लकड़ी की तख्ती ,सरकंडे की कलम और बतौर रोशनाई खड़िया मिट्टी के साथ स्कूल की अपनी पहली जमात का पहला दिन और उसी दिन अपनी पहली पिटाई इस ज़िद के वास्ते कि अ आ इ ई के बजाये वही लिखूंगा जो तीसरी जमात में पढ़ने वाला बड़ा भाई लिखता है ! उसने कहा...अभी हमें अ आ इ ई ही लिखना चाहिए ,बड़े भाई की जमात में पहुँच कर वैसा ही लिखेंगे जैसा तुम चाहते हो ! उसकी झक सफेद फ्राक और खुद परी सी वो ...पूरे तीन साल सिर्फ उसका कहा मानता रहा ! चौथे बरस मैं जहां चौथी क्लास में दाखिल हुआ वहीं उसने एक बरस का जंप ले पांचवीं की राह ली ! सूनी टाट पट्टी नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त...सो स्कूल अपना भी बदल डाला ! बस्ती में कभी कभार मिलते...बात भी क्या होती ? अगले दो बरस ले देके गुज़रे कि उसके वालिद ट्रांसफर पे चल दिए ... रही सही कसर पूरी हुई ! इधर नया स्कूल, नए दोस्त, नया शौक़ जो हॉकी स्टिक हाथ में...पर ज़ेहन में उसकी खैरियत जानने का हमेशा से नामुकम्मल रह जाने वाला झक सफ़ेद परी जमाल ख्याल...गोया उसकी उम्र ठहर गई होगी !
वक़्त ...जिसे ठहरना ही कहां था...ग्रेजुएशन के नाम पर हम भी कस्बे से बाहर धकेल दिए गये ! कस्बे से अपनी गैरहाज़िरी के किसी एक दिन सुना कि उसकी शादी कर दी गई है, खबर सुनके अफ़सोस कितना हुआ ये कहना तो मुश्किल है पर अपना पहला रिएक्शन ये कि शादी...! बड़े भाई ने कहा वो घर आई थी और पूछ रही थी...कैसा है वो ? उससे मिलना था ? उसे देखना था एक बार ? अब ठीक से पढ़ता है ना ? ... तुम यहां थे ही नहीं इसलिए चली गई ! अब हाल ये कि पिछले चालीस साल से ज़्यादा गुज़र गये जो उसे देखा तक नहीं...अब कहीं मिल भी जाये तो श्वेत वसना, उस नन्ही सी जान को पहचानूंगा भी कैसे ? ... तब भैया से मैंने पूछा था क्या उसने सफेद कपड़े पहने हुए थे ? जिस पर उन्होंने कहा, हां ...
परसों रात फोन पर भाई से पूछ रहा था ! सुशील और तापोश की कोई खबर है, उनसे मिले हुए बरसों हो गये और हिफज़ुर्रहमान साहब भी...स्कूल के दिनों में हॉकी का खुमार उतरने और क्रिकेट का बुखार चढ़ने की संक्रमण बेला में, हम साथ साथ खेला करते उम्र में हिफज़ुर्रहमान साहब बड़े थे और अपोजीशन के खिलाड़ी हुआ करते जबकि बाकी दोनों दोस्त उम्र में मुझसे छोटे थे और टीम मेट भी...तकरीबन बीस साल गुज़रे होंगे जब इन तीनों से आख़िरी मुलाकात हुई थी ! भैया ने कहा सुशील कैंसर और तापोश ब्रेन हैमरेज की वज़ह से खुदा को प्यारे हुए और हिफज़ुर्रहमान नशे की गोलियों के शिकार इस तरह से हुए कि छत से...अब तो वो ग्राउंड भी वैसा नहीं रहा जहां तुम लोग खेला करते थे ! आह...उन सबसे कितनी ही बातें करने बाकी थीं ! हे ईश्वर क्या भैया से फोन पर हुई बात फिर से अनहुई हो सकती है ? एक दु:स्वप्न मात्र...
मैं जानता हूं कि दुनिया अब पहले जैसी नहीं रही, वो कस्बा, वो दोस्त और वो दिन ठहर भी नहीं सकते थे किसी एक मुकाम पर ! उन्हें बदलना ही था मेरी मर्ज़ी का ख्याल किये बगैर ! कोई खास लम्हा, कोई एक पल, कहीं भी मुझसे पूछ कर गुजरने वाला नहीं था, ज़िन्दगी और हालात जस के तस बने रह जायें ये मेरा ख्वाब तो हो सकता है पर हकीकत नहीं...मुझे पूरा यकीन है कि मेरे चाहने भर से कुछ भी अनहुआ नहीं हो सकता...पर मैं अब भी...इस यकीन से नज़रें चुराकर कुछ क्षण जीना चाहता हूं उस भ्रम में...उस अनहुएपन के अहसास के साथ जो कभी भी अनहुआ नहीं रह सकता...
इस तरह की बातों से दूर जाना हो तो एक बार मिल ही लेना चाहिये वर्ना कभी नहीं मिलना चाहिये गर दिल चाहता हो कि समय वहीं कहीं रूका रहे...
जवाब देंहटाएंअली सा,
जवाब देंहटाएंइक बार वक्त से लम्हा गिरा कहीं,
वहाँ दास्ताँ मिलीं, लम्हा कहीं नहीं!!
आपने उन गुज़ारे लम्हों की दास्ताँ सुनाई जो नम थी... सूखी रेत तो फिसल जाती है हाथों से, क्या नम रेत भी..!!!??
आत्मीय कविता सी यादें.
जवाब देंहटाएंनक्श-ए-ख्याल दिल से मिटता नहीं हनोज़..
जवाब देंहटाएंनोस्ताल्ज़िक हुये जाते हैं हमारे भाईजान, खुदा खैर करे।
जवानी की बातें जैसे रेत पर लिखी ईबारत और मासूम बचपन की कुछ बातें जैसे सीमेंट के गीले फ़र्श पर उकेरी आकृतियाँ।
काजल भाई की सलाह मान देखिये, अहसासात वहीं रहने हैं।
उन दिनों के नरम अहसास बहुत सुकून देते हैं ....
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें इन यादों को !
नक्श-ए-ख्याल दिल से मिटाये नहीं मिटते।
जवाब देंहटाएं:(
यूँ ही याद आया कि पूछूँ कि क्या आपने अनुरागी मन पूरी पढी?
एक दु:स्वप्न मात्र? काश ऐसा ही होता! कई बार सच कितना क्रूर होता है, जिसने भोगा नहीं वह कभी जान ही नहीं सकता।
@ काजल भाई ,
जवाब देंहटाएंअपने हाथ कुछ भी नहीं है , समय आभास में सही, वहीं रुका हुआ है !
@ सलिल जी ,
ये सारी कवायद इल्यूजन के खाते में डाल रखी है पर अच्छी ज़रूर लगती है !
@ राहुल सिंह जी ,
आभार !
@ सतीश भाई ,
सलिल जी से जो कहा वही आप से भी कहना चाहूँगा :)
@ स्मार्ट इन्डियन जी ,
जा तन लागी ...पे आपसे सौ फीसदी सहमत !
अनुरागी मन की सारी किश्तों पे प्रतिक्रिया नहीं दी पर जो भी टिप्पणियाँ लिखीं वो पूरी कथा को पढ़े बगैर कर भी नहीं सकता था !
हाय..! मुझे भी दो चोटियाँ और लाल रिबन याद आ गये।
जवाब देंहटाएंअपने गिरिजेश भाई ने टिप्पणी करना छोड़ दिया मगर इस पर शायद आपको उनका कोई खत मिले ...:P
जवाब देंहटाएंटाईम मशीन में बहुत पीछे हो लिए दोस्त ......हर किसी जे ऐसे ही किस्से हैं जो आदमजात है .....
बाहर आईये माजी से नहीं तो ये मुई जीने न देगी तफसील तवील से ...
......अब तो वो ग्राउंड भी वैसा नहीं रहा जहां तुम लोग खेला करते थे ...........
जवाब देंहटाएंnajron se namudar na hon..
lekin, yadon me darkhwt bana rahega..
pranam.
देखिए शायद फेसबुक पर विचरती मिल जाएँ. वैसे झक सफेद फ्रॉक यादों में ही इतने सफेद होते हैं.यादों में ही रहने दीजिए.
जवाब देंहटाएंवैसे आप आनन्द में कब विचरण कर रहे थे? जिंदगी के मेले में आप वहाँ पाए गए.
घुघूतीबासूती
कुछ धूल पड़ी तस्वीरें अचानक चमक उठीं, एक कुछ ज्यादा ही.
जवाब देंहटाएंओह!! ऐसी खबर मिलने से बेहतर कोई खबर ना ही मिले तो अच्छा...और वे यादों में बीते पलों से ही हँसते-मुस्कुराते रहें.
जवाब देंहटाएंसही शब्द मिला टाइम मशीन,.....
जवाब देंहटाएंबस यादें,
@ देवेन्द्र जी ,
जवाब देंहटाएंये भी खूब रहा !
@ अरविन्द जी ,
गिरिजेश जी की दुनिया कहीं और बसती है :)
जीने नहीं देने का अहसास बुरा तो नहीं लगता :)
@ संजय जी ,
सब आंखे खोलने या बंद करने का फेर है !
@ घुघूती जी,
वो रास्ता फेस बुक को नहीं जाता !
सलिल वर्मा जी से कहा मैंने 'इल्यूजन' , वहीं सुख और दुःख दोनों ही !
जरूर भटक गया होउंगा वर्ना मेलों में कम ही मिलता हूं :)
@ मुक्ति जी,
हां शायद !
@ रश्मि जी ,
शुक्रिया !
@ दीपक जी ,
यादें ...हां वे ही !
’नक्श-ए-ख्याल दिल से मिटता नहीं हनोज़’
जवाब देंहटाएंहमारे अली साहब नोस्ताल्ज़िक हुये जाते हैं। हुआ वही जो होना था लेकिन अनहुआ अगर होता तो क्या होता, ये ख्याल आते जरूर हैं।
काजल भाई की बात काबिले गौर है। और हाँ, अन्यथा का कोई जिक्र नही:)
@ मो सम कौन जी ?,
जवाब देंहटाएंअबकी टिप्पणी मिल गई है सो अनहुए की फ़िक्र नहीं :)
यादें माजी "फ्राक" है यारब ,
जवाब देंहटाएंइक झलक फिर से उसकी दिखला दे!
[यादे माजी अज़ाब है यारब,
छीन ले मुझसे हाफ्ज़ा मेरा]
@ मंसूर अली साहब,
जवाब देंहटाएंमेरा वोट इसको :)
यादे माजी अज़ाब है यारब,
छीन ले मुझसे हाफ्ज़ा मेरा ,
बाल दिवस पर बचपन की गलियों में घुमा दिया आपने। आपको पढते हुए लगता है जैसे सब कुछ आसपास घट सा रहा हो...
जवाब देंहटाएं------
नई दृष्टि, नई सोच से खाली है आज का बालसाहित्य।
कुछ महाभाटों ने किया बाल साहित्य का नुकसान: प्रकाश मनु।
आपने मुझे भी अपना गुज़रा ज़माना याद दिला दिया !
जवाब देंहटाएंबहुत अरसा हुआ,उसकी तड़प में एक शेर चमका था बिजली बनकर !
"जब भी देखता हूँ कोई ,सांवली-सी सूरत,
तुम्हारा ही अक्स ,उसमें नज़र आता है "
उसने आपसे न मिलकर हमें बहुत कुछ दिया है,मिल जाते तो अली सा ऐसे न रहते !
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जवाब देंहटाएं.
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उसने कहा ...अभी हमें अ आ इ ई ही लिखना चाहिए ,बड़े भाई की जमात में पहुँच कर वैसा ही लिखेंगे जैसा तुम चाहते हो ! उसकी झक सफेद फ्राक और खुद परी सी वो ...पूरे तीन साल सिर्फ उसका कहा मानता रहा !
यानी बचपने से ही रूमानी थे जनाब... छोड़िये उस 'सफेद फ्राक' के खयाल और नजर घुमाइये चारों ओर... बहुत कुछ रंगीन और बेहतर पहने हुऐ कई आपकी नजरें इनायत होने का इंतजार कर रही होंगी साहब... :) काहे को इस हुऐ को अनहुआ करे दे रहे हैं नॉस्टेलजिया में डूबकर...
...
@ डाक्टर रजनीश जी,
जवाब देंहटाएंहमारी वज़ह से आपके आस पास के घटने को देख चुके हों तो फिर देखिये कि अब आप हमारे जबरिया इंटरव्यू के शिकार भी हो चुके हैं :)
@ संतोष त्रिवेदी जी ,
वास्ते गुज़रा जमाना... आहा , वो सांवली थीं :)
वास्ते जैसे हम मिले... सो तो है :)
@ प्रवीण शाह जी ,
शायद उम्र और बेगम साहिबा ने मिलजुलकर हमारे पाठ्यक्रम से 'करेंट अफेयर्स' का चैप्टर ही निकाल बाहर किया है ! चूंकि इतिहास पे बंदिश लग नहीं सकतीं सो उसका ही सहारा है :)
यादें हमेशा गुदगुदाती नहीं
जवाब देंहटाएंकलेजे में हूक भी उठाती हैं
आज इस वक्त आप हैं लेकिन,
जवाब देंहटाएंकल कहां होंगे कह नहीं सकते।
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।- रमानाथ अवस्थी