ इंदु जी ,
    खग की भाषा खग ही जाने !

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  27. बधाई हो अली सा,
    आपकी यह पोस्ट आज के जनसत्ता में 'समांतर' में छपी है !

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