शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

क़ायनात ख़ुदा की...मुल्क ब्यूरोक्रेट्स का...और अंधेरे हमारे !












                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      तारीख अट्ठारह मार्च सन दो हज़ार दस शाम छै बज कर अड़तालीस मिनट बावन सेकण्ड , चांद तकरीबन गुमशुदा , हफ़्तों गोल रहने वाली बिजली का एक लट्टू टिमटिमाता हुआ , पलाश के दरख्तों की औकात नहीं कि रात में दहक सकें ,  तीन दिशाओं में घना जंगल , ध्वज स्तम्भ पर बैठे उल्लू की फोटो खींचना नामुमकिन,मोबाइल /  टेलीफोन सेवायें पिछले पंद्रह दिनों से ठप , अपने  घर से कोई २२५ किलोमीटर दूर ड्यूटी  बजाते हुए  हम  !  जब घुप्प अंधेरा हमारा सौभाग्य है...तो फिर आज़ादी  के शानदार सातवें दशक में 'गांवों'  में बसते जनगण  ने क्या  पाया होगा  ?


31 टिप्‍पणियां:

  1. संदर्भ तो हमारे ऊपर से गया, बाकी जो कुछ समझे उस पर हमारी राय यह है की आप बीच बीच में एंटर मार देते तो खासी अच्छी, आधुनिक व्यंग्य कविता बन जाती...

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  2. @ मजाल साहब ,
    आपका कविता वाला आइडिया बुरा नहीं है :)



    [ दरअसल पिछली गर्मियों में परीक्षा और नक़ल के मुताल्लिक कुछ संस्मरण लिखे थे उनमें इस जगह का ज़िक्र है इस असुविधाग्रस्त जगह पर सरकार लगभग ढाई दशक से एक डिग्री कालेज चला रही है :) डिटेल्स की पुनरावृत्ति जानबूझ कर नहीं की गयी ]

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  3. इस अंधेरे जंगल में तब करमा और घोटुल पाटा की आदिम आवाजें गूंजती थी तब ध्‍वज स्‍तंभ पर बैठे उलूक की आंखें सियाह रात में गोल घूमती हई दैवीय संगीत के साथ रिदम मिलाती थी, तब आप बिना कृत्तिम प्रकाश और संचार तंत्र के भी वहां के घने जंगलों का बेहतर आनंद लेते हुए इस सुरम्‍य वनदेवी को समर्पित होते थे, आज ये सब नहीं हैं तुगलकी आदेश सब पर हावी है पलाश के सुर्ख फूलों की लाली चूसक चूस लिये हैं वनो से आने वाली स्‍वाभाविक कोरस की आवाज को बंदूक के नाल से होकर गुजरना है इस कारण आवाजों में बेसुरापन आ गया है, अब उल्‍लू किसी के गला रेतने या बारूदी सुरंग उडाने की पूर्व सूचना के लिए आते हैं।
    आजादी के सातवें दसक तक जनगण की इसी अनवरत हालात नें बस्‍तर को बारूदी ढेर में बैठा दिया।
    नि:शव्‍द चित्र और चित्र चंद लकीरों में पूरी कहानी लिख दी है भईया, आपके शव्‍दों में छुपे बस्‍तर के दर्द को महसूस कर रहा हूं, बहुत बहुत धन्‍यवाद.

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  4. आज की परिस्थितियों में जनता के हक़ में अँधेरा ही आता है. वैसे हम सोच रहे थे कि यह जगह कौन सी है जहाँ इतना बड़ा जय स्तंभ है औरउस अँधेरे में भी ऊपर आपको उल्लू दिख गया!

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  5. @ संजीव भाई ,
    आलेख की पुरौनी सी टिप्पणी के लिए ह्रदय से आभार !


    @ आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
    इस लोहे के ध्वज स्तंभ की ऊंचाई ज्यादा नहीं है पर फोटोग्राफर लगभग उसके नीचे ही बैठा हुआ है ! बस इसलिए फोटो में उसकी मोटाई और ऊंचाई ज्यादा लग रही है ! कहने का मतलब ये कि उल्लू से फोटोग्राफर की दूरी बमुश्किल १२-१५ फीट मानी जाय :)

    स्थान : पुराना बीटीआई भवन भोपालपटनम !

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  6. निश्चय ही हमारे हिस्से का अन्धेरा घना है मगर प्रकाश की एक टिमटिम भी अली भाई जो डूबते को तिनके का सहारा देती है ..
    आपे इस चित्र की विशालता ने दिल को कपकपा दिया ...छोटा बड़ा कर देख लिया ...सचमुच अगर कोई तैल चित्र बना दे इसका तो यह एक बेशकीमती कला कृति बन जायेगी -आपके पोस्ट पर अँधेरा भले ही घिर आया है मगर उजियारे की आस तो है !
    मन भले ही उदास है मगर दिल में मिलने की आस तो है ....बेदर्द दुनिया ने उसे भले ही दूर कर दिया है मगर वह अभी भी दिल के पास तो है ....अरे अरे बेवक्त यह शायरी क्यों सूझने लगी ...अँधेरा कायम हो गया लगता है ..सिर झटकता हूँ लो फिर उजियारा दिखा ...

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  7. इस घुप अँधेरे में भी उल्लू दिखने के लिए उलूक दृष्टि चाहिए ....

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  8. मजाल जी ने कहा है, आपने जवाब दिया है फिर भी अगर डिटेल्‍स का कोई संदर्भ था तो लिंक दे देना बेहतर होता. शीर्षक में ब्‍यूरोक्रेट्स को ज्‍यादा ही श्रेय चला गया है. आपकी पोस्‍ट में चित्र मैंने पहली बार ही देखा. कविता के मानिंद चित्र और वैसा ही विवरण.

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  9. @ अरविन्द जी (१),
    टिमटिम पर आप सही हैं ,छोटी ही सही उम्मीद तो है ...पर आप बेवक्त शायर कैसे हुए जा रहे हैं :)

    @ अरविन्द जी (२),
    स्तंभ के सबसे निचले हिस्से पर गौर फरमाइए उसका नीला रंग अब भी दिख रहा है तो फिर यूं समझिए कि ऊपरी छोर पर बैठे "हुए" ने हमारी निगाहों की लाज रख ली :)

    @ राहुल सिंह जी ,
    शायद आपके ही ब्लॉग पर फोटो वाले मसले पर मैंने टिपियाया था कि फोटो भी शब्द ही होते हैं ,अमूमन अपनी प्रविष्टियों के लिए फोटो इस्तेमाल नहीं करता हूँ पर इसे डालते वक़्त आपका ख्याल भी था कि राहुल सिंह जी से कह तो दिया पर यहाँ भी देखूं कि ये फोटो क्या कह पाता है ?

    फोटो को अपनी दम पर कुछ कहने देने की इच्छा के चलते ही पुराना कोई सन्दर्भ नहीं दिया !अब देखता हूँ कि ये प्रयोग कितना सफल हो पायेगा ?

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  10. आज तो अपने जो तस्वीर लगाई है वो अनोखी है. मन में एक अजीब सा भाव पैदा करती है जिसे व्यक्त नहीं कर पा रहा पर मैं जब अपने गाँव में जाता हूँ तब वहां बिताई रातें मन में ऐसा ही भाव पैदा करती हैं.

    सच कहूँ तो मुझे तो ऐसी जगह पर समय बिताना पसंद है क्योंकि अभी तो मैं ऐसी जगह रह रहा हूँ जहाँ रातें हमेशा दहकती रहती हैं, और अँधेरा रात को छोड़ लोगों की जिंदगी में घुस चुका है. जहाँ चारो तरफ जमीन में धंसती इमारतों के जंगल हैं और जहाँ फोन अपनी घंटी से बार बार तंग करता है.

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  11. जिनके हिस्से अंधेरे आए
    वही तो कहते हैं..
    हम उल्लू बन गए!

    ...कविता कुछ ऐसी होती क्या ?..

    कायनात ख़ुदा का
    मुल्क ब्यूरोक्रेट्स का
    अंधेरे हमारे

    मत समझना इसे
    नक्सलियों के
    नारे

    देखो
    हम भी हैं
    तुम्हारे।

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  12. अली सा!! आपके प्रश्न का उत्तर बरसों पहले शरद जोशी दे गए हैं कि आज़ादी के इतने साल बाद हमारे मुल्क़ में सब कुछ है, सिर्फ उसमें “वो” नहीं है जिसके लिए वो हैं. और फिर इसके बाद एक लम्बी फ़ेहरिस्त है... उम्मीद, पण्डित जी ने कहा है, कि नहीं छोड़नी चाहिए.. पर किसका यकीन करें.. पण्डित जी का या शकील साहब का, जो कह गएः
    कोई उम्मीद बर नहीं आती
    कोई सूरत नज़र नहीं आती.

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  13. बाप रे ..!
    ई अँधेरिया रात का बात है...कि कौनो राकेट लॉन्चिंग का काउंट डाउन (तारीख अट्ठारह मार्च सन दो हज़ार दस शाम छै बज कर अड़तालीस मिनट बावन सेकण्ड)
    हम तो अभी तक अँधेरा में ही बैठल हैं...
    ज़रा हम पर भी नज़र डालिए...अरे ओ दिमाग के बत्ती वाले....
    सब चला गया ..ऊ का कहते हैं...ऊपर से...
    हाँ नहीं तो...!

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  14. शानदार फोटो। अनेकार्थ लिए हुए।

    सुबह सुबह जाने क्यों फटा सुथन्ना पहने राष्ट्रगीत गाता हरचरना याद आ गया। हम सब में भी बसता है लेकिन...

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  15. @ मित्रों ,
    इस ब्लॉग में असहमतियों को भी सम्मान दिया जाता रहा है किन्तु आज एक बेनामी प्रोफाइल से किसी दूसरे टिप्पणीकर्ता ब्लॉगर के नामोल्लेख के साथ 'अपशब्दों' वाली प्रतिक्रियायें मिली !

    'अपशब्द' कह कर असहमत होने के कारण से उनकी प्रतिक्रियाओं को हटा दिया गया है हम नहीं चाहते कि टिप्पणीकर्ता ब्लागर्स को हमारे आँगन से गरियाया जाए अतः टिप्पणियों पर माडरेशन व्यवस्था की असहजता को इसी प्रकाश में देखियेगा !

    पूर्व में भाषाई सौजन्य के साथ असहमतियों का स्वागत रहा है और आगे भी बना रहेगा ! सादर !

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  16. अली साहब,
    फ़ोटो अच्छी लगी। नीम अंधेरा, घना जंगल, चांद, खंभा और उल्लू(जो है पर दिखता नहीं), संदर्भ अपने भी नहीं समझ आया लेकिन कुछ ऐसा ही लग रहा था कि इंडिया शाईनिंग और भारत के संबंध में कुछ होगा। टिप्पणियों से कुछ खुलासा तो हुआ। निष्कर्ष यही कि हमें तो तस्वीर पसंद आ गई है।

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  17. @ विचार शून्य जी ,
    शहरी माहौल /आपाधापी पर गहरा कटाक्ष कर डाला आपने ! आपकी ग्राम्य अनुभूतियों के साथ जानिये ! शुक्रिया !

    @ देवेन्द्र जी ,
    बड़ी सुन्दर कविता रच डाली आपने ! आभार !

    @ संवेदना के स्वर बंधुओ ,
    जोशी जी के जाने के वर्षों बाद भी हालात जस के तस हैं ! शकील साहब के शेर में 'उम्मीद' जोड़ कर पढ़ने और 'पुरउम्मीद' बने रहने के सिवा चारा भी क्या है !

    @ अदा जी ,
    आप तो ऐसी ना थी :)

    @ गिरिजेश जी ,
    आप भी गज़ब शब्द व्यवहृत कर जाते हैं 'सुथन्ना' सुने वर्षों हो गए थे , टिप्पणी ने अदभुत आनंद दिया !

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  18. राहुल सिंह जी ( मेल से प्राप्त टिप्पणी )20 नवंबर 2010 को 8:56 am बजे

    हम बहुत जल्‍दी अपनी आदत बना लेते हैं, आपकी पोस्‍ट बिना तस्‍वीर के, आदत हो गई है, ऐसी पोस्‍ट को संदर्भ के साथ पढ़ने-जानने की हमारी आदत है. आदत छोड़ कर कुछ करना अक्‍सर मौलिक और रचनात्‍मक ताजगी भरा होता है, जैसाकि यहां है. मेरी पोस्‍ट फिल्‍मी पटना पर आपकी वह टिप्‍पणी थी.
    फोटो,पेंटिंग और फिर शब्‍दों में उतर कर कविता की तरह बही है यहां.

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  19. हम भी पहले पढ़कर खिसक लिए थे ...
    कुछ अंदाजा था कि शहर और दूरदराज़ के ग्रामीण इलाकों में विकास के अंतर को बता रही है पोस्ट ...
    टिप्पणियों से खुलासा हुआ ...

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  20. @ मो सम कौन ? जी ,
    सन्दर्भ के बिना भी खुलासा तो आप सही ही कर रहे हैं ! इस फोटो से यही उम्मीद थी ! ये आपको पसंद आई ! शुक्रिया !

    @ राहुल सिंह जी ,
    जी बिलकुल सही ! आपकी फ़िल्मी पटना वाली पोस्ट पर मेरी टिप्पणी का ख्याल ही जेहन में था ! आदत को लेकर आपकी बात दुरुस्त है !

    @ वाणी जी ,
    प्रथम दृष्टया टिप्पणी किये बिना खिसक जाना ...ये तो अच्छी बात नहीं :)

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  21. राहुल जी की टिप्पणी... शीर्षक में ब्‍यूरोक्रेट्स को ज्‍यादा ही श्रेय चला गया है. से सहमत हूं मैं भी. ताली की इस गड़गड़ाहट में दूसरे हाथ का योगदान वंचने से रह गया :)

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  22. इस बहाने ऊर्जा संरक्षण में कुछ तो हमारा भी योगदान हुआ।:)
    ---------
    मैं अभी तक तो स्‍वयं को शाकाहारी मानता रहा था, पर इस लेख को पढ़कर मेरी चूलें हिल गयी हैं।

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  23. अली सा! गरियाना अनुचित था, हटाना यथोचित. मॉडरेशन उचित... दुबारा आया यह टिप्पणी देने सिर्फ गिरिजेश राव जी का शुक्रिया कहने...
    आपकी तस्वीर पर उनके कमेण्ट की एक लाईन..
    सुबह सुबह जाने क्यों फटा सुथन्ना पहने राष्ट्रगीत गाता हरचरना याद आ गया। हम सब में भी बसता है लेकिन...
    उसी हरचरना का नाम तो कहीं शरद जोशी नहीं था?? या हो सकता है दिल्ली 6 का गोबर!!
    क्यों कई लोगों के सर से गुज़र गई यह पोस्ट! सर झुकाए बर्दाश्त करते जाने से यही होता है!! अली सा! दुबारा हाज़िरी लगा गया! रोक नहीं पाया!!

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  24. @ ज़ाकिर भाई ,
    ये जस्टीफिकेशन लगभग वैसा ही हुआ जैसे ग्लोबल वार्मिंग से निपटने का जिम्मा विकासशील देशों /अविकसित देशों के मत्थे मढ दिया जाए :)

    @ काजल भाई ,
    मुझे लगा कि ये हाथ इतना मज़बूत और स्थाई सा है कि दूसरे कमजोर और अस्थाई से हाथ को अँगुलियों के इशारे पे नचाता है बस इसीलिए इसे ही आगे कर दिया !
    वैसे मैं इसे 'श्रेय' की बजाये 'लानत' कहना चाहूँगा !

    @ चला बिहारी ब्लागर बनने,
    भाई ,आपकी प्रतिक्रिया का बहुत बहुत स्वागत !

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  25. बाकी के टिप्पणीकारों के लिए बन्धु विचारशून्य जी राह में एक जलता हुआ दीपक छोड गए, इसलिए हमारे आने तक अन्धेरा पूरी तरह से छट चुका :)

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  26. यह अन्धेरा भी गहन अर्थ दे रहा है ।

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  27. ek laghu samvaad ke madhyam se aapne is desh ki durdasha ka vistrat chitran pesh kiya, aapko sadhubad,

    badhai kabule...

    but still "I luv my India"

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  28. @ दिनेश भाई ,
    इन उजालों ? में हमारी तो बैंड बज जायेगी :)

    @ कोकास जी ,
    सही है , शुक्रिया !

    @ आलोक जी ,
    कमेन्ट के लिए शुक्रिया !
    "I luv my India"... मैं भी !

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  29. लगता है इलेक्शन डयूटी लगी है ....!शुभकामनायें !

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  30. @ सतीश भाई ,
    इलेक्शन ड्यूटी तो नहीं बस उससे मिलता जुलता कुछ और है :)

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  31. कहाँ तो तय था चारागा हरेक घर के लिए ,
    कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए ! [ ~ दुष्यंत ]

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