पिछले कुछ दिनों से अपनी कम्पनी घनघोर वित्तीय संकट से गुज़र रही है, सोचा बैंक से मदद ली जाये, इसी उपक्रम में आज दोपहर बाद बैंक जा धमका ! कुछ चर्चा कुछ कागजी कार्यवाही, समय तो लगना ही था ! मूक दर्शक बना लिखा पढ़ी देखता रहा ! ख्याल था कि बैंक की नौकरी, ठाठ की नौकरी है, पर शाखा प्रबंधक मित्र की मेहनत देख कर, बैंकिंग सेवाओं के मुताल्लिक सारे रोमानी ख्याल काफूर हो चले हैं ! लगता है अपनी नौकरी ही भली है, जो थोड़ी बहुत जुबान चलाई और पगार पक्की ! इसके बाद भी, अगर खाली पगार से काम ना भी चले तो 'ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत' के दर्शन की पुष्टि के लिए बैंकिंग सेवायें और मेहनत के लिए मित्रगण हैं ही ! ओफ्फोह...लगता है मैं मूल मुद्दे से भटक चला हूँ, चलिये वापस, मुद्दे पर आता हूँ, दरअसल वहां एक सज्जन अचानक आ धमके और अपने वित्तीय संकट का हवाला देते हुए, शाखा प्रबंधक से ऋण प्रदाय में सहायता की अनुनय करने लगे, बातचीत के दरम्यान मुझे लगा कि उन सज्जन की ख्याति से मित्र ( शाखा प्रबंधक ) भली भांति परिचित हैं, सो उन्हें टरकाने की कोशिश करते हुए तरह तरह के दस्तावेजों को लेकर आने की बात कह रहे हैं ! लेकिन वो सज्जन भी मंजे हुए खिलाडी, आसानी से कहां मानते डटे रहे ! थक हार कर मित्र नें कहा...अरे भाई ...मैं क्या मदद करूं, बैंक केवल एक ही बात मानता है "आदमी कैसा भी हो कागज सही होना चाहिए" आप सही कागज लाइये काम हो जायेगा ! उस वक्त मित्र नें ये बात किसी भी मंतव्य से कही हो पर मैं फ़िक्र में हूँ ...भला हमारे देश...में कागजों की बनिस्बत आदमी की औकात क्या रह गई है ? आदमी कैसा भी हो कागज सही होना चाहिए ?
जनाब मधु कोड़ा के काग़ज बराबर सही थे, जिनकी दम पर वे पहले विधायक और फिर मुख्यमंत्री बन सके पर आदमी...? वे ही क्यों इस महालोकतंत्र में हजारों ऐसे बन्दे हैं, जिनके कागज सही हैं इसलिए वे सांसद हैं... विधायक हैं... मंत्री हैं... बड़े अधिकारी हैं पर आदमी... ?
हे ईश्वर...मैं भारी फ़िक्र में हूँ...इस देश को क्या चाहिए...सही कागज...या...सही आदमी ?
आदमी का पता नहीं.. कागज तो नहीं बदलेगें...
जवाब देंहटाएंकागज ही सही होना जरूरी है भाई और फिर हमारे पास तेलगी सरीखे कागजबाज तो हैं ही...
जवाब देंहटाएंजिस देश के आदमी कागज से भी हल्के हों वहाँ क्या आशा की जा सकती है?
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती