असल में मनुष्य के जागतिक जीवन की चर्चा को किसी कालखंड विशेष में स्थिर और अपरिवर्तनीय रूप में देखने का आग्रह, कपियों के लाक्षणिक स्वभाव के क्रमशः परित्याग से लेकर मनुष्यता के सतत उन्नयन वाले प्रवाह के साथ अन्याय करने जैसा होगा। हमने अपनी जीवनचर्या को किसी भी समय में स्तब्ध अथवा स्तंभित नहीं होने दिया, हम बहते रहे सदैव अपने बेहतर की आकांक्षा में। अस्तु हम जब भी इक्कीसवीं शताब्दी के लोक जीवन पर कोई कथन करना चाहेंगे, हमें अपने अतीत का क्रमिक पुनरावलोकन करना ही होगा और तब हम, वर्तमान के लोक जीवन के वैविध्य तथा वैषम्य, सहजता और समस्त असहजताओं, सौम्यता एवं क्रूरताओं, प्रेम सह घृणा की मिली जुली विरासत के बखान में निष्पक्ष बने रह पायेंगे।
हमारी जीवन शैली, हमारी सांस्कृतिक उपलब्धियां, हमारी तकनीकी दक्षतायें, हमारे सहकार और असहकार, हमारे जीवन अनुभव, सभी के सभी अतीत की बुनियाद पर टिके हुए हैं और भविष्य में जब हमारा वर्तमान भी अतीत हो जाएगा तब भी हमारे अनुभवों का संचयन हमारे लोक जीवन को न्याय पूर्ण ढंग से परिभाषित करने में सहायक सिद्ध होगा। कथनाशय यह है कि धरती पर अवतरित होने से लेकर आज तक हमारे लोक जीवन की छटा एक जैसी नहीं है, यह बहुविध और बहुरंगी है। सरलता से जटिलता की ओर, हमारे निरंतर बौद्धिक विकास को इंगित करती हुई। यदि हम लोक जीवन शब्द पर कोई बहस छेड़ना चाहें तो धरती पर मानव जीवन के विकसित होने के सुदीर्घ समय में, मनुष्य की बहु-सांस्कृतिक, गीत संगीत नृत्य जैसी अभिरुचियों, खान पान और अन्यान्य अभिरुचियों, राजनैतिक, आर्थिक चेष्टाओं, सह तकनीकी अनुभवों को उनके समेकित रूप में आकलित करना होगा।
मनुष्य के उल्लास, विषाद, आशावादिता और नैराश्य, सफलताओं और असफलताओं के किसी एक पक्ष और विशिष्ट कालखंड को लेकर हमारे निष्कर्ष, लोक जीवन के साथ सम्यक न्याय नहीं कर सकते अतः हमारी विवेचना, कहनीयता को मनुष्यता के समस्त इतिहास को संबोधित करना होगा अन्यथा हमारे विवरण आधे अधूरे और एकांगी माने जायेंगे । मिसाल के तौर पर एक समय था जब हमने ईश्वर का सृजन किया, कभी प्राकृतिक शक्तियों के रूप में, कभी निराकार और साकार की परिकल्पना बतौर। उक्त कालखंड में हम ईश्वर के सृजनहारे थे और उसकी परम शक्तिमत्ता के नियंता भी, किन्तु यह समय ईश्वर के प्रति, हमारे सम्पूर्ण समर्पण का समय था। यानि कि हम अपनी ही निर्मिती के प्रति सम्मोहित भी थे और उस पर आश्रित भी। इसे किसी साहित्यकार, कलाकार की निज रचना के प्रति मुग्धता के भाव साम्य से जोड़ कर देखा जा सकता है जोकि उसके पुरस्कृत अथवा दण्डित होने का कारण बन सकती है।
मनुष्य के इहलौकिक अनुभवों का पारलौकिक विस्तार एक मायने में अद्भुत है कि सृजनहारा अपनी ही कृति से सहायता की अपेक्षा करता है और दूसरे मायने में, बदले हुए समय में अत्यधिक अवांछित, जहां कृति बाहुल्य, बहु-ईश्वरीयता अथवा एकल ईश्वरीयता के प्रकट, अप्रकट रूपजाल में उलझ कर, लोक जीवन ने लोक जीवन के विरुद्ध खंदके खोद ली हैं, भू-सांसारिक जीवन से असामयिक पारलौकिक जीवन की ओर प्रस्थान की व्यवस्था कर ली है। इसे हम मनुष्यता से पुनः पशुवत जीवन की ओर प्रस्थान का बिंदु भी मान सकते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि परम शक्तिशाली माने गए ईश्वर से सहायता का आकांक्षी मनुष्य आज के समय में ईश्वर के प्राणों का संरक्षक बन बैठा है।स्पष्ट तथ्य यह है कि अतीत काल में ईश्वरीयता की निर्मिती और शक्तिमत्ता की समझ ईश्वर के निरीह और लाचार होने तथा निज अस्तित्व की रक्षा के लिए मनुष्य की गोद में दुबके हुए ईश्वर वाली समझ में बदल गई है।
लोक जीवन में जो वर्तमान है, वह अतीत के अनुभवों, ज्ञान का विस्तार मात्र है । मिसाल के तौर पर, हमारे लिए समय की धारणा, एक कृत्रिम विचार है, जो भौतिक रूप से घटित ब्रह्मांडीय परिवर्तनों पर आधारित है और जिसे हमने अपने जीवन व्यवहार के निर्धारण के लिए गढा है, स्वीकार कर लिया है। असल में हमारे जीवन परिवर्तनों को अभिव्यक्त करने हेतु, वास्तविक रूप से घटित ब्रह्मांडीय घटनाओं की सतत आवृत्तियों और उन पर आधारित हमारे अवलोकनों ने हमारी बहुत सहायता की है, हमने समय की काल्पनिक धारणा को इस तरह से स्वीकार किया, जो हमारे जीवन के आद्य बिंदु से लेकर वर्तमान तक के जीवन अनुभवों को अभिव्यक्त कर सके। अर्थात समय जो कि वस्तुतः एक काल्पनिक विचार है, हमारे क्रमिक ज्ञान संचय को क्रमशः प्रकटित करता है और अतीत से वर्तमान तक की, हमारी जीवन शैली के वास्तविक परिवर्तनों को कहता चलता है। हमारे लिए ब्रह्मांड, समय से बंधा हुआ है और उसका जीवन परिवर्तन हमारे जीवन परिवर्तन को कहने में हमारी सहायता करता है । कहने का मंतव्य यह है कि हमारी भौतिक रूप से घटित ब्रह्मांडीय परिवर्तनों वाली समझ हम और हमारे लोक जीवन पर भी लागू होती है और हम निरंतर परिष्कृत होते चलते है।
लोक जीवन के इक्कीसवीं शताब्दी में होने से हमारा आशय यह है कि समय जो इतिहास है, ने इसे कच्चेपन से परिपक्वता का बोध दिया है। सरल जीवन शैली, सरल वैज्ञानिक समझ, सरल उत्पादन विधियां, सरल अभिरुचियां, सरल सांस्कृतिक सामाजिक अभिरुचियां जटिलताओं में बदली हैं। श्रम विभाजन का मशीनीकृत एक्य, सावयवी, विशेषीकृत बहुविध संश्लिष्ट अनेकता में बदल गया है। अस्तु इक्कीसवी शताब्दी के लोक जीवन की चर्चा, अद्यतन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक भौतिक परिवर्तनों, वैचारिक, बौद्धिक तकनीकी उन्नतियों और विषमताओं से परिपूर्ण जीवन शैली के रूप में ही की जानी चाहिए। आज के लोक जीवन में असहमतियां हैं, सांस्कृतिक विशिष्टताओं का मशीनीकरण है, इसे इतिहास की परिधि और उत्पादन विधियों खासकर मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों से पृथक कर के नहीं देखा जा सकता। खान पान, रहन सहन, वेशभूषा, आदतों, कलाओं, साहित्य सृजन, प्रेम, अप्रेम, यहां तक की, जोड़ीदार चुनने के अवसरों में बढ़ती हुई जटिलता, एक्य का टूटना और विविधता का स्वीकार आज का लोक जीवन है।
हम वर्ग साम्य से वर्ग वैषम्य की ओर बढे हैं सो मनुष्य के नैसर्गिक लक्षण, यौनाचार तथा बहुजातीय जोड़ीदार की समझ और उस समझ का प्रतिरोध, धार्मिकता बनाम नास्तिकता, भाषाई सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता, शाकाहार बनाम मांसाहार, सबके सब एक ही समय में मौजूद हैं। अतः जब भी हम आज के लोक जीवन की बहस छेड़ेंगे, मनुष्य को मनुष्य के साथ, सह विरुद्ध खड़ा पायेंगे। यहां संगीत, नृत्य, गीत, सुर, ताल, लय, धर्म, ज्ञान विज्ञान, आर्थिक उपलब्धियां, मित्रता, शत्रुता सबके सब एक दूसरे साथ भी हैं और विरुद्ध भी। हम विरोधाभाषों के कालखंड में हैं सो हमारा लोक जीवन,एक दिख कर भी अनेक है।वो हम मे है, सो हमारे जैसा है अटूट होकर, खंड खंड भी...
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