सदियों पहले
की बात है जब कि मगरमच्छों की त्वचा मुलायम और सुनहरी रंगत लिये होती थी क्योंकि
वे, दिन तमाम दलदल में रहते और रात में ही बाहर निकला करते ! तब दिन में जितने भी पशु पक्षी
बाहर घूमते फिरते, वे सभी मगरमच्छों की सुनहरी त्वचा की
तारीफ़ किया करते ! कहते हैं कि अपनी रंगत की तारीफ़ सुन सुन कर मगरमच्छों को घमंड
हो गया और वे धूप सेकने के बहाने से दिन में भी दलदलों से बाहर आने लगे ताकि दूसरे
जानवरों से अपनी सुनहरी त्वचा की और भी ज्यादा तारीफ सुन सकें ! तारीफ का लालच
उन्हें, तेज चमकते सूरज वाले दिनों में भी, दलदल से बाहर ले आता !
धीरे धीरे उन्हें यह विश्वास होने लगा कि वे दूसरे जानवरों से बेहतर हैं सो वे दूसरे जानवरों पर हुक्म चलाते / दादागिरी दिखाते हुए घूमने लगे ! मगरमच्छों के इस बदले हुए रवैय्ये से अन्य जानवर उकताने लगे थे, इसलिए मगरमच्छों की त्वचा देखने वाले जानवरों की संख्या दिन-ब-दिन घटने लगी थी ! बहरहाल हर एक दिन तेज चमकते सूरज के सामने अपनी त्वचा को उजागर करने के कारण से मगरमच्छों की त्वचा, भद्दी, मोटी और ऊबड़ खाबड़ होने लगी थी...और फिर जल्द ही ऐसा लगने लगा कि जैसे मगरमच्छों ने बख्तरबंद / कवच पहन रखा हो !
त्वचा की ख़ूबसूरती को खो बैठने की ज़िल्लत / अपमानजनक हालत से वे आज तक नहीं उबर पाए हैं और आज कल, अन्य जानवरों और मनुष्यों की पहुंच / निगाहों से दूर पानी में छुप कर रहते हैं ! उनकी शर्मिंदगी का आलम ये है कि पानी की सतह के ऊपर सिर्फ उनकी आँखे और नथुने ही देखे जा सकते हैं...
यह आख्यान नामीबियाई वाचिक परम्परा का हिस्सा है ! कथा को बांचने से प्रथम दृष्टया यह आभास होता है कि ये कहानी पूरी तरह से मगरमच्छों को संबोधित है, जिसमें उनकी त्वचा की रंगत तथा बनावट में परिवर्तन के बहाने, उनके पर्यावास और अन्य जीव जंतुओं, यहां तक कि मनुष्यों से दूरी बनाए रखने के कारणों का उल्लेख किया गया है ! प्रतीत होता है कि मगरमच्छों की देह रचना के भद्देपन और कुरूपता के लिये मगरमच्छ स्वयं ही उत्तरदाई हैं, अन्यथा नैसर्गिक तौर पर, वे बेहद खूबसूरत स्वर्णिम आभायुक्त, मुलायम त्वचा वाले जीव हुआ करते थे !
पूरी दुनिया में घडियाली आंसू और मोटी चमड़ी के साथ ही साथ भयावह जबड़ों के लिये ख्यात / कुख्यात मगरमच्छ...यह कहना कठिन है कि वे पिछली कितनी शताब्दियों से इन्हीं आशयों में, मनुष्यों के स्वभाव / चरित्र और व्यक्तित्व को विश्लेषित तथा वर्गीकृत किये जाने का माध्यम बने हुए हैं, अतः बड़ी सम्भावना यह है कि ये जनश्रुति वास्तव में मगरमच्छों को संबोधित नहीं है बल्कि उनके हवाले से मनुष्यों को संबोधित है ! कहन निहितार्थ यह है कि मनुष्यों में, घडियाली आंसू बहाने वाले, मोटी चमड़ी वाले और भयावह जबड़ों जैसी हिंसक प्रवृत्ति वाले श्रेणीदार / वर्गवार विभाजन मौजूद हैं !
इस कथा को उसके प्रातीतिक अर्थों में देखा जाए तो वो, समाज में मनुष्यों के स्व / आत्म / व्यक्तित्व को संबोधित करने वाली सुस्पष्ट कहन बन जाती है ! जब कथा कहती है कि पहले पहल मगरमच्छ सुनहली देहयष्टि के मालिक थे और अन्य जीवधारी उनकी प्रशंसा किया करते थे, तो इसका एक आशय यह भी हुआ कि पहले पहल मनुष्य प्रशंसा के योग्य व्यक्तित्व और कृतित्व के मालिक हुआ करते होंगे और फिर कालांतर में आत्म प्रशंसा / चाटुकारिता प्रिय होते गये होंगे ! ये कहना बिलकुल भी कठिन नहीं है कि चाटुकार प्रियता मनुष्य की सबसे बड़ी निर्बलता है,जो आत्मश्लाघा / दादागिरी की हद तक अभिव्यक्त हो सकती है, ठीक वैसे ही जैसे कि जनश्रुति के मगरमच्छों के साथ हुआ !
प्रारंभिक मनुष्यों ने समाज में नियमों / अनुशासन के सौंदर्य के साथ बंध कर रहना सीखा होगा और फिर आत्मस्तुति जैसी प्रवृत्ति ने उन्हें अनुशासन तोडक / बर्बर / बड़बोला बना डाला होगा, जैसे सांकेतिक अर्थ के साथ, इस जनश्रुति को पढ़ना रुचिकर लगता है ! नि:संदेह कथा के मगरमच्छों का छुप कर रहना, अपने ही कारणों से सर्वस्व लुट जाने / पोल खुल जाने के बाद के मनुष्यों के मुंह छुपाने जैसा कथन है ! उचित हो जो हम इसे मनुष्यों का अपराध बोध मान लें !