शनिवार, 22 अगस्त 2009

और फ़िर उसने अधिकारी को गोली मार दी ...

अपनी पिछली प्रविष्टि में मैंने , अभिव्यक्ति पर संवाद ...प्रतिसंवाद के दौरान शब्दों की , चाही /अनचाही फिसलन पर चिंता व्यक्त की थी हालाँकि उक्त आलेख में उल्लिखित अपशब्द , मित्र के सुझाव , भाषाई /तकनीकी त्रुटि का परिणाम होने के साथ ही साथ , मेरी स्वयं की समझ का फेर था ! किंतु इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि मेरी चिंता गैरवाज़िब थी ! सच कहूं तो हम ब्लागिंग के अलावा पारस्परिक चर्चा के दौरान भी शब्दों का प्रयोग इस बेदर्दी से करते हैं कि हमें किसी दूसरे की संवेदनाओं के आहत होने का शायद एहसास भी नहीं होता है !
कोई हैरानी नहीं कि कम से कम दो ब्लागर मित्रों की प्रतिक्रिया कुछ इस तरह से आई जैसे कि अपशब्दों के चलन से क्या फर्क पड़ता है या यूँ कहूं कि पढ़कर , कम से कम मुझे तो समझ में नहीं आया कि , वे , संवाद में अपशब्दों के प्रयोग के पक्ष में हैं या कि विरोध में !... खैर उनकी सहजता जहाँ हो ये तो वे ही जाने ! ...लेकिन मुझे व्यक्तिगत तौर पर महसूस होता है कि एक दूसरे से संवाद करते वक्त , अपशब्दों के उपयोग का कारण , हमारा दैनन्दिक क्षोभ /तनाव ही हो सकता है ! वाकई मानवीय संवेदनाओं के मर जाने /भोथरे हो जाने /कुंद हो जाने जैसा लगता है तनावग्रस्त जीवन ....शब्दों के बेहूदे प्रयोग , अपशब्दों से भरपूर !
आज जब मैं इस आलेख को लिखने बैठा तो मेरे मन में तनाव के कारण हुई हिंसा ....तद्जनित असामयिक मृत्यु की घटना कौंध रही थी और मैं ....सोच रहा था कि तनाव केवल अपशब्दों से किसी मित्र की भावनाओं के आहत होने मात्र के लिए उत्तरदाई नहीं हुआ करता बल्कि उसकी वजह से जीवन / मृत्यु का अवांछित खेल भी शुरू हो सकता है ! आज कोंडागांव के एक हवलदार नें अपने सहायक कमांडेंट और दो साथियों को गोली मारकर ख़ुद भी आत्म हत्या कर ली ! बताया जाता है कि वो अपनी कार्य दशाओं अपने अधिकारियों और सहकर्मियों के व्यवहार से क्षुब्ध था ! वे लोग उसकी भावनाओं के आहत होने का अंदाज भी नहीं लगा सके और उसने .....दुःख की सारी सीमाओं का अंत बन्दूक की गोली से ढूँढा ! प्रथम द्रष्टया यह प्रकरण एक साधारण पुलिस वाले की संवेदनाओं की अनदेखी , कठिन कार्य दशाओं और घर से दूरी की कृत्रिम परिस्थितियों से सम्बंधित है जिस पर प्रथक बहस और चर्चा किए जाने की पर्याप्त गुंजायश है !
फिलहाल तो इतना ही कहना चाहूँगा कि मानसिक संताप , अपशब्दों और जीवन की असहजता का पर्याय तो है ही लेकिन कभी कभी मन के बाहर तन के अंत का कारण भी बन जाता है ....इसकी परिणति कई परिवारों का जीवन दूभर करने के अतिरिक्त और क्या हो सकती है ! ... जीवन में तनाव है.....कोई बात नहीं ....ये तो आप ही को तय करना है कि अपनों को शब्दों से आहत करेंगे या फ़िर .......!

3 टिप्‍पणियां:

  1. ये शायद शहरी जीवन की बढ़ती असहनशीलता का परिणाम है।

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  2. सही कह रहे हैं आप,बस्तर मे काम कर रहे पुलिसवाले मशीन की तरह जी रहे है पता नही कब कौन सी कमाण्ड को गलत समझ ले और गलत कदम उठा ले।वो घटना सिर्फ़ एक दुर्घटना या अपराध नही है बल्कि वो नक्सल क्षेत्र मे काम कर रहे सुरक्षा कर्मियों की मनोदशा या संताप भरे जीवन का नमूना है। आपको तो याद ही होगा एसपी आलोक टंडन की आत्महत्या।जब आईपीएस अफ़सर तनाव नही झेल पाया तो घर से महिनो दूर रहने वाले छोटे कर्मचारी कैसे सह पाते होंगे।बहुत ही सवेंदनशील मुद्दा है ये।

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