वो अपने खानदान के अनेकों में से पहला चिराग था, साधारण सी शक्ल-ओ-सूरत , धुंधवाती आग में सेंक कर स्याह किये गये सूखे बांस सी काया, पहलौटी का पुत्र, पिता ने पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ! सन बयालीस में उसका जन्म हुआ और सन पैंसठ में एम.एससी. की डिग्री हासिल करने के दो साल के दरम्यान ही उसकी नौकरी लग गई ! उन दिनों सस्ते का ज़माना था और मुल्क की आबादी भी तुलनात्मक रूप से कम थी सो नौकरी के सिलसिले में, उसे कोई खास मारा मारी नहीं करना पड़ी ! अपने ही कस्बे में लेक्चरर की पोस्ट जैसे कोई लाटरी उसके हाथ आ लगी ! अब घर वालों को उसकी शादी की फ़िक्र हुई, सुयोग्य पुत्रवधु की खोज करते वक़्त ये ख्याल रखा गया कि लड़की पढ़ी लिखी होना चाहिये और लड़की का खानदान लड़के के खानदान से उन्नीस नहीं हो तो ज्यादा बेहतर !
ब्याह के लिए चुनी गई लड़की के पिता दरोगा थे, उन्हें लगा कि लड़के की नौकरी अच्छी है, सो लड़के का खानदान उनके खानदान से कमज़ोर भी है तो क्या फर्क पड़ेगा ! दोनों घर के बड़ों को रिश्ते की बात अपने अपने हिसाब से पसंद आई, लिहाज़ा ‘नो’ मंगनी पट शादी की रस्म भी पूरी कर ली गई ! लड़की उन दिनों उस्मानिया यूनिवर्सिटी की छात्रा थी और अपने पिता की दौलत के बलबूते हर तरह से दुनिया देख चुकी थी ! लेकिन अपने पिता की बात काटने का हौसला उसमें नहीं था, शादी से इंकार कैसे करती ! उसे समझाया गया था कि लड़का सीधा सादा है चाहे जैसे भी साध लेना ! शादी के छै माह के अंदर ही नवविवाहित दंपत्ति पुश्तैनी मकान छोड़कर किराए के मकान में शिफ्ट हो गये, क्योंकि नवविवाहिता को संयुक्त परिवार में घुटन हो रही थी !
यूं तो कहते हैं कि जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं पर यहां जोड़ी धरती पर ही बनाई गई थी ! लड़के के अति-श्यामवर्णी सींकिया हुस्न के मुकाबिल लड़की गौरवर्ण भारी बदन की मलिका थी ! लड़की को देखते वक्त महसूस होता कि जैसे मैदे की, बेतरतीब बोरी जैसी कोई आकृति, आंखें छोटी छोटी और चश्में की मोहताज़, नाक बेढब, ओंठ मोटे, गाल चेहरे की परिधि से बाहर लटके हुए और जिस्म यकीनन 38 -42 -38 के अनुपात में रहा होगा ! जो भी देखता, सोचता कमाल की जोड़ी है, मोटापे को बेंत का सहारा ! शादी के बाद के कई बरस तक कोई संतान नहीं होने से चिंतित, घर वाले इस दंपत्ति के घर पहली पुत्री के जन्म से और भी चिंतित हो उठे ! नवजात पुत्री का चेहरा, पड़ोस के मिश्रा जी से मिलने की खबर दूर दूर तक फ़ैल गई थी ! उन्होंने खुद को दिलासा दिलाया कि इतनी सी उम्र में किसी से चेहरा मिलाया जाता है कहीं ? पर...वक़्त बीतने के साथ ही उनका भरोसा धूल में मिल चुका था ! बड़ी होती पुत्री के नैन नक्श हू-ब-हू मिश्रा जी पर ही गये थे !
कुछ अरसे बाद इस दंपत्ति के घर एक पुत्र का जन्म हुआ...पर उसे भी, किसी दूसरे ठाकुर पड़ोसी की संतान बताया गया ! यानि कि दुनिया में पति की मौजूदगी के बावजूद पत्नि के दो अन्य पुरुषों से विवाहेत्तर संबंधों का बाजार गर्म था और पति, शायद उससे कोई भी, इस बात को कहने की हिम्मत नहीं जुटा रहा था कि तुम्हारी पत्नि तुमसे प्रेम नहीं करती ! आम तौर पर अफवाहों को चरित्र हनन की कवायद मानकर टाल जाना हमारी फितरत में है ! इसलिए जब भी सुनते, बकवास समझ कर चुप साध लेते ! आगे चलकर पाठक, शर्मा और गढ़वाली जी का नाम भी उस महिला से जोड़ा गया ! लेकिन हम थे कि हमें ‘उस’ पति से ‘उसकी’ पत्नि की बेवफाई की कोई वज़ह और बेवफाई के सबूत ही नज़र नहीं आते थे ! हमें लगता कि पड़ोसियों की निजी खुन्नस के तहत उस बेचारे परिवार का चरित्र हनन किया जा रहा है !
लेकिन एक गहराती शाम, शर्मा जी के टहलने के अंदाज से हमें...राज़फाश होने का सुअवसर नज़र आया, शर्मा जी दम्पत्ति के घर के सामने छोटी सी लम्बाई में लगातार टहलते हुये अपने चारों ओर कुछ इस अंदाज़ में देख रहे थे कि उन्हें कोई देख तो नहीं रहा है और फिर अचानक वे उस घर में घुस गये ! इसके बाद सड़क पर टहलने की बारी हमारी थी ! हमें पता था कि उस घर में बच्चे और बच्चों के घोषित पिता की अनुपस्थिति के चलते शर्मा जी के हौसले बुलंद हुए हैं ! कुछ मिनट पहले सड़क पर टहलते हुए शर्मा जी ने सोचा भी नहीं होगा कि आम सड़क ‘दूसरों’ के टहलने का ज़रिया भी होती है ! उस घर से बाहर आने वाले एकमात्र दरवाजे के सामने वाली सड़क पर टहलते हुए हम, जानते थे कि आज सारी अफवाहें दम तोड़ देंगी ! दरवाजों और खिड़कियों के पल्ले ज़रा से खुलते गोया वे पक्का करना चाहते हों कि ये कमबख्त कितना और टहलेगा ! हमने तय कर लिया था कि थकान के चलते रात कितनी भी गहरी नींद आये! आज तो शर्मा जी की नज़र उतार ही ली जाये !
जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ, शर्मा जी झेंपते हुई बाहर निकले ! हमने पूछा अरे...शर्मा जी आप यहां कैसे ? अमुक साहब तो घर में हैं नहीं ! वे हड़बड़ाये...हां...नहीं...वो ज़रा भाभी जी की तबियत खराब थी ! सोचा देख लूं ! फिर तो आपको श्रीमती शर्मा को भी लेकर आना चाहिये था ! क्या पता बीमार को कैसी मदद की ज़रूरत पड़ जाये ? चलिये आपने देखा है तो मैं भी बीमार का हाल चाल पूछ लूं ! वे गिड़गिड़ाने लगे ! बात उनकी इज्जत पर बन आई थी ! उन्होंने स्वीकार कर लिया कि उनसे भारी भूल हुई है ! वो बार बार कहते किसी से कहियेगा मत, दो परिवार बर्बाद हो जायेंगे ! शर्मा जी की कथित भाभी जी उर्फ प्रेमिका दरवाजे की ओट में स्वास्थ्य लाभ ले रहीं थी ! हमने उनसे कहा भाभी जी हम आपसे कल सुबह बात करेंगे ! फिलहाल हम शर्मा जी के घर जा रहे हैं ! बहुत दिनों से शर्मा भाभी के हाथों की चाय नहीं पी है...
हमें पता था कि आज शर्मा जी की प्रेम कहानी हमेशा के लिए समाप्त हुई ! हमारी नज़र में वे बालिग थे और उनकी प्रेमिका भी, सो इन संबंधों में अगर कुछ गलत था, तो वो था, उनका विवाहेत्तर होना और अपने जीवनसाथी से छल करना ! श्रीमती शर्मा के हाथों की चाय केवल बहाना थी ! अगली सुबह शर्मा जी की सांयकालीन भूतपूर्व प्रेमिका हमारे अपने घर में मौजूद थी ! वो नहीं चाहती थी कि हम उसके परिजनों की मौजूदगी में उसके घर...! उसने अपनी सारी प्रेम कहानियों को स्वीकार कर लिया और आश्वस्त होना चाहा कि हम उसके परिजनों से...! ये उसका अपना जीवन था ! उसे इतने सारे प्रेम क्यों करना पड़े...औचित्य भी वो ही जानती होगी ! हमने कहा जाओ ! हमसे निर्भय रहो ! वो आश्वस्त हुई और चली गई ! अभी उसके प्रेमिल जीवन में ‘दयाल दास’ का पदार्पण शेष था...
( उसके प्रेम को लेकर फिलहाल हमें कोई कन्फ्यूजन नहीं )
( उसके प्रेम को लेकर फिलहाल हमें कोई कन्फ्यूजन नहीं )
आप तो बड़े भयंकर पंगेबाज हो गुरु ....
जवाब देंहटाएंकितनी गालियाँ दी होंगी भाभी जी ( आपकी ) ने आपको ????
ज़रूर बेहिसाब दी होंगी :) और इसका रिकार्ड भी उनके ही पास ही होगा :)
जवाब देंहटाएंअभी मैंने उनसे , अपनी चर्चा के डिटेल्स , आपको बताये ही कहां हैं :)
अभी तो मैं यह समझने का प्रयास कर रहा हूँ कि शर्मा जी की भाभी जी (सांयकालीन प्रेमिका) आपकी भाभी जी कब बनीं! :)
जवाब देंहटाएं@ प्रोफ़ेसर अली,
हटाएंलो और पंगे लो ....
@ देवेन्द्र जी ,
हटाएंआख़िरी में बताया गया 'बंदा' वास्तव में पाण्डेय है ज़रा संभल जाइए :)
@ सतीश भाई ,
चिंता मत कीजिये ! मैं ओखली में सिर दे चुका हूं सो ... नहीं डरता :)
हा हा हा....पाण्डेय हो चाहे मिश्रा, मुझे इससे क्या ! कहानी के अंत के हिसाब से पाठक तो आपसे अगले पोस्ट में उसकी कहानी लिखने की मांग तो करेंगे ही।:)
हटाएंदेखिये, वो डी.डी.पाण्डेय है और आप अकेले डी.पाण्डेय इसलिए इशारा कर रहा हूं :)
हटाएंजो तेरे नसीब की बारिशें किसी और छत पे बरस गईं ...
जवाब देंहटाएंक्या शीर्षक है :))))
डॉ अरविन्द मिश्र को पसंद आना चाहिए ...
आना तो चाहिये :)
हटाएं:)
हटाएंPRANAM.
सञ्जय जी ,
हटाएंआभार :)
एक तो बेमेल की शादी ऊपर से बाप यह समझा के भेजे कि लड़का सीधा सादा है चाहे जैसे भी साध लेना ! यह तो होना ही था। घर में ही होशियार रही लड़की ने अपने मिजाज के अनुसार साध लिया। गलत तो तो वे थे जो बहकते चले गये......
जवाब देंहटाएंआपने एक सही मुद्दा चिन्हित किया है ! मुझे उम्मीद है कि इस संस्मरणात्मक कथा के अन्य महत्वपूर्ण पक्षों पर भी मित्रगण अपनी अंगुली धर देंगे ठीक आपकी तरह से !
हटाएंआपके इतने सारे संस्मरणात्मक किस्से पढ़कर लग रहा है...शायद हर शहर-कस्बे-गाँव में इस तरह की घटनाएं घटती हों...{अब एक आपका शहर ही इतना ख़ास तो नहीं होगा :)}..पर सबलोगों को नज़र क्यूँ नहीं आतीं..ऐसी घटनाएं??...लोग आँखें बंद करके रखते हैं...या गहराई से देखते ही नहीं ??
जवाब देंहटाएंएक ख़याल और आ रहा है...जब इन मैडम का किस्सा इतना सर्वविदित है ..तो बच्चे इस से अछूते कैसे रहे होंगे??...क्यूंकि समाज बड़ा बेरहम होता है....ऐसे कृत्य करनेवाले को भले ही डर कर कुछ ना कह पाए....पर उस से जुड़े निर्दोष लोगो को कभी नहीं बख्शता...'करे कोई भरे कोई' के तर्ज़ पर पतिदेव और बच्चों को उन मोहतरमा की मनमानियों की कीमत जरूर चुकानी पड़ती होगी..
आपकी दोनों बातें सही हैं !
हटाएंपहले बिंदु पर सवाल बस इतना सा है कि आंखें खुली कौन रखता है और बंद कौन :)
इस परिवार की पुत्री समय से पहले बिगड़ चुकी थी ! इसे, उसकी मां का असर कह सकते हैं कि नहीं, पता नहीं ! उसकी शादी में बड़ी दिक्कतें पेश आईं, बड़ी मुश्किल से उसे किसी दूर प्रदेश में ब्याहा जा सका ! बदनामियां उसके पीछे अब भी भाग रही हैं !
पुत्र इस माहौल में एक अविकसित / गुम सुम मस्तिष्क की तरह पला बढ़ा ! महिला का पति कुछ नहीं कर सकता था इसलिए जानबूझकर सब बर्दाश्त कर रहा है ! उसका व्यक्तित्व एक हीनभावना ग्रस्त / कुंठित इंसान जैसा है !
कहानी का प्रवाह इत्ता गज़ब का बन पड़ा है कि शब्द-शिल्प के आगे कथावस्तु गौड़ हो गई है ! यह अकेली ऐसी घटना नहीं है पर क्या वास्तव में शुरुआत मिश्रजी से हुई थी ? सारे खुराफात इसी कौम के सर क्यों ?
जवाब देंहटाएंअली साब,इसे प्रेम की संज्ञा के बजाय खेल कहते तो ही उपयुक्त होता.ऐसी कबड्डी खेलते हुए लोग अपनी आँखों का पानी भी मार डालते हैं.
...आप से गुज़ारिश है कि ऐसे शर्माओं और भाभियों से दूर ही रहो !
आप अयाचित और अनावश्यक संकेत दे रहे हैं :) कथा का एक लेबल 'संस्मरण' भी है अतः आपको इसे सत्य घटना की तरह ही बांचना चाहिये !
हटाएंकामुकता प्रेम का एक छोटा सा ही सही पर व्यवहारिक पक्ष है / उसका एक अंश है , जबकि प्रेम एक व्यापक धारणा है ! हमने व्यापक अर्थ वाले शब्द से काम चलाया है अब आप उसे जो चाहे कहिये :)
पर्यवेक्षण का कार्य अधिकांशतः बाहर से उचित माना जाता है ! इसलिए हमें घटनाक्रम के अत्यन्त निकट किन्तु कार्यक्रम से बाहर ही समझिये :)
अली साब...अगर इसे मैंने कथा माना है तो यह कहाँ माना है कि यह सत्य-कथा नहीं है.आपके ख्वाब और मोहब्बत के किस्से दर-असल आश्चर्यजनक रूप से सही निकलते हैं !
हटाएंअफ़साने कहिये हुजुर
हटाएंदीपक जी ,
हटाएंइस अफसाने को सबसे पहले आपने पढ़ा पर क़ुबूल तीसवें नम्बर की टिप्पणी के मार्फ़त किया :)
धन्यवाद !
संतोष जी,
हटाएंकिस्से आश्चर्यजनक रूप से सही निकलते हैं , में सही नहीं भी निकलने की संभावना निहित है ! किन्तु यह कथा सत्य है , यहां नहीं की कोई गुंजायश नहीं है :)
अभी पूरा समझ नहीं पाया हूँ. दुबारा आऊँगा. बेटा हल्ला कर रहा है.
जवाब देंहटाएंहल्ला हो या गुला,पहले रसगुल्ला तो खाते जाओ !
हटाएंआदरणीय सुब्रमनियन जी ,
हटाएंआपको जब भी फुर्सत मिले आइयेगा ! इस घटनाक्रम के कुछ स्थान आपके जाने पहचाने हैं !
संतोष जी ,
सुब्रमनियन जी ब्लाग जगत के वरिष्ठतम सदस्य हैं ! सार्थक / गंभीर प्रविष्टियों से लेकर सार्थक / गंभीर टिप्पणियों के लिए उनका योगदान हमारे लिए महत्वपूर्ण है ! हमें उनके अनुभावों से लाभ उठाना चाहिये !
इस शृंखला की पिछली कड़ियों में भी देखा कि चेहरे-मोहरे के आधार पर वल्दियत तय किये जाने पर काफ़ी ज़ोर है। कथानक से अलग, यह उत्सुकता है कि यह एक समाजशास्त्री की राय है या चिकित्सा/शरीर विज्ञान का निष्कर्ष। पूछने में डर रहा हूँ क्योंकि आजकल अपने सीधे-सादे सवाल भी व्यंग्य मान लिये जा रहे हैं। किसी ने बज़ा फ़रमाया है, "बद अच्छा बदनाम बुरा!" :(
जवाब देंहटाएंअनुराग जी ,
हटाएंपिछले अंक में भी यह तर्क उसके घोषित पिता का था और इस अंक में पड़ोसियों तथा उसके घरवालों का ! अतः जो भी 'जोर' है उनका है ! इस मामले में मेरा पक्ष बहुत स्पष्ट है मैंने इसे अफवाह / अनिश्चितता की श्रेणी डाला और फिर दोनों ही अंकों में स्त्रियों की सहमति के बाद ही मैंने अपना धारणा तय की ! इसलिए अनुरोध है कि इसे समाजशास्त्री अथवा चिकित्सा विज्ञानियों के खाते में डालने के बजाये उन स्त्रियों की स्वीकृति के खाते में डाला जाये ! आपके किसी सवाल को मैंने व्यंग माना हो ऐसा मुझे स्मरण नहीं है !
गई भैंस पानी में (और टिप्पणी स्पैम में)
जवाब देंहटाएंटिप्पणी को स्पैम से बाहर कर दिया है !
हटाएंप्यार और पसंद का फर्क तो समझ आता है ,बहुत लोगों को विभिन्न कारणों से पसंद किया जा सकता है मगर इस संस्मरण में प्रेम या पसंद भी ढूंढें नहीं मिला !!
जवाब देंहटाएंउस स्त्री की एकाधिक पसंद और प्रेम को आपने प्रेम नहीं माना :)
हटाएंमेरा ख्याल है कि उसका देहाचार उसके प्रेम का एक्टिव पार्ट है :)
हर समाज में ऐसे चरित्र पाए जाते हैं और शरीफ लोग इनसे दूर ही रहते हैं.
जवाब देंहटाएंयह सही है कि इस तरह के चरित्र को आप किसी भी समाज में देख सकते हैं ! उस स्त्री से इन्वाल्व होने वाले सारे बंदे समाज में घोषित शरीफ इंसान थे ! यहां तक कि स्वयं उसका पति भी !
हटाएंअब आप किसी के निजता में घुसपैठ के दोषी हुए या नहीं ....
जवाब देंहटाएंएक विकसित देश में ऐसा करने की न तो किसी के पास फुर्सत है और न ही नीयत ..
मैं तो आपको सहज सरल इंसान समझते थे ..आब तो खुराफाती भी हैं और दूसरे के फटे में टांग
भी अडाते हैं ...
और मिश्रा शर्मा सिंह आदि के बजाय त्रिवेदी ,पाण्डेय आदि पात्र आपको नहीं मिले थे क्या ?
और दम्पति की बिरादरी ?
अरविन्द जी ,
हटाएंअगर मैं सीधा सादा और सहज / सरल इंसान नहीं होता तो बाहर सड़क में क्यों टहलता ? मुझे उस घर में घुस जाना चाहिये था :) ये तो आप भी जानते हैं कि लोग इस मौके का क्या फायदा उठा सकते हैं ! आपको तो गर्व होना चाहिये कि आपका मित्र सत्य की खोज में अपने चरित्र से विचलित नहीं हुआ !
देखिये , संस्मरण में प्रयुक्त सारे सरनेम सही हैं मैंने केवल उनके नाम विलोपित किये हैं ! आलेख में दंपत्ति की आंशिक पहचान पहले डाली थी फिर सतर्कतावश विलोपित कर दी ! क्योंकि इस कथानक के चरित्रों / पृष्ठभूमि से परिचित कम से कम दो ब्लागरों को मैं जानता हूं जो इसके सूत्र पकड़ सकते थे ! इसलिए मैंने चरित्रों की निजता को निजता बनाये रखा !
अगर सरनेम से किसी मित्र को असुविधा होगी तो मुझे उसे बदलने में कोई कष्ट नहीं होगा ! जबकि मैं पहले ही कह चुका हूं कि वे कथा से जुड़े सच्चे उपनाम हैं !
ग़ज़ब की प्रेम कहानियां ढूंढ कर लाते हैं आप .
जवाब देंहटाएंनायाब हुस्न का अंदाज़े बयां भी ग़ज़ब !
मिश्र जी , पाठक जी , शर्मा जी और भी न जाने कितने जी जी जी ---
इस अभयदान के पीछे का राज़ भी बता ही दें ! :)
डाक्टर साहब ,
हटाएंढूँढना कहां पड़ता है ? निगाहें खुली रखी जायें तो सब कुछ अपने सामने बिखरा मिलेगा :)
जी जी जी'ज के नाम तो छुपाये ही पदनाम भी नहीं बताये , वर्ना आप कहते इत्ते बड़े बड़े लोगों पे हाथ डालने की हिमाकत कैसे की :)
मैं उन दोनों के परिवारों का अहित नहीं करना चाहता था , वे दोनों डिफाल्टर थे , इसलिए चमका कर छोड़ दिया समझ लीजिए ! उनमें से शर्मा जी पर अपना झटका काम भी कर गया !
डाक्टर साहब अपना काम, केस स्टडी तक सीमित है इसलिए आगे का कोई एडवेंचर अपने एजेंडा में भी नहीं है :)
are you serious !
हटाएंडाक्टर साहब ,
हटाएंनहीं ! आपने ध्यान नहीं दिया मैंने वहां स्माइली लगाई हुई है :)
एक तो ब्लॉग पर फोलो करने का सामान नहीं .
जवाब देंहटाएंऊपर से फोटो है भी और नहीं भी .
काहे छिपा रहे हैं ? :)
दराल साहब ,
हटाएंआप अपने डैशबोर्ड में उन ब्लॉगों की लिस्ट रखते होंगे जिन्हें आप फालो करते हैं ! वहां ब्लाग जोड़ें आप्शन को क्लिक करके मेरा ब्लाग एड्रेस चिपका दीजिए ! ( http://ummaten.blogspot.in ) काम हो जाएगा !
एक फोटो पुरानी कहीं कहीं घूम रही है फिर सोचा ये फूल मुझसे भी ज्यादा रौशन चेहरा है सो उसी को अगुआ बना लिया :)
असल में यहां की क्लाइमेट में सेव के पेड़ हो नहीं सकते , हो भी जायें तो खिल / फल नहीं सकते ! बंदे ने बड़ी मेहनत और मुहब्बत से अपने आंगन में एक पौधा जिलाया है ! वो खिल गया तो खुश होकर ब्लाग का चेहरा बना दिया !
अली जी , किस किस को समझायेंगे । सेटिंग्स में फोलो का भी ऑप्शन होता है ।
हटाएंऔर सेब को छोडिये , हमें तो कद्दू भी बहुत भाता है । :)
मज़ाक की बात छोड़ें तो , ब्लॉग पर फोटो होने से कभी मिलें तो परिचय की ज़रुरत नहीं पड़ती । लोग मिलते ही पहचान लेते हैं एक दूसरे को ।
डाक्टर साहब ,
हटाएंपसंद का सवाल तो बाद में है , उसे अलग क्लाइमेट में उगा सका बस यही एक खास बात थी जो उसे चिपकाया !
अब आप कह रहे हैं तो अपना फोटो ज़रूर लगा देंगे ! पहले भी तो लगाया हुआ था :)
फोटो होना चाहिए ....
हटाएंवैसे अली साब अपने अरविन्द जी की तरह सुदर्शन भी दिखते हैं !!
हटाएंडाक्टर साहब आपको पहचानते हैं फिर भी फोटो लगाने के लिए इतना जोर दे रहे हैं! :) फिर से समझने का प्रयास कर रहा हूँ। :)
जवाब देंहटाएंदेवेन्द्र जी ,
हटाएंइस तरह से तो आप पूरी जिंदगी 'समझ'दारी में गुज़ार देंगे :)
काहे भिड़ा रहे हैं पाण्डे जी ! :)
हटाएंसतीश भाई ,दराल साहब ,देवेन्द्र जी ,संतोष जी ,
हटाएंलगता है मेकअप और फोटो सेशन दोनों ही करवाने पड़ेंगे :)
...करवा लीजिए,बुढ़ापे में मेक-ओवर वैसे भी ठीक रहता है !
हटाएंअली सा,
जवाब देंहटाएंकुछ कारोबारी परेशानियों ने इस कदर जकड रखा है कि लिखना-पढ़ना भी मुश्किल हो गया है.. और बिना (मन लगाकर) पढ़े कुछ कह पाना भी मुमकिन नहीं.. फिर भी यह पोस्ट पूरी पढ़ी और सोचा कुछ ना कहूँ तो ज्यादती होगी.. पोस्ट के साथ नहीं खुद अपने आपके साथ..
यह घटना और इसके किरदार किसी अलिफ़-लैला की दास्तान से उठाये नहीं लगते.. जब हम बड़े हो रहे थे, यानि वो समझ पैदा ह, रही थी कि जब कोई बात बच्चों के सामने न कहकर कान में कही जाये तो बुरी होती है और खुलकर कही जाए तो अच्छी.. ऐसे में छुट्टियों के समय जब घर के आँगन में औरतें बात करती थीं, आँचल मुंह में दबाकर हंसते हुए "फलानी" का ज़िक्र आता था, जिनका फलाने के साथ सम्बन्ध बताया जाता था और वो एक खास फुसफुसाहट में वो बात कहकर हंसने लगती थीं.. इसी चक्कर में एक बार मैंने एक लड़के से पूछ दिया था कि सबलोग कहते हैं कि तेरी शकल उनके जैसी क्यों लगती है.. आगे की बात मेरी पिटाई और एक दोस्ती के खात्मे पर हुई..
बेमेल शादी और उससे भी बेमेल मन, जिसने खुद को हीन मान लिया और हुकूमत क़ुबूल कर ली.. हो सकता है यही वज़ह रही हो.. कुछ ऐसे ही हालत से मुतासिर होकर जनाब रस्किन बौंड ने सुसंना के सात खसमों वाली कहानी लिखी होगी.. यहाँ गनीमत है मामिला कतल तक नहीं पहुंचा, बस खसम बदलते रहे..
सवाल मेरा भी है एक.. जिन बच्चों की शकल सारे मोहल्ले को साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थी, उन बच्चों के असली बाप की बीवियों की क्या प्रतिक्रया रही होगी.. क्योंकि ऐसे में तो चाय पीने के बहाने की धमकी की भी ज़रूरत न रही होगी और न चहलकदमी की!! सचाई का साइनबोर्ड तो पूरे मोहल्ले में घूम रहा होगा!!
सलिल जी ,
हटाएंकारोबारी परेशानियां पहले निपटाई जायें और ब्लागिंग उसके बाद ! फलानी के मुताल्लिक आपके आब्जर्वेशन सही हैं पर दोस्ती खो देना बुरा तजुर्बा था !
बच्चों के बाप को शुरू शुरू में किसी ने सीधे सीधे कुछ भी नहीं कहा और वो खुद से अनजान बना रहा ,शायद जानबूझकर ही रहा होगा !