अनंत ब्रह्मांड की अरबों खरबों आकाश गंगाओं
में से एक, मन्दाकिनी के सर्पिलाकार बाह्य छोर पर अस्तित्वमान सौर परिवार और उसमें मौजूद, एक नन्ही, किन्तु खूबसूरत नील
ग्रह पृथ्वी, जीवन के इंसानी स्वरूप का, कदाचित अब तक ज्ञात, एक मात्र प्रतिनिधि
ग्रह है जोकि इंसानों के अस्तित्व रक्षण के लिए प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक
संसाधनों से लैस है और इन्हीं संसाधनों पर आश्रित रहते हुए, शताब्दियों से मनुष्य
का जीवन अस्तित्व बना हुआ है । यही कारण है कि इन नैसर्गिक संसाधनों पर कब्जेदारियों को लेकर मनुष्यों ने अनेकानेक राष्ट्र गढ़े हैं, बहु-देश
बनाये हैं, पारस्परिक सहिष्णुता विकसित की है और इसके
समांनातर असहिष्णुता के परकाले भी बन गये हैं ।
ब्रह्मांडीय दृष्टि से, यह विश्व, एक धरा, एक
भूखंड है किंतु मनुष्यों ने इसे खंड खंड कर बांट
रखा है, कथनाशय यह कि मनुष्यों की देहाकृति सह जीवन साम्य
के बावजूद मनुष्यों ने अपने लिए सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक भिन्नताओं की निर्मिती की है और वे जहां मौजूद हैं, उस
जगह से बाहर निकलकर किसी अन्य भूखंड अथवा देश के नैसर्गिक संसाधनों पर कब्जेदारियों की प्रत्यक्ष अथवा
छद्म मुहिम छेड़ने में निष्णात सिद्ध हुए हैं , वे अपने अस्तित्व रक्षण के लिए
दूसरे मनुष्यों के अस्तित्व को दांव में लगाने से नहीं चूकते, अतः सम्पूर्ण विश्व
और वैश्विक संसाधन, मनुष्यों की पारस्परिक कब्जेदारियों की इच्छाओं के अधीन, सदैव युद्ध जैसी स्थितियों में बने रहते हैं ।
बहरहाल साहित्य में भारतीय राष्ट्रीयता और
स्वतंत्रता आंदोलन के विषय में चर्चा करने से पूर्व यह स्मरण रहे कि यह चर्चा, आंग्ल युगीन दासत्व तथा उससे मुक्ति की कामना में किए गए
प्रतिरोध को संबोधित है, किन्तु आंग्ल युगीन दासत्व का कालखंड भारत के समेकित सामाजिक,
सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं करता है अस्तु
यह उचित होगा कि भारत में ब्रिटिश राज्य सत्ता
की स्थापना से पूर्व के समय का भी पूर्वावलोकन कर लिया जाये, सो मुगल या उससे बहुत पहले के भारतीय समाज में अन्य बहिरागत
जन-जत्थों के योद्धा स्वरूप आगमन के कारणों और उनके लक्ष्यों की चर्चा अपरिहार्य
है ।
विचारणीय प्रश्न यह है कि भारतीय स्वतंत्रता
आंदोलन को एक कालखंड विशेष में सीमित करने तथा उक्त कालखंड में रचे गए साहित्य में
उल्लिखित राष्ट्रीयता और मुक्ति आंदोलन पर विचारण, क्या भारतीय अस्मिता की
संपूर्णता का प्रकटीकरण करता है ? जिसके आधार पर भारतीय दासत्व और दासत्व से
मुक्ति का कथन किया जा सके ? यदि अतीत की ओर मुड़कर देखें तो पायेंगे कि प्राचीन
भारत की भौगोलिक सीमायें घटती बढ़ती रही हैं और इस भू-भाग विशेष में बसी हुई
जनसंख्या, किसी भी दौर में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक अथवा आर्थिक रूप से एक समान नहीं थी । वे लोग, लघु-भूखंडीय तथा सामान्यतः अ-लोकतांत्रिक, जन्म जन्मान्तर की विरासत परम्पराओं पर आधारित, रियासतों में
बसे हुए तथा अपने से भिन्न, अन्यान्य रियासतों से संसाधनगत अथवा बहुतायत से यौन
साहचर्य की आकांक्षाओं में लिप्त, युद्धरत, कुल, परिवार, समूह सह अधीनस्थ जनसमूह
थे ।
कहन ये कि तत्कालीन भारत में, देस तो अनेक थे, किंतु कोई एक महादेश अथवा राष्ट्र नहीं था। उल्लेखनीय
है कि आंग्ल युगीन भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की
चर्चा में, अतीत कालीन भारत की बहु-रियासती, राजतांत्रिक अधिसत्ताओं के मध्य अनायास,
सायास होने वाले युद्धों अथवा भारत नामित
अन्तः भू-खंडीय संग्राम की कोई चर्चा सम्मिलित नहीं है । ऐसा नहीं है कि उन दिनों, भारत में केवल
राजतंत्र थे और लोकतन्त्रों का कोई अस्तित्व नहीं था, चाणक्य और चंद्रगुप्त की
जुगलबंदी के दौरान, उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के गण राज्यों का उल्लेख, भारत की
लोकतांत्रिक अधिसत्ता प्रणाली का साक्षी है, जिसे राजतंत्र लील गया था । वस्तुतः यह देश तत्कालीन समय में युद्धरत देसों,
रियासतों का जीता जागता उद्धरण है जिनमें से अधिकांश किस प्रकार के स्वतंत्रता
आंदोलन में लिप्त थे यह कहना कठिन है ।
यहां धार्मिक, आध्यात्मिक, वैचारिक समृद्धि
की भिन्न परंपरायें मौजूद रही है किंतु उन
सब के दरम्यान असहिष्णुता का चरम भी देखने को मिलता है यथा पश्चिमी देशों के जैसा भौतिक
जीवन बोध रखने वाला लोकायती संप्रदाय पारस्परिक असहिष्णुता का शिकार होकर विलुप्त
हो गया है । अस्तु यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि प्राचीन भारत में राजतांत्रिक व्यवस्थाओं
के विरुद्ध मुक्ति आंदोलन अथवा कथित वैचारिक समृद्धि से मुक्ति या फिर उक्त
वैचारिक समृद्धि के अनुकरण को लेकर शताब्दियों तक संभ्रम, कुहासा व्यापित मिलेगा । इसके समान्तर यह तथ्य भी स्वीकारणीय है कि भारत, वैश्विक व्यवस्था से सर्वथा भिन्न, अलग रहा हो ऐसा
भी प्रतीत नहीं होता । सत्य तो यह
है कि वैश्विक जनसंख्या में भारत जैसी असमतामूलक राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और जन-बसाहटों
की व्यवस्था मौजूद रही है ।
बहरहाल वैश्विक परिदृश्य में ब्रिटिश, फ्रेंच
अथवा स्पेन या पुर्तगीज मूल के साम्राज्यवाद की उपस्थिति और इस उपस्थिति के
समानांतर वैश्विक परिदृश्य में भारत की साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, बाजारवादी गैर
मौजूदगी गौर तलब है । वे कौन से कारण हैं जो ब्रिटेन जैसा लघु द्वीपीय
देश तथा फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल और नीदरलैंड जैसे समुद्र तटीय लघु देश जोकि भारतीय संबोधन के अधीन उल्लिखित भूखंड के
समतुल्य या पासंग भी नहीं थे, पूरी की पूरी पृथ्वी को नाप बैठे । तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो भारत और इन सभी
लघु देशों की समुद्री तट रेखा की लंबाई में जमीन आसमान का अंतर है, किंतु छोटे-
छोटे यूरोपीय देश, विश्व में साम्राज्यवाद का प्रतीक बन गए और भारत अपने आंतरिक
कारणों से दासत्व का जीता जागता उदाहरण बन गया ।
यहां ये तथ्य उल्लेखनीय होगा कि ब्रिटिश,
स्पेनिश, पुर्तगीज और डच बसाहटों में भूमि
की न्यूनता थी जबकि भारत के पास तुलनात्मक रूप से विशाल भूखंड मौजूद था । यूरोपीय देश अपने अस्तित्व
रक्षण के लिए अधिकाधिक नैसर्गिक संसाधनों को जुटाने, व्यापार करने के और जीवन यापन
के लिए महासागरों की यात्राओं के लिए विवश थे।उन्हें अपने सीमित भूखंडों के इतर जीवन यापन के
संसाधन, समुद्र तथा विदेशी बाजारों से प्राप्त होते थे, जबकि भारतीय मूल की छोटी
बड़ी रियासतें, अधिकांशतः कृषि व्यवस्था और उपलब्ध संसाधनों के न्यूनतम स्तर पर
जीवन यापन हेतु संकल्पित बनी रही हैं, यद्यपि इस संकल्प में कतिपय समुद्र तटीय क्षेत्र
सम्मिलित नहीं हैं, जहां मत्स्य आखेट किया जाना, अपरिहार्य प्रतीत होता है ।
जहां यूरोपीय देश, जीवन के लिए सतत संघर्ष की
योजना के अधीन अपने समुद्री जहाजी बेड़ों को मजबूत और अधुनातन कर रहे थे, वहीं
भारतीय जनमानस, अन्य देशों, बहिरागत बाज़ार गमन हेतु वांछित समुद्री यात्राओं के
लिए धर्म-च्युत, पतित हो जाने के संकट और आशंकाओं से मार्ग दर्शन
प्राप्त कर रहा था । वो नितांत, धार्मिक कारणों से समुद्री अथवा विदेश यात्राओं पर निकलना ही नहीं चाहता था, अतः उसे, मजबूत, अधुनातन नौ-सैन्य बेड़े की आवश्यकता ही नहीं
थी । स्पष्ट है कि यूरोपीय देशों के बरक्स भारत, समुद्री यात्राओं और उनके समर
तंत्र से मुंह फेर कर बैठा था जबकि यूरोपीय देश अपने अस्तित्व की रक्षा के नाम से समुद्र पर अधिकार को अपनी प्राथमिकता मानकर
चल रहे थे, सो यूरोपीय लघुता के पास भारतीय (खंड खंड) विराटता के विरुद्ध समुचित
समुद्री समरतंत्र, परिवहन तंत्र मौजूद था, अतः भारत, दासत्व के लिए अभिशप्त देश हो
कर रह गया ।
छोटे छोटे यूरोपीय देशों ने अपनी ताकतवर नौसैन्य
शक्ति के दम पर, पहले पहल विश्व व्यवस्था में मौजूद, समृद्ध वैश्विक अर्थ तंत्र सह
बाज़ारों को खोजा और बाद में बाजारों पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली । उन्होंने उपनिवेश बनाये और इसी तर्ज पर भारत
उपनिवेश होकर रह गया । वे भारत के
बाजारों में गरम मसाले तथा अन्यान्य सामग्री खरीदने आते थे और धीरे धीरे अधिकांश
भारतीय रियासतों के अधिनायक हो गये । अतः भारत
में आंग्ल युगीन स्वतंत्रता आंदोलन की चर्चा करने से पूर्व यह चर्चा आवश्यक है कि
पूरे विश्व में मौजूद जनसंख्या ने अपने लिए अलग-अलग भूखंडों की राष्ट्रीयतायें कैसे गढ़ीं और क्यों कर गढ़ीं ? भिन्न
राष्ट्रीयताओं के लिए उपलब्ध, प्रतिनिधि भूखंड पर मौजूद नैसर्गिक संसाधनों पर बसी
हुई जनसंख्या के अस्तित्व रक्षण का भार होता है । अतः प्रत्येक राष्ट्रीयता अपने नैसर्गिक
संसाधनों के इतर अन्य भूखंडों अथवा अन्य राष्ट्रीयताओं की आर्थिक गतिविधियों में लिप्त
होकर, उनके नैसर्गिक संसाधनों पर प्रथम दृष्टया काबिज होने की चेष्टा करती हैं और
ऐसा ही आंग्ल युगीन भारत में भी हुआ ।
वे व्यापार करने आए थे, उन्होंने बाजार ढूंढा
और फिर बाजार के नैसर्गिक संसाधन स्रोत भूखंड पर कब्जा जमा लिया, इस कारण से स्रोत भूखंड पर पहले से मौजूद और अपने अस्तित्व
के लिए निर्भर जनसंख्या, दासत्व के लिए अभिशापित हो गई । इसीलिए राज्य सत्ता की स्थापना से पूर्व और
राज्य सत्ता की स्थापना के कारणों के तौर पर हमें मूलतः संसाधनगत और बाजारगत मुद्दों
की चर्चा करना होगी और यह भी स्वीकार करना होगा कि वे, मनुष्यों के आर्थिक हित ही
हैं जो किसी एक राष्ट्र अथवा देश को दासत्व स्वीकार करने पर विवश करते हैं । गौर तलब है कि अन्य
यूरोपीय देशों की तुलना में ब्रिटिश व्यापारी, वैश्विक बाजारों, नैसर्गिक संसाधनों, पर कब्जा करने में अधिक सफल रहे और
साम्राज्यवादियों में उनका स्थान सर्वोपरि रहा ।
उन्होंने भारतीय मूल की अनेकों रियासतों में,ना केवल नैसर्गिक संसाधनों की लूट की
बल्कि कालांतर में नैसर्गिक संसाधनों वाले भू-क्षेत्रों में शासक भी बन गए । ऐसे में आंग्ल साम्राज्य के विरुद्ध
स्वतंत्रता आंदोलन को, मूलतः अंग्रेजों के आधिपत्य से, अपने भूखंड के नैसर्गिक
संसाधनों की मुक्ति का संग्राम माना जाना चाहिए, वे व्यापारी थे, उनके आर्थिक हित
थे और भारत की अधिकांश रियासतें प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश बाजारवादी
हितों को पूरा करने वाली चेरियों के तौर पर देखी जाना चाहिये । भारतीय रियासतों और आंग्ल प्रबंध तंत्र के
अधीन, नैसर्गिक संसाधनों की लूट के विरुद्ध भारतीय जनमानस का विरोध स्वाभाविक था,क्योंकि उन्हें स्वयं अपनी और आगत पीढ़ियों की अस्तित्व रक्षा के लिए अपने
नैसर्गिक संसाधनों की मुक्ति आवश्यक प्रतीत हो रही थी,अतः ब्रिटिश सत्ता जोकि
संख्या बल के आधार पर केवल प्रातीतिक सत्ता थी,उसे उखाड़ फेंकना था।
यद्यपि ऐसा करने में भारतीय जन गणों को शताब्दियां लगीं, क्योंकि वे आंतरिक रूप से परस्पर भिन्नता के सम्मोहन से पीड़ित थे, उन्हें आंग्ल सत्ता के
लोकतंत्रवाद को स्वीकारने में समय लगा, उन्हें यह समझने में भी समय लगा कि
अंग्रेजों की राजनीतिक सत्ता निर्बल सत्ता है, जबकि उसकी नीयत में बसा हुआ,
बाजारवाद सह नैसर्गिक संसाधनों का दोहन, भीषण है, अतः भारत में राष्ट्रीयतावाद की
धारणा के स्वीकरण के लिए यूरोपीय
राष्ट्रवाद का अभिवादन और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए, भारतीय नैसर्गिक संसाधनों की
लूट को रोकने के विचार के लिए कतिपय रियासतों के शासकों, नाममात्र के मुग़ल शासकों, झांसी की मराठा अधिसत्ता के ध्वंसावशेष
और अन्यान्य जागरूक प्रतिनिधियों के जैसी अकुशल सैन्य टुकड़ियों, अनियोजित गठजोड़ तथा भारतीय खेतिहर मजदूरों का वंदन,
जिन्होंने सर्वप्रथम आंग्ल व्यापारियों को खदेड़ने का उपक्रम शुरू किया ।
कालांतर में महात्मा गांधी और उनके समानांतर जन-नेतृत्व
ने इस मुहिम को धार दी । सो आंग्ल युगीन सत्ता के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम, वस्तुतः राजनीतिक स्वतंत्रता
संग्राम बाद में है, प्रथमत: वह बाजारवाद से मुक्ति, आर्थिक शोषण से मुक्ति और
अपने कब्जे के भूखंड के नैसर्गिक संसाधनों की मुक्ति तथा आगत पीढ़ियों के सुरक्षित
जीवन की आश्वस्ति के तहत लड़ा गया युद्ध है, प्रतिरोध है, विश्व में ऐसी घटनायें
सामान्यत: घटती रहती हैं क्योंकि जन-बसाहटें, अपने
भूखंड के प्रति देश अथवा राष्ट्रीयता के भाव से जुड़ी होती हैं और वे अपने भूखंड
के नैसर्गिक संसाधनों पर अपने कब्जे की सुरक्षा के भाव से, बाहरी शक्तियों तथा उनके
आक्रमण के प्रति सचेत बने रहते हैं । यद्यपि संभव है कि बाह्य शक्तियां, बाजार के रूप में किसी विशिष्ट भूखंड अथवा देश पर अपनी
अप्रत्यक्ष कब्जेदारी बना चुकी हों।
किन्तु विश्व में ऐसा कोई देश नहीं है, जिसने अपने जीवन
के सुदीर्घ समय में अपने भूभाग की सीमाओं के घटते बढ़ते रूप का साक्षात नहीं किया
हो, अतः भारत ने भी ब्रिटिश, उपनिवेशवाद, बाजारवाद से मुक्ति के समय द्वि-राष्ट्रवादी
पीड़ा को भुगता है और अपने लिए निर्धारित, आश्वस्ति के भूखंड को कम होते हुए देखा
है, अतः दुनिया में राष्ट्रों के पुनर्गठन, जुड़ाव और टूटन को प्रथमत: आर्थिक
कारणों से जोड़कर देखा जाना चाहिये, तदुपरांत आर्थिक हितों की रक्षा के लिए
निर्धारित की गई, राज्य सत्ता से मुक्ति अथवा नई राज्य सत्ता की स्थापना की बात की
जानी चाहिये ।
दासत्व से मुक्ति के आर्थिक और राजनैतिक
आयाम के इतर यह तथ्य ध्यातव्य है कि आंग्ल युगीन भारतीय समाज ने ब्रिटिश समुदाय को
विकास और आधुनिकता का प्रतीक मानते हुए, स्वयं के दोयम दर्जा होने की जो मनःस्थिति
स्वीकार कर ली थी, वो आज भी विद्यमान है अतः दासत्व की पूर्ण विदाई अथवा देश की
आद्योपांत स्वतंत्रता की बात बेमानी मानी जायेगी । यह सत्य है कि चन्द्रगुप्त काल
के गण राज्यों के पतन के बाद, भारत को, अंग्रेजों से विरासत में लोकतान्त्रिक
राजनीतिक प्रणाली मिली और प्राचीन भारतीय लोकायती अथवा चार्वाक दर्शन परम्परा की
चिता में, शेष राख से, आंग्ल-यूरोपीय तर्ज का, भौतिकतावादी फीनिक्स पुनः जी उठा ।
आध्यात्मिकता और चार्वाक दर्शन परम्परा के पारस्परिक द्वन्द्व में निष्प्राण हो गये, चार्वाक दर्शन का पुनर्जन्म, आंग्ल दासत्व का नव प्रतीक है अथवा प्राचीन भारत की लुप्तप्राय वैचारिक विरासत की पुनर्स्थापना ? स्पष्ट रूप से कह नहीं सकते कि स्वतंत्र भारत के आगत समय के लिए सुनिश्चित यह वैचारिक द्वन्द्व, अंग्रेज साम्राज्यवादी छोड़ कर गये हैं अथवा यह भारतीय सामाजिक अंतर्विरोधों की आत्मा में मूलतः निष्पंद किन्तु आंग्ल सत्ता में निहित प्रेरणा से पुनः जीवित हो जाने के लिये प्रतीक्षारत था । बहरहाल अंग्रेजों की आर्थिक, राजनैतिक आयामों वाली विदाई के बाद की भारतीय स्वतंत्रता में, अंग्रेजों के, सांस्कृतिक, सामाजिक वर्चस्व का सम्मोहन अब भी शेष है और यह भी, परतंत्रता का ही एक रूप है ।
आंग्ल-युगीन अनेकों रियासतें और जन-गिरोह अंग्रेजों की विदाई के विरोध में थे और तब बहुतेरे जन गण और रियासतें, अंग्रेजों की विदाई तथा स्वशासन के पक्ष में । अंग्रेज वैमनस्य और विभाजन के कांटे बो कर गये, भारतीय नस्लें, पीढ़ियों तक उसका परिणाम भुगतेंगी कदाचित यह मुक्ति संग्राम चिरकाल तक जारी रहे...और हां, साहित्य का क्या ? वो तो घटित घटनाक्रम का प्रतिरूप होता है , आगे भी होता रहेगा ।