एक बार एक वृद्ध साधु एक युवा सन्यासी को लेकर शहर आया, वो उसे उसकी, शैशव अवस्था में अपने साथ ले गया था और अब उसकी परीक्षा लेना चाहता था सो उसे शहर लेकर आया था ! उन्होंने अनेकों स्त्रियां को इधर से उधर आते जाते देखा ! विस्मय से भरकर युवा सन्यासी ने, उन्हें बछड़े की तरह से आंखे फाड़ फाड़ कर देखा ! उसने अब तक कोई स्त्री नहीं देखी थी, क्योंकि उसे उसकी शैशव अवस्था में मठ ले जाया गया था ! उसने वृद्ध साधु से पूछा कि वे लोग कौन हैं ? चूंकि स्त्रियां सिर पर सफ़ेद पर्दा डाली हुईं थीं और शरीर पर सफ़ेद लबादा पहनी हुईं थीं, तो वृद्ध साधु ने युवा सन्यासी से कह दिया कि वे सब कलहंस हैं ! इसके बाद युवा सन्यासी को काफी समय तक अकेले छोड़ दिया ! किन्तु उसने कुछ भी नहीं कहा ! थोड़े समय बाद जब वे दोनों मठ की ओर वापस जाने लगे तो युवा सन्यासी फूट फूट कर रोने लगा, इस पर वृद्ध सन्यासी ने उससे पूछा कि, तुम क्यों रो रहे हो ? युवा सन्यासी ने कहा, आदरणीय पिता मुझे क्यों नहीं रोना चाहिये ? जबकि मुझे एक कलहंस पाने की तीव्र इच्छा हो रही है !
जर्मनी के इस आख्यान के अनुसार एक युवा सन्यासी, उसके संन्यास कौशल के लिए ली गई परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो पाया ! उसे अलौकिक / पारलौकिक / आध्यात्मिक / अशरीरी जगत विषयक ज्ञान की शिक्षा दीक्षा के लिए उस समय मठ ले जाया गया था जबकि उसने स्त्रियों को देखा तक नहीं था और ना ही उसने मठ में किसी स्त्री को देखा ! आशय यह है कि उसे केवल सन्यासियों और साधुओं के साथ रहने का अभ्यास था वह केवल उनकी जीवन शैली से परिचित हो पाया था ! उसे मात्र ईश्वरीय / ब्रह्म ज्ञान दिया गया था और मोटे तौर पर वह इहलौकिक / जागतिक / भौतिक जीवन के बारे में कुछ भी नहीं जानता था ! शहर में वृद्ध साधु ने युवा सन्यासी के स्त्री विषयक प्रश्न पर जो भी उत्तर दिया, उसका उद्देश्य भी यही था कि वह स्त्रियों के विषय में ना जान पाये ! यहां यह स्वीकार करना ज़रा सा कठिन है कि मठ में युवा सन्यासी ने यदि स्त्रियां नहीं देखीं थीं तो वन्य जीवन / जल जीवन और परिंदे / कलहंस भी नहीं देखे होंगे !
युवा सन्यासी ने कभी भी स्त्रियां नहीं देखीं थीं ! उसे, गुरु द्वारा, शहर में कलहंसों के घूमते फिरते रहने वाला उत्तर दिया गया था ! श्वेत वस्त्र धारिणी स्त्रियों के कलहंसों से साम्य रखने वाला उत्तर तभी दिया जा सकता है जबकि युवा सन्यासी ने, दूर से ही सही / क्षणिक रूप से ही सही, पहले कभी श्वेत कलहंस देख पाये होंगे / देख रखे होंगे ! गुरु से प्राप्त उत्तर के बाद तथा एक लंबे एकाकी मौन समय के बीत जाने के उपरान्त, मठ वापसी के क्षणों में युवा सन्यासी का रुदन अस्वाभाविक नहीं माना जाना चाहिये, क्योंकि वह कथित कलहंसों से सुनिश्चित बिछोह की डगर पर अग्रसर है ! उसका सारा ज्ञान जोकि उसने बतौर सन्यासी प्राप्त किया था, उसकी नैसर्गिक इच्छा, उसकी मूल प्रवृत्ति, उसके जिस्म के आह्वान की भेंट चढ़ जाता है ! यह तय है कि वह युवा , सन्यासी होने की परीक्षा में असफल रहा पर यह भी तय है कि भौतिक जगत से पलायन और सन्यासी होने का यत्न, नैसर्गिक इच्छाओं पर अंतिम विजय की गारंटी नहीं दे सकता !
इस विषय पर सार्वजानिक रूप से विमर्श करते हुए लोग अभी भी असहज महसूस करते हैं .
जवाब देंहटाएंजहाँ तक नैसर्गिक इच्छाओं की बात है , यह एक भ्रम है . इन इच्छाओं को दबाना स्वयं के साथ अन्याय है . शरीर में होने वाली बायोलोजिकल रिएक्शन्स को रोका नहीं जा सकता .
शायद इसीलिए ओशो की बातें कहीं कहीं सही लगती हैं .
विमर्श की असहजता उनके अपने व्यक्तित्व की असहजता है !
हटाएंनैसर्गिक इच्छाओं और बायोलोजिकल रिएक्शंस पर आपसे सहमत हूं !
डाक्टर साहब दरअसल ओशो और हम एक ही 'यूनिवर्सिटी' के पढ़े हैं :)
इस पोस्ट की आत्मा दिये गये लिंक में समाहित है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
हटाएं...मुझे नहीं लगता कि युवा संन्यासी अपनी परीक्षा में असफल रहा जबकि वह स्त्री या कलहंस किसी के बारे में नहीं जानता था.उसका रुदन स्वाभाविक इसलिए था कि उसके लिए ये देखना बिलकुल नया अनुभव था और वह स्त्री या कलहंस के प्रति इसी जिज्ञासा के वशीभूत हो आकर्षित हुआ होगा.
जवाब देंहटाएं...इस कथा से यह भी झलकता है कि कुछ बातें स्वाभाविक या नैसर्गिक होती हैं,उनसे बलात् विमुख नहीं किया जा सकता है.
...कई संन्यासी इसी अवस्था में बाद में स्खलित हो जाते हैं.पौराणिक उदाहरणों में एक वेदव्यास के पुत्र शुकदेवजी को छोड़ दिया जाए तो इस तरह की विमुखता दुर्लभ है.इन्द्रिय-निग्रह होना और इनसे विमुख होना दोनों अलग बातें हैं.युवा संन्यासी अगर कोशिश करता तो इन्द्रिय-निग्रह बन सकता था !
संतोष जी ,
हटाएंसंभवतः उसने कलहंस देखा होगा तभी तो उसे बताया गया कि स्त्रियां कलहंस हैं ! बाकी आपकी पूरी टीप शानदार है ! आजकल आप पूरे फ़ार्म में हैं :)
आजकल अकेले हैं इसीलिए अपने फॉर्म में हैं !!
हटाएंअकेलेपन वाली आपकी फ़ार्म के बारे में भाभी जी को पता है कि नहीं :)
हटाएंयह कथा आध्यात्म के परदे में आत्मनियंत्रण की विसंगति को बखूबी उद्घाटित करती है. मनुष्य यही सदियों से करता आया है.
जवाब देंहटाएंबीच का रास्ता बेहतर है. न तो ठुकराओ और न ही गले से लगाओ. देखो, समझो, जानो. सही लगे तो मानो.
निशांत जी ,
हटाएंआपसे सहमति !
कथा लिख तो दी पर एक बार ये अनुभूति ज़रूर हुई कि, कहीं मैं निशांत जी क्षेत्र में दखलंदाज़ी तो नहीं कर बैठा !
आप बस लिखते रहो,दखल हम मानेंगे नहीं !
हटाएंआख्यान का अपका यह निष्कर्ष- "यह तय है कि वह युवा , सन्यासी होने की परीक्षा में असफल रहा पर यह भी तय है कि भौतिक जगत से पलायन और सन्यासी होने का यत्न , नैसर्गिक इच्छाओं पर अंतिम विजय की गारंटी नहीं दे सकता !"
जवाब देंहटाएंनिश्चित ही यही सार या बोध देने के लिए ही यह आख्यान गढा गया है।
अन्यथा कोई भी ज्ञान बिना यथार्थ के परिपूर्ण हो ही नहीं सकता, स्त्री का अस्तित्व है यह सत्य है और ज्ञान यदि सम्पूर्ण है तो उसमें प्रारम्भ से लेकर अन्त तक स्त्री की जानकारी आएगी ही। चाहे आध्यात्मिक ज्ञान ही क्यों न हो। कोई भी सन्यासी बोध होने के बाद ही निर्लिप्त रहने का पुरूषार्थ कर पाएगा। वह तो स्त्री अस्तित्व से अनभिज्ञ है। अज्ञानी रह कर विरक्ति कैसे पा सकता है। कदापि नहीं, अज्ञान तो उलट जानकारी पाने की जिज्ञासा जगाएगा। अतः वहां अज्ञान है ज्ञान नहीं। स्त्री सम्पर्क उसके लक्ष्य में किस तरह बाधक हो सकते है जब इस जानकारी (ज्ञान) से वाकिफ होगा तभी वह अलिप्त, निस्पृह, अप्रभावित रह पाएगा। अन्यथा विरह वेदना से सन्तप्त होगा ही।
बहुत सुन्दर प्रतिक्रिया सुज्ञ जी !
हटाएंसुज्ञ जी की सुंदर प्रतिक्रिया।
हटाएंसुज्ञ जी की प्रतिक्रिया तो सुन्दर है ही पर कल रात से आप बच बच के निकल जा रहे हैं देवेन्द्र जी :)
हटाएंक्या बात है :) यह 'सुन्दर' में कुछ राज है क्या? :)
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया सुन्दर है और उसमें अन्य कोई राज नहीं है :)
हटाएंपर शिकायत देवेन्द्र जी से जा रही है जो पहले पोस्ट के लिंक और फिर आपकी प्रतिक्रिया की सुंदरता के नाम से बच निकले :)
उस युवा सन्यासी की परीक्षा लेने की जरूरत ही क्यूँ महसूस हुई??..उसने ईश्वरीय /ब्रहम ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की थी...और ताजिंदगी यही ज्ञान दूसरों को देता रह सकता था.
जवाब देंहटाएंपर कथा-लेखक निश्चय ही यह संदेश देना चाहते हैं...कि नैसर्गिक इच्छाएं स्वाभाविक एवं सहज हैं...
रश्मि जी स्त्रियों के बिना उसका ब्रह्म ज्ञान अधूरा है , यह बतलाने के लिए ही यह परीक्षा ली गई ! अपने अधूरे ज्ञान की शिक्षा वह दूसरों को देकर क्या करता !
हटाएंसहजता और नैसर्गिकता जीवन का सार तत्व है !
रश्मि जी ने सही कहा……"कथा-लेखक निश्चय ही यह संदेश देना चाहते हैं...कि नैसर्गिक इच्छाएं स्वाभाविक एवं सहज हैं..." मैं भी यही कहना चाह रहा कि नैसर्गिक इच्छाओं को स्वभाविक स्थापित करने के उद्देश्य से ही यह बोध कथा है। वस्तुतः समाज में सदैव दो विचारधाराएं होती है, १- इन्द्रिय चंचलता को सहज लेना और २- इन्द्रिय निग्रह। यह कथा पहली विचारधारा की स्थापना के लिए है।
हटाएंअब बात करते है आपके इस निष्कर्ष सूत्र "सहजता और नैसर्गिकता जीवन का सार तत्व है !" पर………
'जीवन का सार तत्व' बहुत ही गहन गम्भीर विषय है, जीवन के सार को सहज ही इन दो स्वभाविक व्यवहार से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। 'सहजता' का भावार्थ है 'बहाव के साथ बहना' और 'नैसर्गिकता' में भाव है 'नियति स्वीकार करना' यह दोनो ही प्रमुखता से जीवन के 'सार तत्व' नहीं हो सकते। क्योंकि यह दोनो ही पुरूषार्थविहिन है। मानव जीवन में तो साररूप कुछ है तो वह है पुरूषार्थ, 'धारा के विरूद्ध संघर्ष' नैसर्गिकता के विरुद्ध सार्थकता। और यह पुरूषार्थ मार्ग 'इन्द्रिय निग्रह' का है।
आपका यह कहना तर्क संगत नहीं है कि सहजता और नैसर्गिकता 'पुरुषार्थ' विहीन है ! नैसर्गिकता से आशय है , जो प्रकृति के अनुरूप हो , प्राकृतिक हो ! अब आप ही कहें कि प्रकृति से अनुरूपता में पुरुषार्थ हीनता कहां से आ गई ? प्रकृति में नियोजित सृजन भी है और सुनियोजित विनाश भी ! सृजन और विनाश , निष्क्रिय / निठल्ली और निष्काम धारणायें नहीं है ! 'नियति' की धारणा विशुद्ध रूप एक धार्मिक विचार / विश्वास है जबकि मेरे लिए नैसर्गिकता एक व्यापक धारणा है ! इसी तरह से सहजता भी केवल बहाव के साथ बहना नहीं है बल्कि विरोध में भी संयत रह पाना है !
हटाएंव्यक्तिगत रूप से आपसे एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा कि मैं शब्दों का इस्तेमाल करते वक़्त उनके धार्मिक अर्थों का बोझ साथ लेकर नहीं चलता / कोशिश करता हूं कि धार्मिकता की संकुचित मन:स्थिति से मुक्त रहूं ! इसलिए 'पुरुषार्थ' को भी मैं मनुष्य के प्रयास / क्रियाशीलता / उद्यम के तौर पर ही ग्रहण कर रहा हूं ! इसलिए मेरे लिए वह नैसर्गिकता और सहजता में मौजूद है !
यह कथा मोटे तौर पर इन्द्रिय निग्रह के विरुद्द है ! इन्द्रिय निग्रह एक अप्राकृतिक / धार्मिक विचार है और यह कथा इस विचार का विरोध करती है !
प्रिय सुज्ञ जी , मैं काफी दिनों से सोच रहा था कि आपसे कहूं कि आपसे मेरी मत भिन्नता का कारण संभवतः यही है कि आप हर बात को धर्म दर्शन के चश्में से देखते हैं जबकि मैं धर्म दर्शन से बाहर के विचार पर जोर देता हूं ! मैं यह नहीं कह रहा कि धार्मिक होना कोई बुरी बात है , केवल यह कह रहा हूं कि मैं इससे मुक्त होना / रहना चाहता हूं ! मेरे लिए किसी ईश्वर , कोई स्वर्ग और मेरे कथित मोक्ष से पहले इंसान हैं , इंसानियत हैं ! आपने मुझे कभी किसी धार्मिक अभिरुचि वाले ब्लाग में नहीं देखा होगा और ना ही किसी धर्म विशेष की निंदा या स्तुति करते हुए !
केवल इतना ही कह सकता हूं कि सहजता और नैसर्गिकता को लेकर आपके विचार / अर्थ से मैं सहमत नहीं हूं !
अली सा.,
हटाएंआपके निर्धारण में शायद जल्दबाजी हुई है। मैं हर विचार को धर्म दर्शन के चश्में से नहीं देखता। हां यह मैं अच्छी तरह से जानता हूं आप धर्म दर्शन से बाहर के विचार पर जोर देते है। हां! यह स्वीकार करता हूँ कि विचार-मंथन प्रक्रिया की प्रेरणा आध्यात्म और दर्शन से पाता हूँ (यहां मैने धर्म शब्द का उल्लेख इसलिए नहीं किया कि उसका अर्थ सम्प्रदाय में रूढ हो चला है)मैं आपके व्यक्तित्व से परिचित हूँ और अच्छी तरह से जानता हूँ आप धार्मिकता की संकुचित मन:स्थिति से मुक्त रहते है।आपका चिंतन समाज और इन्सानियत के परिपेक्ष्य में होता है।
अब चलते है उन शब्दों के धार्मिक अर्थों की ओर……
असल में ये शब्द किसी विशिष्ट धार्मिक अभिप्राय से प्रयुक्त नहीं हुए है। धर्म-दर्शन में इन शब्दों के प्रयोग की अधिकता के कारण यह भ्रम आपको हुआ है। बेशक मेरा 'पुरुषार्थ' का वही है जो आपने लिखा/ग्रहण किया है। उद्यम, क्रियाशीलता आदि। आलस या प्रमाद का विपरित पर्याय।
यह भी सही है कि 'इन्द्रिय निग्रह' आध्यात्म/दर्शन का विचार है। किन्तु हम इसे अप्राकृतिक नहीं कह सकते, जीवन में कईं इच्छाओं को मोडना/रोकना होता है और रुकती भी है, और रोक देने से कुछ भी अप्राकृतिक नहीं घटता। जैसे इच्छाएं उत्पन्न होना प्राकृतिक है तो उन्हें नियंत्रण में रखना भी उतना ही प्राकृतिक है। जैसे किसी इच्छा के उत्पन्न ही न होने से जीवन को कोई अन्तर नहीं पडता, अधूरा नहीं कहलाता वैसे ही इच्छाओं को रोकने से भी जीवन को क्षति नहीं होती।
प्रस्तुत कथा इन्द्रिय निग्रह के विरुद्ध होने से ही धार्मिक विचार होने के उपरांत चर्चा में उपस्थिति अवश्यंभावी है। क्योंकि कथा-विषय ही ज्ञान-दर्शन पर आधारित है।
अब सहजता और नैसर्गिकता के पुरुषार्थ विहीन होने की बात। सहजता तो अपनेआप में कठिनाईयों से बचने का उपक्रम है। कह सकते है कि अनावश्यक श्रम क्यों उठाना? सहजता में संघर्ष का अभाव है इसलिए यह पुरुषार्थ विहीन है। सहजता के साथ जाना प्रमाद है। नैसर्गिकता के विषय में मैं इच्छाओं का उदाहरण दे ही चुका हूँ। दुष्कर प्रयासों को छोड सहजता और नैसर्गिकता के वश होना 'प्रमाद'(आलस्य) है। इसमें कहां पुरूषार्थ? पुरूषार्थ का श्रम तो नियंत्रण में करना पडता है।
फिर भी आपको प्रस्तुत दृष्टिकोण से असहमत होने का पूरा अधिकार है। पर यह विचार धार्मिक बिलकुल नहीं है।
'पुरुषार्थ' / 'इन्द्रिय निग्रह' और एक और शब्द 'नियति' जो धर्म दर्शन की शब्दावली में बहुतायत से इस्तेमाल होते हैं ! इसके कारण से मैंने आपकी प्रतिक्रिया को धर्म दर्शन आधारित कहा ! अगर ऐसा नहीं है तो मेरे शब्द वापिस हुए !
हटाएंअसल में नियंत्रण और निग्रह में जो अंतर है वह निषेध की तीव्रता का है जब आप बहती हुई नदी को रोक देते हैं / नियंत्रित करते हैं तो उसे प्राकृतिक नहीं कृत्रिम (अप्राकृतिक) ही माना जाता है ! इसलिए इच्छाओं पर नियंत्रण और उनका दमन दोनों ही कृत्रिम कृत्य हैं ! नियंत्रण की स्थिति कृत्रिम होकर भी दमन से बेहतर है क्योंकि इसमें पक्षकार द्वय थोड़ा थोड़ा झुकते हैं ! मसलन नियंत्रणकारी व्यवस्था के तौर पर समाज व्यक्ति को उसके समर्पण के बदले कुछ देता है तो बदले में उसकी इच्छाओं पर किंचित नियंत्रण का अधिकार पाता है ! जहां नियंत्रण से संविदात्मकता का बोध होता है वहीं निग्रह से दमन का ! इसलिए निग्रह की तुलना में नियंत्रण की स्वीकार्यता अधिक है !
सहजता कठिनाइयों से बचने का उपक्रम नहीं है बल्कि कठिनाइयों को संयत ढंग से ( शांत स्थिर मन से ) निपटाने का उपक्रम है ! क्रिया / उद्यम / श्रम उसमें स्वाभाविक रूप से निहित हैं ! सहजता , कर्म से चोरी अथवा विमुखता नहीं है बल्कि कर्म को तनाव रहित ढंग से पूरा करने का तरीका है ! हर तरह की परिस्थितियों में संयत रहना सहजता है !
नैसर्गिकता के वश में होने और नैसर्गिकता के अनुकूल होने में बेहोश और बा-होश होने जैसा अंतर है ! मैंने पहले भी कहा नैसर्गिकता प्रकृतिवाद है जिसमें सृजन और विनाश दोनों हैं ! क्या सृजन और विनाश , क्रिया अथवा प्रक्रिया नहीं हैं ? और अगर ये दोनों शब्द , क्रिया का बोध कराते हैं तो श्रम इसमें स्वतः मौजूद है !
सहजता और नैसर्गिकता दुष्करता / कठिनाइयों से पलायन कदापि नहीं है ! बल्कि कठिनाइयों का सामना करते समय , इनमें बुद्धि के विवेकपूर्ण इस्तेमाल की संभावना अधिक है !
सहजता में संघर्ष के अभाव की बात आपने कही है ? आपको नहीं लगता कि प्रतिस्पर्धा , संघर्ष की तुलना में सुसंगत एवं स्वस्थ विचार है / प्रक्रिया है ! लक्ष्यों को पाने में मनुष्य इन दोनों ही प्रक्रियाओं पर हाथ डाल सकता है ! संघर्ष में बल प्रयोग / शक्ति प्रयोग / हिंसा / रक्तपात जैसे तत्व सम्मिलित हो सकते हैं किन्तु प्रतिस्पर्धा इन शब्दों से मुक्त प्रक्रिया है और परिणाम भी कमोबेश वही देती है ! आप कह सकते हैं प्रतिस्पर्धा लक्ष्य को पाने का सहज एवं निरापद तरीका है जोकि आगे चलकर संघर्ष में बदल सकता है यानि कि हिंसा रक्तपात अर्थात असहजता में ! अगर मैं उदाहरण के लिए संघर्ष की असहजता के बजाये प्रतिस्पर्धा को सहजता कहूं तो क्या प्रतिस्पर्धा में पुरुषार्थ का अभाव है ?
यह तो शब्दों पर मनमर्जी अर्थ लादने जैसा हुआ। सहजता="कठिनाइयों को संयत ढंग से" ???? स्वयं 'संयत' शब्द ही मन नियंत्रण का पर्याय है। याद कीजिए इन दो शब्दों का सन्दर्भ। संयत होने का उपक्रम करते ही सहजता समाप्त हो जाती है। संयत, संयम, नियन्त्रण सभी महनत है पुरूषार्थ है कठिनाईयों से संघर्ष। आपने तो संघर्ष शब्द को भी बल प्रयोग / शक्ति प्रयोग / हिंसा / रक्तपात से लिया और 'मन के संघर्ष' को सम्पूर्णतया दरकिनार कर दिया। सृजन और विनाश आदि तो खुद प्रकृति का श्रम पुरूषार्थ है। पर यहां बात नैसर्गिकता के सन्दर्भ में प्रकृति के अनुगमन की हो रही है। प्रलय विनाश विपदा आदि प्रकृति के श्रम है तो क्या हमें बिना विरोध या बिना संघर्ष उस विनाश के वश हो जाना चाहिए? नहीं हमें प्रकृति के पुरूषार्थ के विरुद्ध अपना पुरूषार्थ करना चाहिए। यह विनाश नैसर्गिक है इसलिए इसे रोका, दबाया या दमन नहीं किया जाना चाहिए? यदि ऐसा ही है तो यह आलस्य है प्रमाद है इसमें पुरूषार्थ नहीं है।
हटाएंसंघर्ष और प्रतिस्पर्धा, चाहे भौतिक हों या मानसिक दोनो ही पुरूषार्थ है। किन्तु प्रतिस्पर्धा शब्द को न तो सहजता और न ही नैसर्गिकता के भाव से बदला जा सकता है न उस जगह स्थापित किया जा सकता है।
शब्दों से मनमर्जी नहीं भाई :)
हटाएंसंयत होने से सहजता समाप्त नहीं होती क्योंकि संयत होना विवेक सम्मत होना है ! विवेक सम्मत होने को आप आत्म अनुशासन / नियंत्रण भी कह सकते हैं , इसके विपरीत असहजता विवेक हीन / विवेक च्युत होती है इस स्थिति को आप असंयत होना कह सकते हैं !
मानवीय व्यवहार / चिंतन या तो 'सहज' होगा अथवा 'असहज' , इन दो के अतिरिक्त तीसरा कोई शब्द मुझे इनके बीच दिखाई नहीं देता ! ( किसी भी शब्द कोष में जो मैंने पढ़े हैं ) मैंने असहजता को छोड़ सहजता का पक्ष लिया है , बस इतनी सी बात है !
आपने कहा / आपने माना कि "सृजन और विनाश आदि तो खुद प्रकृति का श्रम पुरूषार्थ है" यह जान कर सुखानुभूति हुई कि प्रकृति को पुरुषार्थहीन नहीं मानते आप ! तो जब मैं मनुष्य के प्रकृति के अनुरूप
(नैसर्गिक) हो जाने की बात करूं , तो इसमें से पुरुषार्थ छिटककर कहां चला जायेगा ? :)
आप 'वश' और 'संघर्ष' शब्दों पे कुछ ज्यादा ही अनुरक्त दिखाई दे रहे हैं ! अपनी पिछली टीप में मैंने कहा था कि "नैसर्गिकता के वश में होने और नैसर्गिकता के अनुकूल होने में बेहोश और बा-होश होने जैसा अंतर है" ... अब इतना ही कहूंगा कि 'अनुकूलता' में विवेक जागृत बने रहने की संभावना है किन्तु 'वश' होने में विवेक का लेशमात्र भी योगदान नहीं है , बस इसीलिये मैं प्रकृति से अनुकूलता की बात करता हूं , प्रकृति के वश में होने की नहीं !
इसी तरह से संघर्ष और प्रतिस्पर्धा में से , मैंने प्रतिस्पर्धा को चुना था , फिर से कहता हूं कि लक्ष्य को हासिल करने के लिए मनुष्य जो व्यवहार करता है उसे आप संघर्ष कह रहे हैं और मैं प्रतिस्पर्धा ! आप संघर्ष शब्द में रक्तपात / बल प्रयोग के तत्व को ना भी स्वीकारें तो भी इसमें एक यौद्धिक उध्द्यतता का भाव / लड़ाकूपन / हिंसा का बोध तो है ही जबकि प्रतिस्पर्धा स्वस्थ / खिलन्दड़ेपन और अहिंसा के बोध के साथ उसी लक्ष्य को हासिल करना है ! नि:संदेह संघर्ष और प्रतिस्पर्धा दोनों ही असहमति / असहयोग की प्रक्रियायें हैं किन्तु संघर्ष शब्द , हिंसा / बलप्रयोग बोधक है अतः मैंने अहिंसक / खेलभावना युक्त शब्द प्रतिस्पर्धा को प्रयोगार्थ चुना है ! आपको संघर्ष शब्द का प्रयोग प्रिय है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं ! इसलिए जब आप कहते हैं कि मनुष्य प्रकृति के विनाश के विरुद्ध संघर्ष करे तो मैं कहूँगा प्रतिस्पर्धा करें :)
मेरे लिए , नैसर्गिकता और सहजता , क्रियाशील / पुरुषार्थ युक्त / विवेक सम्मत धारणायें हैं ! इनमें आलस्य अथवा प्रमाद की अनुशंसा नहीं है ! मनुष्य नैसर्गिकता के अनुरूप हो उसके वश में नहीं ! मनुष्य सहज हो असहज नहीं ! मनुष्य प्रतिस्पर्धा करे संघर्ष नहीं ! प्रतिस्पर्धा लक्ष्य प्राप्ति का सहज तरीका है और संघर्ष असहज तरीका ! यह मेरा अभिमत है ! हो सकता है कि मेरे शब्द प्रयोग आपको पसंद ना आयें , तो भी उन्हें त्याग कर , मेरी निहित भावनाओं से सहमत या असहमत होइएगा !
ठीक है फिर, सहजता विवेक सम्मत होकर संयत भाव से ही स्वीकार की जाती है तो मेरा कोई विरोध नहीं है। उसी तरह नैसर्गिकता से विवेकयुक्त प्रतिस्पर्धात्मक मनःसंघर्ष में भी कोई असहमति नहीं है।
हटाएंप्रकृति की अपनी नियमानुसार क्रियाशीलता उसका अपना पुरूषार्थ है, पुरुषार्थ छिटककर नहीं, वह तो प्रकृति के पास ही सुरक्षित है। सृजन और विनाश में मानव के पुरूषार्थ का किंचित भी योगदान मानना उसका अनधिकार श्रेय लुब्धता है। मनुष्य के प्रकृति के अनुरूप होने मात्र से प्रकृति के श्रम का श्रेय अपने पुरूषार्थ के खाते में कैसे डाल सकता है?
चलो 'वश'और 'संघर्ष' शब्दों के अंकन का प्रलोभन छोडता हूँ निसर्ग के अनुकूल बने रहना 'मजबूरी' तो हो सकती है,पर प्रतिस्पर्धात्मक उद्यम नहीं, जब वह प्रतिकूल 'प्रयास' करता है तभी सार्थक पुरूषार्थ चरितार्थ होता है। हां, विवेक निर्णित प्रतिकूल प्रयास।
दमदार असहमतियों में ही चर्चा का आनन्द आता है, इसे 'बहस' की तरह न लें। जहां चिंतनयुक्त विचार वैभिन्य होता है,वहीं जानकारियों में सम्वर्धन की सम्भावनाएं बनती है।
जय हो..
हटाएंसुज्ञ जी का एक बार पुनः आभारी हुआ कि उन्होने इतने सुंदर विमर्श को जन्म दिया। इसे तो कहीं ह्रदय में टांकने का मन हो रहा है...
"नैसर्गिकता के वश में होने और नैसर्गिकता के अनुकूल होने में बेहोश और बा-होश होने जैसा अंतर है"
@ चिंतनयुक्त विचार वैभिन्य ,
हटाएंसही है ! यह तो सुसंगत चर्चा ही है !
देवेन्द्र जी,
हटाएं"नैसर्गिकता के वश में होने और नैसर्गिकता के अनुकूल होने में बेहोश और बा-होश होने जैसा अंतर है"
सूत्र वाकई ह्रदयंगम करने योग्य है।
इस विमर्श का मक़सद ही यही था, लोग प्रायः सहजता और नैसर्गिकता को उपरी हल्के भाव से लेते है और उसमें विवेक व होश की आवश्यकता पर ध्यान ही नहीं देते। विवेक पर सचेत रहना ही वह पुरूषार्थ है, संयत व नियंत्रित रहना ही पुरूषार्थ है। यह विमर्श सहजता और नैसर्गिकता में विवेकी पुरूषार्थ को स्थापित करने में सफल रहा है।
अली साहब,
क्षमा करना, आपको बहस का अतिरेक महसुस करवाने के लिए :)
लेकिन विषय को परिणिति तक लाने के लिए घोर असहमति आवश्यक थी।:)
अधूरे पाठ्यक्रम भी समय के साथ बदलने चाहिये, असत से सत की ओर कदम निरंतर चलने चाहिये। प्रकाश की सम्भावना होते हुए भी अन्धेरे में बैठने का आग्रह क्यों हो।
जवाब देंहटाएंवृद्ध गुरु ने यही किया !
हटाएंवृद्ध गुरु नें तीन गलतियाँ कर दी ठाकुर!! :)
हटाएंएक, ज्ञानदान के समय ही स्त्री-विमर्श कर देना चाहिए था।
दो, प्रथम स्त्रीदर्शन के समय झूठ का सहारा नहीं लेना चाहिए था।
तीन, कच्चे घडे की परीक्षा नहीं की जाती।
अनुराग जी का शायद यही आशय था "प्रकाश की सम्भावना होते हुए भी अन्धेरे में बैठने का आग्रह क्यों हो।"
परीक्षा लेने का उपयुक्त समय जो गुरु ने समझा :)
हटाएंझूठ जो गुरु ने बोला :)
स्त्रियों के विषय में शिष्य को अंधेरे में रखा :)
क्या वह पक्का गुरु था भी :)
और भी संभावनायें हो सकती हैं
अंतत: गुरु एक मठ / एक धार्मिक विचार का प्रतिनिधि है , उसके किये , उसके कहे का प्रतिरक्षण मैं क्यों करूं :)
यहां तक कि यह कथा भी उसके पक्ष में नहीं है !
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जवाब देंहटाएं.
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सहजता और नैसर्गिकता जीवन का सार तत्व है,
तथा नैसर्गिक इच्छाएं स्वाभाविक एवं सहज हैं...
उनको जीतने का प्रयास करने का कोई अर्थ नहीं... यही सार है मेरे लिये तो इस कथा का...
...
सही है !
हटाएंअवसर मिलने पर ना भटके तब ही इन्द्रियों के नियंत्रण को जाना जा सकता है , ठीक !
जवाब देंहटाएंएक अच्छी पोस्ट को फिर से पढना अच्छा लगा !
...सही आकलन है वाणी जी !
हटाएंवाणी जी ,
हटाएंसही ! वो पोस्ट मुझे भी पसंद है !
साधू बाबा को कौन बताए कि,
जवाब देंहटाएं1 इसीलिए co-ed स्कूल छड़ों के स्कूलों से बेतहर होते हैं
2 HIG फ़्लैटों के साथ-साथ जनता फ़्लैट भी कुछ इसीलिए बनाए जाते हैं
3 और फिर चित्रलेखा ने कुमारगिरी को कहा भी था
ये भोग भी एक तपस्या है
तुम त्याग के मारे क्या जानो.
सन्सार से भागे फिरते हो.
काजल भाई ,
हटाएं१- सहमत :)
२- सहमत :)
३- चित्रलेखा का कथन सर्वथा उचित है :)
यहाँ इसके कैई प्रतिरूप हो सकते हैं कहा जाता है कोरा ज्ञान भी सफ़लता का परिचायक नही होता बिना भक्ति के ज्ञान भी अधूरा है और भक्ति का यदि रूप देखा जाये तो स्त्रीलिंग है और ज्ञान पुल्लिंग तो कहिये कैसे समायोजन हो सकता है जब तक दोनो का मिलन ना हो आप देखिये गोपियाँ भक्तिस्वरूपा थीं मगर ज्ञान से भी ओत प्रोत थीं दूसरी तरफ़ उद्धव को केवल कोरा ज्ञान ही तो क्यों कृष्ण ने चाहा कि ये भक्ति का स्वरूप भी जाने और भेज दिया गोपियों के पास ………ये सब इसी ओर इंगित करता है कि जैसे भक्ति और ज्ञान दोनो का होना जरूरी है पूर्ण बनने के लिये वैसे ही संसारिक व्यक्ति को भीइन दोनो से रु-ब-रु होना जरूरी है ये तो एक दृष्टांत है मगर इसकी गहराई सिर्फ़ यही कहती है कि दोनो के बिना अधूरापन ही रहेगा ………हाँ जिसने संसार देख लिया जान लिया और मान लिया कि ये मिथ्या है मगर हम आये है यहां तो कर्म किये बिना नही रह सकते और फिर जिसने निर्लिप्त भाव से कर्म किया वो ही यहाँ सफ़ल हुआ और पूर्ण हुआ। जरूरी नही कि सन्यास ही धारण किया जाये घर मे रहकर भी सन्यासी बना जा सकता है तभी तो कबीर जीने कहा है "सच्चा त्याग कबीर का जो मन से दिया उतार " उसके बाद निर्लिप्त भाव से किया गया कर्म भी पूजा बन जाता है फिर चाहे वो घर मे रहे या जंगल मे …………ये मेरे भाव हैं जरूरी नही सभी सहमत हों जो सुना देखा पढा उसीके आधार पर कहा है।
जवाब देंहटाएंवंदना जी ,
हटाएंबहुत अच्छी लगी आपकी प्रतिक्रिया !
अच्छा तो आप और रजनीश एक ही स्कूल के हैं :) फिर तो आगाज़ और अंजाम की कुछ तस्वीरें साफ़ होती नज़र आ रही हैं !
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी ,
हटाएंवे मुझसे सीनियर थे और मैं जब तक यूनिवर्सिटी पहुंच वे वहां से जा चुके थे :)
वहां उनके ध्यान वाला वृक्ष , होस्टल का कमरा , चाय पिलाने वाला बंदा , खाने का सप्लायर , धोबी वगैरह जस के तस मौजूद थे और कुछ किस्से जो पीठ पीछे कहे जाते हैं :)
ईश्वर...उसे कभी देखा ही नहीं पर तुम...हर क्षण मेरे ठीक सामने का सत्य हो इसलिये मेरा सारा प्रेम और जितनी भी श्रद्धा मेरे अंदर बसती हो यहां तक कि थोड़ी बहुत घृणा भी यदि शेष रह गई हो मेरे मन के किसी कोने में ! यह सब केवल तुम्हारा है ...
जवाब देंहटाएं.....इन पंक्तियों को जर्मनी के इस आख्यान से जोड़ता हूँ....आदरणीय पिता ! मुझे क्यों नहीं रोना चाहिये ? जबकि मुझे एक कलहंस पाने की तीव्र इच्छा हो रही है !
... यही सत्य है। यही नैसर्गिक है। इंद्रिय निग्रह की बातें यहां बेमानी लगती हैं। जब तक सन्यासी कलहंस को पा नहीं लेगा इंद्रिय निग्रह उससे संभव नहीं। हे आदरणीय पिता! सन्यासी को मुक्त कर दो अपने बंधनो से तो संभव है वह आ जाये दुबारा आपसे इंद्रिय निग्रह की शिक्षा लेने।
देवेन्द्र जी ,
हटाएंधन्यवाद !
आपको उकसाना सफल हुआ ! आपने दोनों प्रविष्टियों को बेहतर ढंग से जोड़ दिया है ! ये प्रतिक्रिया कल रात ही दे देते तो मुझे आपका पीछा नहीं करना पड़ता :)
पिछली टिप्पणी में मैंने इसी तरह के भारतीय उदाहरण श्रृंगी-रैक्व की ओर आपका ध्यान आकृष्ट कराया था.
जवाब देंहटाएंआज श्रृंगी उद्धरण समुचित स्थान पर है !
हटाएंउस दिन इस उद्धरण वाले अंश को छोड़ कर ही मैंने आपकी प्रतिक्रिया का जबाब दिया था !
जबरदस्त विमर्श|
जवाब देंहटाएंतो देवेन्द्र भाई पकड़ में आ गए? कब तक बचते? :)
हां वे 'खो' करके दो बार भागे पर...मेरा अनुरोध मान ही गये :)
हटाएंआपने सिद्ध कर दिया कि आप पुराने खिलाड़ी हैं:)
हटाएंउन्होंने मित्रवत अनुरोध का मान रखा :)
हटाएंसच में 'खो'देने में देवेन्द्र भाई का जवाब नहीं,
हटाएंदेवेन्द्र जी ने विमर्श पर निर्णायक 'खो' दे दी :)
@ अंतिम पंक्ति ...
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ आपसे !
बढ़िया व्यक्तित्व और बेहतर टिप्पणियाँ ..
आपसे जलन होती है सर !
ये तो अपनेपन की निशानी है सतीश भाई :)
जवाब देंहटाएंagar hum kuch tip nahi sakte to itna jaroor kah sakete hain ke gyanvardhan ke sukriya cha abhar.....post ko padhne, samjhne cha grahan karne me kam bhar ka
जवाब देंहटाएंsamaya lagta hai....
sath hi monitor bhai ko atirikt dhanyavad.....vimarsh ko aage tak lane ke liye
pranam.
सञ्जय जी ,
हटाएंशुक्रिया :)
आभार, सञ्जय जी!!
हटाएं...मैं नादान इस व्यापक विमर्श से कैसे बच गया...?
जवाब देंहटाएंखैर मनाइये :)
हटाएंयह कलहंस क्या हुईं? कल + हंस ? कल पुर्जे वाली हंस? या वे जो कल हंस थीं आज कुछ और या कल हंस हो जाएंगी ? वे किस देश में थीं जो ऊपर से नीचे तक सफेदपोश थीं? वृद्ध साधु ने यह क्यों न कहा कि वे चलती फिरती लाशें हैं कि सफेद कफन में लिपटी हैं? दोनों के लिए तब स्थिति सरल सुखद हो जाती.
जवाब देंहटाएंघुघूतीबासूती
जी.बी.
हटाएंदेश का नाम आलेख के दूसरे पैरे में साफ़ लिखा है , जर्मनी , शायद आपने ध्यान नहीं दिया ! एक आख्यान , जिसे संसार से भागे हुए लोगों को , शिक्षा देने के लिए , कहा गया होगा ? उस पर आपकी आक्रोश भरी और विषयान्तर करती हुई , प्रतिक्रिया समझ में नहीं आई :(
जहां नैसर्गिक इच्छाएँ स्वाभाविक न हो , 'अनैसर्गिक भौतिक स्थिति' के कारण या 'असहजता' ही 'सहज' हो ! क्या वह स्थिति 'सन्यासी' होने के लिए 'सहज' या अधिक अनुकूल नहीं होगी ?
जवाब देंहटाएंएक 'असन्यासी' पर किसी के 'संन्यास' से क्या बीती, यहाँ पढ़िए, एक कथा में जो कभी रच गयी थी :-
http://mansooralihashmi.blogspot.com/2008/10/blog-post_22.html