मंगलवार, 28 जून 2022

फिर से गांधी...

जब हम गांधी जी की बात करते हैं तो हमारा आग्रह मोहनदास करमचंद गांधी नाम से पहले उन विचारों से होता है जिन्हें गांधी जी ने अपनाया, परवान चढ़ाया । ऐसा नहीं है कि ये विचार गांधी जी के मौलिक विचार थे बल्कि यह कहना उचित होगा कि गांधी जी ने इन्हें नई शक्ल दी, इसे समाज राजनैतिक आर्थिक परिवर्तन का आधार बनाया ।

वे धर्मभीरु समाज की छत्र छाया में जन्में, पले बढे, और काफी लम्बे समय तक उसकी वैचारिकी के सम्मोहन में जिये, विदेश यात्राओं विशेषकर अफ़्रीकी यात्रा के प्रारम्भिक दौर में वे नीग्रो मूल के नागरिकों की तुलना में अंग्रेजों के पक्षधर दिखाई देते हैं, किन्तु रेल यात्रा के दौरान हुए अपमान जनक व्यवहार ने उनके ज्ञान चक्षु खोल दिये, यही समय था जो जन-पक्षधर वैचारिकी से लैस गांधी जी का प्रादुर्भाव हुआ ।

सच कहें तो गांधी जी हम सबकी तरह से साधारण इंसान थे किन्तु, बाहरी दुनिया से मिले अनुभवों ने उन्हें साधारण से असाधारण, मानव से महामानव बना दिया और यह यात्रा विशुद्ध रूप से जागतिक अनुभवों के प्रति, सचेत हो जाने और प्रतिकार की यात्रा मानी जानी चाहिए । हममें से ज़्यादातर लोगों ने परतंत्रता नहीं देखी, नहीं भुगती, कुछेक को छोड़ कर हम सभी 1947 के बाद जन्में हैं सो हमने जो जीवन पाया और जो सांसे ली वो स्वतन्त्रता का समय था ।

हमने साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, अधिनायकवाद और दासत्व को इतिहास में और अपने पूर्वजों के अनुभवों में सुना पढ़ा है । यह पीड़ा हमारे पूर्वजों ने भोगी किन्तु हमें मिला एक स्वतंत्र देश और गरिमापूर्ण ढंग से जी पाने का अवसर । वो समय उपनिवेश वादी शक्तियों का स्वर्णकाल और हमारे पुरखों के लिए अभिशापित समय था । अगर हमने इतिहास और पुरखों को ठीक ढंग से पढ़ा और सुना है तो लगता है कि वे शक्तियां फिर से लौट आई हैं ।

हमें, संकेत स्वीकारने होंगे कि धार्मिक पुनरुत्थानवाद, जड़ता, असहिष्णुता, निरंकुशता और अधिनायकवादी शक्तियों का प्रादुर्भाव हो रहा है । शायद यह हमारी पीढ़ी की पराधीनता के समय का आरम्भ है । ध्यान रहे ये शक्तियां 1947 से पूर्व के भारत में सत्ताधीशों से गलबहिंया डाल कर बैठी थी और इन्हें हमारे पुरखों के स्वतन्त्रता आंदोलन से कोई सरोकार ना था बल्कि वे लुटेरों के पक्ष में मजबूती से खड़ी हुईं थीं । उनकी भूमिका ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पोषक एजेंट के जैसी थी ।

यह हमारा दुर्भाग्य है कि 1947 के बाद हम अपने समाज में, वैज्ञानिक चेतना विकसित नहीं कर पाये और समता मूलक समाज की स्थापना में विफल रहे । परिणाम ये हुआ कि युद्धवादी, समाज में असमता मूलक सीढ़ीदार व्यवस्था के समर्थक, स्त्रियों और वंचित जनसमूहों की स्वतन्त्रता और गरिमा को कुचलने का ख्याल रखने वाले लोग, पुनः शीर्ष पर जा बैठे हैं । ये लोग मनुष्यता के नाम पर ईश्वर को समाज से बेदखल करने के बजाये ईश्वर के नाम पर मनुष्यता को लहूलुहान करने के लिए तत्पर गिरोह हैं ।

हमारी स्वतन्त्रता का यह समय हमारे पुरखों की परतंत्रता के समय जैसी आर्थिक सामाजिक राजनैतिक विषमताओं के संकेत दे रहा है । तो लगता यही है कि हमें गांधी वादी विचारों से लैस होकर प्रतिकार के लिए फिर से तत्पर हो जाना होगा । वर्ना हमारे बच्चे हमारी परतंत्रता का इतिहास पढ़ेंगे ।