शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

अबाबील

जर्मन लोक विश्वास है कि किसी जमाने में स्वैलो / अबाबील बहुत सुरीली थी, लेकिन उसका ख्याल था कि लकड़ियों और जंगल के दरम्यान गायकी, बे-फ़िज़ूल है सो उसने अपना परिवार इकट्ठा किया और शहरों की ओर चल पड़ी ताकि वहां के लोग, उसकी सुर साधना को सुन सकें...मुश्किल यह थी कि जंगलों की तरह से शहरों में तिनके आसानी से मयस्सर ना थे, जिनसे कि वो अपना घोंसला बना पाती !

 

हालांकि बरसात के समय उसे घोंसला बनाने के लिये काफी सारा कीचड़ मिल जाता जिससे कि वो अपना घोंसला बना ले ! ...लेकिन शहर के लोगों के पास स्वैलो के गीत सुनने का वक्त नहीं था, वहाँ शोरगुल बहुत था और लोग अक्सर अपने कामों में व्यस्त बने रहते ! हालात को देख कर स्वैलो वहाँ के शोर से अधिक ऊंचे सुर में गाने की कोशिश करने लगी, जिसकी वज़ह से उसके अपने मूल सुर, ऊंचे सुरों में दब गये / घिस गये / कर्कश हो गये और कालांतर में वो गाना भूल गई...  

 

यह कथा, निष्णात / हुनरमंद को श्रोताओं की कमी से श्रोता आधिक्य की ओर आकर्षित करने जैसे संकेत देती है, जिसके तहत हुनरमंद अबाबील अपनी कला के प्रदर्शन के लिए शांत श्रोता स्थल के परित्याग के बाद शोर गुल और भीड़ भरे इलाके का त्रुटि पूर्ण चयन कर बैठती है ! हालांकि जंगल के बरअक्स शहर में उसके अनुकूल गृह / घोंसला निर्माण के समुचित साधन मयस्सर नहीं हैं, ना तो तिनके और ना ही बरसात के मौसम को छोड़ कर, किसी और मौसम में, तिनकों को जोड़ने के लिए पर्याप्त कीचड़ !

 

शहर की जीवन दशाएं शोर गुल, चिल्लपों आपा धापी से परिपूर्ण होने के कारण से, वहां पर जंगल जैसे एकान्तिक / पुर सुकून, सुर साधना के योग्य स्थल नहीं थे ! इसलिए अबाबील को अपनी गायकी में, शहरी श्रोताओं के अनुकूल, ध्वन्यात्मक संशोधन करना पड़े / तेजतर गायकी का सहारा लेना पड़ा ! ज़ाहिर है कि उसका कंठ, ध्वनि विस्फोट के लिए सहज नहीं था इसलिए उसे अपने मूल स्वर स्थायी रूप से खोना पड़े ! अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि अबाबील के सुर उचित मार्ग से भटक गए !

 

यहां यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि शहर के लोगों की व्यस्तताएं भिन्न थीं, उनके पास अपने कामों को छोड़ कर अबाबील की गायकी से लुत्फंदोज़ होने की फुर्सत भी नहीं थी, इसलिए अबाबील उन्हें आकर्षित करने के लिए अपना सुरीलापन खो बैठी ! इस आख्यान से हम इस निष्कर्ष तक भी पहुंच सकते हैं कि कला निष्णात को भ्रमित करने वाले सवालों में से वो उत्तर चुनने चाहिए जो उसकी कला के अनुकूल हों ! कला को विरूपित करने वाले निर्णयों में कला और कलावंत दोनों के गुम हो जाने का ख़तरा बना ही रहता है !

 

धुरंधर गायक को अपनी श्रेष्ठता और मौलिकता का संरक्षण करना चाहिए या उसे प्रतिकूल स्वभाव वाले श्रोताओं के सामने प्रस्तुत करने का निर्णय लेना चाहिए ? कलात्मक अभिव्यक्ति के सम्मुख श्रोताओं की संख्यात्मक न्यूनता या आधिक्य, श्रोताओं की गुण ग्राह्यता से प्रभावित होना चाहिए अथवा नहीं ? इस आख्यान के वाचन से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि अबाबील के निर्णयों का प्रभाव उसकी जीवन दशाओं के साथ ही साथ उसकी गायकी पर भी पड़ा ! उसने निर्णयात्मक भूल की और उसे खामियाजा भुगतना पड़ा !

 

कथा कहती है कि कलावंत को भ्रामक परिस्थितियों में सोच समझ कर निर्णय लेने चाहिए क्योंकि त्रुटिपूर्ण निर्णयों से केवल उसकी व्यक्तिगत क्षति ही नहीं होती बल्कि एक श्रोता समूह भी उसकी कला के क्षय / कला की स्थायी गुमशुदगी को भुगतने के लिए अभिशप्त हो जाता है! बहरहाल कथन शेष यह कि ये आख्यान अबाबील के बहाने इंसानों पर भी चोट करता चलता है ...